आजाद-कथा
(खंड - 2)
रतननाथ सरशार
अनुवाद - प्रेमचंद
प्रकरण - 102
चौथी के दिन रात को नवाब साहब ने सुरैया बेगम को छेड़ने के लिए कई बार फीरोजा बेगम की तारीफ की। सुरैया बेगम बिगड़ने लगीं और बोली - अजब बेहूदा बातें हैं तुम्हारी, न जाने किन लोगों में रहे हो कि ऐसी बातें जबान से निकलती हैं।
नवाब - तुम नाहक बिगड़ती हो, मैं तो सिर्फ उनके हुस्न की तारीफ करता हूँ।
सुरैया - ऐ, तो कोई ढूँढ़के वैसी ही की होती।
नवाब - तुम्हारे यहाँ कभी-कभी आया-जाया करती है?
सुरैया - मुझे उस घर का हाल क्योंकर मालूम हो। मगर जो तुम्हारे यही लच्छन हैं तो खुदा ही मालिक है। आज ही से ये बातें शुरू हो गईं। हाँ, सच है, घर की मुर्गी साग बराबर। खैर, अब तो मैं आ कर फँस ही गई, मगर मुझे वही मुहब्बत है जो पहले थी। हाँ, अब तुम्हारी मुहब्बत अलबत्ता जाती रही।
नवाब - तुम इतनी समझदार हो कर जरा सी बात पर इतना रूठ गईं। भला अगर मेरे दिल में यही होता तो मैं तुम्हारे सामने उनकी तारीफ करता, मुझे कोई पागल समझा है? मतलब यह था कि दो घड़ी की दिल्लगी हो, मगर तुम कुछ और ही समझीं। खुद याद रखना कि जब तक मेरी और तुम्हारी जिंदगी है, किसी और औरत को बुरी नजर से न देखूँगा। आगे देखूँ तो शरीफ नहीं।
सुरैया - वह औरत क्या जो अपने शौहर के सिवा किसी मर्द को बुरी नजरों से देखे और वह मर्द क्या जो अपनी बीवी के सिवा पराई बहू-बेटी पर नजर डाले।
नवाब - बस, यही हमारी भी राय है और जो लोग दस-दस शादियाँ करते हैं उनको मैं अहमक समझता हूँ।
सुरैया - देखना इन बातों को भूल न जाना।
सुबह को दुलहिन के मैके से महरी आई और अर्ज की कि आज साली ने दूल्हा और दुलहिन को बुलाया है, पहला चाला है।
बेगम - (नवाब साहब की माँ) तुम्हारे यहाँ वह लड़की तो बड़े ही गजब की है, फीरोजा, किसी से दबती ही नहीं!
महरी - हुजूर, अपना-अपना मिजाज है।
बेगम - अरे, कुछ तो शर्म-हया का खयाल हो। बेचारी फैजन को बात-बात पर बनाती थी। वह लाख गँवारों की सी बातें करे, फिर इससे क्या, जो अपने यहाँ आए उसकी खातिर करनी चाहिए, न कि ऐसा बनाए कि वह कभी फिर आने का नाम ही न ले।
खुरशेद - (नवाब की बहन) हमको तो उनकी बातों से ऐसा मालूम होता था कि (दबे दाँतों) नेक नहीं, आगे खुदा जाने।
बेगम - यह न कहो बेटा, अभी तुमने देखा क्या है।
नवाब - (इशारा करके) उनकी महरी बैठी है, उसके सामने कुछ न कहो।
बेगम साहब ने सुरैया बेगम को उसी वक्त रुखसत किया। शाम को दूल्हा भी चला। मुसाहबों ने उसकी रियासत और ठाट-बाट की तारीफ करनी शुरू की -
बबरअली - हुजूर, इस वक्त ईरान के शाहजादे मालूम होते हैं।
नूरखाँ - इसमें क्या शक है, यह मालूम होता है कि कोई शाहजादा मसनद लगाए बैठा है।
बबरअली - हुजूर, आज जरा चौक की तरफ से चलिएगा। जरा इधर-उधर कमरों से तारीफ की आवाज तो निकले।
नवाब - क्या फायदा, जिसके बीवी हो, उसको इन बातों में न पड़ना चाहिए।
नूरखाँ - ऐ हुजूर, यह तो रियासत का तमगा ही है।
ईदू - ऐ हुजूर, यह तो गरीब आदमियों के लिए है कि एक से ज्यादा न हो, दूसरी बीवी को क्या खिलाएगा, खाक! मगर अमीरों का तो यह जौहर है। बादशाहों के आठ-आठ नौ-नौ से ज्यादा महल होते थे, एक-दो की कौन कहे। जिसे खुदा देता है वही इस काबिल समझा जाता है।
इन लोगों ने नवाब साहब को ऐसा चंग पर चढ़ाया कि चौक ही से ले गए, मगर नवाब साहब ने गरदन जो नीची की तो चौक भर में किसी कमरे की तरफ देखा ही नहीं। इस पर मुसाहबों ने हाशिए चढ़ाए - ऐ हुजूर, एक नजर तो देख लीजिए, कैसा कटाव हो रहा है। सारी खुदाई का हाल तो कौन जाने, मगर इस शहर में तो कोई जवान हुजूर के चेहरे-मोहरे को नहीं पाता। बस, यही मालूम होती है कि शेर कछार से चला आता है।
नवाब साहब दिल में सोचते जाते थे कि इन खुशामदियों से बचना मुश्किल है। इनके फंदे में फँसे और दाखिल जहन्नुम हुए। हमने ठान ली है कि अब किसी औरत को बुरी निगाह से न देखेंगे। याहें हँसी-दिल्लगी की और बात है।
नवाब साहब ससुराल में पहुँचे, तो बाहर दीवानखाने में बैठे। नाच शुरू हुआ और मुसाहबों ने तायफों की तारीफ के तुल बाँध दिए - जनाब, ऐसी गाने वाली अब दूसरी शहर में नहीं है, अगर शाही जमाना होता तो लाखों रुपए पैदा कर लेती और अब भी हमारे हुजूर के जहर-शिनास बहुत हैं, मगर फिर भी कम हैं। क्यों हुजूर, होली गाने को कहूँ?
नवाब - जो जी चाहे, गाएँ।
मुसाहब - हुजूर, फरमाते हैं, यह जो गायँगी, अपना रंग जमा लेंगी, मगर होली हो तो और भी अच्छा।
नवाब - हमने यह नहीं कहा, तुम लोग हमें जलील करा दोगे।
मुसाहब - क्या मजाल हुजूर, हुजूर का नमक खाते हैं, हम गुलामों से यह उम्मीद? चाहे सिर जाता रहे, मगर नमक का पास जरूर रहेगा, और यह तो हुजूर, दो घड़ी हँसने-बोलने का वक्त ही है।
गनीमत जान इस मिल बैठने को,जुदाई की घड़ी सिर पर खड़ी है।
इसके बाद नवाब साहब अंदर गए और खाना खाया। साली ने एक भारी खिलअत बहनोई को और एक कीमती जोड़ा बहन को दिया। दूसरे दिन दूल्हा-दुलहिन रुखसत हो कर घर गए।
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