Pee Kahan - 5 in Hindi Fiction Stories by Ratan Nath Sarshar books and stories PDF | पी कहाँ? - 5

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पी कहाँ? - 5

पी कहाँ?

रतननाथ सरशार

अनुवाद - शमशेर बहादुर सिंह

पाँचवीं हूक

'गोरी खोल दे पट घूँघट का!

मोरा मन तोरे लटकन में अटका। गोरी...

अरी एरी गुजरिया छम-बिछवा बाज रहे

बोलत पोर-पोर तोरे अनवट का। गोरी...

अरी एरी गुजरिया, टोना भरा तोरे नैनन में

नैना जादू भरा सैनन भटका। गोरी...

अरी एरी गुजरिया लटक-लटक झूम रही

तोरे पिया का दिल में मन अटका। गोरी...

एक बढ़िया और नफीस और खूबसूरत बजरे पर एक बहुत खूबसूरत लड़का एक बड़े लंबे चौड़े तालाब में अपने आप खेता चला जाता था। साफ चमकता हुआ पानी, मोती को शरमाता था, और सफाई इतनी थी कि पानी की तह में सरसों बराबर चीज भी साफ नजर आती थी। - और बड़ी दर्दभरी, हसरतभरी आवाज में, नीचे सुरों में, काफी की धुन में, यह ठुमरी जो हमने ऊपर लिखी है, गाता था। आवाज और रंग-रूप और बुशरे और चेहरे से उदासी बरसती थी। ठुमरी बहुत अच्‍छी तरह अदा करता था। नूर का गला था। यों सब ठुमरी की ठुमरी सुनने से इंसान कह देता कि यह चीज उसी का हिस्‍सा है, मगर अंतरे के शुरू में जो बोल था - अरी एरी गुजरिया - यह तो जो सुनता 'अश्-अश्' करने लगता। इस खूबसूरती से उसको अदा करता था, कि वाह-वा! बस यही जी चाहता था कि गले को हजारों बार चूमे, और उसको अपने पास बिठा कर बस सुना ही करे। बड़ा रस आवाज में था। पहले तो आहिस्‍ता-आहिस्‍ता गाता था, मगर एक दफा तो इतना जोश में आता कि जोर-जोर से गाने लगा। जरा खयाल न रहा, कि कोई सुनता तो नहीं है।

धीरे-धीरे यह आवाज महलसरा तक पहुँची, और छत पर से महरी दौड़ कर नीचे आई, और बेगम से कहा - सरकार भैया आज तालाब में बड़े जोर-जोर से गा रहे हैं। बेगम कुछ खटकीं। छत पर गईं, तो लड़के की आवाज - बोलत पोर-पोर तोरे अनवट का, अरी एरी गुजरिया... अरी एरी गुजरिया - ये खुद गलेबाज थीं - सुना कीं। कहा - महरी, इसमें कोई भेद जरूर है। यह दर्द की आवाज बेवजह नहीं। कुछ दाल में काला जरूर है। जाके बुला तो लाओ। कहना, बड़ी रानी बुलाती हैं - फिर चले आना। जरी खड़े-खड़े हो जाओ। बड़ा जरूरी काम है।

महरी डयोढ़ी पर गई। महलदार ने कहा - कहाँ! कहाँ! कहाँ चलीं बी चमक्‍को, बल खाती कूल्‍हा फड़काती हुई? उसने कहा, जाते हैं, भैया को बुलाने। महलदार बोला - वह तो जमीजम अभी तलाब की तरफ सिधारे हैं। वह तालाब के पास गई।

अब इन नौजवान ने दादरा और पीलू छेड़ दिया था :

दिल दे दे सँवलिया, यार, दरसन तो दिखा जा, प्‍यारे - दरसन तो दिखा जा!

झलक-झलक तो दिखा जा, प्‍यारे!

साँवली सूरत हिया माँ समा जा रे, दरस तो दिखा जा प्‍यारे!

जब जरा खामोश हुआ तो महरी ने कहा - सरकार, बेगम साहब बड़ी रानी बुलाती हैं...

सुनते ही धक से रह गया। बड़े जोश में गा रहा था। जाने किसके बिरह में दीवाना हो रहा था - या यों ही दिल बहलाने के लिए। महरी ने टोका, तो हक्‍का-बक्‍का हो गया, और अब गोया होश में आया, कि मैं जोर-जोर से गा रहा था। माँ के पास से जो तलबी आई तो फौरन गया। डयोढ़ी पर पहुँचने के पहले ही महरी ने कहा - होशियार! और जितने मुलाजिम वहाँ बैठे थे, सब उठ खड़े हुए, और साहबजादे अंदर गए।

बेगम - बेटा तुम कहाँ थे?

साहबजादा - कहीं नहीं, अम्‍मी जान।

बेगम - रस्‍ते में गए थे?

साहबजादा - जी हाँ, तालाब में सैर कर रहा था।

बेगम - क्‍या तुम्‍हारी - जान से दूर! तबीअत कुछ बैचैन है? जी कैसा है?

साहबजादा - अच्‍छा हूँ सरकार!

महरी - देखिए पिंडा तो पीका नहीं है! अल्‍लाह न करे!

बेगम - (माथे पर हाथ रख कर) नहीं, अल्‍लाह न करे! - जाओ, सैर करो।

साहबजादा - आपने यह कैसे खयाल कर लिया कि मैं बेचैन हूँ! कोई बात नहीं है।

बेगम - देर से तुमको देखा नहीं था। जाओ, सैर करो।

साहबजादे साहब अबकी सैर को नहीं गए। पहले शेर के कटघरे के पास गए। दो सिपाही और एक आदमी जो जानवरों को खिलाता था, और जिससे जानवर हिले हुए थे, सलाम करके हाजिर हुए।

साहबजादा - यह शेर कितने रोज से है यहाँ?

आदमी - सरकार, बच्‍चेपन से हैं। राजासाहब ने एक शेरनी खेरीगढ़ के जंगल में मारी थी, उसी का बच्‍चा है।

साहबजादा - तुमसे बहुत हिला हुआ है।

आदमी ने कटघरे में हाथ डालके पुकारा - बच्‍चे! और शेर खुश होके उठा और हाथ को चाटने लगा। जब उसने हाथ निकाल लिया और छिप रहा, तो शेर कटघरे के इधर-उधर ढूँढ़ने लगा। और आदमी फिर उभरा तो शेर ने दौड़ कर उसकी जानिब कटघरे पर सर रख दिया। उसके बाद अरना भैंसे को जाके देखा। इतने में एक मुलाजिम ने किसी का कार्ड लाके दिया। हुक्‍म हुआ - बुलाओ! एक नौजवान हिंदू (ख), उम्र में तीन चाल साल बड़ा, सफेद कपड़े पहने हुए आया। दूर ही से दोनों हँसे, और बड़े तपाक से मिले।

ख - कहो दोस्‍त, चैन-चान!

साहबजादा - जिंदा हैं, मगर क्‍या जिंदा हैं। (एक सर्द आह भर कर) यह हमारा हाल है।

ख - खैर तो? मैं समझा नहीं।

साहबजादा - कहिए तो मुश्किल, न कहिए तो मुश्किल।

ख - कुछ तो कहो, यार!

साहबजादा - भाई अब तो जिंदगी तलख है।

ख - कुछ पागल हुए हो क्‍या? अरे जालिम, अब काहे का रोना है? अब तो खुदा का दिया सब कुछ है।

साहबजादा - कुछ भी हमारा नहीं है।

ख - कुछ भी हमारा नहीं है! इसके क्‍या मानी? जो होना चाहिए, उससे बढ़ कर है। धन, दौलत, रुपया, अशरफी, नोट, जवाहरात, इलाका, गाँव-गिराँव, राज, आदमी, नौकर-चाकर, मुगलानियाँ, महरियाँ, खवासें, हबशिनें, महलदार, हाथी, घोड़े, फीलखाना, अस्‍तबल, रमना, शेर, रीछ, अरना, भैंसा, इमलाक - कोठियाँ। अब और क्‍या होना चाहिए?

साहबजादा - (ठंडी साँस भर कर) हाँ!

ख - वल्‍लाह, मैं जानता तो न आता। दो घड़ी दिल बहलाने आए थे।

साहबजादा - हमारे दिल का हाल तो तुम जानते ही हो।

ख - अरे तो हम तो पता लगा लेंगे।

साहबजादा - अरे यार पता क्‍या खाक लगाओगे! हमारी, वालिदा ने दूसरी जगह शादी ठहराई है।

ख - अरे! अब तो मामला मुश्किल हो गया।

साहबजादा - (एकाएक बहुत उदास हो कर) फिर अब?

ख - जी छोटा मत करो!

साहबजादा - अब कौन सूरत निकल सती है सिवाय चुपचाप कुढ़ने और रोने के -या कहो, भाग जाऊँ... कुछ ले-दे के भाग जाऊँ?

ख - अपनी माँ तक किसी तरह यह बात पहुँचाओ। किसी को अपना राजदान कर लो। अब समय खोना ठीक नहीं है। तड़-तड़ जो कुछ हो, वह, बस। भई हम तो खुश-खुश आए थे कि आज फर्माइश करके उम्‍दा-उम्‍दा खाने पकवाएँगे। हमारे दोस्‍त ताल्‍लुकदार निकले, हम राजा के हाँ जाते हैं। य‍ह क्‍या मालूम था, कि यह बिजोग पड़ जाएगा!

साहबजादा - अरे यार खाना और तमाम दुनिया के ऐश-आराम तुम्‍हारे दम के लिए हैं। मगर दिल काबू में नहीं। चैन नहीं पड़ता। देखिए मैं अभी खाना पकवाता हूँ। घर आखिर पकता ही है, बाहर भी दो-चार फरमाइशी चीजें पक जाएँगी।

ख - नहीं भाई साहब, बखेड़ा न कीजिए। जो घर से पकके आएगा, वही क्‍या बुरा होगा! बस, वही बहुत।

साहबजादा - वाहवा, क्‍या अब हम खाना खाना छोड़ देंगे। हमारी तो बड़ी कोशिश यह है कि जिस तरह हो गम गलत करें, मगर नामुमकिन है।

ख - हमें इस वक्‍त बड़ा अफसोस हुआ, वल्‍लाह।

साहबजादा - बावर्ची को बुलाओ, जी। घर में दर्याफ्त करो, इस वक्‍त क्‍या पक रहा है। और अरबी का सालन कीमे में मेथी, और खुश्‍क पराठे, मूली की चपातियाँ, और मीठे टुकड़े, और माश की दाल।

ख - बस काफी है यार।

साहबजादा - अच्‍छा, तुम? बाहर?

ख - हम बताएँ, हम बताएँ... जो हम बताएँ - वो पकवाओ। अंदर तो बहुत चीजें पकती हैं। मगर कबाब नहीं हैं। गर्मागर्म नहीं गर्मागर्म सीख कबाब, और अंडे भरे कबाब, बस। पुलाव हमें पसंद नहीं।

साहबजादा - अरे वाह रे गँवार!

ख - हमको शराब के साथ कबाब और पूरी पसंद है।

साहबजादा - कुछ पूरियाँ भी तल लेना जी।

ख - ले अब हमारा शगल मँगवाओ और तखलिए में चलो। साहबजादे साहब इनको एक कमरे में ले गए। दरवाजे खोले तो अजब गहार का लुत्‍फ दिखाई देता था - ओर हरी-हरी दूब का पूरा जीवन यहाँ से लूटते थे। ये शराब नहीं पीते थे, मगर उनके हिंदू दोस्‍त्‍ा बडे़ पियक्‍कड़। अकेले में बातें होने लगीं।

ख - हमारी तो यही राय है, कि वालदा से साफ-साफ कह दीजिए।

साहबजादा - अरे भाई, हमारी वालदा चाहती हैं कि हमारे एक चचा की लड़की से हमारा रिश्‍ता हो। हम घर ही में शादी करेंगे। मैंने जो दो एक औरतों से साफ-साफ कह दिया कि हम अभी निकाह न करेंगे, और निकाह करेंगे तो अपनी पसंद से, बस, गजब हो गया। बहुत रोईं। मुझे बुलाके बहुत समझाया कि बेटा मैं दुखी हूँ। मुझ पर दुख पर दुख पड़े हैं। अब जो अल्‍लाह ने सुख दिया - तुमको लाखों बरस की उम्र अल्‍लाह दे - तो तुम यों जलाते हो। ऐसी अच्‍छी लड़की है, गोरी-चिट्टी, सोलह बरस की उम्र, सलीकेदार। ऐसी कहीं मिल सकती है? और अपनी लड़की जानी-बूझी, घर की लड़की। अब हम उनसे अपने दिल का हाल क्‍या कहें कि हमारी तो किसी और पर जान जाती है, दूसरी कब पसंद आएगी। उसके सिवा, जो औरत हमारी बगल में बैठेगी, काली मालूम होगी। दूसरे-दिन उन्‍होंने लड़की को बुलवाया। लड़की है, अब सयानी हुई, यों तो हमारा निकाह उससे होना ही चाहिए। बराबर, पीढ़ी दर पीढ़ी, घर ही में शादियाँ हुआ कीं, अपने-अपने घर रस्‍म है। हमारे खान्‍दान में गैर जगह की लड़की लाना ऐब समझा जाता है। और कयामत का सामना यह है कि अगर गैर जगह शादी करे तो सिर्फ बुरी बात ही नहीं, बल्कि बुरा शगुन समझा जाय। खान्‍दान में किसी ने गैर जगह शादी की थी। एक ही अठवारे में मियाँ-बीबी दोनों चल बसे। तब से गैर जगह शादी करने की रस्‍म ही छोड़ दी गई। लड़की दिखाने के बाद हमारी वालदा ने एक औरत को जो लड़कपन में हमारे साथ खेली हुई थी, कहला के भेजा कि हमारा दिल टटोले। उसने बातों बातों में कहा, सरकार अपनी बहन को देखा? आपकी और इनकी कितनी अच्‍छी जोड़ी है। अल्‍लाह ने अपने हाथ से बनाई है - उम्रें दोनों की अच्‍छी, दोनों खूबसूरत दोनों पढ़े-लिखे - हमारी तरह जाहिल मूरख नहीं, दोनों के मिजाज में सादगी। हाय हम तो हजूर को ढूँढ़ते ही थे कि बीबी (मतलब उस लड़की) की बदनसीबी से यह सब गड़बड़ हुआ। अब अल्‍ला-अल्‍ला करके यह दिन देखने में आया... तो बेगम साहब से लड़ लड़के भारी जोड़ा लूँगी। वह यह बातें कर रही थी और मैं ठंडी साँसें भर रहा था। जी चाहता था कि यह यहाँ से उठ जाय, तो अच्‍छा। वह सिखाई-पढ़ाई तो आई ही थी, हमारी परेशानी और ठंडी साँसें भरते और चितवनों और तेवर से ताड़ गई कि बहन से रिश्‍ता करना इनकी मरजी के खिलाफ है। मैंने भी जल-भुन के कह दिया - अरी, कुछ दिवानी हुई है! मैं शादी ही नहीं करूँगा, तू है किस फेर में? बस इतना सुनना था कि वह बहुत समझाने लगी और मैं उठ के चला गया। बस, अम्‍मा से जा के जड़ दिया। घर भर में सबको अफसोस। उस लड़की से नहीं कहा, कि अपने दिल में बुरा मानेगी, कि मैं कोई सड़ी मछली हूँ कि फेंक देते है? वालदा ने कई दिन तक समझाया। घर जहन्‍नुम का नमूना हो गया। वालदा बहुत रोया कीं, और उनके रोने से मेरा दिल भर आता था। मकान फाड़े खाता था।

ख - बड़ी मुश्किल आन पड़ी है।

साहबजादा - कैसी कुछ! मुश्किल सी मुश्किल है! हा!

इतने में एक नौकर ने बाहर से अर्ज की - हजूर बड़ी सरकार ने याद किया है। महरी आई है।

साहबजादे ने दस मिनट की इजाजत अपने दोस्‍त से ली और उन्‍होंने इसी खवास से कहा - जरा बाहर के बावर्जीखाने से कोई नमकीन चीज, जो बची बचाई हो, ले आओ! यह 'बहुत खूब!' कह कर गया और सुबह की बची हुई तली अरवियाँ और दो शामी कबाब और प्‍लेट में थोड़ा-सा मुतंजन और भेजा। मुतंजन तो उन्‍होंने फेर दिया, और बाकी सब चीजें रख लीं, और शगल किया किए। सामने तालाब लहरें ले रहा था। लहरों की झिलमिल रवानी, और किनारे का दमकता हुआ सब्‍जा, हरी-हरी दूब। एक तरफ हाथी झूम रहे, एक तरफ शेर और अरना भैंसा रीछ। कई क्‍यारियों में ताजे फूल महकते हुए, दरख्‍तों पर जानवर चहकते हुए। थोड़ी देर में साहबजादे आए, आँसू पोंछते हुए।

ख - वही बखेड़ा होगा, और हो ही क्‍या सकता है!

साहबजादा - जी हाँ! जिंदगी तलख है।

ख - जिनको खुदा ने धन-दौलत दी है, उनको आराम नहीं।

साहबजादे - भाई, एक काम करो। तुम जाके पता तो लगाओ कि क्‍या मामला हो रहा है, और हमारी माशूका कहाँ है आखिर! उन सबको हमारा हाल क्‍या मालूम, मगर तुमको तो मालूम है।

ख - मैं तो खुद सोच रहा था। कल ही रवाना हूँगा।

दर तक बातें हुआ कीं, और आपस में खूब सलाह-मशविरा हुआ। खाना खाने के बाद दोनों ने आराम किया। और सुबह को चुपड़ी रोटियाँ और सादा कोरमा और मछली के कबाब बावर्ची ने नाश्‍ते के लिए साथ कर दिए, और इस जंटिलमैन ने अपने दोस्‍त के साथ दूधिया चाय पी। इधर रानी साहब ने लड़के को बुला कर फिर समझाया - बुझाया - कि बेटा जो काम करो, समझ के करो, जल्‍दबाजी न करो। और निकाह के बारे में मुझ दुखिया को और ज्‍यादा दुख न दो। अरे मैं तुम्‍हारे ही भले के लिए कहती हूँ।

***