हुश्शू
रतननाथ सरशार
अनुवाद - शमशेर बहादुर सिंह
आठवाँ दौरा
धर लिए गए
यों तो लखनऊ में मेले बहुत से होते हैं - ऐशबाग के मेले - परिस्तान की परियों का गुंचा खिला हुआ, बावली का मेला - गठा हुआ, अलीगंज का मेला भी, खैर, ऐसा बुरा नहीं। गोल दरवाजे का मेला, होली के दिन सब सफेदपोश - सुनहरा मेला। साहजी के बँगले से चौक तक और कश्मीरी मोहल्ला, यहियागंज नख्खास, यह-वह, हर मोहल्ले में छोटे-छोटे मेले होते हैं। दिवाली की रात, शबरात - तमास शहर जगमगाता है। मजहबी मेलों में रामलीला - ड्रैमेटिक मेला, मोहर्रम - हर जगह रोशनी, हुसैनाबाद मुबारक, नजफ, अशरफ मीरबाकर का इमामबाड़ा, हैदरी का इमामबाड़ा। यह सब कुछ होता है, मगर आठों के मेले के बराबर कोई मेला नहीं होता। खुदा जाने कहाँ-कहाँ से लोग आते हैं। थाली उछालियों तो तमाम बैसवाड़े भर में सर ही सर जाय। (लखनऊ बैसवाड़े में है और बैसवाड़े के तलवरिए मशहूर हैं।) खुलासा यह कि इतने आदमी जमा होते हैं कि अगर लाम बाँधा जाय, तो पामीर से रूसियों को मास्को तक पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाय।
इस इतने बड़े मेले में लाला जोती परशाद साहब 'हुश्शू' मय अपने दोस्तों के सैर-कनाँ तशरीफ ले गए।
जो - चलो तालाब पर चल के दरी बिछाके बैठें।
1 - वल्लाह बड़ी बहार है बी नजीर जान की। ये जालिम छोकरियाँ - बेनजीर और बद्रेमुनीर इस ठस्से से आई हैं कि देखने से ताल्लुक रखता है।
2 - और आबादी की छोकरियों पर क्या जोबन है!
इस पर एक बड़ा कहकहा पड़ा। और जोती परशाद ने कहा - 'जोबन' की एक ही हुई। अबे कहीं तो 'जीम' ('ज') बोला होता!
एक ठिठोल दोस्त ने कहा - जब जरूरत होगी, बोलेंगे। जाहिर छोड़ तो जरूरत नहीं है।
आगे बढ़े तो बग्गन की फीनस मिली। एक ने कहा - इन पर भी बड़ा जोबन है। इस पर और कहकहा पड़ा, और जिसने 'जोबन' कहा था वह बहुत शर्माए।
1 - यह फारसी की टाँग क्यों तोड़ते हो?
2 - भई 'जोबन' भी याद रहेगा।
3 - बग्गन के ठाठ देखिए। सारे चौक की नाक है। आँखों में मोहिनी। और आगे बढ़े तो एक और नाजनीन नजर आई - परीछम, बर्कदम। ये लोग घूरने लगे। एक ने दिल्लगी में कहा - यार हमें तो इसकी एक आँख दिखाई देती हैं?
वह तुनुक कर बोली - मालूम होत है, सावन माँ फूटी राहीं। ईंट की ऐनक लगावो!
'होत' और 'राही' और 'लगावो' से समझ गए कि देहातिन है। दो गाल इससे हँस-बोल कर आगे बढ़े, तो देखा बड़ी भीड़ है। और दो कमसिन यहूदिनें, तनी हुई, अजब अंदाज व नाज से खड़ी मोम के लंगूर और मछलियाँ और कछुवे मोल ले रही हैं। ठठ के ठठ जमा। एक पर दस और दस पर सौ गिरे पड़ते हैं।
1 - मालूम होता है, परियों को पर काटके छोड़ दिया।
2 - खूब घूर लो, यारो, आँखें सेको। मजेदारियाँ हैं।
जो - भई क्या सूरतें हैं, वल्लाह।
1 - देखने से भूख प्यास बंद हो जाती है।
2 - कोहकाफ की परियाँ जो मशहूर हैं, वह यही हैं।
3 - जी चाहता है कि गोद में उठाके ले जाऊँ।
4 - कौन! इतने जूते पडे़ं कि खोपड़ी गंजी हो जाय!
3 - बला से पड़ें। ऊँह, पड़े, पड़ें!
इतने में जोती परशाद के एक दोस्त ने कहा - अरे यार, यहाँ खड़े रहना ठीक नहीं है। सब शोहदे जमा है। जो कोई देखेगा तो कहेगा।
जोती परशाद ने कहा - आपकी ऐसी की तैसी। और यहाँ से जानेवाले की ऐसी की तैसी।
क्या खुदादाद हुस्न पाया है - आप अल्लाह ने बनाया है!
अब सुनिए कि जिधर वह दोनों परीजाद जाती थीं, तमाम मेला उसी जानिब हो लेता था। और डेरेवालियों में जो-जो बनाव चुनाव करके गई थीं, वह कटी जाती थीं। एक बोली - किस काम की हैं! पहनावा तो देखो, जैसे दुमकटी हिरनी। दूसरी ने कहा - ए, फीका शलजम! नमकीनी का नाम नहीं। अल्लाह जानता है, जो उनकी रानें देखो, तो बस यह मालूम हो कि कोढ़ है।
ये जली-कटी कह रही थीं कि - हमारी चाह छोड़ के जिसे देखो उनके पीछे लट्टू हैं!
इनका पीछा छोड़के जोती परशाद मय दोस्तों के वहाँ आके बैठे, जहाँ बग्गन की फीनस थी। उसके बिस्तर से इनका बिस्तर कोई बीस कदम के फासले पर था।
जो - कहिए बी बग्गन साहब, मिजाज शरीफ।
ब - अब तो सुना आप लोगों को पागलखाने की हवा खिलाया करते हैं।
जो - (हँस कर) वह भी एक दिल्लगी थी! चलिए एक दिन आपको भी दिखा लायँ।
ब - ए, तुम्हारे मुँह में खाक-धूल! अल्लाह उसके साये के करीब न ले जाय!
जो - देखोगी तो फड़क जाओगी!
ब - आप ही को मुबारक है। मैं हुश्शू नहीं हूँ।
जो - आपने सुना कहाँ था?
ब - ए लो, और सुनिएगा! ए, यह भी कोई छिपी हुई बात है! सारा शहर जानता है। हमें बड़ा रंज था कि रईस आदमी, हँसमुख, और एकाकी अक्ल से खारिज हो गया।
ये यहाँ से बोरिया-बँधना उठाके कश्मीरियों के बाग में आए, और सैर करके फिर तालाब की तरफ जाते थे, कि जिस बेचारे के मकान को इन्होंने बेच लिया था, उसने उनको देख लिया, और आग हो कर दौड़ा।
- ओ चचा! बहुत दिन बाद मिले! चुलबुली सिंह ठाकुर बने हुए अंडे बेचते थे। किराया छै महीने पहले ही दे गए थे। औने-पौने पर मकान बिकवा लिया। इधर आओ, चचा जान!
यह कह कर कलवार और उसके लड़के और दामाद ने इनको जोर से गिराया, और कलवार ने चाकू निकाल कर इनकी नाक पर रख ही तो दिया। मगर वैसे ही एक शख्स, लाला रूप नरायन नाम, ने फौरन चाकू पर हाथ डाल दिया। चाकू नाक पर जरा यों ही सा छिछलता हुआ लगा। वर्ना 'नाक कटी मुबारक, कान कटा सलामत' का मामला हो जाता!
कान्स्टेबलों ने आके कलवार और उसके लड़के और दामाद और आठ दस बेगुनाहों को गवाही की इल्लत में गिरफ्तार ही तो कर लिया। मुकदमे की कार्रवाई और रूदाद से कोई गरज नहीं, खुलासा यह कि कलवार को एक हफ्ते की कद-सख्त की सजा मिली। और मियाँ हुश्शू की नाक गो कट नहीं गई, मगर निशान यों ही सा बन गया। हात्तेरे गीदी की! मेले भर में हुल्लड़ मच गया कि जोती परशाद की नाक किसी ने जड़ से उड़ा दी। जितने मुँह उतनी ही बातें। लोगों ने नाक के होते - साथ ही नकटा बना दिया।
यहाँ से चले तो दोस्त सब साथ हो लिए, और उनसे कहा कि अब आप घर चलिए। मगर एक बाग तक पहुँचे ही थे कि बोतलवाला मिला। उसकी बीवी बनी-ठनी उसके साथ थी। उसने जो इनको देखा, तो बड़ा खुश हुआ, कि बाद मुद्दत अपने मुजरिम को पाया।
मियाँ लाला, सलाम। पहचाना?
लाला - (सहमे हुए) क्या?
मियाँ - (हाथ पकड़के) भलमन्सी सब मिटा दूँ। अरे तू भलेमानस बना है!
इनके एक दोस्त ने बोतलेवाले का हाथ झटक दिया, और एक लप्पड़ दिया।
बीवी - (रोती हुई) अरे काहे का बड़े आदमियन से लड़त हैं?
मियाँ - अरे सुसरी, इसी ससुर ने बोतलें उस दिन तोड़ी थीं। अरे, यह वही है।
बीवी - अरे भाई, अरे भाई!
दोस्त - दूर हो यहाँ से, भाई की बच्ची!
मियाँ - हजूर हम गरीबों की सुनोगे कि नहीं। हमको झूठा पता बतला के अपने घर भेजा। न घर, न दर। और हमारी बीस-बाइस बोतलें तोड़ी और भाग गए। हम तो इनका लहू पी लेंगे।
दोस्त - (एक और लपोटा जमा कर) अब तेरी लाश निकलेगी!
इस पर बहुत से आदमी जमा हो गए और बोतलेवाले ने रो-रो कर हाल कहना शुरू किया, और उसकी बीवी भी साथ ही रोती थी, कि नुक्सान का नुक्सान हुआ मार की मार खाई। मेलेवालों में बाज को तो जोती परशाद से हमदर्दी थी, कि रईस हो कर एक अदना बोतलवाला इस बेहूदगी से पेश आया। और बाज को उनकी इस हरकत से जरा भी हमदर्दी न थी - कि बेचारे गरीब का नुक्सान किया। और बाज को मौका मिला कि उसकी जवान और नमकीन औरत को घूरें। यहाँ तक कि एक बिगडे दिल जवान ने उसको आँसू बहाते देख कर फौरन जेब से रेशमी रूमाल निकाला, और उसके आँसू पोंछे।
और इस बहाने से उसके नमकीन-नमकीन गालों पर भी बड़े प्यार से हाथ फेर ही तो दिया। वाह उस्ताद, मानता हूँ।
तकरार तो अभी हो रही थी, और इनके दो-एक दोस्त भी वाकिफ थे कि इन्होंने उस बेचारे गरीब का नुक्सान किया। आपस में फैसला करके बोतलवाली को पाँच रुपए दे दिए। ये भी दिल्लगी से न चूके। दिए भी तो बोतल-वाली को, बोतलवाले से कोई मतलब नहीं - गो घी कहाँ गया, खिचड़ी में मगर उनके दिल का हाल तो मालूम हो गया।
खैर, अब उनके दोस्तों ने मशविरा किया कि इनको किसी और बंद पालकी में ले जायँ, ताकि अब और कोई फजीता न हो। पालकी ढूँढ़ ही रहे थे कि मियाँ चपई (यानी उस कलवार का नौकर, जिसकी दुकान की मठूरें और बोतलें खुद-बदौलत तोड़ आए थे) ने इनको देख लिया, और गुल मचा कर कहा - लाला, लाला, दौड़ो! अरे वह मिले हैं जौन सोने की घड़ी पहिने अपनी दुकान का सत्यानास कर गए थे!
लाला आवाज सुनते ही दौड़ पड़ा। और गो ये लाख बगलें झाँकने लगे, वह झपट ही तो पड़ा। और आते ही इनके पटे लेने को था, मगर जुर्रत न हुई। बहुत जोर-जोर से गुल मचा-मचा कर शिकायत करने लगा। फिर एक भीड़ लग गई। ठठ के ठठ जमा। मालूम हुआ कि कलवार की दुकान पर हजूर ने वह अनोखी हरकतें कीं जो आज तक किसी ने नहीं की थीं। इनके दोस्तों की जान अजाब में हो गई। अब किस-किस से लड़ें किस-किस से भिड़ें! और फिर यह भी खयाल था कि लोग हमको क्या कहेंगे, और उनको क्या मालूम होगा कि ये हुश्शू से लड़ रहे हैं या हमसे।
लाचार, अपनी करनी अपने सर, इन लोगों ने उसको समझाया, कि इस धींगा-मुश्ती से कुछ न होगा। इनके घर पर कल सुबह आठ बजे आओ। हम लोग भी होंगे, फैसला कर दिया जायगा। वह इन शरीफों के कहने से राजी हो गया। सब अपने-अपने घर आए। सुबह को यही दोस्त उनके घर गए। उनके चचा से कुल हाल कहा - उन्होंने अपना सर पीट लिया, और कहा, खैर, जो कुछ हुआ, वह हुआ। इनसे रुपया दिलवाया जाय। कलवार भी मय चंद दोस्तों के आया। पचास पर फैसला हुआ।
और जोती परशाद के आदमी ने पचास गिनके दे दिए और रसीद ली। अब यह मशविरा होने लगा कि मकानवाले का रुपया फौरन अदा कर दिया जाय। ऐसा न हो कि वह दीवानी-फौजदारी दोनों में दावा कर दे, और बड़ा फजीता हो। जब वह कैद से निकला, तो ये लोग बुला लाए। और उसने रो-रो कर अर्ज की, कि मैं एक नीच कौम आदमी, आप ही रईसों की बदौलत आध सेर आटा कमाता हूँ। मेरा मकान का मकान खुदवा के बेच लिया और जेलखाने का जेलखाना हो गया।
सुननेवालों को कुछ तो हँसी आती थी और कुछ रंज होता था। बड़ी देर तक रोया-चिल्लाया किया। जो सुनता था, हँसता था, कि भई अच्छे किरायेदार मकान में बसाए, कि मकान ही घूम गया। दोनों में यह फैसला आपस में हुआ कि सात सौ रुपया नकद मालिक मकान को दिया जाय और एक हजार दो सौ रुपए की सौ रुपए माहवारी के हिसाब से किस्त। यों तोड़ हुआ।
अब लाला जोती परशाद साहब की आँखें खुल गईं, और अगली-पिछली बातों पर अफसोस करने लगे, और दोस्तों से कहा कि अगर आप साहबों की शान के खिलाफ कोई बात मुझसे हुई तो माफ फरमाइएगा।
1 - अजी, यह क्या फरमाते हैं?
2 - जो हो गया सो हो गया।
3 - अब बीती को छोड़िए और आगे की सुध लीजिए। मगर अब खुदा के लिए बहशत कीन लेना। लिल्लाह, तबीअत, को सँभालो, काबू में रक्खो, आदमी बनो।
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