Sir Himalay ka hamne na jhukne diya in Hindi Adventure Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | सर हिमालय का हमने ना झुकने दिया....

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सर हिमालय का हमने ना झुकने दिया....

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सर हिमालय का हमने ना झुकने दिया.....

आशीष कुमार त्रिवेदी

देश को आज़ाद हुए अभी केवल पंद्रह वर्ष ही हुए थे। यह आज़ादी अपने साथ देश के विभाजन की त्रासदी भी लेकर आई थी। विभाजन के कारण उत्पन्न हुई विकट परिस्थितियों को काबू करने तथा विभिन्न रियासतों में बंटे भारत को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी। कश्मीर पर कब्ज़े के लिए किए गए पाकिस्तानी हमले का भी डट कर सामना किया।

एक लंबे संघर्ष के बाद मिली स्वतंत्रता के प्रारंभिक दिन उथल पुथल से भरपूर रहे। हमारी आँखों में एक ऐसे देश के निर्माण का सपना था जहाँ सभी को समानता का अधिकार मिले, सबके लिए शिक्षा के समान अवसर हों। राष्ट्र में मूलभूत सुविधाओं का विकास हो। 26 जनवरी 1950 को हमें एक गणतंत्र के रूप में पहचान मिली। हमने अपने सपने की तरफ कदम बढ़ाना शुरू कर दिया।

अपने सपने को पूरा करने के लिए सबसे बड़ी आवश्यक्ता थी कि देश कई मामलों में जल्द से जल्द आत्मनिर्भर बने। उद्योग जगत में आत्मनिर्भर बनने के लिए ज़रूरी था कि कल कारखाने लगाए जाएं। सड़कों तथा पुलों का निर्माण हो। कृषि जो हमारे देश का प्रमुख पेशा रहा है उसके विकास के लिए जल संसाधनों के समुचित प्रयोग हेतु डैम बनाने, खेती की नई तकनीकि का विकास करने आदि मुद्दों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक था।

हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भारत को एक आधुनिक राष्ट्र बनाना चाहते थे। यही कारण था कि उन्होंने विज्ञान तथा तकनीकि के महत्व को समझते हुए इस दिशा में भी भारत को आगे ले जाने के पूरे प्रयास किए।

नेहरू जी विश्व पटल पर भारत की छवि एक शांतिप्रय देश के रूप में स्थापित करना चाहते थे। एक ऐसा राष्ट्र जो अपनी सांस्कृतिक विरासत 'वसुधैव कुटुंबकम' पर यकीन करते हुए सभी को अपना मित्र समझता हो। अपनी कोशिशों से नेहरू जी इसमें कामयाब भी रहे थे।

भारत की आज़ादी के ठीक दो वर्ष बाद पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के नाम से एक साम्यवादी राष्ट्र अस्तित्व में आया। किंतु भारत से उलट चीन की नीति विस्तारवाद की थी। वह अपनी सीमा को बढ़ाना चाहता था। अतः 1950 में चीन ने अपने तथा भारत के बीच स्थित तिब्बत पर हमला कर उस पर अपना अधिकार कर लिया। तिब्बत की भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि चीन के उस पर अधिकार के बाद भारत की सुरक्षा भी खतरे में पड़ गई।

तत्तकालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने इस संबंध में नेहरू जी को इस विषय में एक चिठ्ठी लिख कर चीन के गलत मंसूबों के विषय में चेतावनी दी थी। उन्होंने लिखा था कि चीन आसाम के कुछ क्षेत्रों पर नज़र गड़ाए है। वह हमारे साथ धोखा कर सकता है। किंतु नेहरू जी का मानना था कि जब तक चीन सीमा के संबंध में कोई बातचीत नहीं करता हमें भी शांत रहना चाहिए।

अरुणांचल प्रवेश की सीमा जो चीन से सटी है 'मैकमोहन लाइन' के नाम से जानी जाती है। इसका निर्धारण 1914 में ब्रिटिश सरकार, तिब्बत और चीन ने मिलकर किया था। भारत के स्वतंत्रत होने के बाद से इस सीमा को लेकर चीन ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी। इस संबंध में चीन का रुख जानने के लिए 1952 में भारत और चीन के बीच इस मामले को लेकर मीटिंग हुई। चीन की तरफ से कुछ ना कहे जाने पर भारत ने यह मान लिया कि इस लाइन को लेकर चीन की कोई आपत्ति नहीं है।

मानव कल्याण तथा विश्वशांति के आदर्शों को स्थापित करने के लिए राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से भिन्न देशों के बीच पारस्परिक सहयोग वाले पाँच आधारभूत सिद्धांतों पर सहमति हुई। इन सिद्धांतों को पंचशील सिद्धांत कहा जाता है। इस संधि पर 29 अप्रैल 1954 को हस्ताक्षर किए गए।

यह पाँच सिद्धांत निम्न हैं।

(1) सभी देशों द्वारा अन्य देशों की क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना

(2) दूसरे देश के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना

(3) दूसरे देश पर आक्रमण न करना।

(4) परस्पर सहयोग एवं लाभ को बढावा देना।

(5) शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की नीति का पालन करना।

इस संधि पर हस्ताक्षर के बाद भारत और चीन के बीच तनाव काफी कम हो गया। पूरे विश्व में इस समझौते की तारीफ की गई। भारत में 'हिंदी चीनी भाई भाई' के नारे लगने लगे। परंतु पंचशील समझौते के तहत भारत ने तिब्बत को चीन का एक क्षेत्र स्वीकार कर लिया। इस तरह उसने 1914 की Anglo-Tibetan Treaty के तहत उसे तिब्बत के संबंध में मिले अधिकार छोड़ दिए।

1962 में तिब्बत में चीन के खिलाफ असंतोष उत्पन्न हो गया। चीन ने शिंज़ियांग प्रांत से तिब्बत तक एक सड़क का निर्माण किया जो अक्सई चीन से होकर गुजरती थी। अक्सई चीन भारत के अधिकार में था। भारत ने वहाँ अपनी चौकियां बनानी शुरू कर दीं। यही भारत और चीन के बीच विवाद का कारण बना।

तिब्बत के सबसे बड़े धर्म गुरु दलाई लामा भी तिब्बत में चीन की नीतियों से परेशान थे। अपनी जान पर खतरा देख कर वह भारत में आ गए। भारत का उन्हें शरण देना भी चीन को अच्छा नहीं लगा। यह भी विवाद का कारण बना।

पंचशील समझौता केवल आठ वर्षों के लिए हुआ था। इस अवधि के पूरा होते ही 20 अक्टूबर 1962 को चीन ने लद्दाख और मैकमोहन लाइन के पार हमला कर दिया। भारत इस हमले के लिए तैयार नहीं था। विश्वबंधुत्व व शांति की कामना करने वाले भारत के पास सही हथियार भी नहीं थे। यह युद्ध बहुत ही कठिन हालात में लड़ा गया। अधिकांश युद्ध 4250 मीटर (14,000 फीट) से अधिक ऊंचाई पर लड़ा गया। इस प्रकार की परिस्थिति में दोनों पक्षों के सामने रसद और अन्य लोजिस्टिक की समस्याएँ उत्पन्म हुईं। इस युद्ध में चीनी और भारतीय दोनों पक्ष द्वारा नौसेना या वायु सेना का उपयोग नहीं किया गया था।

भारत को इस बात का यकीन था कि पंचशील ट्रीटी पर हस्ताक्षर होने के कारण चीन कभी सीमा पार करने की चेष्ठा नहीं करेगा। नेहरू जी का मानना था कि हम विश्वबंधुत्व के आदर्श को लेकर चल रहे हैं। हमें अन्य देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने में अधिक ध्यान देना चाहिए। इसलिए सैन्य शक्ति को सुदृढ़ बनाने के लिए अधिक ध्यान नहीं दिया गया। अतः सही तैयारी ना होने के कारण भारत इस युद्ध में बुरी तरह हार गया। 29 नवंबर 1962 को युद्ध विराम की घोषणा हुई।

भारत और चीन के बीच हुए इस युद्ध में भले ही हमें हार मिली हो किंतु इस युद्ध का एक अध्याय ऐसा है जिसे पढ़ कर हम गर्व से फूल उठते हैं। जो भारतीय सैनिकों के शौर्य और पराक्रम की अनूठी दास्तान है।

यह अध्याय है रेज़ांग ला दर्रे में मुठ्ठी भर भारतीय सैनिकों एवं चीनी फौज के बीच हुए युद्ध का इतिहास।

यह कहानी है 13 कुमाऊं रेजिमेंट करीब 120 वीर बहादुर सिपाहियों की जिन्होंने विकट परिस्थितियों में भी जान की बाज़ी लगा कर देश के सम्मान की रक्षा की। जो देश पर बलिदान हो गए किंतु विशाल चीनी फौज के सामने घुटने नहीं टेके।

रेज़ांग ला (Rezang La) भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य के लद्दाख़ क्षेत्र में स्थित एक दर्रा है। जिसके ज़रिए चुशूल घाटी में प्रवेश किया जाता है। यह 2.7 किमी लम्बा और 1.8 किमी चौड़ा है और इसकी औसत ऊँचाई 16000 फ़ुट है।

चुशुल सेक्टर सीमा से सिर्फ पंद्रह मील दूर था। यहाँ 13 कुमाऊं रेजिमेंट की चार्ली यूनिट तैनात थी। इसकी कमान ब्रिगेडियर टी.एन रैना के हाथ में थी। वह अंबाला से जम्मू कश्मीर पहुँचे। वादी बर्फ से ढकी हुई थी। चुशुल घाटी में सर्द हवाओं का कहर था। ठंड इतनी थी कि धमनियों का रक्त भी जम जाए। परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं। भारतीय सेना को इससे पूर्व कभी भी इतनी विकट परिस्थितियों में युद्ध करने का अनुभव नहीं हुआ था।

दूसरी तरफ चीनी सेना इन हालातों में युद्ध कर सकने के लिए प्रशिक्षित थी। वातावरण की चुनौती के अलावा भारतीय सैनिकों की एक और समस्या थी। युद्ध के लिए सही हथियारों की कमी। चीनी सेना के पास आधुनिक शस्त्र व गोला बारूद थे। वहीं भारतीय सैनिकों को द्वितीय विश्वयुद्ध के समय की राइफलों से काम चलाना था। इन सबके बावजूद भारतीय सैनिकों के हौंसले में कोई कमी नहीं थी।

13 कुमाऊं रेजिमेंट की चार्ली यूनिट के मेजर शैतान सिंह भाटी को पूरा यकीन था कि हालात चाहें जैसे हों हम ज़रूरत पड़ने पर दुश्मनों के दांत खट्टे कर देंगे। यही जोश वह अपने सैनिकों में भी भर रहे थे। वह एक वीर योद्धा थे। मेजर शैतान सिंह का जन्म जोधपुर राजस्थान में 1 दिसंबर 1924 को हुआ था। पिता हेमसिंह भी सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल रह चुके थे। देश की सेवा तथा उसके सम्मान की रक्षा करने का भाव उन्हें विरासत में मिला था। अतः ना तो वह स्वयं ही परिस्थितियों से घबराए ना ही अपने सैनिकों के हौंसले टूटने दिए। मरते दम तक वह उन्हें युद्ध के लिए प्रेरित करते रहे।

चुशुल घाटी बर्फ की मोटी चादर ओढ़े सोई हुई थी। 18 नवंबर की उस सर्द सुबह में करीब 3.30 बजे घाटी चीनी फौज के द्वारा किए गए हमले से थर्रा उठी। पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी के करीब 5000 से 6000 जवानों ने चुशुल घाटी में धावा बोल दिया था। सभी सिपाही ऑटोमैटिक हथियारों से लैस थे।

चीनी सैनिकों की तादाद बहुत अधिक थी। जबकी चुशुल घाटी में तैनात भारतीय सैनिकों की संख्या कम थी। जिस चोटी पर कुमाऊं रेजिमेंट के जवान तैनात थे वहाँ किसी भी तरह की त्वरित सहायता पहुँचाना संभव नहीं था। हनारे सैनिकों के पास दो ही रास्ते थे। या तो हार मानकर घुटने टेक दें या वीरता दिखाते हुए लड़ें। हमारे सैनिकों ने लड़ना स्वीकार किया।

चीनी फौज ने मोर्टार तथा रॉकेट से भारतीय बंकरों पर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। हमारी फौज के कई बंकर ध्वस्त हो गए। मोर्टार के हमले से आगे की पंक्ति पूरी तरह से तबाह हो गई। अब चीनी फौज का ध्यान पलटन के मध्य पर केंद्रित था। मेजर शैतान सिंह जानते थे कि उनकी सेना पूरी तरह से घिर चुकी थी। लेकिन घबराए बिना उन्होंने अपनी टुकड़ी को संगठित किया। सैनिकों को उनके ठिकाने पर तैनात कर वह उनमें जोश भरने लगे।

भारतीय सैनिक बहादुरी के साथ अपने पार मौजूद हथियारों से चीनी फौज से टक्कर लेने लगे। उन्होंने कई चीनी सैनिकों को मार गिराया। मेजर शैतान सिंह भी पूरी हिम्मत के साथ दुश्मनों से भिड़ रहे थे। हालात विपरीत होने पर भी सैनिकों के उत्साह में कोई कमी नहीं थी।

हर भारतीय सैनिक के दिल में अपनी मातृभूमि के लिए प्यार का सागर हिलोरे मार रहा था। अपने घर अपने परिजनों से दूर वह सभी केवल एक ही मकसद के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा रहे थे। वह मकसद था अपने वतन का मस्तक ऊँचा रखना। तिरंगे की आन को बनाए रखना।

हमारे जवानों ने अपनी बहादुरी से बड़ी तादाद में चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। लेकिन चीनी सेना लगातार अपने सैनिकों की मदद के लिए रि-इनफोर्समेंट भेज रही थी। जबकी हमारी फौज को किसी भी तरह की सहायता नहीं मिल पा रही थी। भारतीय सैनिकों का मनोबल बना रहे इसके लिए मेजर शैतान सिंह खुद कंपनी की पांचों प्लाटून पर पहुंचकर अपने जवानों की हौसला-अफजाई कर रहे थे। वह अपनी सूझबूझ और उत्साह से बड़ी चतुरता से युद्ध का संचालन कर रहे थे।

दोनों तरफ से गोलियां चल रही थीं। एक गोली आकर मेजर शैतान सिंह की बांह में लगी। अपने दर्द की परवाह किए बिना मेजर शैतान सिंह ने लड़ना जारी रखा। एक और गोली आकर उनके पैरों पर लगी। जिसने उन्हे धराशाई कर दिया। सैनिकों की संख्या कम थी। फिर भी उन्होंने मेजर शैतान सिंह को उठा कर सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने का प्रयास किया। लेकिन ऐसा करने से सैनिकों को खतरा हो सकता था। अतः मेजर शैतान सिंह ने उन्हें आदेश दिया कि वह उन्हें वहीं छोड़ कर अपनी लड़ाई जारी रखें।

मेजर शैतान सिंह के घायल हो जाने से भारतीय सैनिकों में उत्तेजना फैल गई। वह अपने मेजर की इस हालत का बदला लेना चाहते थे। वह और भी अधिक उग्र रूप से चीनी सैनिकों पर टूट पड़े। सैनिकों के शरीर लहूलुहान थे। लेकिन उन्हें अपना दर्द भी महसूस नहीं हो रहा था। अपनी बंदूकों से वह चीनी सैनिकों को मार रहे थे। सबके सर पर एक जुनून सा सवार था। हर एक भारतीय सैनिक अधिक से अधिक चीनी सैनिकों को मार गिराना चाहता था।

उनके इस जुनून की मिसाल थे नाइक राम सिंह। राम सिंह एक पहलवान भी थे। जब बंदूक की गोलियां खत्म हो गईं तो उन्होंने अपने हाथों से ही चीनी सैनिकों को मारना शुरू कर दिया।

रेज़ांग ला की लड़ाई खत्म होने पर सभी भारतीय सैनिक मारे गए। 6 भारतीय सैनिकों को चीनी फौज ने घायल अवस्था में बंदी बना लिया। बाद में यह सैनिक भी चीनी फौज की कैद से भाग निकले।

इन्हीं में से एक कैप्टन रामचंद्र यादव हैं। उनका मानना है कि ईश्वर ने उन्हें इसलिए जीवित रखा ताकि वह अपने साथियों की वीरता और अदम्य साहस के बारे में लोगों को बता सकें।

13 कुमाऊं रेजिमेंट के अधिकांश जवान यादव थे जो कि हरियाणा, गुड़गांव, रेवाड़ी, नारनौल और महेंद्रगढ़ जिलों से ताल्लुक रखते थे। इसलिए 13 कुमाऊं रेजीमेंट का एक नाम वीर-अहीर भी है। इन वीर योद्धाओं ने विषम परिस्थितियों में उन चीनी सैनिकों से लोहा लिया जो ना सिर्फ संख्या में उनसे अधिक थे बल्कि आधुनिक हथियारों से लैस भी थे। अपनी वीरता से उन्होंने अपनी संख्या से लगभग दस गुनी संख्या में चीनी सैनिकों को मार गिराया। देश उन सभी वीर सैनिकों का ऋणी है जिन्होंने हमारी रक्षा के लिए अपने प्राण गंवाए।

युद्ध समाप्त होने के तीन महीने बाद मेजर शैतान सिंह का शव रेज़ांग ला दर्रे से लाया गया। उनको उनकी वीरता के लिए सेना के सर्वोच्च सम्मान परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया। अपनी सेना का नायक होने के नाते उन्होंने अपने दायित्व को बखूबी निभाया। यदि चीनी फौज की संख्या बल देख कर वह घबरा कर पीछे हटे होते तो स्थिति और भी भयावह हो जाती। मृत्यु तो तब भी निश्चित ही थी। सैनिकों का मनोबल टूट जाता। वह बिना लड़े मारे जाते। किंतु ना सिर्फ उन्होंने स्वयं धैर्य रखा बल्कि अपने जवानों का हौसला भी बनाए रखा। घायल हो जाने के बावजूद भी वह सेना का मार्गदर्शन करते रहे।

इसके अलावा पाँच जवानों को वीर चक्र और चार को सेना के पदक से सम्मानित किया गया।

लद्दाख के रेज़ांग-ला में भारतीय सैनिकों और चीनी सैनिकों के मध्य लड़ा गया युद्ध विश्व भर की सेनाओं के लिए एक मिसाल है। यह युद्ध हमें सिखाता है कि भारतीय सैनिक विषम परिस्थितियों में भी बहादुरी से लड़ना जानते हैं। यह वीर जवान ना सिर्फ अपनी जान तक देश की सीमाओं की रक्षा के लिए न्यौछावर करते हैं बल्कि दुश्मन के दांत भी खट्टे करना बखूबी जानते हैं।

रेज़ांग ला की लड़ाई में शहीद हुए सैनिकों को हर भारतीय का सलाम।

जय हिन्द..…

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