Ah q ki sachchi kahani - 2 in Hindi Fiction Stories by Lu Xun books and stories PDF | आ क्यू की सच्ची कहानी - 2

The Author
Featured Books
  • Mosadapreethi - 2

    ಇಲ್ಲಿ ತಾರಾ ಹಳ್ಳಿಯಿಂದ ನಗರಕ್ಕೆ ಬಂದ ಮುಗ್ಧ ಹುಡುಗಿ, ಆದರೆ ಜೂಲಿ ತಾರ...

  • Mosadapreethi - 1

    ಏರೋಪ್ಲೇನ್ ಸೀಟಿನ ಮೇಲೆ ಕುಳಿತ ತಾರಾ ನೆಮ್ಮದಿಯ ನಿಟ್ಟುಸಿರು ಬಿಡುತ್ತಾ...

  • सन्यासी -- भाग - 27

    सुमेर सिंह की फाँसी की सजा माँफ होने पर वरदा ने जयन्त को धन्...

  • ಹರ್ಷನ ಕೀರ್ತಿಗೆ ವರ್ಷಳ ಸ್ಪೂರ್ತಿ

    ಹರ್ಷನ ಕೀರ್ತಿಗೆ ವರ್ಷಳ ಸ್ಪೂರ್ತಿ(ಆದರ್ಶ ದಂಪತಿಗಳ ಕಥೆ)      ಲೇಖಕ -...

  • ಚೂರು ಪಾರು

    ಚೂರು ಪಾರು (ವಿಭಿನ್ನ ಪ್ರೇಮ ಕಥೆ) (ಲೇಖಕ ವಾಮನಾ ಚಾರ್ಯ) ಅಂದು ಪವನ್ ಪ...

Categories
Share

आ क्यू की सच्ची कहानी - 2

आ क्यू की सच्ची कहानी

लू शुन

अध्याय दो : आ क्यू की जीतों का संक्षिप्त ब्यौरा

आ क्यू के कुलनाम, व्यक्तिगत नाम और जन्म स्थान से संबंधित अनिश्चितता के अतिरिक्त उसके अतीत के बारे में भी कुछ अनिश्चितता बनी हुई है। कारण यह है कि वेइच्वाङ के लोगों ने उसके 'अतीत' पर जरा भी ध्यान दिए बिना उसकी सेवाओं का उपयोग किया या उसका मजाक उड़ाया। आ क्यू खुद भी इस विषय में मौन रहता, सिर्फ ऐसे अवसर को छोड़कर, जबकि उसका किसी से झगड़ा हो जाता, तो उसकी ओर देखता हुआ वह बोल पड़ता, "किसी समय हमारी दशा तुमसे अधिक अच्छी थी। तुम अपने को आखिर समझते क्या हो?"

आ क्यू का अपना कोई परिवार नहीं। वह वेइच्वाङ गाँव में कुल देवता के मंदिर में रहता था। उसके पास कोई नियमित रोजगार भी नहीं था। जो भी छोटा-मोटा काम मिल जाता, कर लेता - गेहूँ काटना होता, तो गेहूँ काट देता, चावल पीसना होता तो चावल पीस देता, नाव चलाना होता तो नाव चला देता। अधिक दिनों का काम होता, तो अपने अस्थायी स्वामी के घर में ही रह जाता। पर जैसे ही काम खत्म होता, वहाँ से चल देता। इसलिए जब भी लोगों के पास काम होता, वे आ क्यू को याद करते, पर वे सिर्फ उसकी सेवाओं को याद करते थे, यह नहीं कि उसके अतीत को, और जब काम खत्म हो जाता, तो वे आ क्यू को भूल जाते, उसके अतीत की बात तो दूर रही। एक बार एक बुजुर्ग ने कहा था, "कितना अच्छा काम करता है आ क्यू!" उस समय सामने खड़े आ क्यू का शरीर कमर तक बिल्कुल नंगा था, उसका शरीर मरगिल्ला व दुबला-पतला था, चेहरे पर बेचारगी थी। बहुत लोग यह नहीं समझ पाए कि ये शब्द उसने सचमुच आ क्यू की प्रशंसा में कहे थे या उसका मजाक उड़ाने के लिए। जो हो, आ क्यू यह सुनकर बहुत खुश हुआ।

आ क्यू वास्तव में अपने बारे में बहुत ऊँची राय रखता था। वेइच्वाङ के सभी निवासियों को वह अपने से छोटा समझता था। यहाँ तक कि उन दो युवा विद्वानों को भी किसी योग्य नहीं समझता था, जबकि अधिकतर युवा विद्वानों के सरकारी परीक्षा पास करने की संभावना थी। चाओ साहब और छ्येन साहब की गाँव के लोग बड़ी इज्जत करते थे, क्योंकि वे अमीर होने के साथ-साथ युवा विद्वानों के पिता भी थे। केवल आ क्यू ही ऐसा था, जो उनकी खास इज्जत नहीं करता था और सोचता था, "मेरे बेटे शायद इनसे भी ज्यादा महान बनें।"

इसके अतिरिक्त, जब आ क्यू को कई बार शहर जाने का अवसर मिला, तो शायद उसका दिमाग पहले से ज्यादा चढ़ गया, जबकि इसके बाद वह शहर के लोगों को भी बिल्कुल छोटा समझने लगा। उदाहरण के लिए, तीन फुट लंबे और तीन इंच चौड़े तख्ते से बने बेंच को वेइच्वाङ गाँव के लोग लंबी बेंच कहते थे। आ क्यू भी उसे लंबी बेंच ही कहता था। पर शहर के लोग इसे सीधी बेंच कहते थे। आ क्यू सोचता, 'यह कितना गलत है, कितना हास्यास्पद है।' इसके अतिरिक्त वेइच्वाङ गाँव वाले जब बड़े सिरवाली मछली को तेल में तलते, तो सभी हरी प्याज की पत्तियों के आधे इंच लंबे टुकड़े काटकर उसके साथ छौंकते थे, जबकि शहरवाले उन्हें बारीक काटकर उसके साथ छौंकते थे। आ क्यू सोचता, 'यह कितना गलत है। यह कितना हास्यास्पद है।' लेकिन वेइच्वाङ गाँववाले समचमुच बिलकुल अनपढ़ और गँवार थे और उन्होंने यह कभी नहीं देखा था कि शहर में मछली कैसे तली जाती है।

आ क्यू, जो किसी भी समय काफी खुशहाल था और दुनियादारी में कुशल एक अच्छा कमेरा था, एक बिलकुल संपूर्ण इंसान होता अगर बदकिस्मती से उसके शरीर में कुछ विकृतियाँ न होतीं। सबसे ज्यादा दुखदायी उसकी खोपड़ी पर वे चमकीले निशान थे, जो अतीत में किसी समय दाद से पीड़ित होने के कारण बन गए थे। जबकि ये निशान उसके अपने ही सिर पर थे, आ क्यू इन्हें जरा भी सम्मानजनक नहीं समझता था। यही वजह थी कि वह दाद या इससे मिलते-जुलते किसी भी अन्य शब्द का प्रयोग नहीं करता था। बाद में इससे एक कदम और आगे बढ़कर उसने चमकदार और रोशनी शब्दों का प्रयोग भी बंद कर दिया और इसके बाद चिराग और मोमबत्ती शब्द का प्रयोग भी बंद कर दिया। जब कोई जानबूझकर या अनजाने में इन वर्जित शब्दों का प्रयोग करता, तो आ क्यू गुस्से से तमतमा उठता, उसके दाद के निशान लाल हो उठते। वह गुस्ताखी करनेवाले की ओर देखता अगर वह कोई ऐसा आदमी होता तो जवाब देने में उससे कमजोर साबित होता, तो उसे खूब जली -कटी सुनाता, अगर कोई ऐसा आदमी होता, जो लड़ने में उससे कमजोर होता, तो फौरन उस पर हाथ छोड़ देता। फिर भी यह विचित्र बात थी कि इन मुठभेड़ों में प्रायः आ क्यू को ही मात खानी पड़ती। अंत में वह नए दाँव-पेंच अपना लेता और अपने प्रतिद्वंद्वी को गुस्से से लाल आँखों से घूरकर ही मन को तसल्ली दे लेता।

बात यह हुई कि जब से आ क्यू ने लोगों को गुस्से से लाल आँखों से घूरना शुरू किया, वेइच्वाङ के बेकार लोगों को उसका मजाक उड़ाने या उसे छेड़ने में ज्यादा मजा आने लगा। वे जैसे ही उसे देखते, उकसाने के लिए कह देते, "देखो तो, रोशनी हो रही है।"

आ क्यू की तरह उत्तेजित हो उठता और गुस्से से लाल आँखों से उन्हें घूरने लगता।

"अच्छा, तो यहाँ पैराफीन का चिराग रखा है।" वे उससे जरा भी डरे बिना अपनी बात जारी ऱखते।

आ क्यू कुछ नहीं कर पाता। सही जवाब ढूँढ़ पाने के लिए दिमाग पर जोर डालकर कहता, "तुम इस योग्य भी नहीं हो कि... " ऐसे मौके पर उसे लगता, मानो उसकी खोपड़ी पर अंकित निशान, उसके उदात्त व गौरवमय चरित्र के द्योतक हों, दाद के मामूली निशान न हों। फिर भी जैसे कि पहले कहा जा चुका है, आ क्यू दुनियादारी में कुशल था। वह फौरन समझ जाता कि उसके मुँह से वर्जित शब्द निकलने जा रहे हैं, इसले बात वहीं समाप्त कर देता।

अगर बेकार लोगों को इतने से भी तसल्ली न होती और वे उसे उकसाना जारी रखते, तो हाथापाई की नौबत आ जाती। आ क्यू जब बिल्कुल परास्त हो जाता और बेकार लोग उसकी भूरी चोटी खींचकर उसका सिर चार-पाँच बार दीवार से टकरा देते, तभी वे अपनी विजय पर संतुष्ट होकर वहाँ से आ जाते। आ क्यू एक क्षण के लिए वहीं रुक जाता और मन-ही-मन सोचने लगता, "मालूम होता है, मुझे मेरे बेटे ने पीटा है। आजकल कैसा जमाना आ गया है।" इसके बाद वह भी अपनी विजय पर संतुष्ट होकर वहाँ से चला जाता।

आ क्यू अपने मन में जो कुछ भी सोचता, बाद में दूसरे लोगों को अवश्य बताता। इस तरह वे सभी, जो उसकी खिल्ली उड़ाते थे, मनोवैज्ञानिक विजय प्राप्त करने के उसके तरीके को अच्छी तरह जान गए थे। इसलिए बाद में जो कोई भी उसकी भूरे रंग की चोटी खींचता या मरोड़ता था, उससे वह पहले ही कह देता, "आ क्यू, बेटा बाप की पिटाई नहीं कर रहा, बल्कि इंसान जानवर की पिटाई कर रहा है। थोड़े में कहें, तो इंसान जानवर की पिटाई कर रहा है।"

आ क्यू अपनी चोटी की जड़ मजबूती से पकड़ लेता और सिर टेढ़ा करके कहता, "यह क्यों नहीं कहते कि इंसान कीड़े की पिटाई कर रहा है? मैं एक कीड़ा हूँ। अब मुझे छोड़ोगे या नहीं?"

हालाँकि उसका अस्तित्व कीड़े के बराबर ही था, फिर भी बेकार लोग जब तक अपनी आदत के अनुसार आसपास की किसी चीज से पाँच-छह बार उसका सिर न टकरा देते, तब तक अपनी विजय पर संतुष्ट होकर वहाँ से नहीं जाते और तब तक उन्हें इस बात का विश्वास हो पाता कि आ क्यू इस बार हार गया है, पर दस सेंकेंड बीतने से पहले ही आ क्यू भी अपनी विजय पर संतुष्ट होकर वहाँ से चल देता, यह सोचता हुआ कि वह "सर्वप्रथम आत्म-तुच्छ व्यक्ति" है, और अगर "सर्वप्रथम आत्म-तुच्छ व्यक्ति" शब्द निकाल दिए जाएँ तो केवल सर्वप्रथम रह जाता है। क्या सर्वाधिक अंक लेकर सरकारी परीक्षा पास करनेवाला प्रत्याशी भी सर्वप्रथम नहीं है? आखिर तुम लोग अपने को समझते क्या हो ?"

अपने शत्रुओं से लोहा लेने के लिए ऐसी चालाकी भरी चालें चलने के बाद आ क्यू खुशी-खुशी शराबखाने में जा पहुँचता और दो-चार पेग चढ़ा कर दूसरों से फिर हँसी-मजाक करता, फिर झगड़ा करता, फिर विजयी होकर कुल देवता के मंदिर में खुशी-खुशी लौट जाता। वह तकिए पर सिर रखते ही गहरी नींद सो जाता। जब कभी उसकी जेब में पैसा होता, तो जुआ खेलने पहुँच जाता। जुआरियों की टोली जमीन पर बैठी होती। उनके बीच आ क्यू भी जा बैठता। उसके चेहरे से पसीना चू रहा होता। वह सबसे ज्यादा जोर से चिल्ला उठता, "हरे नाग पर चार सौ।"

"बस, अब खुल रही है बाजी।" पसीने से तर चेहरेवाला जुआ संचालक संदूकची खोल देता और जोर से बोल पड़ता, "स्वर्ग का दरवाजा... 'कोण' को कुछ नहीं मिला। 'लोकप्रियता मार्ग' का दाँव खाली गया। आ क्यू के पैसे मेरे हवाले कर दो।"

"'मार्ग.... एक सौ... एक सौ पचास।"

इन शब्दों के साथ धीरे-धीरे आ क्यू का सारा पैसा पसीने से तर अन्य जुआरियों की जेब में पहुँच जाता। अंत में वह मजबूर होकर उनके बीच से बाहर निकल जाता और पीछे बैठ कर दूसरों की हार-जीत की चिंता करता खेल देखता रहता। जब खेल खत्म हो जाता, तो बड़े बेमन से कुल-देवता के मंदिर में लौट आता। अगले दिन जब काम पर जाता, तो उसकी आँखें रात भर जागने के कारण सूजी हुई होतीं।

लेकिन एक बार वेइच्वाङ में देवताओं का त्यौहार मनाया जा रहा था। शाम का समय था। प्रथा के अनुसार एक नाटक खेला जा रहा था, और प्रथा के ही अनुसार, रंगमंच के निकट जुआ खेलने के लिए बहुत सी मेजें लगी हुई थीं। नाटक के ढोल-नगाड़ों की आवाज आ क्यू को ऐसी लग रही थी, मानो तीस मील दूर से आ रही हो। उसके कान केवल जुआ संचालक की आवाज की ओर लगे थे। बाजी बार-बार आ क्यू के हाथ रही। उसके ताँबे के सिक्के, चाँदी के सिक्कों में और चाँदी के सिक्के डॉलरों में बदलते गए, डॉलरों की ढेरी बढ़ती गई। वह खुशी से उछल पड़ा और जोर से चिल्लाया, "स्वर्ग के दरवाजे पर दो डालर।"

आ क्यू को यह कभी मालूम न हो सका कि झगड़ा किसने और क्यों शुरू किया। गाली-गलौज, लात-घूँसों की मार और भगदड़ के शोर से उसका सिर चकरा गया और जब वह होश में आया, तब तक सभी जुए की मेजें और जुआरियों की टोली गायब हो चुकी थी। उसके शरीर का पोर-पोर दुख रहा था, लगता था कि उसे भी लात-घूँसे लगे हैं। आसपास जमा बहुत-से लोग उसे आश्चर्य से उसकी ओर देख रहे थे। यह महसूस करता हुआ कि उसकी कोई चीज खो गई है, वह कुल-देवता के मंदिर लौट गया और जब पूरी तरह होश में आया, कहीं उसे महसूस हुआ कि उसकी डॉलरों की ढेरी गायब हो चुकी है। त्यौहार में जुए की मेजें लगानेवाले ज्यादातर वास्तव में वेइच्वाङ के निवासी नहीं थे, इसलिए अपराधियों का पता कैसे लगाया जा सकता था?

चाँदी के सिक्कों की कितनी उजली, कितनी चममकदार ढेरी थी वह। सारी की सारी रकम उसकी हो चुकी थी पर अब गायब हो गई है। यह सोच कर भी कि उसके अपने बेटे ने चुरा लिया है, उसके मन को तसल्ली नहीं हो पाई। अपने आपको कीड़ा समझकर भी उसे चैन नहीं मिला। यह पहला अवसर था जब उसे सचमुच पराजय की कड़वाहट का मजा चखने को मिला।

लेकिन अगले ही क्षण उसने अपनी पराजय को विजय में बदल डाला। दायाँ हाथ ऊपर उठाकर उसने कसकर अपने मुँह पर दो थप्पड़ मारे, इतनी जोर से कि चेहरा दर्द से झनझना उठा। थप्पड़ खाने के बाद उसका दिल कुछ हलका हो गया, क्योंकि उसे लगा, थप्पड़ मारनेवाला तो वह खुद है और थप्पड़ खानेवाला कोई और है। जल्दी ही उसे ऐसा लगा जैसे उसने किसी दूसरे व्यक्ति की पिटाई की हो, जबकि उसका चेहरा अब भी दर्द से झनझना रहा था। अपनी विजय पर संतुष्ट होकर वह लेट गया। शीघ्र ही उसकी आँख लग गई।

***