हुश्शू
रतननाथ सरशार
अनुवाद - शमशेर बहादुर सिंह
पहला दौरा
बेतुकी हाँक
महुए से कुछ गरज है न हाजत है ताड़ की
साकी को झोंक दूँगा मैं भट्टी में भाड़ की!
हात्तेरे पीनेवाले की दुम में पुरानी भट्टी का जंग लगा हुआ भभका! ओ गीदी, हात्तेरे शराबखोर की दुम में मियाँ आलू बुखारा अत्तार की करनबीक! ओ गीदी, हात्तेरे मतवाले की मगड़ी के दोनों सिरों में कठपुतली नाच-ताक धनाधन ताक धनाधन। हात्तेरे की - और लेगा? अबे, तुम लोगों के हम वैसे ही दुश्मन हैं जैसे मोर साँप का, कुत्ता बिल्ली का, गेंडा हाथी का। गैंडे ने हाथी को देखा - और जंजीर तुड़ाके दौड़ा और सींग मारा और हाथी का पेट फाड़ डाला, - हात्तेरे की - और लेगा? मियाँ हवन्ना साहब कजली बन के महाराजा बने चले जाते हैं, मगर दुश्मन से नहीं चलती। साँप के नाम से लोग काँप-काँप उठते है, यहाँ तक कि औरतें रात को साँप का नाम नहीं लेतीं - कोई मामूजी कहती है, कोई रस्सी। अगर मोर ने पकड़ा और झिंझोड़ा और निगल गया - हात्तेरे की! और लेगा? बिल्ली, जुलमी जानवर मशहूर है - बाघ की मौसी शेर की खाला। मगर कुत्ते ने जहाँ दबोचा, बिल्ली मय म्याऊँ के गायब-गुल्ला - हात्तेरे की! और लेगा?
इसी तरह हम जानी दुश्मन तुम लोगों के हैं। बस चले तो कच्चा ही खा जायँ, कभी न छोड़ें। और क्यों छोड़ने लगे, जी? न पियो तो हम काहे को बोलें! गरज? मगर यह मुमकिन नहीं कि पियो और हम छोड़ दे, यह तो सीखा ही नहीं यहाँ। पीने के नाम पर तीन हरफ - लाम, ऐन, नून; बल्कि चार - लाम, ऐन, नून, ते (ल, अ, न, त - 'लानत') जिनको बाज मूरख कम पढ़े 'नालत' बोलते हैं। हम वह शख्स हैं जो तुम्हारा नाम सुनके इस तरह भागें, जैसे लाहौल! कहने से शैतान भागता है - जैसे गधे के सर से सींग नदारद - कहीं पता ही नहीं - बिलकुल कमंदे हवा! - हत्तेरे गीदी की! और लेगा?
यह दुख्तरे-रिज, हरामजादी, मुर्दार,
मीनाबार की है रहनेवाली!
(दुख्तरे-रिज - अंगूर की बेटी, यानी शराब)
इन मालजादियों को भलेमानस कहीं मुँह लगाया करते हैं! उसकी ऐसी तैसी! हम किसी शरीफ को कब मानते हैं, ए लाहौल! - हात्तेरे की और तेरे साथ ही ऐरे-गैरे की।
दिन रात गुफ्तगू है शराबो-कबाब की,
क्या मुँहलगों ने यार की सोहबत खराब की!
बहुत ठीक, बहुत दुरस्त। निहायत सही।
शराब थोड़ी सी मिलती तो हम वजू करते,
खुदा के सामने पैदा कुछ आबरू करते!
यह गलत, इसका बाप गलत! यों कहना चाहिए -
शराब थोड़ी सी पीते तो मस्त होते हम
खराब होते हम और मय परस्त होते हम!
जितने शेर शराब की तारीफ में हैं सबको उलट कर न रखा हो तो हमारी दुम में भी बहराइच का नम्दा। और नम्दा भी कौन? मोटा सर, आग से ज्यादा गर्म - धुआँ निकलता हुआ।
ओ हो हो, वाह रे, मैं और वाह री मेरी तबीअतदारी। बस मैं ही मैं हूँ, जो कुछ हूँ। जवाब काहे को रखता हूँ, चोर हो मेरा दोस्त, डाकू हो मेरा यार, उठाईगीरा हो मेरा जिगर, लुच्ची हो मेरी जान। बेसवा हो कि भटियारी हो - उसकी एक एक अदा पर मेरी जान वारी। मगर शराबी की सूरत से नफरत चाहिए। थोड़ी पिए चाहे बहुत, इससे बहस नहीं। आदमी वह अच्छा जो इस मुर्दार के पास न फटके, दूर-दूर रहे - मंजिलों दूर। शराब पर तुफ। जहाँ पाओ उसकी बोतल तोड़ डालो। उसकी भट्टी को भाड़ में डालो, उसकी दुकान का तख्ता उलट दो, कलवारीखाने को आग लगा दो, कलवार को फूँक दो - कलवार का नाम दुनिया के सफे से गलत हरफ की तरह मिटा डालो। अगर मुँह लगी हो - तो तलाक दे दो।
यह बोतल है कि इक टिल्लो है कानी,
चुडैलों की चची डायन की नानी!
अगर डाक्टर दवा में शराब दे, तो दवा को फेंक दो, पुड़िया को फूँक दो, शीशी को तोड़ दो, बोतल को फोड़ दो! और अगर इन्सानियत मिजाज में हो - तो आव देखो न ताव, डाक्टर को मार बैठो! हात्तेरे की - और लेगा, गीदी?
यह है हर हाल में माहुर से बदतर
खुदाई मार इस दारू मुई पर!
न कपड़ों की खबर ना तन की कुछ सुध,
कहीं, पगड़ी, कहीं जूता कहीं सर।
भलेमानुस से बन जाते हैं पाजी,
पड़े हैं अक्ल पर कैसे ये पत्थर!
जो हो जाएँ ये इक चुल्लू में उल्लू,
सुनाएँ लाख साकीनामें फर फर,
उचकते फाँदते हैं पी के ठर्रा,
हैं इंसाँ शक्ल में, सीरत में बंदर,
नहीं कुछ थाह उनके पाजीपन की
भरे ऐबों से हैं दफ्तर के दफ्तर!
गरज कि जहाँ कही शराब देखो, छीन लो, शराबी मिले तो - मतवाला देख लो तो - चटाव से दो! हात्तेरे गीदी की!
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