Azad Katha - 2 - 77 in Hindi Fiction Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | आजाद-कथा - खंड 2 - 77

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आजाद-कथा - खंड 2 - 77

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 77

जिस वक्त खोजी ने पहला गोता खाया तो ऐसे उलझे कि उभरना मुश्किल हो गया। मगर थोड़ी ही देर में तुर्कों ने गोते लगा कर इन्हें ढूँढ़ निकाला। आप किसी कदर पानी पी गए थे। बहुत देर तक तो होश ही ठिकाने न थे। जब जरा होश आया तो सबको एक सिरे से गालियाँ देना शुरू कीं। सोचे कि दो-एक रोज में जरा टाँठा हो लूँ तो इनसे खूब समझूँ। डेरे पर आ कर आजाद के नाम खत लिखने लगे। उनसे एक आदमी ने कह दिया था कि अगर किसी आदमी के नाम खत भेजना हो और पता न मिलता हो तो खत को पत्तों में लपेट दरिया कि किनारे खड़ा हो और तीन बार 'भेजो-भेजो' कह कर खत को दरिया में डाल दे, खत आप ही आप पहुँच जायगा। खोजी के दिल में यह बात बैठ गई। आजाद के नाम एक खत लिख कर दरिया में डाल आए। उस खत में आपने बहादुरी के कामों की खूब डींगे मारी थीं।

रात का वक्त था, ऐसा अँधेरा छाया हुआ था, गोया तारीकी का दिल सोया हो। ठंडी हवा के झोंके इतने जोर से चलते थे कि रूह तक काँप जाती थी। एकाएक रूस की फौज से नक्कारे की आवाज आई। मालूम हुआ कि दोनों तरफ के लोग लड़ने को तैयार हैं। खोजी घबरा कर उठ बैठे और सोचने लगे कि यह आवाजें कहाँ से आ रही हैं? इतने में तुर्की फौज भी तैयार हो गई और दोनों फौजें दरिया के किनारे जमा हो गईं। खोजी ने दरिया की सूरत देखी तो काँप उठे। कहा - अगर खुश्की की लड़ाई होती तो हम भी आज जौहर दिखाते। यों तो सब अफसर और सिपाही ललकार रहे थे, मगर खोजी की उमंगें सबसे बढ़ी हुई थीं। चिल्ला-चिल्ला कर दरिया से कह रहे थे कि अगर तू खुश्क हो जाय तो मैं फिर मजा दिखलाऊँ। एक हाथ में परे के परे काट कर रख दूँ।

गोला चलने लगा। तुर्कों की तरफ से एक इंजीनियर ने कहा कि यहाँ से आध मील के फासिले पर किश्तियों का पुल बाँधना चाहिए। कई आदमी दौड़ाए गए कि जा कर देखें, रूसियों की फौजें किस-किस मुकाम पर हैं। उन्होंने आ कर बयान किया कि एक कोस तक रूसियों का नाम-निशान नहीं है। फौरन पुल बनाने का इंतजाम होने लगा। यहाँ से डेढ़ कोस पर पैंतीस किश्तियाँ मौजूद थीं। अफसर ने हुक्म दिया कि उन किश्तियों को यहाँ लाया जाय। उसी दम दो सवार घोड़े कड़कड़ाते हुए आए। उनमें से एक खोजी थे।

खोजी - पैंतीस किश्तियाँ यहाँ से आधा कोस पर मुस्तैद हैं। मैंने सोचा, जब तक सवार तुम्हारे पास पहुँचेंगे और तुम हुक्म दोगे कि किश्तियाँ आएँ तब तक यहाँ खुदा जाने क्या हो जाय, इसलिए एक सवार को ले कर फौरन किश्तियों को इधर लो आया।

फौज के अफसर ने यह सुना तो खोजी की पीठ ठोंक दी और कहा - शाबाश! इस वक्त तो तुमने हमारी जान बचा दी।

खोजी अकड़ गए। बोले - जनाब, हम कुछ ऐसे-वैसे नहीं हैं! आज हम दिखा देंगे कि हम कौन हैं। एक-एक को चुन-चुन कर मारूँ!

इतने में इंजीनियरों ने फुर्ती के साथ किश्ती का पुल बाँधने का इंतजाम किया। जब पुल तैयार हो गया तो अफसर ने कुछ सवारों को उस पार भेजा। खोजी भी उनके साथ हो लिए। जब पुल के बीच में पहुँचे तो एक दफा गुल मचाया - ओ गीदी, हम आ पहुँचे।

तुर्कों ने उनका मुँह दबाया और कहा - चुप!

इतने में तुर्कों का दस्ता उस पार पहुँच गया। रूसियों को क्या खबर थी कि तुर्क लोग क्या कर रहे हैं। इधर खोजी जोश में आ कर तीन-चार तुर्कों को साथ ले दरिया के किनारे-किनारे घुटनों के बल चले। जब उनको मालूम हो गया कि रूसी फौज थक गई तो तुर्कों ने एक दम से धावा बोल दिया। रूसी घबरा उठे। आपस में सलाह की कि अब भाग चलें। खोजी भी घोड़े पर सवार थे, रूसियों को भागते देखा तो घोड़े को एक एड़ दी और भागते सिपाहियों में से सात आदमियों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। तुर्की फौज में वाह-वाह का शोर मच गया। ख्वाजा साहब अपनी तारीफ सुन कर ऐसे खुश हुए कि परे में घुस गए और घोड़े को बढ़ा-बढ़ा कर तलवार फेंकने लगे। दम के दम में रूसी सवारों ने मैदान खाली कर दिया। तुर्की फौज में खुशी के शादियाने बजने लगे। ख्वाजा साहब के नाम फतह लिखी गई। इस वक्त उनके दिमाग सातवें आसमान पर थे। अकड़े खड़े थे। बात-बात पर बिगड़ते। हुक्म दिया - फौज के जनरल से कहो, आज हम उनके साथ खाना खाएँगे। खाना खाने बैठे तो मुँह बनाया, वाह! इतने बड़े अफसर और यह खाना। न मीठे चावल, न फिरनी, न पोलाव। खाना खाते वक्त अपनी बहादुरी की कथा कहने लगे - वल्लाह, सबों के हौसले पस्त कर दिए। ख्वाजा साहब हैं कि बातें! मेरा नाम सुनते ही दुश्मनों के कलेजे काँप गए। हमारा बार कोई रोक ले तो जानें। बरसों मुसीबतें झेली हैं तब जा के इस काबिल हुए कि रूसियों के लश्कर में अकेले घुस पड़े! और हमें डर किसका है? बहिश्त के दरवाजे खुले हुए हैं।

अफसर - हमने वजीर-जंग से दरख्वास्त की है कि तुमको इस बहादुरी का इनाम मिले।

खोजी - इतना जरूर लिखना कि यह आदमी दगले वाली पलटन का रिसालदार था।

अफसर - दगलेवाली पलटन कैसी? मैं नहीं समझा।

खोजी - तुम्हारे मारे नाक में दम है और तुम हिंदी की चिंदी निकालते हो। अवध का हाल मालूम है या नहीं? अवध से बढ़ कर दुनिया में और कौन बादशाहत होगी?

अफसर - हमने अवध का नाम नहीं सुना। आपको कोई खिताब मिले तो आप पसंद करेंगे?

खोजी - वाह, नेकी और पूछ-पूछ!

उस दिन से सारी फौज में खोजी की धूम मच गई। एक दिन रूसियों ने एक पहाड़ी पर से तुर्कों पर गोले उतारने शुरू किए। तुर्क लोग आराम से लेटे हुए थे। एकाएक तोप की आवाज सुनी तो घबरा गए। जब तक मुकाबला करने के लिए तैयार हों तब तक उनके कई आदमी काम आए। उस वक्त खोजी ने अपने सिपाहियों को ललकारा, तलवार खींच पहाड़ी पर चढ़ गए और कई आदमियों को जख्मी किया, इससे उनकी और भी धाक बैठ गई। जिसे देखो, उन्हीं की तारीफ कर रहा था।

एक सिपाही - आपने आज वह काम किया है कि रुस्तम से भी न होता। आपके वास्ते कोई खिताब तजवीजा जायगा।

खोजी - मेरा आजाद आ जाय तो मेरी मिहनत ठिकाने लगे, वरना सब हेच है।

अफसर - जिस वक्त तुम घोड़े से गिरे, मेरे होश उड़ गए।

खोजी - गिरते ही सँभल भी गए थे।

अफसर - चित गिरे थे?

खोजी - जी नहीं। पहलवान जब गिरेगा, पट गिरेगा।

अफसर - जरा सा तो आप का कद है और इतनी हिम्मत!

खोजी - क्या कहा, जरा सा कद, किसी पहलवान से पूछिए। कितनी ही कुश्तियाँ जीत चुका हूँ।

अफसर - हमसे लड़िएगा?

खोजी - आप ऐसे दस हों तो क्या परवा?

फौज के अफसर ने उसी दिन वजीर-जंग के पास खोजी की सिफारिश लिख भेजी।

***