पी कहाँ?
रतननाथ सरशार
अनुवाद - शमशेर बहादुर सिंह
तीसरी हूक
मियाँ जोश की मशहूर चढ़ाई पर एक बहुत ऊँचा टीला था। उस पर एक खस से छाया हुआ खुशनुमा बँगला बना हुआ था, और उसी से लगी हुई एक पक्की महलसरा थी, जिसका पत्थर का हम्माम दूर तक अपना जोड़ नहीं रखता था। बँगले से महलसरा को मजबूत-मजबूत तख्तों की छत से मिला दिया था। जब चाहा बँगले को मर्दाना कर दिया, जब चाहा जनाना मकान बन गया। इस बँगले की छत के एक कमरे में एक बूढ़ा रईस अपनी बूढ़ी बीवी के पास बैठा हुआ अकेले में बातें कर रहा था। सिर्फ एक महरी चँवरी लिए हुए पीछे खड़ी थी।
रईस - बेगम, हमने दारोगा को मय उस नालायक लौंडे के निकाल बाहर किया, और कुरान की कसम खाके कह दिया कि अगर इस मकान में क्या मानी - इस शहर में कदम रखा, जो जान ले लूँगा, जीता न छोडूँगा। मैं तो मार डालने की फिक्र में था, और तुम जानती ही हो, और एक तुम ही क्या, इस शहर में कौन नहीं जानता, कि मैंने जब जिसको ताका, उसको मारा। बच ही नहीं सकता। और इस लौंडे सूअर के तो खून का प्यासा हूँ। दोनों को निकाल कर बाहर किया।
बेगम - अजी, यह सारा तुम्हारा ही कसूर है। चले थे मौलवी साहब से लड़की को पढ़वाने। मैं कहती ही थी। न माना, न माना। वह बूढ़ा, अस्सी बरस का सही : चाहे सात बरस की। पंच भैयावालों की लड़कियाँ भी पड़ती हैं, मगर साथ करीने के। एक दिन बीच में दे के मेम आती है, पढ़ा जाती है।
रईस - अब इसके निकाह की फिक्र जरूर करो।
बेगम - तुम तो नवाब हारी-जीती एक नहीं मानते।
नवाब - क्यों मैंने क्या किया? तुम कोई अच्छे घर का लड़का बताओ। खूबसूरत हो, खान्दानी हो, पढ़ा लिखा हो, कोई बीमारी न हो।
बेगम - खूबसूरत हो या न हो। हमको इसका खयाल नहीं है। इंदर-सभा खड़ी करनी है? कथक या भाँड का लौंडा नहीं! हाँ, कोई ऐब न हो, काना न हो, लँगड़ा न हो, बस।
नवाब - तो फिर तजवीजो।
बेगम - ए वह घर क्या बुरा है... कश्मीरी दरवाजे के पास जो वसीकेदार रहते हैं। मैं एक दफा खाकान मंजिल में गई थी, वहाँ उन वसीकेदार की घरवाली के साथ उनका लड़का आया था। हमारी नूरजहाँ के बराबर ही बराबर उम्र में होगा। लड़की की बाढ़ जरा ज्यादा होती है। यह तेज, वह भुग्गा। बस, खेलते-खेलते नूरजहाँ ने उसके बाल पकड़ लिए तो रोने लगा, और माँ ने लिपट कर कहा, अम्मीजान, देखो, यह लड़की हमें मारती है। सारे बाल पकड़ के नोच डाले। उसने कहा - अच्छा लड़ो नहीं। दूसरी दफा फिर खेलते-खेलते उसने जोर से एक चटाखा दिया तड़ से। बहुत रोया। फिर माँ से शिकायत की। उसने अबकी झल्ला के कहा - अरे, तो तू भी क्यों मार नहीं बैठता।
नवाब - उनके यहाँ से तो पहले एक दफा बात उठ चुकी है।
बेगम - हाँ, हाँ, जी। उनके-हाँ चकलेदारियाँ, रिसालदारियाँ, होती आई है। वसीका भी, सुनती हूँ, भारी है।
नवाब - उस लड़के के बाप का वसीका दो सौ तीस है, माँ का दो सौ सत्रह और किसी करीबी भाई बंद के मरने से अब सत्तावन और मिलने लगे है। पाँच, साढ़े पाँच सौ की आमदनी है। दो मकान है, अपने खुश हैं।
बेगम - फिर क्या बुरा घर है!
नवाब - कुछ नहीं। हमसे उस लड़के के बाप ने साल भर हुआ खुद कहा था, यह हो जाय तो अच्छा।
बेगम - तुमने लड़की से फौरन नाहक कह दिया। अब तो मुद्दत्त से बाहर जाती नहीं। बरसें हो गईं। छै-सात बरस की उमर से नहीं जाती। और जब जाती थी, तो जनाने ही मकान के दरवाजे से। हमारे सामने ही तो पढ़ती थी।
नवाब - ए तोबा तो है - कि अभी तक बातों-बातों में बन्नन का जिक्र रकती है। भला ऐसे टकलचे को हम अपनी साहबजादी बेटी दे सकते हैं। ठौर न ठिकाना, उठाऊ चूल्हा।
बेगम - और नौकर लड़का। वह लाख शरीफ सही।
नवाब - बिरादरी में बदनामी, तमाम जमाने में बदनामी। खुद अपना दिल इस बात की कब गवाही देता!... महरी, चँवरी रख दो, और नीचे से केवड़े का शर्बत, बर्फ डालके, और थोड़ा पानी मिला कर, लाओ। दो गिलास लाना, एक हमारे और एक बेगम के लिए।
महरी चली गई, तो नवाब ने कहा, तुम्हारे गाल हमको इस वक्त बहुत प्यारे मालूम होते हैं। एक... दो! वह मुस्करा कर बोलीं - ए हटो, ये ठंडी गर्मियाँ रहने दो! बड़े... लेनेवाले ! अरे, वाह रे बुढऊ!
नवाब ने उठके बोसा लिया तो बेगम बोली - अरे वाह बुढ़ौना! यह दम-दाइया! दूसरी दफा फिर जोर से बोसा ले कर गोद में बैठा लिया। और महरी आन पहुँची, और उन्होंने जल्दी से गोद से उतार दिया। ये दोनों शर्माए, और वह जवान औरत मुँह फेर के हँसने लगी। शरबत पिला कर गिलास रखने नीचे गई तो बहुत हँसती हुई। जब और औरतों ने जिदकरके पूछा, तो कहा - ये बूढ़े मियाँ तो छुपे रुस्तम निकले। ए, मैं जो शरबत लेके कोठे पर गई तो देखती क्या हूँ कि बेगम को गोदी में लिए...! यह बुड्ढा तो जवानों के भी कान काटता है। पहले तो किसी को यकीन न आया, कहा - 'चल, झूठी! दिन को ऊँट तो सूझता नहीं! उसने लाखों कसमें खाईं, तो मुगलानी ने कहा - जो यही हाल है, तो आज के नवें-दसवें महीने बड़ी बेगम की गोद में चाँद-सा बेटा खेलता होगा। बूढ़े मुँह मुँहासे, लोग देखें तमाशे!
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