स्वाभिमानी
इवान तुर्गनेव
(4)
1861
इस घटना को बीते बारह साल गुजर गये। रूस का हरेक आदमी जानता है और बराबर याद रखेगा कि सन् 1849 और 1861 के सालों के बीच रूस पर क्या-क्या बीती। मेरे व्यक्तिगत जीवन में भी बहुत से परिवर्तन हो गये, पर उनके संबंध में अब विशेष कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। जीवन में बहुत सी नई बातें और नई चिंताएं आ गई। बैबूरिन ओर उसकी पत्नी उस समय मेरे विचार-क्षेत्र से अलग हो गये। बाद में तो मैं उन्हें बिल्कुल ही भूल गया। फिर भी बहुत दिनों के अंतर पर कभी कभी मेरा मानसी से पत्र व्यवहार हो जाया करता था। कभी-कभी एक-एक वर्ष से भी अधिक समय व्यतीत हो जाता, और मुझे मानसी या उसके पति का कोई समाचार नहीं मिलता था। मैंने सुना कि 1855 के बाद बैबूरिन को रूस लौटने की इजाजत मिल गई, परन्तु उसने साइबेरिया के उस छोटे शहर में ही रहना पसंद किया, जहां भाग्य ने उसे जा पटका था और जिस स्थान को उसने अपना घर जैसा बना लिया था, अपने लिए एक आश्रम एवं कार्य-क्षेत्र तैयार कर लिया था, मगर आश्चर्य की बात तो यह है कि इसके बाद ही सन् 1861 के मार्च में मुझे मानसी का निम्नलिखित पत्र मिला:
''महामान्य पीटर पेट्राविच, आपको पत्र लिखे इतने अधिक दिन बीत गये। मुझे यह भी विदित नहीं कि आप जीवित भी हैं या नहीं! यदि आप जीवित हों तो क्या आप हम लोगों के अस्तित्व के बारे में भूल नहीं गये होंगे? पर यह कोई बात नहीं है। आज मैं आपको लिखने से अपने को रोक नहीं सकती। अब तक हम दोनों पति-पत्नी के बीच सब बातें पहले जैसी चल रही हैं। पैरोमन सेमोनिच और मैं दोनों अपने-अपने स्कूलों को लेकर संलग्न रहे हैं। उन स्कूलों की उन्नति क्रमश: हो रही है। इसके सिवा पैरामन सेमोनिच पढ़ने-लिखने में तथा अपनी आदत के अनुसार पुराने विचार के लोगों, पादरियों तथा पोलैण्ड के देश-निर्वासितों से वाद-विवाद करने में रत रहा करते हैं। उनका स्वास्थ्य भी बहुत अच्छा रहा है। मेरी तंदुरूस्ती भी ठीक रही है। किन्तु कल 19 फरवरी की घोषणा हमें प्राप्त हुई। पहले ही हमें अफवाहों से यह मालूम हो गया था कि पीटर्सबर्ग में आप लोगों के बीच क्या हो रहा है। किन्तु तो भी मैं उसका वर्णन नहीं कर सकती। आप मेरे पति को अच्छी तरह जानते हैं। दुर्भाग्यग्रस्त होने पर भी उनमें जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ। इसके विपरीत वह पहले से भी अधिक बलिष्ठ और फुर्तीले बन गये हैं। उनकी संकल्प-दृढ़ता बहुत बढ़ी-चढ़ी है, परन्तु इतने पर भी वह अपने को नियन्त्रित नहीं कर सके। उस घोषणा को पढ़ते समय उनके हाथ कांपने लगे। इसके बाद उन्होंने तीन बार मेरा आलिंगन किया, तीन बार मेरा चुंबन लिया, फिर कुछ कहने की कोशिश की, पर कुछ कह न सके। आखिर फूट-फूट कर रोने लगे। मैं यह सब देखकर चकित हो रही थी। इतने में हठात् चिल्ला उठे,'शाबाश! शाबाश! भगवान् जार की रक्षा करे।' पीटर पेट्रोविच, ये ही उनके शब्द थे। इसके बाद कहने लगे-'हे ईश्वर! अब अपने इस सेवक को इस जीवन से छुट्टी दे दे।' फिर बोले, ' यह पहला काम है, इसके बाद और भी इसी तरह के कार्य अवश्य होंगे।' फिर नंगे सिर वह इस महत्वपूर्ण समाचार को सुनाने के लिए अपने मित्रों के पास दौड़कर गये। उस दिन घोर पाला पड़ा था और बर्फ की आंधी भी आने वाली थी। मैंन उन्हें रोकना चाहा मगर वह मेरी सुनना भी नहीं चाहते थे। जब वह घर लौटकर आये, उनका सारा शरीर, उनके बाल, उनका चेहरा, उनकी दाढ़ी- सब कुछ पाले से ढके हुए थे। उस समय उनकी दाढ़ी छाती तक बढ़ी हुई थी और उनके आंसू गालों पर जम गये थे। किन्तु वह बहुत प्रसन्न और स्फूर्तिवान दीख पड़ते थे। उन्होंने मुझसे घर की बनी हुई शराब की बोतल के लिए कहा और अपने मित्रों के साथ- जो उनके संग आये थे-जार की, समग्र रूस की तथा समस्त स्वतंत्र रूसवासियों की स्वास्थ्य कामना करते हुए उसका पान किया। इसके बाद शराब का गिलास लेकर जमीन पर दृष्टि डालते हुए उन्होंने कहा, 'निकेंडर, निकेंडर (पूनिन)! क्या तुम सुनते हो? रूस में अब गुलाम बिल्कुल ही नहीं रह गये। मेरे पुराने साथी, कब्र में आनंद मनाओ!' उन्होंने यह भी कहा कि अब इसमें कोई हेरफेर नहीं हो सकता। यह एक प्रकार का वचनदान है-प्रतिज्ञा है। मुझे उनकी सब बातें याद नहीं हैं, किन्तु बहुत दिनों के बाद इस अवसर पर मैंने उन्हें इस प्रकार प्रसन्न देखा है, इसलिए मैंने आज आपको लिखने का निश्चय किया है, जिससे आप जान जायं कि सुदूर साइबेरिया के वन-प्रान्त में भी हम लोग किस प्रकार आनंद मना रहे हैं, मगन हो रहे हैं और आप भी हम लोगों के इस आनंद में सम्मिलित हो सकें।''
यह चिट्ठी मुझे मार्च के अंत में मिली। मई मास के शुरू में मानसी की एक दूसरी चिट्ठी आई, जो बहुत ही संक्षिप्त में थी। उसने मुझे सूचित किया था कि उसके पति पैरोमन सेमोनिच बैबूरिन को ठीक उसी दिन, जिस दिन घोषणा पत्र पहुंचा था, सर्दी लग गई और 12 अप्रैल को 67 वर्ष की अवस्था में फेंफड़े के संक्रमण से उनकी मृत्यु हो गई! उसने यह भी लिखा था ''जहां मेरे पति की समाधि है, वहीं मैं रहना चाहती हूं क्योंकि और उनके छोड़े हुए काम को जारी रखना चाहती हूं अपने जीवन के अवसान-काल में उन्होंने अपनी यही अंतिम इच्छा प्रकट की थी और उनकी इच्छा को पूर्ण करना ही मेरा एकमात्र धर्म है।''
इसके बाद मानसी के संबंध में कोई समाचार मुझे नहीं मिला।
समाप्त
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