Azad Katha - 2 - 89 in Hindi Fiction Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | आजाद-कथा - खंड 2 - 89

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आजाद-कथा - खंड 2 - 89

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 89

सुरैया बेगम ने अब थानेदार के साथ रहना मुनासिब न समझा। रात को जब थानेदार खा पी कर लेटा तो सुरैया बेगम वहाँ से भागी। अभी सोच ही रही थी कि एक चौकीदार मिला। सुरैया बेगम को देख कर बोला - आप कहाँ? मैंने आपको पहचान लिया है। आप ही तो थानेदार साहब के साथ उस मकान में ठहरी थीं। मालूम होता है, रूठ कर चली आई हो। मैं खूब जानता हूँ।

सुरैया - हाँ, है तो यही बात, मगर किसी से जिक्र न करना।

चौकीदार - क्या मजाल, मैं नवाबों और रईसों की सरकार में रहा हूँ।

बेगम - अच्छा, मैं इस वक्त कहाँ जाऊँ?

चौकीदार - मेरे घर।

बेगम - मगर किसी पर जाहिर न होने पाए, वरना हमारी इज्जत जायगी।

बेगम साहब चौकीदार के साथ चलीं और थोड़ी देर में उसके घर जा पहुँचीं। चौकीदार की बीवी ने बेगम की बड़ी खातिर की और कहा - कल यहाँ मेला है, आज टिक जाओ। दो-एक दिन में चली जाना।

सुरैया बेगम ने रात वहीं काटी। दूसरे दिन पहर दिन चढ़े मेला जमा हुआ। चौकीदार के मकान के पास एक पादरी साहब खड़े वाज कह रहे थे। सैकड़ों आदमी जमा थे। सुरैया बेगम भी खड़ी हो कर वाज सुनने लगीं। पादरी साहब उसको देख कर भाँप गए कि यह कोई परदेशी औरत है। कहीं से भूल-भटक कर यहाँ आ गई है। जब वाज खत्म करके चलने लगे तो सुरैया बेगम से बोले - बेटी, तुम्हारा घर यहाँ तो नहीं है?

सुरैया - जी नहीं, बदनसीब औरत हूँ। आपका वाज सुन कर खड़ी हो गई।

पादरी - तुम यहाँ कहाँ ठहरी हो?

सुरैया - सोच रही हूँ कि कहाँ ठहरूँ।

पादरी - मेरा मकान हाजिर है, उसे अपना घर समझो। मेरी उम्र अस्सी वर्ष से ज्यादा है। अकेले पड़ा रहता हूँ। तुम मेरी लड़की बन कर रहना।

दूसरे दिन जब पारदी साहब गिरजाघर में आए, तो उनके साथ एक नाजुक बदन मिस कीमती अंगरेजी कपड़े पहने आई और शान से बैठ गई। लोगों को हैरत थी कि या खुदा, इस बुड्ढे के साथ यह परी कौन है! पादरी साहब ने उसे भी पास की कुर्सी पर बैठाया। इस औरत की चाल-ढाल से पाया जाता था कि कभी सोहबत में नहीं बैठी है। हर चीज को अजनबियों की तरह देखती थी।

रँगीले जवानों में चुपके-चुपके बातें होने लगीं।

टाम - कपड़े अंगरेजी है, रंग गोरा, मगर जुल्फ सियाह है और आँखें भी काली। मालूम होता है, किसी हिंदोस्तानी औरत को अंगरेजी कपड़े पहना दिए हैं।

डेविस - इस काबिल है कि जोरू बनाएँ।

टाम - फिर आओ, हम-तुम डोरे डालें, देखें, कौन खुशनसीब है।

डेविस - न भई, हम यों डोरे डालनेवाले आदमी नहीं। पहले मालूम तो हो कि है कौन? चाल-चलन का भी तो कुछ हाल मालूम हो। पादरी साहब की लड़की तो नहीं है। शायद किसी औरत को बपतिस्मा दिया है।

तीन हिंदोस्तानी आदमी भी गिरजा गए थे। उनमें यों बातें होने लगीं -

मिरजा - उस्ताद, क्या माल है, सच कहना?

लाला - इस पादरी के तो कोई लड़का-बाला नहीं था।

मुंशी - वह था या नहीं था, मगर सच कहना, कैसी खूबसूरत है!

नमाज के बाद जब पादरी साहब घर पहुँचे तो सुरैया से बोले - बेटी, हमने तुम्हारा नाम मिस पालेन रखा है। अब तुम अंगरेजी पढ़ना शुरू करो।

सुरैया - हमें किसी चीज के सीखने की आरजू नहीं है। बस, यही जी चाहता है कि जान निकल जाय। किसका पढ़ना और कैसा लिखना। आज से हम गिरजाघर न जायँगे।

पादरी - यह न कहो बेटी! खुदा के घर मे जाना अपनी आकबत बनाना है। यह खुदा का हुक्म है।

सुरैया - अगर आप मुझे अपनी बेटी समझते हैं तो मैं भी आपको अपना बाप समझती हूँ, मगर मैं साफ-साफ कहे देती हूँ कि मैं ईसाई मजहब न कबूल करूँगी।

रात को जब सुरैया बेगम सोई, तो आजाद की याद आई और यहाँ तक रोई कि हिचकियाँ बँध गईं।

पादरी साहब चाहते थे कि यह लड़की किसी तरह ईसाई मजहब अख्तियार कर ले, मगर सुरैया बेगम ने एक न सुनी। एक दिन वह बैठी कोई किताब पढ़ रही थी कि जानसन नाम का एक अंगरेज आया और पूछने लगा - पादरी साहब कहाँ हैं?

सुरैया - मैं अंगरेजी नहीं समझती।

जानसन - (उर्दू में) पादरी साहब कहाँ हैं?

सुरैया - कहीं गए हैं।

जानसन - मैंने कभी तुमको यहाँ नहीं देखा था।

सुरैया - जी हाँ, मैं यहाँ नहीं थी।

जानसन - यह कौन-सी किताब है?

सुरैया - सेनेका की नसीहतें हैं! पादरी साहब मुझे यह किताब पढ़ाते हैं।

जानसन - मालूम होता है, पादरी साहब तुम्हें भी 'नन' बनाना चाहते हैं।

सुरैया - नन किसे कहते हैं?

जानसन - नन उन औरतों को कहते हैं जो जिंदगी भर क्वाँरी रह कर मसीह की खिदमत करती हैं। उनका सिर मुँड़ा दिया जाता है और आदमियों से अलग एक मकान में रख दी जाती हें।

सुरैया - यह तो बड़ी अच्छी बात है। मैं भी चाहती हूँ कि उन्हीं में शामिल हो जाऊँ और तमाम उम्र शादी न करूँ।

जानसन ने यह बातें सुनीं तो और ज्यादा बैठना फुजूल समझा। हाथ मिला कर चला गया।

सुरैया बेगम यहाँ आ तो फँसी थीं, मगर भाग निकलने का मौका ढूँढ़ती थीं। इस तरह तीन महीने गुजर गए।

***