पी कहाँ?
रतननाथ सरशार
अनुवाद - शमशेर बहादुर सिंह
नवीं हूक
है दुनिया दुरंगी मकारा-सराय
कहीं खूब-खूबाँ, कहीं हाय-हाय
दुनिया के यही माने हैं। गो यह शेर भदेसल है, मगर कदर के काबिल है। कितना सच्चा मजमून हैं! दुनिया और दुनियावालों की दोरंगी जाहिर है। मुँह पर कुछ, पीठ-पीछे कुछ। मकारा-सराय के यह मानी, कि मकर की जगह : मकर और जोर-जबरदस्ती से भी हुई। दूसरे मिसरे के मजमून से कौन इनकार कर सकता है। कोई हँस रहा है, तो कोई रो रहा है। किसी की बरात धूम-धाम से ससुराल जाती है, किसी का जनाजा लोग कब्रिस्तान लिए जाते हैं। एक के यहाँ खुशी के शादियाने बजते हैं, दूसरे के यहाँ कुहराम मचा हुआ है। नूरजहाँ बेगम पोतड़ों की रईसा - जिस दिन पैदा हुई थीं मियाँ जोश की चढ़ाई पर घर-घर खुशी हुई थी। एक हफ्ते तक तोरे-बंदी, दस रोज तक नाच-रंग। जब लड़की बड़ी हुई तो घर भर की पुतलियों का तारा, बच्चा, सब की जान से प्यारा। आसमान के तारे और चिड़िया का दूध भी माँगती तो माँ-बाप ला कर मौजूद कर देते।
एक दिन मचल गई कि चाँद से खेलूँगी। बच्चे की हठ भी राजहठ और तिरियाहठ की तरह मशहूर है। अब किसी का कहना नहीं मानती! उसकी माँ उसको कोठरी में ले गई, और एक जुगनू पकड़वा के दिखा दिया। उसकी रोशनी को यह चाँद समझी। जब जाके कहीं रोना खत्म किया और हिचकियाँ बंद हुईं। अब की फिर पलटा खाया, और नौबत यहाँ तक पहुँची कि दीवानी हो गईं। अब खुदा-खुदा करके यह दिन देखा, कि जिसकी चाह में बावली हो गई थी, उससे मिलने जा रही हैं। हाथी पर दारोगा और हकीम साहब, और घोड़े पर बड़े नवाब और नवाब-दूल्हा, और फिनसों में बड़ी बेगम और नजीर बेगम और नूरजहाँ, और डोलियों में खवासें, महरियाँ, वगैरह। यह काफिला इस तरह पर रवाना हुआ। सबके कलेजे हाथ-हाथ भर के। जैसे इतने बड़े काफिले में कोई भी ऐसा न था, जिसको तमाम उम्र कभी भी रंज हुआ हो, जैसे रंग और गम का नाम ही नहीं सुना था।
शाम को मंजिल पर पहुँचे। यहीं एक डाक-बँगले में टिके, और थोड़ी देर के बाद एक काफिला और दाखिल हुआ। नवाब नादिरजहाँ बेगम, उनके मियाँ, आगा मोहम्मद जान, एक महरी, एक खवास, दो छोकरियाँ, एक सिपाही, एक मशालची। नादिरजहाँ और नूरजहाँ हमजोलियाँ मिलीं तो एक कमरे में जाके बातें होने लगीं।
नादिर - यह क्या गुल खिला रही हो, नूरजहाँ?
नूर - गुल कैसा!
नादिर - गुल वही, जिस पर रीझी हुई हो!
नूर - रीझना कैसा?
नादिर - तुम्हीं जानो।
नूर - हम तो रीझना बीझना कुछ भी नहीं जानते, बहन।
नादिर - चल झूठी! वह लौंडा कौन ऐसा परिया है जिस पर तुम-सी परी इतनी लट्टू हो गई। क्या बड़ा गोरा-चिट्टा है!
नूर - कौन लौंडा, हम क्या जानें लौंडा-पौंडा। यह कैसी बहकी-बहकी बातें करती हो, बहन? बूटी पी के आई हो, क्या?
नादिर - अब मार बैठूँगी, हाँ! ले, अब हँसी-दिल्लगी हो चुकी, यह बताओ, कि कौन है। कहीं ऐसा न हो, कि किसी ऐसे-वैसे पर गिर पड़ी। इतना फजीता भी हो, और फिर वही मोची के मोची!
नूर - अरे बहन, देखोगी तो हमसे छीन लोगी। आगा दूल्हा को भूल जाओगी। मेरी तो सचमुच जान जाती है।
नादिर - हाँ, जभी यह इश्क इतना चर्राया है!
नूर - चर्राया-पर्राया हम नहीं जानते। देखोगी तो कहोगी, युसूफ अपने वक्त का यही है।
नादिर - और जुलेखा तुम।
नूर - क्या जाने क्या सबब है, बहन, कि थोड़ी देर से दिल बैठा जाता है। पहले तो हमें यकीन नहीं आता था। समझी, कि मेरी तसल्ली के लिए झूठ-मूठ की बातें बनाई हैं। जब यकीन आया, तो बड़ी खुशी हुई, और इतनी खुशी हुई कि सचमुच जागे में फूली नहीं समाती थी।
नादिर - यह तो कायदे की बात है।
नूर - अब दिल डूबा जाता है।
नादिर - अरे, अब दो दिन में कलेजा गज भर का हो जायगा, जब वह होंठो से मिसरी घोलेगा, गर्मा-गर्म बोसे लेगा।
नूर - यह वाहियात बातें न करो!
नादिर - वाहियात बातें हैं? दिल में तो खुश होगी, और कहती होगी कि यह मुई पहाड़ सी रात काटे नहीं कटती, कहीं जल्दी से खत्म हो। और जब दोनों मिलोगे तो लाखों दुआएँ माँगोगी, कि तड़का देर में हो। सुनो तो! - इसकी खबर क्यों कर मालूम हुई कि कहाँ रहता है?
नूर - (सब हाल बयान करके) एक-एक घड़ी पहाड़ मालूम होती है।
नादिर - यह बात अब खुली!
नूर - ए तो तुमसे कौन-सी चोरी है!
नादिर - जब बुढ़िया-बुड्ढे से चोरी नहीं, तो हम तो बराबर की हैं। दो-चार महीने की बड़ाई-छुटाई क्या! यह वही है ना, जो दारोगा ने पाला था! - या शायद उसका भतीजा है!
फैजन ने नूरजहाँ के हुक्म से कच्चा-चिटठा कह सुनाया। यह किस्से को खत्म कर ही चुकी थी कि डाक-बँगले के पास रोशनी नजर आई, दस्ती मशाल। फीनस पर से एक डाक्टर उतरे, और खानसामा से ब्रांडी माँगी। हकीम साहब ने कहा - यह तो डाक्टर गोपाल गांगोली की-सी आवाज है। इतने में कहा - क्या डाक्टर साहब हैं? जवाब आया - जी हाँ, हकीम साहब बंदगी। अक्खाह, नवाब साहब है, बंदगी!
हकीम - कहाँ के धावे हैं, डाक्टर साहब?
डाक्टर - वह जो राजा राहत हुसैन है, वह भौत बीमार हो गया है। आदमी हमारे पास आया, कि रातों रात आइए! सो, हम जाता है।
हकीम - वह आदमी कहाँ है? वह जो टाँगे पर आता है?
नवाब बहुत घबराए। उनके दामाद भी परेशान हुए। इतने में टाँगा पास आया। दारोगा आगे बढ़े।
दारोगा - अरे मियाँ, मुबारक हुसैन, राजा कैसे है?
मुबारक - दारोगा साहब, क्या अर्ज करूँ। मिजाज अच्छा नहीं है। बेचैनी की कोई हद नहीं।
दारोगा - अल्लाह अपना फजल करे।
मुबारक - हाँ, खुदा मालिक है। मगर हाल अच्छा नहीं है।
हकीम - क्या हाल है?
मुबारक - नब्ज बहुत ही सुस्त चलती है।
हकीम - अरे!
नवाब - या खुदा, हर आफत से बचाना!
डाक्टर साहब और मुबारक हुसैन चल दिए। और इस कुल काफिले को मालूम हो गया कि जिसके लिए जाते है, उसका हाल पतला है। नूरजहाँ का तो सुनते ही फिर पहले-जैसा हाल हो गया। बड़ी बेगम तजरुबेकार औरत थीं। सोचा कि जब नब्ज ही सुस्त हो गई तो बचने की कौन सूरत है, लड़की दोनों जहान से गई। मियाँ-बीवी, लड़कियों और दामादों में चुपके-चुपके बातें हुईं। नवाब ने हकीम साहब से भी सलाह की।
हकीम - मुबारक हुसैन कोई डाक्टर नहीं, हकीम नहीं। लुर आदमी है। क्या जाने कि नब्ज क्या चीज है। नब्ज का देखना कोई दिल्लगी है? वह डाक्टर ही कौन बड़े नब्बाज होते हैं!
दारोगा - अमीर का लड़का है, और सिर्फ एक ही औलाद है। जरा पाँव में फाँस चुभी, तो बस गजब ही हो गया।
हकीम - बस यही बात है। घबराइए नहीं।
नवाब - चलिए, इसी वक्त रवाना हों! कुछ दूर तो है नहीं।
हकीम - बेशक, चलिए।
दारोगा - चलिए तो जान में जान आ जाय।
हकीम - क्या अफसोस है!
नवाब - जो मौला की मर्जी!
बेगम साहब की भी यही सलाह हुई। नवाब-दूल्हा ने आदमियों को हुक्म दिया कि रोटी जल्द खाओ, हाथियों, घोड़ों, बैलों को रातब खिलाओ। कूच होनेवाला है। सब ने झट-पट रोटी खाई, रातब खिलाया, लैस हुए। नूरजहाँ को नादिरजहाँ और नजीर और फैजन ने बहुत समझाया।
काफिला रवाना हुआ। नूरजहाँ का दिल बल्लियों उछलता था। हरदम नाउम्मीदी की तस्वीर आँखों में फिरती थी। आँखों से आँसू नहीं बहते थे, मगर दिल रोता था। बड़ी बेगम को शक की जगह यकीन था कि लड़का न बचेगा, और लड़की भी रो-रो के जान दे देगी। फैजन और प्यारी बहुत उदास थीं, सितारन और दुलारी मुर्झाई हुई। दोनों दामाद उदास। नवाब के के चेहरे पर मुर्दनी हुई हुई। दारोगा और हकीम तो खामोशी की हालत में, नवाब बहुत रंजीदा। एक मुकाम पर पहुँचे तो आवाज आई - पी कहाँ! बस इस आवाज का सुनना था कि नूरजहाँ, दीवानी तो हो ही गई थी, और भी दीवानी हो गई, और बे-झिझक, बिला लिहाज पी कहाँ! पी कहाँ! की आवाज लगाने लगी। जंगल में दो आवाज पी कहाँ! की उठीं। इस दर्द-भरी आवाज और जुनून की हालत से काफले भर का दिल और भर आया। गो रात का वक्त था, मगर जो आदमी इक्का-दुक्का मिलता था, वह फीनस में से 'पी कहाँ!' की आवाज सुन कर साफ समझ जाता था, कि कोई लड़की दीवानी हो गई है, किसी कमसिन की आवाज है। चलते-चलते एक आदमी मिला। उससे दारोगा साहब ने पूछा - अरे भाई, खैर-सल्लाह कह चलो! उसने कहा - दारोगा साहब, तबीअत बहुत बिगड़ गई थी। डाक्टर साहब ने आके के देखा, और दवा दी। जब से तबीअत सॅँभल गई है। नहीं तो रोना-पीटना मच गया था। और सच यों है कि जब उठें और नहाएँ, जब हम पतियाएँ। हमको डाक्टर साहब ने बर्फ लेने को भेजा है। दारोगा ने कहा - बर्फ हमारे साथ है, पंद्रह सेर। तुम भी जाके लाओ। ड्योढ़ लगी रहे।
इस चीज के सुनने के बाज-बाज को जरा तसल्ली हुई। मगर नूरजहाँ और बड़ी बेगम को जरा तसल्ली न हुई। क्योंकि उस आदमी ने कहा कि जब उठके बैठें और नहाएँ, तब की बात है। उससे दिल की तसल्ली होना मुश्किल ही थी। मगर यह मालूम हो गया कि राजा अभी जिंदा हैं। हकीम जाते ही है, डाक्टर मौजूद ही है, इलाज हो रहा है कि बच जायँ। नजीर बेगम दो दिन की जागीं थीं, फिनस में सो रहीं। जब एक दफा जोर से 'पी कहाँ!' की आवाज सुनी तो उठ बैठीं और बड़ा रंज किया कि हाय! अच्छी होके फिर दीवानी हो गई। दिल को इतनी ढारस थी कि इस लड़के के देखते ही दोनों की जान में जान आएगी। मुमकिन है कि यह उसको और वह इसको देख के ऐसे खुश हों कि उसकी बीमारी और इसकी दीवानगी दूर हो जावे। खुशी अजीब चीज है। जिस तरह इंसान गम से घुल जाता है, उसी तरह खुशी से पनप जाता है।
चलते-चलते रास्ते में दारोगा न एक से पूछा, अरे, भाई, खैरियत तो है? उसने कहा, दारोगाजी, डाक्टर साहब जान लड़ा रहे हैं। और पहले से बड़ा फर्क है। दुआ और दवा दोनों में, रुपया कौड़ियों की तरह खर्च हो रहा है। और बड़ी रानी साहब अंगारों पर लोट रही हैं। अब जल्द जाइए। दारोगा ने कहा, अब तो पहुँच ही गए। खुदा मालिक है। घबराने की कोई बात नहीं। अल्लाह पर हरदम भरोसा रखना चाहिए।
थोड़ी ही देर में काफिला अपनी मंजिल पर आ पहुँचा। वहाँ देखा, तो सब फाटक खुले हुए, और हर मुकाम पर तेज रोशनी, चकाचौंध का आलम, और लोग इधर-उधर दौड़ते हुए। सब बदहवास, परेशान। पर्दा हुआ। मर्द सब बाहर रहे। औरतें अंदर गईं। जनानी डयोढ़ी पर वहाँ की औरतें आगे बढ़के उन्हें मिलीं और अंदर ले मई। और बड़ी रानी ने बदहवासी के साथ पूछा - हमारी बहू कौन हैं?
नजीर बेगम ने नूरजहाँ की तरफ इशारा करके कहा - आपकी बहू ये हैं। इतना सुनते ही बड़ी रानी नूरजहाँ को लिपट गईं। और आँखों में आँसू भर कर कहा - अल्लाह करे तुम्हारी जोड़ी बरकरार रहे। अब हमारी जान में जान आ गई। सबकी सब अंदर गईं।
अब वहाँ का हाल सुनिए। एक बड़े बैठकखाने में डाक्टर बैठे हुए। उसी में एक पलँग बिछा हुआ, बिस्तर साफ-सुधरा। इत्र और गूगल और अगर की बत्ती और फूलों की खुशबू से मकान भर महक रहा था। लैंप रोशन, सब लैंपों पर हरा शेड। घर की नौकरी औरतें अदब के साथ हाथ बाँधे हुए खड़ी, सब खामोश। दवाओं की शीशियाँ और बोतलें इसी बैठकखाने में एक तरफ चुनी हुईं। उस पलँग को, जिस पर राजा राहत हुसैन आराम करते थे, बहुत सी औरतों ने घेर लिया था। कोई पूछती थीं - भैया हमको पहचानते हो? कोई कहती थी - डाक्टर साहब, मैं लौंडी हो जाऊँगी, इनको कोई ऐसी दवा दीजिए कि बातें करने लगें। किसी ने रो कर कहा - या इलाही, यह क्या हो रहा है! मर्दों में सिवाय दीवान कांजीमल और डाक्टर और एक ख्वाजासरा के और कोई नहीं। कांजीमल और डाक्टर से इस परेशानी की हालत में किसी ने पर्दा नहीं किया। जान पर बनी हुई थी। डाक्टर साहब वाकई जान पर खेल गए, जान लड़ा दी, बाहर दो सौ सैयदों को खिलाया गया। एक तरफ लंगर बँट रहा था, दूसरी तरफ फकीरों को खाना और कपड़ा दिया जाता था। यह उस वक्त का हाल है जब यह काफिला दाखिल नहीं हुआ था। जब यह काफिला दाखिल हुआ, और ये लोग आए, फौरन आग और इमलाक भर में पर्दा करा दिया गया। अब सिर्फ डाक्टर बैठे थे। कांजीमाल बाहर चले गए। नूरजहाँ अपनी परेशानी और रंज और गम सब भूल गईं। एक-एक कदम पर यह मालूम होता था कि एक जान की जगह हजार-हजार जानें पैदा होती जाती हैं, दिल बाग-बेगम ने कहा - मुझे तो दोबारा जिंदगी मिली! नजीर बेगम बोलीं - अम्मीजान, दुबारा जिंदगी पाईं!
नादिर जहाँ ने कहा - किसको यह उम्मीद थी। हाय, मैं तो बाजी जान, बिलकुल नाउमीद हो गई थी।
फैजन नूरजहाँ के साथ-साथ थी, और चुपके-चुपके कहती जाती थी कि वह भारी जोड़ा लूँगी कि यहाँ की जितनी रानियाँ और बेगमें हैं, सब शरमा जायँ!
प्यारी अकड़ के चल रही थी।
दुलारी, सितारन, सब बेहद खुश, कि दुल्ला के घर पर आ गए। डाक्टर साहब से कहा गया, कि जरा आड़ में हो जाइए।
पलँग के पास फैजन, नूरजहाँ बेगम तो चली गईं, और सब दूर खड़ी रहीं। नूरजहाँ पहले तो जाते हुए झिझकी, शर्म आई।
फैजन ने कहा - अरे, सरकार, चलिए! फिर मुस्करा कर चुपके से कहा - ए वाह, अब रंग लाई गिलहरी।
और जितनी औरतें थीं, सब हट गईं।
अब सुनिए कि डॉक्टर ने आके इस साहबजादे को बड़ी बुरी हालत में पाया था और स्टीमुलेंट देने शुरू किए, यानी दवा जो मरते हुए को थोड़ी देर जिंदा कर देती हैं, यानी कुछ नशे की दवाएँ। उनसे सौ में दो-चार दस-पाँच अच्छे भी हो जाते हैं।
इन दवाओं ने जो तजरुबेकार डाक्टर पंद्रह-पंद्रह बीस-बीस मिनट में देते जाते थे, मरज की खूब रोकथाम की। नूरजहाँ जब जाके पँलग पर बैठी, तो फैजन ने जो इस लड़के के साथ खेल चुकी थी, कहा - हुजूर का मिजाज कैसा कैसा है?
उन्होंने आँखें खोल दीं, और नूरजहाँ को देख कर रूह को कुछ ताजगी मिली, मगर फैजन के सवाल का कुछ जवाब न दिया।
फैजन ने फिर छेड़ कर कहा - ए हजूर, देखिए तो पलँग पर कौन बैठा है?
नूरजहाँ का कलेजा बल्लियों उछलता था।
उस लड़के ने आँखें खोल कर अपनी प्यारी माशूका पर नजर डाली। इतने इश्क और मोहब्बत के होते हुए भी, इस कदर कमजोरी जिस्म पर छा गई थी, कि बोलने की सकत न थी।
आँखें भर कर देख तो, मगर मुस्कराने तक की मरज ने इजाजत न दी!
फैजन ने कहा - ए हजूर, इनका तो पी कहाँ! कहते कहते मुँह थक गया, गला सूख गया, और आपकी ऐसी बेरुखी! ए मुँह से बोलो, मकर किए पड़े हो।
इस लड़के और फैजन की लड़कपन से मुलाकात थी और बेतकल्लुफी तो लड़की में होती ही है।
कभी इस वक्त के ऊँचे दर्जे का लिहाज करके सरकार कहने लगती थी, मगर मुँह से बोलियों के बजाय बोलो कह जाती थी। घर की औरतें सब हैरान, कि यह क्या माजरा है। हम तो समझे थे कि दोनों की चार आँखें होते ही दोनों पनप जाएँगे, बीमारी दूर हो जायगी, मगर यह सब खयाल ही खयाल था। इतने में डाक्टर साहब ने कहा - पंद्रह मिनट हो गए। पर्दा होना चाहिए।
बड़ी रानी ने अपनी एक महरी को हुक्म दिया कि चादर नूरजहाँ बेगम को उढ़ा दो, बस, पर्दा हो गया। वह चादर ले जाने ही को थी कि एकाएक मरीज का मनका ढलका - औरतें और डाक्टर आड़ से मरीज को गौर के साथ देख रहे थे, औरतें दौड़ पड़ीं।
डाक्टर दूर से देख कर बाहर चल दिए, और वहाँ हकीम साहब से कहा - राजा साहब गुजर गया।
और महलखाने में इतना कुहराम मचा कि इस मुकाम के दस कोस तक पचास-साठ बरस से ऐसा कुहराम न मचा होगा।
एक दफा डाक्टर और हकीम को जबरदस्ती लोग अंदर ले गए। हकीम साहब ने नब्ज देखी, डाक्टर ने सीने पर हाथ रक्खा, और दोनों फिर बाहर चले। हकीम साहब ने चलते हुए इतना कहा - अल्लाह में सब कुदरत है।
इतने में पलँग के इर्द-गिर्द भीड़ लग गई, और तीन हिचकियाँ इस मरीज ने लीं, और चौथी हिचकी में दम निकल गया। अब पिट्टस और कुहराम की आवाजें आसमान के पर्दे फाड़ने लगीं। और जब नूरजहाँ ने एक औरत के बैन की आवाज सुनी - अरे मेरे नर्गिस आँखोंवाले बच्चे! देख तो सिरहाने कौन बैठी है!
इतना सुनना था कि नूरजहाँ ने आँख खोल के देखा और लाश की गर्दन को अपने मेहँदी-रचे हाथों से जरा उठा कर बाँहें डाल दीं, और बावली सिड़न तो हो ही गई थी, दो बार गालों को चूमा। और उसी दम एक पलँग पर दो लाशें नजर आईं। एक की बाँहें दूसरे के गले में।
अगर रूह कोई चीज है तो वाकई इन दोनों बेजान तन की रूहों को कितनी खुशी होगी कि इस कदर हसरत और नाकामी में भी यह बात हासिल हुई कि दोनों लाशें गले लगाए पड़ी हैं।
जिस वक्त नूरजहाँ ने दम तोड़ा, उसके एक मिनट पहले उसने तीन बार वह आवाज - जिसको उसके दिल की बड़ी सख्त हूक कहना चाहिए - ऊँची की थी, और तीसरी आवाज, जिसके बाद उसने जान जान देनेवाले को सुपुर्द कर दी, यह थी - पी कहाँ!
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