Suhdred - 2 in Hindi Short Stories by MB (Official) books and stories PDF | सुहृद्भेद - 2

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सुहृद्भेद - 2

सुहृद्भेद

२. धोबी, धोबन, गधा और कुत्ते की कहानी

बनारस में कर्पूरपटक नामक धोबी रहता था। वह नवजवान अपने स्री के साथ बहुत काल तक विलास करके, सो गया। इसके बाद उसके घर के द्रव्य को चुराने के लिए चोर अंदर घुसा। उसके आँगन में एक गधा बँधा था और एक कुत्ता भी बैठा था। इतने में गधे ने कुत्ते से कहा-- मित्र, यह तेरा काम है, इसलिए क्यों नहीं ऊँचे शब्द से भौंक कर स्वामी को जगाता है ? कुत्ता बोला-- भाई, मेरे काम की चर्चा तुझे नहीं करनी चाहिये और क्या तू सचमुच नहीं जानता कि जिस प्रकार मैं उनके घर की रखवाली दिन रात करता हूँ, पर वैसा वह बहुत काल से निर्जिंश्चत होकर मेरे उपयोग को नहीं मानता है, इसलिए आजकल वह मेरे आहार देने में भी आदन कम करता है। क्योंकि बिना आपत्ति के देखे स्वामी सेवकों पर थोड़ा आदर करते हैं।

गधा बोला -- सुन रे मूर्ख, जो काम के समय पर माँगे वह निन्दित सेवक और निन्दित मित्र है।

कुत्ता बोला-- जो काम अटकने पर सेवको से मीठी मीठी बातें करे वह तो निन्दित स्वामी है।

आश्रितानां भृतौ स्वामिसेवायां धर्मसेवने।पुत्रस्योत्पादने चैव न सन्ति प्रतिहस्तका:।।

क्योंकि आश्रितों के पालन- पोषण में, स्वामी की सेवा में, धर्म की सेवा करने में और पुत्र के उत्पन्न करने में, प्रतिनिधि नहीं होते हैं अर्थात ये काम अपने आप ही करने के हैं, दूसरे से करान के योग्य नहीं हैं।

गधा झुंझला कर बोला-- अरे दुष्टबुद्धि, तू बड़ा पापी है कि विपत्ति में स्वामी के काम की अवहेलना करता है। ठीक जिस किसी भी प्रकार से स्वामी जग जावे ऐसा मैं तो अवश्य कर्रूँगा।

क्योंकि पीठ के बल धूप खाय, पेट के बल अग्नि तापे, स्वामी की सब प्रकार से वफादारी और परलोक की बिना कपट से सेवा करनी चाहिए।

यह कह कर उसने अत्यंत रेंकने का शब्द किया। तब वह धोबी उसके चिल्लाने से जाग उठा और नींद टूटने के क्रोध के मारे उठ कर लकड़ी से गधे को मारा कि जिससे वह मर गया।

***

३. सिंह, चूहा और बिलाव की कहानी

उत्तर दिशा में अर्बुदशिखर नामक पर्वत पर दुदार्ंत नामक एक बड़ा पराक्रमी सिंह रहता था। उस पर्वत की कंदरा में सोते हुए सिंह की लटाके बालों को एक चूहा नित्य काट जाया करता था, तब लटाओं के छोर को कटा देख कर क्रोध से बिल के भीतर घुसे हुए चूहे को नहीं पा कर सिंह सोचने लगा --

क्षुद्रशत्रुर्भवेद्यस्तु विक्रमान्नैव लभ्यते।तमाहन्तु पुरस्कार्यः सदृशस्तस्य सैनिकः।।

अर्थात, जो छोटा शत्रु हो और पराक्रम से भी न मिले तो उसको मारने के लिए उसके चाल और बल के समान घातक उसके आगे कर देना चाहिए।

यह सोचकर उसने गाँव में जा कर भरोसा दे कर दधिकर्ण नामक बिलाव को यत्न से ला कर माँस का आहार दे कर अपनी गुफा में रख लिया। बाद में उसके भय से चूहा भी बिल से नहीं निकलने लगा -- जिससे यह सिंह बालों के नहीं कटने के कारण सुख से सोने लगा। जब चूहे का शब्द सुनता था तब तब माँस के आहार से उस बिलाव को तृप्त करता था।

फिर एक दिन भूख के मारे बाहर घूमते हुए उस चूहे को बिलाव ने पकड़ लिया और मार डाला। बाद में उस सिंह ने बहुत समय तक जब चूहे को ने देखा और उसका शब्द भी न सुना, तब उसके उपयोगी न होने से बिलाव के भोजन देने में भी कम आदर करने लगा। फिर दधिकर्ण आहारबिहार से दुर्बल हो कर मर गया।

उत्तर दिशा में अर्बुदशिखर नामक पर्वत पर दुदार्ंत नामक एक बड़ा पराक्रमी सिंह रहता था। उस पर्वत की कंदरा में सोते हुए सिंह की लटाके बालों को एक चूहा नित्य काट जाया करता था, तब लटाओं के छोर को कटा देख कर क्रोध से बिल के भीतर घुसे हुए चूहे को नहीं पा कर सिंह सोचने लगा --

क्षुद्रशत्रुर्भवेद्यस्तु विक्रमान्नैव लभ्यते।तमाहन्तु पुरस्कार्यः सदृशस्तस्य सैनिकः।।

अर्थात, जो छोटा शत्रु हो और पराक्रम से भी न मिले तो उसको मारने के लिए उसके चाल और बल के समान घातक उसके आगे कर देना चाहिए।

यह सोचकर उसने गाँव में जा कर भरोसा दे कर दधिकर्ण नामक बिलाव को यत्न से ला कर माँस का आहार दे कर अपनी गुफा में रख लिया। बाद में उसके भय से चूहा भी बिल से नहीं निकलने लगा -- जिससे यह सिंह बालों के नहीं कटने के कारण सुख से सोने लगा। जब चूहे का शब्द सुनता था तब तब माँस के आहार से उस बिलाव को तृप्त करता था।

फिर एक दिन भूख के मारे बाहर घूमते हुए उस चूहे को बिलाव ने पकड़ लिया और मार डाला। बाद में उस सिंह ने बहुत समय तक जब चूहे को ने देखा और उसका शब्द भी न सुना, तब उसके उपयोगी न होने से बिलाव के भोजन देने में भी कम आदर करने लगा। फिर दधिकर्ण आहारबिहार से दुर्बल हो कर मर गया।

***

४. बंदर, घंटा और कराला नामक कुटनी की कहानी

श्रीपर्वत के बीच में एक ब्रह्मपुर नामक नगर था। उसके शिखर पर एक घंटाकर्ण नामक राक्षस रहता था, यह मनुष्यों से उड़ती हुई खबर सुनी जाती है। एक दिन घंटे को ले कर भागते हुए किसी चोर को व्याघ्र ने मार डाला ओर उसके हाथ से गिरा हुआ घंटा बंदरों के हाथ लगा। बंदर उस घंटे को बार- बार बजाते थे। तब नगरवासियों ने देखा कि वह मनुष्य खा लिया गया और प्रतिक्षण में घंटे का बजना सुनाई देता है। तब सब नागरिक लोग ""घंटाकर्ण क्रोध से मनुष्यों को खाता है और घंटे को बजाता है'', यह कह कर नगर से भाग चले।

बाद में कराला नामक कुटनी ने सोचा कि यह घंट का शब्द बिना अवसर का है, इसलिए क्या बंदर घंटे को बजाते हैं ? इस बात को अपने आप जान कर राजा से कहा -- जो कुछ धन खर्च करो, तो मैं इस घंटाकर्ण राक्षस को वश में कर लूँ। फिर राजा ने उसे धन दिया और कुटनी ने मंडल बनाया और उसमें गणेश आदि की पूजा का चमत्कार दिखला कर और बंदरों को अच्छे लगने वाले फल ला कर वन में उनको फैला दिया। फिर बंदर घंटे को छोड़ कर फल खाने लग गये और कुटनी घंटे को ले कर नगर में आई और सब जनों ने उसका आदर किया।

***

५. सिंह और बूढ़े शशक की कहानी

मंदर नामक पर्वत पर दुदार्ंत नामक एक सिंह रहता था और वह सदा पशुओं का वध करता रहता था। तब सब पशुओं ने मिल कर उस सिंह से विनती की, सिंह एक साथ बहुत से पशुओं की क्यों हत्या करते हो ? जो प्रसन्न हो तो हम ही तुम्हारे भोजन के लिए नित्य एक पशु को भेज दिया करेंगे। फिर सिंह ने कहा -- जो यह तुमको इष्ट है तो यों ही सही। उस दिन से निश्चित किये हुए एक पशु को खाया करता था। फिर एक दिन एक बूढ़े शशक (खरगोश) की बारी आई।

त्रासहेतोर्विनीतिस्तु क्रियते जीविताशया।पंच्त्वं चेद्गमिष्यामि किं सिंहानुनयेन में ?

वह सोचने लगा-- जीने की आशा से भय के कारण की अर्थात मारने वाले की विनय की जाती है और वह मरना ही ठहरा, फिर मुझे सिंह की विनती से क्या काम है ?

इसलिए धीरे- धीरे चलता हूँ, पीछे सिंह भी भूख के मारे झुंझला कर उससे बोला -- तू किसलिए देर करके आया है ? शशक बोला -- महाराज, मैं अपराधी नहीं हूँ, मार्ग में आते हुए मुझको दूसरे सिंह ने बल से पकड़ लिया था। उसके सामने फिर लौट आने की सौगंध खा कर स्वामी को जताने के लिए यहाँ आया हूँ। सिंह क्रोधयुक्त हो कर बोला -- शीघ्र चल कर दुष्ट को दिखला कि वह दुष्ट कहाँ बैठा है। फिर शशक उसे साथ ले कर एक गहरा कुँआ दिखलाने को ले गया। वहाँ पहुँच कर, स्वामी, आप ही देख लीजिए, यह कह कर उस कुँए के जल में उसी सिंह की परछाई दिखला दी। फिर सिंह क्रोध से दहाड़ कर घमंड से उसके ऊपर अपने को गिरा कर मर गया।

***

६. कौए का जोड़ा और काले साँप की कहानी

किसी वृक्ष पर काग और कागली रहा करते थे, उनके बच्चे उसके खोड़र में रहने वाला काला सांप खाता था। कागली पुनः गर्भवती हुई और काग से कहने लगी -- ""हे स्वामी, इस पेड़ को छोड़ो, इसमें रहने वाला काला साँप हमारे बच्चे सदा खा जाता है।

दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः।ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः।।

अर्थात दुष्ट स्री, धूर्त मित्र, उत्तर देने वाला सेवक, सपं वाले घर में रहना, मानो साक्षात् मृत्यु ही है, इसमें संदेह नहीं है।

काग बोला-- प्यारी, डरना नहीं चाहिए, बार- बार मैंने इसका अपराध सहा है, अब फिर क्षमा नहीं कर्रूँगा। कागली बोली-- किसी प्रकार ऐसे बलवान के साथ तुम लड़ सकते हो? काग बोला-- यह शंका मत करो।

बुद्धिर्यस्य बलं तस्य, निर्बुध्देस्तु कुतो बलम् ?पश्य सिंहो मदोन्मत्त: शशकेन निपातितः।

अर्थात जिसको बुद्धि है उसको बल है और जो निर्बुद्धि है उसका बल कहाँ से आवे ? देख मद से उन्मत्त सिंह को शशक ने मार डाला।

कागली बोली-- जो करना है करो। काग बाला-- यहाँ पास ही सरोवर में राजपुत्र नित्य आ कर स्नान करता है। स्नान के समय उसके अंग से उतार कर घाट पर रखे हुए सोने के हार को चोंच में पकड़ कर इस बिल्ले में ला कर धर दीजिये। पीछे एक दिन राजपुत्र के नहाने के लिए जल में उतरने पर कागली ने वही किया। फिर सोने के हार के पीछे ढूंढ़ते हुए खोखल में राजा के सिपाही ने उस वृक्ष के बिल में काले साँप को देखा और मार डाला।

***