Azad Katha - 2 - 111 in Hindi Fiction Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | आजाद-कथा - खंड 2 - 111

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आजाद-कथा - खंड 2 - 111

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 111

आज बड़ी बेगम का मकान परिस्तान बना हुआ है। जिधर देखिए, सजावट की बहार है। बेगमें धमा-चौकड़ी मचा रही हैं।

जानी - दूल्हा के यहाँ तो आज मीरासिनों की धूम है। कहाँ तो मियाँ आजाद को नाच-गाने से इतनी चिढ़ थी कि मजाल क्या, कोई डोमिनी घर के अंदर कदम रखने पाए। और आज सुनती हूँ कि तबले पर थाप पड़ रही है और गजलें, ठुमरियाँ, टप्पे गाए जाते हैं।

नाजुक - सुना है, आज सुरैया बेगम भी आने वाली हैं।

बहार - उस मालजादी का हमारे सामने जिक्र न किया करो।

नाजुक - (दाँतों तले उँगली दबा कर।) ऐसा न कहो, बहन!

जानी - ऐसी पाक-दामन औरत है कि उसका सा होना मुश्किल है।

नाजुक - यह लोग खुदा जाने, क्या समझती हैं सुरैया बेगम को।

बहार - ऐ है! सच कहना, सत्तर चूहे खाके बिल्ली हज को चली।

इतने में एक पालकी से एक बेगम साहब उतरीं। जानी बेगम और नाजुक अदा में इशारे होने लगे। यह सुरैया बेगम थीं।

सुरैया - हमने कहा, चलके जरी दुलहिन को देख आएँ।

रूहअफजा - अच्छी तरह आराम से बैठिए।

सुरैया - मैं बहुत अच्छी बैठी हूँ। तकल्लुफ क्या है।

नाजुक - यहाँ तो आपको हमारे और जानी बेगम के सिवा किसी ने न देखा होगा।

सुरैया - मैं तो एक बार हुस्नआरा से मिल चुकी हूँ।

सिपहआरा - और हमसे भी?

सुरैया - हाँ, तुमसे मिले थे, मगर बताएँगे नहीं।

सिपहआरा - कब मिले थे अल्लाह! किस मकान में थे?

सुरैया - अजी, मैं मजाक करती थी। हुस्नआरा बेगम को देख कर दिल शाद हो गया।

नाजुक - क्या हमसे ज्यादा खूबसूरत हैं?

सुरैया - तुम्हारी तो दुनिया के परदे पर जवाब नहीं है।

नाजुक - भला दूल्हा से आपसे बातचीत हुई थी?

सुरैया - बातचीत आपसे हुई होगी। मैंने तो एक दफा राह में देखा था।

नाजुक - भला दूसरा निकाह भी मंजूर करते हैं वह।

सुरैया - यह तो उनसे कोई जाके पूछे।

नाजुक - तुम्हीं पूछ लो बहन, खुदा के वास्ते।

सुरैया - अगर मंजूर हो दूसरा निकाह, तो फिर क्या?

नाजुक - फिर क्या, तुमको इससे क्या मतलब?

रूहअफजा - आखिर दूसरे निकाह के लिए किसे तजवीजा है।

नाजुक - हम खुद अपना पैगाम करेंगे।

रूहअफजा - बस, हद हो गई नाजुकअदा बहन! ओफ्फोह!

नाजुक - (आहिस्ता से) सुरैया बेगम, तुमने गलती की। धीरज न रख सकीं।

सुरैया - हम जान फिदा करते, गर वादा वफा होता,

मरना ही मुकद्दर था, वह आते तो क्या होता!

नाजुक - हाँ, है तो यही बात। खैर, जो हुआ, अच्छा ही हुआ, मसलहत भी यही थी।

हुस्नआरा बेगम ने यह शेर सुना और नाजुक बेगम की बातें को तौला, तो समझ गईं कि हो न हो, सुरैया बेगम यही हैं। कनखियों से देखा और गरदन फेर कर इशारे से सिपहआरा को बुला कर कहा - इनको पहचाना? सोचो तो, यह कौन हैं?

सिपहआरा - ऐ बाजी, तुम तो पहेलियाँ बुझवाती हो।

हुस्नआरा - तुम ऐसी तबीयतदार, और कब तक न समझ सकीं?

सिपहआरा - तो कोई उड़ती चिड़िया तो नहीं पकड़ सकता।

हुस्नआरा - उस शेर पर गौर करो।

सिपहआरा - अख्खाह, (सुरैया बेगम की तरफ देख कर) अब समझ गई।

हुस्नआरा - है औरत हसीन।

सिपहआरा - हाँ हैं; मगर तुमसे क्या मुकाबिला।

हुस्नआरा - सच कहना, कितनी जल्द समझ गई हूँ।

सिपहआरा - इसमें क्या शक है, मगर यह तुमसे कब मिली थीं? मुझे तो बाद नहीं आता।

हुस्नआरा - खुदा जाने। अलारक्खी बनके आने न पाती, जोगिन के भेस में कोई फटकने न देता। शिब्बोजान का यहाँ क्या काम?

सिपहआरा - शायद महरी-वहरी बनके गुजर हुआ हो।

हुस्नआरा - सच तो यह है कि हमको इनका आना बहुत खटकता है। इन्हें तो यह चाहिए था कि जहाँ आजाद का नाम सुनतीं, वहाँ से हट जातीं, न कि ऐसी जगह आना।

सिपहआरा - इनसे यहाँ तक आया क्योंकर गया?

हुस्नआरा - ऐसा न हो कि यहाँ कोई गुल खिले।

सिपहआरा ने जा कर बहार बेगम से कहा - जो बेगम अभी आई हैं, उनको तुमने पहचाना? सुरैया बेगम यही हैं। तब तो बहार बेगम के कान खड़े हुए। गौर से देख कर बोलीं - माशा-अल्लाह! कितनी हसीन औरत है! ऐसी नमकीनी भी कम देखने में आई।

सिपहआरा - बाजी को खौफ है कि कोई गुल न खिलाएँ।

बहार - गुल क्या खिलाएँगी। अब तो इनका निकाह हो गया।

सिपहआरा - ऐ है, बाजी! निकाह पर न जाना। यह वह खिलाड़ है कि घूँघट के आड़ में शिकार खेलें।

बहार - ऐ नहीं, क्यों बिचारी को बदनाम करती हो।

सिपहआरा - वाह! बदनामी की एक ही कही। कोई पेशा, कोई कर्म इनसे छूटा? लगावटबाजी में इनकी धूम है।

बहार - हम जब इस ढब पर आने भी दें।

उधर नाजुकअदा बेगम ने बातों-बातों में सुरैया बेगम से पूछा - बहन, यह बात अब तक न खुली कि तुम पादरी के यहाँ से क्यों निकल आईं। सुरैया बेगम ने कहा - बहन, इस जिक्र से रंज होता है। जो हुआ; वह हुआ, अब उसका घड़ी-घड़ी जिक्र करना फजूल है। लेकिन जब नाजुकअदा बेगम ने बहुत जिद की तो उन्होंने कहा - बात यह हुई कि बेचारे पादरी ने मुझ पर तरस खा कर अपने घर में रखा और जिस तरह कोई खास अपनी बेटियों से पेश आता है, उसी तरह मुझसे पेश आते। मुझे पढ़ाया-लिखाया, मुझसे रोज कहते कि तुम ईसाई हो जाओ; लेकिन मैं हँस के टाल दिया करती थी। एक दिन पादरी साहब तो चले गए थे किसी काम को, उनका भतीजा, तो फौज में नौकर है, उनसे मिलने आया। पूछा - कहाँ गए हैं? मैंने कहा - कहीं बाहर गए हैं। इतना सुनना था कि वह गाड़ी से उतर आया और अपनी जेब से बोतल निकाल कर शराब पी। जब नशा हुआ तो मुझसे कहने लगा, तुम भी पियो। उसने समझा, मैं राजी हूँ। मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं उससे अपना हाथ छुड़ाने लगी। मगर वह मर्द, मैं औरत! फिर फौजी जवान, कुछ करते-धरते नहीं बनती थी। आखिर बोली - साहब, तुम फौज के जवान हो। मैं भला तुमसे क्या जीत पाऊँगी? मेरा हाथ छोड़ दो। इस पर हँस कर बोला - हम बिना पिलाए न मानेंगे। मेरा तो खून सूख गया। अब करूँ तो क्या करूँ। अगर किसी को पुकारती हूँ, तो यह इस वक्त मार ही डालगा। और बेइज्जत करने पर तो तुला ही हुआ है। चाहा कि झपट के निकल जाऊँ, पर उसने मुझे गोद में उठा लिया और बोला - हमसे शादी क्यों नहीं कर लेतीं? मेरा बदन थर-थर काँप रहा था कि या खुदा, आज कैसे इज्जत बचेगी, और क्या होगा! मगर आबरू को बचानेवाला अल्लाह है। उसी वक्त पादरी साहब आ पहुँचे। बस, अपना सा मुँह ले कर रह गया। चुपके से खिसक गया। पादरी साहब उसको तो क्या कहते। जब बराबर का लड़का या भतीजा कमाता-धमाता हो, तो बड़ा-बूढ़ा उसका लिहाज करता ही है। जब वह भाग गया, तो मेरे पास आ कर बोले - मिस पालेन, अब तुम यहाँ नहीं रह सकतीं।

मैं - पादरी साहब, इसमें मेरा जरा कुसूर नहीं।

पादरी - मैंने खुद देखा कि तुम और वह हाथापाई करते थे।

मैं - वह मुझे जबर्दस्ती शराब पिलाना चाहते थे।

पादरी - अजी, मैं खूब जानता हूँ। मैं तुमको बहुत नेक समझता था।

मैं - पूरी बात तो सुन लीजिए।

पादरी - अब तुम मेरी आँखों से गिर गईं। बस अब तुम्हारा निबाह यहाँ नहीं हो सकता। कल तक तुम अपना बंदोबस्त कर लो। मैं नहीं जानता था कि तुम्हारे यह ढंग हैं।

उसी दिन रात को मैं वहाँ से भागी।

उधर बड़ी बेगम साहब इंतजाम करने में लगी हुई थीं। बात-बात पर कहती जाती थीं कि अल्लाह! आत तो बहुत थकी। अब मेरा सिन थोड़ा हैं कि इतने चक्कर लगाऊँ। उस्तानी जी हाँ-में-हाँ मिलाती जाती थीं।

बड़ी बेगम - उस्तानी जी, अल्लाह गवाह है, आज बहुत शल हो गई।

उस्तारी - अरे तो हुजूर दौड़ती भी कितनी हैं! इधर से उधर, उधर से इधर।

महरी - दूसरा हो तो बैठ जाय।

उस्तानी - इस सिन में इतनी दौड़-धूप मुश्किल है।

महरी - ऐसा न हो, दुश्मनों की तबीयत खराब हो जाय। आखिर हम लोग किस लिए हैं?

बड़ी बेगम - अभी दो-तीन दिन तो न बोलो, फिर देखा जायगा। इसके बाद करना ही क्या है।

उस्तानी - यह क्यों? खुदा सलामत रखे; पोते-पोतियाँ न होंगे?

बड़ी बेगम - बहन, जिंदगानी का कौन ठिकाना है।

अब बरात का हाल सुनिए। कोई पहर रात गए बड़ी धूम-धाम से बरात रवाना हुई। सबके आगे निशान का हाथी झूमता हुआ जाता था। हाथी के सामने कदम-कदम पर अनार छूटते जाते थे। महताब की रोशनी से चाँद का रंग फक था। चर्खी की आनबान से आसमान का कलेजा धक था। तमाशाइयों की भीड़ से दोनों तरफ के कमरे फटे पड़ते थे। जिस वक्त गोरों का बाजा चौक में पहुँचा और उन्होंने बैंड बजाया तो लोग समझे कि आसमान के फरिश्ते बाजा बजाते-बजाते उतर आए हैं।

इतने में मियाँ खोजी इधर-उधर फुदकते हुए आए।

खोजी - ओ शहनाईवालो! मुँह न फैलाओ बहुत।

लोग - आइए, आइए! बस आप ही की कसर थी।

खोजी - अरे, हम क्या कहते हैं? मुँह न फैलाओ बहुत।

लोग - कोई आपकी सुनता ही नहीं।

खोजी - ये तो नौसिखिए हैं। मेरी बातें क्या समझेंगे।

लोग - इनसे कुछ फर्माइश कीजिए;

खोजी - अच्छा, वल्लाह! वह समाँ बाँधू की दंग हो जाइए। यह चीज छेड़ना भाई -

करेजवा में दरद उठी;कासे कहूँ ननदी मोरे राम।सोती थी मैं अपने मँदिल में;अचानक चौंक पड़ी मोरे राम।(करेजवा में दरद उठी....।)

लोग - सुभान-अल्लाह! आप इस फन के उस्ताद हैं। मगर शहनाईवाले अब तक आपका हुक्म नहीं मानते।

खोजी - नहीं भई, हुक्म तो मानें दौड़ते हुए और न मानें तो मैं निकाल दूँ। मगर इसको क्या किया जाय कि अनाड़ी हैं। बस, जरा मुझे आने में देर हुई और सारा काम बिगड़ गया।

इतने में एक दूसरे आदमी ने खोजी के नजदीक जा कर जरा कंधे का इशारा किया तो खोजी लड़खड़ाए और उनके चेले अफीमी भाइयों ने बिगड़ना शुरू किया।

एक - अरे मियाँ! क्या आँखों के अंधे हो?

दूसरा - ईंट की ऐनक लगाओ मियाँ।

तीसरा - और ख्वाजा साहब भी धक्का देते तो कैसी होती?

चौथा - मुँह के बल गिरे होते और क्या।

पाँचवाँ - अजी, यों कहो कि नाक सिलपट हो जाती।

खोजी - अरे भाई, अब इससे क्या वास्ता है। हम किसी से लड़ते-झगड़ते थोड़े ही हैं। मगर हाँ, अगर कोई गीदी हमसे बोले तो इतनी करौलियाँ भोंकी हों कि याद करे।

जब बरात दुलहिन के घर पहुँची तो दूल्हे को दरवाजे के सामने लाए और दुलहिन का नहाया हुआ पानी घोड़े के सुमों के नीचे डाला। इसके बाद घी और शक्कर मिला कर घोड़े के पाँव में लगाया। दूल्हा महल में आया। दूल्हा की बहनें उस पर दुपट्टे का आँचल डाले हुए थीं। दुलहिन की तरफ से औरतें बीड़ा हर कदम पर डालती जाती थीं। इस तरह दूल्हा मड़वे के नीचे पहुँचा। उसी वक्त एक औरत उठी और रूमाल से आँखें पोंछती हुई बाहर चली गई। यह सुरैया बेगम थीं।

आजाद मँड़वे के नीचे उस चौकी पर खड़े किए गए जिस पर दुलहिन नहाई थी। मीरासिनों ने दुलहिन के उबटन का, जो माँझे के दिन से रखा हुआ था, एक भेड़ और एक शेर बनाया और दूल्हा से कहा - कहिए, दूल्हा भेड़, दुलहिन शेर।

आजाद - अच्छा साहब, हम शेर, वह भेड़, बस?

डोमिनी - ऐ वाह! यह तो अच्छे दूल्हा आए। आप भेड़, वह शेर।

आजाद - अच्छा साहब यों सही। आप भेड़, वह शेर।

डोमिनी - ऐ हुजूर, कहिए, यह शेर, मैं भेड़।

आजाद - अच्छा साहब, मैं भेड़, वह शेर।

इस पर खूब कहकहा पड़ा। इसी तरह और भी कई रस्में अदा हुई, और तब दूल्हा महफिल में गया। यहाँ नाच-गाना हो रहा था। एक नाजनीन बीच में बैठी थीं, मजाक हो रहा था। एक नवाब साहब ने यह फिकरा कसा - बी साहब, आपने गजब का गला पाया है। उसकी तारीफ ही करना फजूल है।

नाजनीन - कोई समझदार तारीफ करे तो खैर, अताई-अनाड़ी ने तारीफ की तो क्या?

नवाब - ऐ साहब, हम तो खुद तारीफ करते हैं।

नाजनीन - तो आप अपना शुमार भी समझदारों में करते हैं? बतलाइए, यह बिहाग का वक्त है या घनाक्षरी का।

नवाब - यह किसी ढाड़ी-बचे से पूछो जाके।

नाजनीन - ऐ लो! जो इस फन के नुकते समझे, वह ढाड़ी-बचा कहलाए। वाह री अक्ल, वह अमीर नहीं, गँवार है, जो दो बातें न जानता हो - गाना और पकाना। आपके से दो-एक घामड़ रईस शहर में और हों तो सारा शहर बस जाय।

नाजनीन ने यह गजल गाई -

लगा न रहने दे झगड़े को यार तू बाकी;रुके न हाथ अभी है रँगे-गुलू बाकी।जो एक रात भी सोया वह गुल गले मिल कर;तो भीनी-भीनी महीनों रही है बू बाकी।हमारे फूल उठा के वह बोला गुँच-देहन;अभी तलक है मुहब्बत की इसमें बू बाकी।फिना है सबके लिए मुझप' कुछ नहीं मौकूफ;यह रंज है कि अकेला रहेगा तू बाकी।जो इस जमाने में रह जाय आबरू बाकी।

नवाब - हाँ, यह सबसे ज्यादा मुकद्दम चीज है।

नाजनीन - मगर हयादारों के लिए। बगड़ेबाजों को क्या?

इस पर इस जोर से कहकहा पड़ा कि नवाब साहब झेंप गए।

नाजनीन - अब कुछ और फरमाइए हुजूर! चेहरे का रंग क्यों फक हो गया?

मिरजा - आपसे नवाब साहब बहुत डरते हैं।

नवाब - जी हाँ, हरामजादे से सभी डरा करते हें।

नाजनीन - ऐ है, जभी आप अपने अब्बाजान से इतना डरते हैं।

इस पर फिर कहकहा पड़ा और नवाब साहब की जबान बंद हो गई।

उधर दुलहिन को सात सुहागिनों ने मिल कर इस तरह सँवारा कि हुस्न की आब और भी भड़क उठी। निकाह की रस्म शुरू हुई। काजी साहब अंदर आए और दो गवाहों को साथ लाए। इसके बाद दुलहिन से पूछा गया कि आजाद पाशा के साथ निकाह मंजूर है? दुलहिन ने शर्म से सिर झुका लिया।

बड़ी बेगम - ऐ बेटा, कह दो।

रूहअफजा - हुस्नआरा, बोलो बहन। देर क्यों करती हो?

नाजुक - बस, तुम हाँ कह दो।

जानी - (आहिस्ता से) बजरे पर सैर कर चुकीं, हवा खा चुकीं और अब इस वक्त नखरे बघारती हैं।

आखिर बड़ी कोशिश के बाद हुस्नआरा ने धीरे से 'हूँ' कहा।

बड़ी बेगम - लीजिए, दुलहिन ने हुँकारी भरी।

काजी - हमने तो आवाज नहीं सुनी।

बड़ी बेगम - हमने सुन लिया, बहुत से गवाह हैं।

काजी साहब ने बाहर आ कर दूल्हा से भी यही सवाल किया।

आजाद - जी हाँ कुबूल किया!

काजी साहब चले गए और महफिल में तायफों ने मिल कर मुबारकबाद गाई। इसके बाद एक परी ने यह गजल गाई -

तड़प रहे हैं शबे-इंतजार सोने दे;न छेड़ हमको दिले-बेकरार सोने दे।कफस में आँख लगी है अभी असीरों की,गरज न बाग में अबरे-बहार सोने दे।अभी तो सोए हैं यादे-चमन में अहले-कफस;जगा न उनको नसीमे बहार सोने दे।तड़प रहे हैं दिले-बेकरार सोने दे।

शरबत-पिलाई के बाद दूल्हा और दुलहिन एक ही पलंग पर बिठाए गए। गेतीआरा ने कहा - बहन, जूती तो छुलाओ।

जानी - वाह! यह तो सिमटी-सिमटाई बैठी हैं।

बहार - आखिर हया भी तो कोई चीज है!

नाजुक - अरे, जूती कंधे पर छुआ लो बहन, वाह!

उस्तानी - अगले वक्तों में तो सिर पर पड़ती थीं।

नाजुक - इस जूती का मजा कोई मर्दों के दिल से पूछे।

जब दुलहिन ने जरा भी जुंबिश न की तो बहार बेगम ने दुलहिन के दाहने पैर की जूती दूल्हा के कंधे पर छुला ली।

नाजुक - कहिए, आपकी डोली के साथ चलूँगा।

रूहअफजा - और जूतियाँ झाड़के धरूँगा।

जानी - और सुराही हाथ में ले चलूँगा।

आजाद - ऐ! क्यों नहीं, जरूर कहूँगा।

जानी - रंडियों से नखरे बहुत सीखे हैं।

इस फिकरे पर ऐसा कहकहा पड़ा कि मियाँ आजाद शर्मा गए। जानी बेगम इक्कीस पान का बीड़ा लाईं और उसे कई बार आजाद के मुँह तक ला-ला कर हटाने के बाद खिला दिया।

सिपहआरा - सुहाग लाईं और दूल्हा के कान में कहा - कहो, सोने में सुहागा मोतियों में धागा और बने का जी बनी से लागा!

इसके बाद आरसी की रस्म अदा हुई।

जानी - बन्नू, जल्दी आँख न खोलना।

नाजुक - जब तक अपने मुँह से गुलाम न बनें।

हैदरी - कहिए, बीबी, मैं आपका गुलाम हूँ।

आजाद - बीबी मैं आपका बिन दामों गुलाम हूँ।

बड़ी बेगम - बेटा, अब तो कहवा लिया, अब आँखें खोल दो।

जानी - एक ही बार तो कहा।

हैदरी - ऐ हुजूर, खुशामद तो कीजिए।

आजाद - यह खुशामद से न मानेंगी।

हैदरी - हो कहा है, उसका खयाल रहे। बीवी के गुलाम बने रहिएगा।

आखिर बड़ी मुश्किलों से दुलहिन ने आँखें खोलीं, मगर आँखों में आँसू भरे हुए थे। बे-अख्तियार रोने लगीं। लोग समझाते-समझाते आरी हो गए, मगर आँसू न थमे। तब आजाद ने सिर झुका कर कान में कहा - यह क्या करती हो, दिल को मजबूत रखो।

रूहअफजा - बहन, खुदा के लिए चुप हो जाओ। इसका कौन-सा मौका है?

बहार - अम्माँजान, आप ही समझाएँ। नाहक अपने को हलाकान करती हैं हुस्नआरा।

उस्तानी - तर कपड़े से मुँह पोंछो।

जब हुस्नआरा का जी बहाल हुआ तो आजाद ने सुहाग पुड़े से मसाला निकाल कर दुलहिन की माँग भरी। तब दुलहिन को गोद में उठा कर सुखपाल पर बिठा दिया। वहाँ जितनी औरतें थीं, सबकी आँखों में आँसू जारी हो गए और बड़ी बेगम तो पछाड़ें खाने लगीं। जब बरात रुखसत हो गई तो बातें होने लगीं -

रुहअफजा - अल्लाह करे, आजाद ने जितनी तकलीफें उठाई हैं, उतना ही आराम भी पाएँ।

अब्बासी - अल्लाह ऐसा ही करेगा।

जानी - मगर आजाद का सा दूल्हा भी किसी ने कम देखा होगा।

नाजुक - लाखों कुओं का पानी पी चुके हैं।

बहार - बड़े खुशमजाक आदमी मालूम होते हैं।

जानी - इस वक्त हुस्नआरा के दिल का क्या हाल होगा?

नाजुक - चौथी के दिन हम ताक-ताक निशाने लगाएँगे।

रूहअफजा - आजाद से कोई न जीत पाएगा।

जानी - कौन! देख लेना बहन, अगर हारी न बोलें जभी कहना। वह अगर तेज हैं, तो हम भी कम नहीं।

***