आ क्यू की सच्ची कहानी
लू शुन
अध्याय पाँच : जीविका की समस्या
चाओ परिवार के सामने नाक रगड़ने और सारी शर्तें मान लेने के बाद आ क्यू हमेशा की तरह कुल-देवता के मंदिर में लौट आया। सूरज डूब गया था। उसे कुछ अजीब-सा लग रहा था। काफी विचार करने के बाद वह इस नतीजे पर पहुँचा कि शायद नंगी पीठ होने के कारण ही उसे ऐसा महसूस हो रहा है। उसे याद आया, उसके पास एक पुरानी अस्तरवाली जाकिट अब भी मौजूद है। वह जाकिट पहनकर लेट गया। आँख खुली तो देखा, सूरज की रोशनी पश्चिम दीवार के ऊपर तक पहुँच चुकी है। "अरे, सत्यानास हो गया।" कहता हुआ वह उठा।
वह हमेशा की ही तरह गलियों में आवारागर्दों की तरह घूमने लगा। उसे एक बार फिर कुछ अजीब-सा लगने लगा, जबकि इसकी तुलना नंगी पीठ के कारण होनेवाली शारीरिक असुविधा से नहीं की जा सकती थी। उस दिन के बाद वेइच्वाङ की सभी औरतें आ क्यू से कतराने लगीं। जब भी उसे आता हुआ देखतीं, घर के भीतर छिप जातीं। यहाँ तक कि श्रीमती चओ भी, जो लगभग पचास बरस की हो चुकी थीं, उसे देखते ही घबराकर दूसरी औरतों के साथ घर में घुस गईं और उन्होंने अपनी ग्यारह साल की लड़की को भी अंदर बुला लिया। यह सब आ क्यू को बड़ा अजीब-सा लगा, "कुतिया कहीं की।" उसने सोचा, "ये औरतें अचानक नई-नवेलियों की तरह शर्म करने लगी हैं... "
लेकिन जब कई दिन बीत गए, तो उसे और भी अधिक अजीब-सा लगने लगा। एक तो शराबखानेवाले ने उसे उधार देना बंद कर दिया, फिर कुल-देवता के मंदिर के बूढ़े पुजारी ने उससे कुछ ऐसी कड़वी बातें कहीं, जिनसे लगा कि वह आ क्यू को वहाँ से निकालना चाहता हो। फिर कई दिनों तक उसे ठीक-ठीक याद नहीं कितने दिनों तक, उसे उजरत के लिए बुलाने एक भी आदमी नहीं आया। शराबखाने में उधार मिलना बंद होने पर भी वह काम कर सकता था, लेकिन अगर उजरत के लिए बुलाने के लिए कोई नही आया, तो क्या वह भूखा मरेगा? यह स्थिति सचमुच उसके लिए एक अभिशाप थी।
जब हालात आ क्यू की बर्दाश्त से बाहर हो गए, तो वह उन घरों में गया, जहाँ उसे नियम से काम मिलता रहता था, केवल चाओ साहब के घर को छोड़कर, जिसकी दहलीज पार करने की इजाजत उसे नहीं थी, ताकि मालूम कर सके कि आखिर बात क्या है, लेकिन हर जगह लोग उसके साथ अजीब ढंग से पेश आए। घर के बाहर आनेवाला आम तौर पर पुरुष ही होता, जो बहुत चिढ़ा हुआ जान पड़ता था और आ क्यू को इस तरह दुत्कारता, जैसे वह कोई भिखारी हो, "यहाँ तुझे कुछ नहीं मिलेगा, कुछ भी नहीं, भाग जा यहाँ से।"
आ क्यू को यह सब देखकर और भी ज्यादा आश्चर्य होने लगा, "इन लोगों को पहले अपने काम में सहायता के लिए आवश्यक किसी-न-किसी की जरूरत होती थी। उसने सोचा, "अचानक यह कैसे हो सकता है कि इनके पास कोई काम ही नहीं रह गया हो। अवश्य दाल में कुछ काला है।" अच्छी तरह पूछताछ करने पर पता चला कि जब भी उनके यहाँ कोई छोटा-मोटा काम होता, तो वे लोग युवक डी को बुला लेते। युवक डी दुबला-पतला कमजोर और कंगाल-सा व्यक्ति था, जो आ क्यू की नजरों में मुछंदर वाङ से भी गया-बीता था। कौन जानता था कि वह निचले दर्जे का आदमी उसकी रोजी छीन लेगा। इसलिए इस बार आ क्यू को रोष और दिनों के मुकाबले कहीं ज्यादा भड़क उठा। रास्ते में चलते-चलते वह गुस्से से उबल पड़ा और अचानक हाथ उठाकर गाने लगा - "हड्डी-पसली चूर तुम्हारी लोहे की छड़ से कर दूँगा।"
कुछ दिनों बाद छयेन साहब के घर के सामने उसकी मुलाकात युवक डी से हो गई। जब दो शत्रु मिलते हैं, तो उनकी आँखों से अंगारे बरसने लगते हैं। जब आ क्यू आ पहुँचा तो युवक डी सन्नाटे में खड़ा रह गया।
"अरे, ओ गधे।" आ क्यू फुँफकारा। उसकी आँखें आग उगल रही थीं और मुँह से झाग निकल रहे थे।
"मैं एक कीड़ा हूँ, बस, इससे ज्यादा और क्या चाहते हो?" युवक डी ने कहा।
उसकी इस नर्मी से आ क्यू का पारा और अधिक चढ़ गया, लेकिन उसके पास लोहे की छड़ नहीं थी, इसलिए वह हाथ फैलाकर युवक डी की चोटी पकड़ने के लिए झपटा। युवक डी एक हाथ से अपनी चोटी की रक्षा करता हुआ, दूसरे हाथ से आ क्यू की चोटी पकड़ने के लिए आगे बढ़ा। इस पर आ क्यू ने भी खाली हाथ से अपनी चोटी बचाने की कोशिश की। आ क्यू ने युवक डी को पहले कभी कुछ नहीं समझा, मगर चूँकि कुछ समय से आ क्यू भुखमरी का सामना कर रहा था, इसलिए वह भी अपने प्रतिद्वंन्दी की ही तरह दुबला-पतला और कमजोर हो गया था। इस तरह दोनों ही बराबर के प्रतिद्वंन्दी लग रहे थे। चार हाथों ने दो सिर थामे हुए थे, दोनों आदमी कमर झुकाए थे और कोई आधे घंटे तक छ्येन परिवार की सफेद दीवार पर उनकी नीली इंद्रधनुषाकार परछाईं पड़ती रही।
"बहुत हो चुका, खत्म करो।" कुछ दर्शकों ने कहा। वे शायद उनके बीच सुलह करवाना चाहते थे।
"बहुत अच्छा, बहुत खूब।" कुछ दूसरे दर्शकों ने कहा, लेकिन यह साफ मालूम न हो सका कि उनका उद्देश्य क्या था, सुलह कराना, लड़ाई करनेवालों की तारीफ करना या उन्हें और अधिक लड़ने के लिए उकसाना।
मगर दोनों योद्धाओं ने उनकी एक न सुनी। अगर आ क्यू तीन कदम आगे बढ़ता तो युवक डी तीन कदम पीछे हट जाता, इसके बाद दोनों स्थिर खड़े रहते। अगर युवक डी तीन कदम आगे बढ़ता तो आ क्यू तीन कदम पीछे हट जाता, इसके बाद दोनों फिर से स्थिर खड़े रहते, लगभग आधे घंटे बाद (वेइच्वाङ में केवल गिनी-चुनी ही घड़ियाँ ऐसी थीं, जो टन्न की आवाज के साथ घंटा बजाती थीं, इसलिए ठीक समय बताना मुश्किल था, हो सकता है बीस ही मिनट हुए हों) उनके सिर से भाप उठने लगी और चेहरो पर पसीने की धार बहने लगी। आ क्यू ने अपने हाथ पीछे खींच लिए। उसी क्षण युवक डी ने भी अपने हाथ पीछे खींच लिए। दोनों ने एक साथ कमर सीधी की, दोनों एक साथ पीछे हटे और भीड़ को चीरते हुए निकल गए।
"तेरी खबर फिर कभी लूँगा, नीच।" आ क्यू ने उसे कोसा।
"मैं भी तेरी खबर फिर कभी लूँगा, नीच।" युवक डी ने भी यही वाक्य दोहरा दिया।
इस महायुद्ध में न तो किसी की विजय हुई और न ही पराजय। यह भी मालूम न हो सका कि दर्शकों को इससे संतोष हुआ कि नहीं, क्योंकि उनमें से एक भी आदमी ने अपनी राय प्रकट नहीं की। यह सब होने के बावजूद आ क्यू को रोजगार देने कोई नहीं आया।
एक दिन जब मौसम में कुछ गर्मी थी और गुलाबी हवा से गर्मी के आने का आभास हो रहा था तो आ क्यू को कुछ ठंड महसूस होने लगी लेकिन यह ठंड ऐसी थी, जिसे वह आसानी से बर्दाश्त कर सकता था। उसके आगे सबसे बड़ी चिंता भूखे पेट की थी। वह अपना रूई का लिहाफ, फैल्ट हेट और कमीज काफी पहले ही गँवा चुका था। बाद में उसने अपनी रूई वाली जाकिट को भी बेच दिया। अब उसके पास केवल एक पाजामा बच गया, जिसे उतारना उसके लिए संभव नहीं था। यह सच है कि उसके पास अस्तरवाली एक पुरानी जाकिट और थी, लेकिन वह बिल्कुल चिथड़ा हो चुकी थी और केवल जूते के सोल बनाने योग्य रह गई थी। वह काफी समय से आशा कर रहा था कि उसे कहीं रास्ते में पड़ा पैसा मिल जाएगा, लेकिन अभी तक सफल नहीं हो पाया था। वह यह आशा भी कर रहा था कि शायद किसी दिन उसे अपने टूटे-फूटे कमरे में अचानक कोई धन मिल जाएगा। इसे पाने के लिए उसने कमरे की पूरी तरह खोजबीन भी कर डाली थी, लेकिन कमरा बिल्कुल खाली था, उसमें फूटी कौड़ी भी नहीं थी। इसके बाद उसने तय कर लिया कि भोजन की खोज में गाँव से बाहर चला जाएगा।
भोजन की खोज में वह सड़क पर जा रहा था, तो सामने हमेशा से परिचित शराबखाना और भपौरी रोटी पर नजर पड़ी, लेकिन वहाँ एक पल के लिए भी रुके बिना, यहाँ तक कि उन्हें पाने के लिए ललचाए बिना ही आगे बढ़ गया। उसे इन चीजों की तलाश नहीं थी, जबकि वह यह बात खुद नहीं जानता था कि उसे किस चीज की तलाश थी।
वेइच्वाङ कोई बड़ा गाँव नहीं था, इसलिए जल्दी ही उसे पीछे छोड़कर आ क्यू आगे बढ़ गया। गाँव के बाहर अधिकांश धान के खेत फैले हुए थे। दूर क्षितिज तक धान के कोमल अंकुरों की हरियाली छाई थी। कहीं-कहीं गोल काली आकृतियाँ हिलती-डुलती दिखाई दे रही थीं। वे खेतों में काम करनेवाले किसान थे, लेकिन ग्रामीण जीवन की इस आनंदभरी अनुभूति से विरक्त आ क्यू लगातार अपने रास्ते चला जा रहा था, क्योंकि वह अच्छी तरह इस बात को जानता था कि यह भोजन की खोज से कोसों दूर है। अंत में वह शांत आत्मोत्थान भिक्षुणी विहार की चारदीवारी के पास जा पहुँचा।
यह भिक्षुणी विहार भी चारों ओर से धान के खेतों से घिरा था। इसकी सफेद दीवारें हरियाले खेतों के बीच साफ तौर से दिखाई दे रही थीं। पिछवाड़े की ओर मिट्टी की नीची दीवार के अंदर की ओर सब्जियों का बगीचा था। एक क्षण के लिए आ क्यू ठिठका और अपने चारों ओर नजर डाली। आसपास कोई नजर नहीं आया, इसलिए वह एक पेड़ के सहारे उस नीची दीवार पर चढ़ गया। मिट्टी की दीवार पर सहसा भरभराकर गिरने को हुई। आ क्यू डर के मारे काँपने लगा, लेकिन शहतूत की पेड़ की शाख से लटककर दीवार फाँदता हुआ अंदर चला गया। वहाँ सब्जियों की भरमार थी, लेकिन पीली शराब, भपौरी रोटी या अन्य किसी खाद्य पदार्थ का कहीं कोई निशान नहीं था। पश्चिमी दीवार के निकट बाँसों का झुरमुट खड़ा था, जहाँ बाँस की कोमल कोंपलें फूट रही थीं, लेकिन दुर्भाग्य से ये कोपलें पकी हुई नहीं थीं। सरसों के पौधे खड़े थे, जो काफी समय पहले ही बीज के लिए चुन लिए गए थे, राई के पौधों पर फूल खिलनेवाले थे और पत्ता गोभी की छोटी-छोटी गाँठें कठोर मालूम पड़ रही थीं।
आ क्यू को परीक्षा में अनुत्तीर्ण किसी विद्वान के समान निराशा हुई। वह धीरे-धीरे बगीचे के फाटकी की ओर बढ़ने लगा। सहसा वह खुशी से झूम उठा। उसकी नजर सामने शलजम की क्यारी पर पड़ी। नीचे झुककर उसने शलजम खोदना शुरू कर दिया। अचानक फाटक के पीछे से एक घुटा हुआ सिर नजर आया, जो तुरंत गायब हो गया। यह वास्तव में वही छोटी भिक्षुणी थी। जबकि आ क्यू छोटी भिक्षुणी जैसे लोगों को बहुत नफरत की नजर से देखता था, फिर भी कभी-कभी ऐसा समय आ जाता है, जब "होशियारी को ही सबसे बड़ी अकलमंदी समझा जाता है।" उसने जल्दी-जल्दी चार शलजम उखाड़े, पत्तियाँ तोड़कर फेंक दीं और उन्हें अपनी जाकिट में लपेट लिया। तब तक एक बूढ़ी भिक्षुणी बाहर आ पहुँची।
"भगवान बुद्ध हमारी रक्षा करे। अरे आ क्यू, तू हमारे बगीचे में कूदकर शलजम चुराने क्यों आया है? हे भगवान, यह कितना बड़ा पाप है। भगवान बुद्ध हमारी रक्षा करें।"
"मैं तुम्हारे बगीचे में कब कूदा और तुम्हारे शलजम कब चुराए?" आ क्यू ने उत्तर दिया और भिक्षुणी की ओर देखता हुआ वहाँ से चल पड़ा।
"अभी-अभी चुराए हैं। देख, यह क्या है?" उसकी जाकिट की तहों की ओर इशारा करते हुए बूढ़ी भिक्षुणी बोली।
"क्या ये तुम्हारे हैं? क्या तुम इसे साबित कर सकती हो? तुम... "
अपनी बात पूरी करने से पहले ही आ क्यू सिर पर पाँव रखकर भाग खड़ा हुआ। उसके पीछे एक बहुत मोटा काला कुत्ता लपका। शुरू में यह कुत्ता सामने फाटक पर था। वह पीछे के बगीचे में कैसे पहुँचा, यह बड़े आश्चर्य की बात थी। काला कुत्ता गुर्राता हुआ आ क्यू के पीछे दौड़ा और उसकी टाँग पर दाँत मारने ही वाला था कि उसी समय उसकी जाकिट में से एक शलजम नीचे गिर गया। कुत्ता चौंक पड़ा और एक क्षण के लिए वहीं रुक गया। अवसर का लाभ उठाकर आ क्यू शहतूत के पेड़ पर चढ़ गया और मिट्टी की दीवार फाँदकर शलजम समेत दूसरी ओर जा गिरा। काला कुत्ता शहतूत के पेड़ के पास भौंकता रह गया और बूढ़ी भिक्षुणी भगवान को याद करती खड़ी रही।
कहीं भिक्षुणी काले कुत्ते को उसके पीछे फिर न दौड़ा दे, इस डर से आ क्यू ने झट अपने शलजम बटोर लिए और दो-चार छोटे पत्थर हाथ में उठाकर भाग निकला। काला कुत्ता फिर नहीं आया। आ क्यू ने पत्थर नीचे फेंक दिए और शलजम खाता हुआ आगे बढ़ गया। उसने मन में सोचा, "यहाँ कुछ नहीं मिलेगा शहर जाना ही ठीक रहेगा।"
तीसरा शलजम खा चुकने तक उसने शहर जाने का पक्का फासला कर लिया।
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