Charitrahin - 2 in Hindi Short Stories by Deepak Shah books and stories PDF | चरित्रहीन - 2

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चरित्रहीन - 2

चरित्रहीन

भाग 2

सब अपने-अपने काम में जुट गए। धर्मभोज की तैयारी ज़ोर-शोर से होने लगी। मैंने सोचा बाबा को अकेला देख कर उनसे बात करूंगा और इन पापियों का पर्दा फ़ाश करूंगा। मेरे ज़िम्मे बाग़ से पानी भरने का काम था। मैंने बाग़ में जा कर माता को और उस व्यापारी को आश्वासन दे कर आना ठीक समझा। मैंने उन दोनों को और थोड़ी देर और मेरा इंतज़ार करते रहने को कहा। फिर मैं पानी भरने के काम पर लग गया। शाम होते तक धर्मभोज को तैयारी पूरी हो चुकी थी और ब्राह्मण आने लगे थे। द्वार पर मंदिर ट्रस्ट के सभी सदस्य अपनी पत्नियों के साथ आने वालों के स्वागत के लिए खड़े थे। कुछ ही देर में लगभग सभी मेहमान आ गए। हर टोले के मुखिया और सभी महंत को लेकर बाबा जी अंदर चले गए। सभी ट्रस्टी भी अंदर चले गए। हॉल के बीचों बीच हवन वेदी सजी थी। धर्मभोज से पहले हवन का आयोजन था। जब तक गणमुख्य हवन करने में मसरूफ़ थे तब तक सभी साधू, सन्यासियों को उनके गुरुओं ने मन ही मन गायत्री का जाप करने को कहा। अपने अपने गुरु की आज्ञा मान कर सभी साधू-सन्यासी बिछी हुई टाट पर कतार में आँखें मूँद कर बैठ गए। रंगरूटों पंगत के लिए टाट बिछाने और पत्तल लगाने में लगे थे। सेवक मेहमानों का ख़याल कर रहे थे साथ ही हम लोगों के काम पर निगरानी रख रहे थे। अभी कुछ दस मिनट ही गुज़रे होंगे हवन के मंत्रों की आवाज़ आने लगी। आवाज़ क्या थी घण्टाघर का घण्टा थी। उसको सुनते ही धीरे-धीरे बाहर बैठे साधू-सन्यासियों की आँखें खुलने लगीं। फिर धीरे-धीरे वो आपस में फुसफुसाने लगे। कोई खै़नी रगड़ने लगे। दो-चार बेचारे जैसे तैसे खुद को रोके हुए थे। वो बीच-बीच में आँख खोलते और फिर आँख मूँद कर ध्यान में मगन हो जाते। कोई कोई अपने साथी को भी गायत्री पाठ करने की सलाह दे देता था। उस समय वो संतों का टोला कम किसी चौंक बाज़ार की भीड़ ज़्यादा लग रही थी।

आश्रम के द्वार आज खुले हुए थे। ताकि आते जाते लोग संतों के दर्शनों का लाभ ले सकें। सभी अपने-अपने कामों में लगे थे तभी मुख्य द्वार से हल्ले की आवाज़ आई। सभी सेवक उस ओर लपके। मैं भी दौड़ा। द्वार पर कुछ मांगने वाले आ गए थे जिनको सेवक दयाराम झिड़क के भगा रहे थे। “भाग साले! भाग यहाँ से। कहा न धर्मभोज के बाद आना। जो बचेगा सब बांट देंगे। पुण्य कमाने से हमे कोई ऐतराज़ नहीं है।” ये कहते हुए दयाराम द्वार पर खड़े आदमी औरतों को धक्का दे रहा था। तभी मेरी नज़र भीड़ में खड़ी माता और उस आदमी पर गई। मैं दौड़ कर आगे आया। “दयाराम जी उनको आने दो। उन्हें मैंने बुलाया है।” मैंने दयाराम से निवेदन किया। दयाराम ने कटाक्ष भरी नज़रों से मेरी तरफ देखा, “अच्छा! तूने बुलाया है। और तू कौन है यहाँ? अपना तो ठिकाना नहीं है और भिखारियों को न्योते दिए जा रहे हैं।... बड़ा आया... मैंने बुलाया है। चल भाग अंदर और अपना काम कर।” कह कर दया राम ने मेरा बाजू पकड़ कर झिड़क दिया। मैंने उससे फिर निवेदन किया। “साला जब से आया है नाक में दम कर रखा है”, कह दयाराम ने मुझे बाहर धक्का दे दिया, “इतने सगे हैं तो चल भाग यहाँ से और जा के खड़ा हो जा उनके साथ।” मेरे सब्र का बाँध टूट गया। मैं उठ का दयाराम पर पिल पड़ा। हम दोनों बुरी तरह गुथमगुत्था हो गए। हम किसी के छुड़ाए से नहीं छूट रहे थे। जो बीच में आता उसको भी दो चार लग ही जातीं थीं। किसी ने जा कर बाबाजी को हमारी लड़ाई की ख़बर दी। हमारा झगड़ा इतना बढ़ गया के बाबा जी को हवन की आख़री आहुतियाँ डालनी मुश्किल हो गईं।

झगड़े की ख़बर सुन कर भोला और उसके साथ एक दो महंत बाहर आए। उन्होंने मुझे और दयाराम को पकड़ा और अंदर ले गए। पकड़ा तो मुझे ही था। दयाराम पीछे चलता हुआ आया। प्रवेश करते ही बाबा जी ठीक हमारे सामने बैठे थे। उनके आगे हवन कुण्ड था और बाकी सब कुण्ड के इस तरफ दरवाज़े की तरफ पीठ किए बैठे थे। अंदर जाते ही दयाराम दौड़ के बाबा जी के चरणों में गिर गया। “गुरु जी, मैं शूद्रों को द्वार से भगा रहा था। ये कमीना आया और मुझसे भिड़ गया।” बाबाजी ने मुझे घूरा। मुझे यक़ीन था बाबाजी धर्म का साथ देने वाले हैं। मैंने हाथ जोड़ कर कहा, “बाबा जी ये सरासर गलत है। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। मैंने तो बस दो तकलीफ़ के मारों को आपकी शरण में बुलाया था। और उन ही को अंदर आने देने की इजाज़त मांग रहा था। बस इसी पर दयाराम हाथा-पाई पर उतार आया।... आप किसी से भी पूछ लीजिए।”

“दयाराम बोल!” भोला ने गरज के कहा।

“मैं झूठ नहीं बोल रहा बाबा जी। आप किसी को भी पूछ लीजिए।” बाबा चुपचाप सब सुन रहे थे। आप ही हमारा न्याय कीजिए।”

वहाँ बैठा हर शख़्स पलट कर मुझे हिकारत की नज़र से देख रहा था। पर बाबा जी के सामने बैठे होने के कारण कोई पूरी तरह से पलट नहीं रहा था। बाबाजी बोले, “किससे पूछ कर तूने शूद्रों को आश्रम में आने का न्योता दिया?”

“मैंने तो उनको आपकी शरण में आने को कहा था। बाबा जी हमारे यहाँ तो कोई जात-पात नहीं होती। हमारे ट्रस्टी साहब भी तो कनोजिया हैं। और वैसे भी बाबा जी वो शूद्र नहीं हैं। एक ब्राह्मण है और दूसरा कोई व्यापारी है, बनिया है।” मुझे समझ नहीं आया मेरी बात सुन कर सब लोग एक दूसरे की शक़्ल क्यों देखने लगे। बाबा जी का चेहरा तमतमा गया।

तभी एक दम भोला मुझ पर गरज पड़ा “बकवास बंद कर! तू कौन है किसी को गुरुजी की शरण में बुलाने वाला। उनकी शरण में आने के लिए उनकी मर्ज़ी और कृपा चाहिए”, फिर बाबाजी को देख कर हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।

“किस से पूछ कर उनको तूने हमारी शरण में बुलाया?”

“बाबा जी दोनों पर ज़ुल्म हुआ है और दोनों ही कई दिन से आपसे मिलना चाहते हैं। मैंने तो बस उनको आपकी धर्मपरायणता का यक़ीन दिला कर यहाँ आने को कहा था।”

“बुला उन दोनों को।” बाबा जी ने कहा। अभी मैं पलटने को ही था के बाबा फिर बोले, “तू रुक! जा भोले तू उनको बुला के ला।... अगर इसकी बात गलत हुई तो तेरी ख़ैर नहीं।” मैं हाथ बांध के वहीं खड़ा हो गया।

दो मिनट में भोला उनको ले कर अंदर आया। अभी उन्होंने हॉल के अंदर कदम ही रखा था कि कोई भीड़ में से चिल्लाया, “ये तो वही कुलटा है जिसके गंदे साएं से उस दिन बाबा अखण्ड योगी जी ने मंदिर को दूषित होने से बचाया था।” अखण्ड योगी ने उसकी तरफ देख कर फुफकार मारी।

मैं बोला, “नहीं बाबा वो कुलटा नहीं है।”

अब बाबा ने मुझे घूरा, “अच्छा तो अखण्ड योगी भी गलत है।”

“मैं ऐसा नहीं कह रहा बाबा जी। मेरा मतलब तो कुछ और था।”

“क्या था तेरा मतलब?”

तभी वो औरत बोली, “माहराज जी! हम तो गाँव से अपने पण्डित जी और बच्चों के साथ ही सहर आए थे। सोचा था किसी मंदिर में पण्डिताई कर के गुज़र कर लेंगे। पर किसी जालिम ने पण्डित जी को अपनी गाड़ी के नीचे कुचल के मार दिया। इसमें हमारा क्या क़ुसूर?”

माता की ये बात सुन कर आगे बैठे सत्यनारायण ने हैरानी से पलट कर देखा। उसको देखते ही माता के मुँह से चीख निकल गई। वो चिल्ला के बोली, “यही है वो राकसस। इसने ही अपनी पण्डित जी को अपनी गाड़ी के नीचे कुचल दिया था।”

माता की बात सुन कर मैं सन्न रह गया। और वो ट्रस्टी बौखला गया। बाबा जी ने चीफ ट्रस्टी के कन्धे पर हाथ रख के मेरे साथ खड़े व्यापारी को कहा, “और तू बोल कि तेरे क़ुसूरवार सहाय साहब हैं।” धर्मपाल ने पलट कर देखा। उसको देख कर वो व्यापारी और धर्मपाल दोनों चौंक गए। दोनों के चेहरे देख कर ऐसा लगा कि बाबा जी ने सच कहा है। मुझे यक़ीन हो चला था बाबा जी अंतर्यामी हैं और वो न्याय करेंगे।

व्यापारी बोला, “महाराज मैं झूठ नहीं बोलूँगा... ये ही वो कमीना है जिसने मेरे तीन लाख रुपये मार रखे हैं। इसकी वजह....” उसकी बात सुन कर एक पल को बाबाजी का रंग फ़क़ पड़ गया। तभी बाबा जी चिल्लाए, “बस! बंद करो अपनी बकवास।... इतने धर्मात्मा लोगों पर ऐसे आक्षेप। शर्म नहीं आती तुम दोनों को।... मंदिर की सेवा में लगे धर्मपाल जी को अगर तेरा पैसा देने में ज़रा वक़्त लगा गया तो तू उनको कमीना कह रहा है।...” बाबा की बात सुन कर व्यापारी बोला, “बाबा जी मेरे बच्चों को स्कूल से निकाल लेने की नौबत आ गई है।” उसकी बात पर बाबा जी और ज़ोर से गरजे, “चुप कर पापी। तेरे बच्चों की पढ़ाई लक्ष्मी-नारायण जी मूर्तियों से ज़्यादा बड़ी है। मूर्ति स्थापना के बाद यहाँ आता प्रभु का आशीर्वाद लेता। सब सही हो जाता। और तू (माता को) ... तुझे अपने आदमी की गलती नहीं दिखी जो अन्धों की तरह सड़क पर चल रहा था।... कूद पड़ा गाड़ी के आगे। सत्यनारायण जी जैसे नेक आदमी जो काम धंधा छोड़ कर आश्रम की सेवा के लिए सामान ख़रीदने जा रहा था वो तुझे राक्षस दिखाई देता है।... मुझे पता है तुम लोगों की ज़ात। पैसे कमाने के लिए तुम लोग ऐसे ही काम करते हो।”

बाबा जी की बातें सुन कर मैं दंग हो गया। उनको दोनों घटनाओं के बारे में सब कुछ पहले से ही पता था। यानि वो कोई अंतर्यामी नहीं थे। उससे भी ज़्यादा दंग मैं इस बात पर था कि बाबाजी बजाए ट्रस्टीओं को कुछ कहने के माता और व्यापारी को गलत ठहरा रहे थे। मैं इसी सोच में था कि बाबा जी मुझसे मुख़ातिब हुए, “और तू!...” भोला ने मेरा हाथ पकड़ के मुझे झकझोड़ा। मैं जैसे नींद से जागा। बाबा बोले, “हाँ तू!... लगा दूँ इनकी वजह से आश्रम को ताला? बंद कर दूँ लोगों के लिए ये धर्म के द्वार? बोल!... हरामज़ादा! जब से आया है पूरे आश्रम का सिर दर्द बना हुआ है। और आज मसीहा बन कर आश्रम के लिए ये दो पनौतियाँ भी पकड़ लाया।...... अब इस आश्रम को आग भी लगा दे।...” जी तो मेरा भी कुछ ऐसा ही कर रहा था। पर मैं जानता था कि इतनी भीड़ के आगे मेरी एक नहीं चलने वाली। बाबाजी ने वहाँ बैठे लोगों से पूछा, “आप लोग कहिए इन तीनों के साथ क्या करें।”

बाबा का इतना कहना था कि हर आदमी के अंदर का धर्म गुरु जाग उठा। हर कोई हमारे ख़िलाफ़ बोल रहा था। बीच में से एक आवाज़ आई, “इन तीनों धर्मद्रोहियों को पुलिस के हवाले कर दो।” हम तीनों ठगे से खड़े रह गए। बाबा फिर बोले “मैं नहीं चाहता इस पवित्र दिन पर पुलिस के कदम आश्रम में पड़ें। भोला इन तीनों को आश्रम से दफ़ा कर। और इतनी दूर तक खदेड़ कर आईयो के पलट कर देखने पर भी इनको आश्रम के दर्शन ना हों। सालों ने आश्रम अपवित्र कर दिया।” बाबा बोला।

बाबा न इतना कहा और महंतों का टोला हम पर पिल पड़ा। हम तीनों वहाँ से जान बचा कर भागे। काफ़ी दूर तक महंत और सेवक हमार पीछा करते रहे। जिसका हाथ पड़ता वो हमे थप्पड़-लात जड़ देता। कोई उठा कर पत्थर मारता। कोई हाथ की लकड़ी फेंक के मारता। हम तीनों बेतहाशा भागते जाते थे। भागते-भागते हम लोग मोहल्ले के आगे वाली बस्ती में घुस गए। वहाँ की संकरी गलियों में उन तथाकथित धार्मिकों का मोटा धर्म उनको घुसने नहीं दे सकता था। सो वो लोग उसकी हद पर आ कर रुक गए और हम लोगों को गालियां बकने लगे। ये देख कर भी के वो लोग रुक गए हैं डर के मारे हम लोग भागते रहे। तब तक जब तक थक कर गिर न पड़े।

कोई रहगुज़र यहाँ मंज़िल तलक नहीं जाती

चलता हुआ मैं आ किस दयार में बैठा हूँ

हर इक चेहरे पे धरे हैं यहाँ सो सो निक़ाब गोया

तेरी बज़्म नहीं किसी बाज़ार में बैठा हूँ

पुश्त पे उठाए फिरता हूँ इसे कई ज़मानों से

जानता हूँ सांयां-ए-दीवार में बैठा हूँ

रहगुज़र = रास्ता, दयार = शहर, गोया = मानो, बज़्म = महफ़िल, पुश्त = पीठ, जानता = सोचना / समझना, सांयां-ए-दीवार = दीवार के साएं में

***

आशा करता हूँ आप भी अपने विचार मुझसे निस्संकोच बांटेंगे।

आभारी

तलब