Azad Katha - 2 - 81 in Hindi Fiction Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | आजाद-कथा - खंड 2 - 81

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आजाद-कथा - खंड 2 - 81

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 81

एक दिन दो घड़ी दिन रहे चारों परियाँ बनाव-चुनाव हँस-खेल रही थीं। सिपहआरा का दुपट्टा हवा के झोंकों से उड़ा जाता था। जहाँनारा मोतिये के इत्र में बसी थीं। गेतीआरा का स्याह रेशमी दुपट्टा खूब खिल रहा था।

हुस्नआरा - बहन, यह गरमी के दिन और काला रेशमी दुपट्टा! अब कहने से तो बुरा मानिएगा, जहाँनारा बहन निखरें तो आज दूल्हा भाई आने वाले हैं; यह आपने रेशमी दुपट्टा क्या समझ के फड़काया!

अब्बासी - आज चबूतरे पर अच्छी तरह छिड़काव नहीं हुआ।

हीरा - जरा बैठ कर देखिए तो, कोई दस मशकें तो चबूतरे ही पर डाली होगी।

एकाएक महरी की छोकरी प्यारी दौड़ती हुई आई और बोली - हुजूर; हमने यह आज बिल्ली पाली है। बड़ी सरकार ने खरीद दी और दो आने महीना बाँध दिया। सुबह को हम हलुआ खिलाएँगे। शाम को पेड़ा। उधर सिपहआरा और गेतीआरा गेंद खेलने लगीं तो हुस्नआरा ने कहा, अब रोज गेंद ही खेला करोगी? ऐसा न हो, आज भी अम्माँजान आ जायँ।

अब्बासी - हुजूर, गेंद खेलने में कौन सा ऐब है? दो घड़ी दिल बहलता है। बड़ी सरकार की न कहिए; वह बूढ़ी हुई, बिगड़ी ही चाहें।

यही बातें हो रही थीं कि शाहजादा हुमायूँ फर हाथी पर सवार बगीचे की दीवार से झाँकते हुए निकले। सिपहआरा बेगम को गेंद खेलते देखा तो मुसकिरा दिए। हाथी तो आगे बढ़ गया, मगर हुस्नआरा को शाहजादे का यों झाँकना बुरा लगा। दारोगा को बुला कर कहा, कल इस दीवार पर दो रद्दे और चढ़ा दो, कोई हाथी पर इधर से निकल जाता है तो बेपरदगी होती है। सौ काम छोड़ कर यह काम करो।

जब दारोगा चले गए तो जहाँनारा ने कहा - सिपहआरा बहन ने इनको इतना ढीठ कर दिया, नहीं शाहजादे हों चाहे खुद बादशाह हों, ऐसी अंधेर-नगरी नहीं है कि जिसका जी चाहे, चला आए।

फिर वही चहल-पहल होने लगी। सिपहआरा और अब्बासी पचीसी खेलने लगीं।

अब्बासी - हुजूर, अबकी हाथ में यह गोट न पीटूँ तो अब्बासी नाम न रखूँ।

सिपहआरा - वाह! कहीं पीटी न हो।

अब्बासी - या अल्लाह, पचीस पड़ें। अरे! दिए भी तो तीन काने? बाजी खाक में मिल गई।

हुस्नआरा - लेके हरवा न दी हमारी बाजी! बस अब दूर हो।

अब्बासी - ऐ बीबी, मैं क्या करूँ ले भला। पाँसा वही है लेकिन वक्त ही तो है।

हुस्नआरा - अच्छा बाजी हो ले, तो हम फिर आएँ।

सिपहआरा - अब मैं दाँव बोलती हूँ।

हुस्नआरा - हमसे क्या मतलब, वह जानें, तुम जानो। बोलो अब्बासी।

अब्बासी - हुजूर, जब बाजी सत्यानास हो गई तब तो हमको मिली हौर अब हुजूर निकली जाती हैं।

हुस्नआरा - हम नहीं जानते। फिर खेलने क्यों बैठी थीं?

अब्बासी - अच्छा मंजूर हैं, फेकिए पाँसा।

सिपहआरा - दो महीने की तनख्वाह है, इतना सोच लो।

अब्बासी - ऐ हुजूर, आपकी जूतियों का सदका, कौन बड़ी बात है। फेकिए तीन काने।

सिपहआरा ने जो पाँसा फेका तो पचीस! दूसरा पचीस, तीस, फिर पचीस, गरज सात पेचें हुई। बोलीं - ले अब रुपए बाएँ हाथ से ढीले कीजिए। महरी, बाजी की संदूकजी तो ले आओ, आलमारी के पास रखी है।

हुस्नआरा ने महरी को आँख के इशारे से मना किया। महरी कमरे से बाहर आ कर बोली - ऐ हुजूर, कहाँ है? वहाँ तो नहीं मिलती।

सिपहआरा - बस जाओ भी, हाथ झुलाती आईं, चलो हम बतावें कहाँ है।

महरी - जो हुजूर बता दें तो और तो लौंडी की हैसियत नहीं है, मगर सेर भर मिठाई हुजूर की नजर करूँ।

सिपहआरा - महरी को साथ ले कर कमरे की तरफ चली। देखा तो संदूकची नदारद! हैं, यह संदूकची कौन ले गया? महरी ने लाख हँसी जब्त की, मगर जब्त न हो सकी। तब तो सिपहआरा झल्लाईं यह बात है! मैं भी कहूँ, संदूकची कहाँ गायब हो गई। तुम्हें कसम है, दे दो।

सिपहआरा फिर नाक सिकोड़ती हुई बाहर आई तो सबने मिलकर कहकहा लगाया। एक ने पूछा - क्यों, संदूकची मिली? दूसरी बोली - हमारा हिस्सा न भूल जाना। हुस्नआरा ने कहा - बहन; दस ही रुपया निकालना। अब्बासी ने कहा - हुजूर, देखिए, हमी ने जितवा दिया, अब कुछ रिश्वत दीजिए।

महरी - और बीबी, मैं भला काहे को छिपा देती, कुछ मेरी गिरह से जाता था।

सिपहआरा - बस-बस बैठो, चलीं वहाँ से बड़ी वह बनके।

महरी - अपनी हँसी को क्या करूँ, मुझी पर धोखा होता है।

इतने में दरबान ने आवाज दी, सवारियाँ आई हैं, और जरा देर में दो औरतें डोलियों से उतर कर अंदर आईं। एक का नाम था नजीर बेगम, दूसरी का जानी बेगम।

हुस्नआरा - बहुत दिन बाद देखा। मिजाज अच्छा रहा बहन? दुबली क्यों हो इतनी?

नजीर - माँदी थी, बारे खुदा-खुदा करके, अब सँभली हूँ।

हुस्नआरा - हमने तो सुना भी नहीं। जानी बेगम हमसे कुछ खफा सी मालूम होती हैं, खुदा खैर करे!

जानी - बस, बस, जरी मेरी जबान न खुलवाना, उलटे चोर कोतवाल को डाँटे। यहाँ तक आते मेहँदी घिस जाती।

जानी बेगम की बोटी बोटी फड़कती थी। नजीर बेगम भोली-भाली थीं। जानी बेगम ने आते ही आते कहा, हुस्नआरा आओ, आँख-मूँदी धप खेलें।

जहाँनारा - क्या यह कोई खेल है?

जानी - ऐ है, क्या नन्हीं बनी जाती हैं!

नजीर - बस हम तुम्हारी इन्हीं बातों से घबराते हैं। अच्छी बातें न करोगी।

जानी - ऐ, वह निगोड़ी अच्छी बातें कौन सी होती है, सुनें तो सही।

नजीर - अब तुम्हें कौन समझाए।

जानी बेगम सिपहआरा के गले में हाथ डाल कर बागीचे की तरफ ले गईं तो हुस्नआरा ने कहा - इनके तो मिजाज ही नहीं मिलते।

बड़ी बेगम - बड़ी कल्ला दराज छोकरी है। इसके मियाँ की जान अजाब में हैं, हम तो ऐसे को अपने पास भी न आने दें।

हुस्नआरा - नहीं अम्माँजान, यह न फरमाइए, ऐसी नहीं है, मगर हाँ; जबान नहीं रुकती।

एकाएक जानी बेगम ने आ कर कहा - अच्छा बहन, अब रुखसत करो। घर से निकले बड़ी देर हुई।

हुस्नआरा - आज तुम दोनों न जाने पाओगी। अभी आए कितनी देर हुई?

जानी - नजीर बेगम को चाहे न जाने दो, मैं तो जाऊँगी ही। मियाँ के आने का यही वक्त है। मुझे मियाँ का जितना डर है, उतना और किसी का नहीं। नजीर की आँखों को तो पानी मर गया है।

नजीर - इसमें क्या शक, तुम बेचारी बड़ी गरीब हो।

इसी तरह आपस में बहुत देर तक हँसी-दिल्लगी होती रही। मगर जानी बेगम ने किसी का कहना न माना। थोड़ी ही देर में वह उठ कर चली गईं।

***