Azad Katha - 1 - 47 in Hindi Fiction Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | आजाद-कथा - खंड 1 - 47

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आजाद-कथा - खंड 1 - 47

आजाद-कथा

(खंड - 1)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 47

आज हम उन नवाब साहब के दरबार की तरफ चलते हैं, जहाँ खोजी और आजाद ने महीनों मुसाहबत की थी और आजाद बटेर की तलाश में महीनों सैर-सपाटे करते रहे थे। शाम का वक्त था। नवाब साहब एक मसनद पर शान से बैठे हुए थे। इर्द-गिर्द मुसाहब लोग बैठे हुक्कके गुड़गुड़ाते थे। बी अलारक्खी भी जा कर मसनद का कोना दबा कर बैठीं।

नवाब साहब - यो आइए, बी साहब!

अलारक्खी - (खिसक कर) बहुत खूब!

मुसाहब - (दूसरे मुसाहब के कान में) क्या जमाना है, वाह! हम शरीफ और शरीफ के लड़के और यह इज्जत कि जूतियों पर बैठे हैं। कोई टके को नहीं पूछता।

नुदरत - यार, क्या कहें, अब्बाजान चकलेदार थे, जिसका चाहा, भुट्टा-सा सिर उठा दिया। डंका सामने बजता था। इन्हीं आँखों के सामने दोनों तरफ आदमी झुक-झुक कर सलाम करते थे, और इन्हीं आँखों यह भी देख रहे हैं कि बेसवा आ कर मसनद पर बैठ गई और हम नीचे बैठे हैं। वाह री किस्मत! फूट गई।

नवाब साहब - आपका नाम क्या है बी साहब?

अलारक्खी - हुजूर, मुझे अलारक्खी कहते हैं।

नवाब साहब - क्या प्यारा नाम है!

नुदरत - हुजूर, चाहे आप बुरा माने या भला, हम तो बीच खेत कहेंगे कि आपके यहाँ शरीफों की कदर नहीं। गजब खुदा का, यह टके की बाजारी औरत मसनद पर आके बैठ जाय और हम शरीफ लोग ठोकरें खाएँ! आसमान नहीं फट पड़ता। कैसे-कैसे गौखे रईस जमा हैं दुनिया में।

इतना कहना था कि हाफिज जी बिगड़ खड़े हुए और लपक के नुदरत के मुँह पर एक लप्पड़ जमाया। वह आदमी थे करारे, लप्पड़ खाते ही आग हो गए। झपट के हाफिज जी को दे पटका। इस पर कुल मुसाहब और हवाली-मवाली उठ खड़े हुए।

एक - छोड़ दे बे!

दूसरा - इतनी लातें लगाऊँगा कि भुरकस निकल जायगा।

तीसरा - मर्दक, जिसका नमक खाता है, उसी को गालियाँ सुनाता है?

नवाब साहब - निकाल दो इसे बाहर।

हाफिज - देखिए तो नमकहराम की बातें!

नवाब साहब - आज से दरबार में न आने पाए।

तीन-चार आदमियों ने मिल कर हाफिज जी को छुड़ाया दरबार में हुल्लड़ मचा हुआ था। अलारक्खी खड़े-खड़े थरथराती थीं और नवाब साहब उनको दिलासा देते जाते थे।

एक मुसाहब - (अलारक्खी से) ऐ हुजूर, आप न घबराएँ।

दूसरा मुसाहब - वल्लाह बी साहबा, जो आप पर जरा भी आँच आने पाए।

नवाब - तुम तो मेरी पनाह में हो जी!

अलारक्खी - जी हाँ, मगर खौफ मालूम होता है।

नवाब - अभी उस मूजी को यहाँ से निकलवाए देता हूँ।

हाफिज - हुजूर, वह बाहर खड़े सबको गालियाँ दे रहे हैं।

सबने मिल कर मियाँ नुदरत को बाहर तो निकाल दिया; पर वह टर्रा आदमी था, बाहर जा कर एँड़ी-बेंड़ी सुनाने लगा - ऐसे रईस पर आमसान फट पड़े, जो इन टके-टके की औरतों को शरीफों से अच्छा समझे। किसी जमाने मे हम भी हाथी-नशीन थे। चौदह-चौदह हाथी हमारे दरवाजे पर झूमते थे। आज इस नवबढ़ रईस ने हमको फर्श पर बिठाया और मालजादी को मसनद पर जगह दी। खुदा इस मर्दक से समझे!

नवाब साहब - यह कौन गुल मचा रहा है।

एक मुसाहब - वही है हुजूर।

दूसरा मुसाहब - नहीं हुजूर, वह कहाँ! वह भागा पत्तातोड़। यह कोई फकीर है। भूखों मरता है।

नवाब - कुछ दिलवा दो भई!

एक मुसाहब ने दारोगा जी को बुलाया और उनसे दस रुपए ले कर बाहर चला। जब उसके लौट आने पर भी बाहर का शोर न बंद हुआ, तो नवाब ने खिदमतगार को भेजा कि देख, अब कौन चिल्ला रहा है? खिदमतगार ने बाहर जा कर जो देखा, तो मियाँ नुदरत खड़े गालियाँ सुना रहे हैं। जब वह नवाब साहब के पास जाने लगा, तो दारोगा जी ने उसे रोक कर समझाया - अगर तुमने ठीक-ठीक बता दिया, तो हम तुमको मार ही डालें। खबरदार, यह न कहना कि मियाँ नुदरत गालियाँ दे रहे हैं। बल्कि यों बयान करना कि वह फकीर तो दस रुपए ले कर चल दिया, मगर और कई फकीर, जो उस वक्त वहाँ मौजूद थे, आपको दुआएँ दे रहे हैं। उनका सवाल है कि हुजूर के दरबार से कुछ उन्हें भी मिले।

नवाब साहब ने यह सुना, तो उन्हें यकीन आ गया। बेचारे भोले-भाले आदमी थे, हुक्म दिया कि इसी वक्त सब फकीरों को इनाम मिले, कोई दरबार से नामुराद न लौटे; वर्ना मैं जहर खा कर मर जाऊँगा।

हाफिज - दारोगा जी, इन फकीरों को चालीस रुपए दे दीजिए।

नवाब - क्या चालीस! भला सौ रुपए तो तकसीम करो!

मुसाहब - ऐ, खुदा सलामत रखे।

हाफिज - वाह-वाह, क्यों न हो मेरे नवाब।

दारोगा ने सौ रुपए लिए और बाहर निकले। कई मुसाहब भी उनके साथ-साथ बाहर आ पहुँचे।

एक - ऐसे गौखे रईस कहाँ मिलेंगे?

दूसरा - क्या पागल है, वल्लाह!

हाफिज - बेवकूफ, काठ का उल्लू।

दारोगा - कह देंगे कि दे आए।

हाफिज - लेकिन जो फिर गुल मचाए?

दारोगा - अजी, उसको निकाल बाहर कर दो। दो धक्के।

सबने मियाँ नुदरत को घेर लिया और कोसों तक रगेदते हुए ले गए। वह गालियाँ देते हुए चले। अलारक्खी को भी खूब कोसा।

नवाब ने लाखों कसमें दीं कि अलारक्खी खाना खाएँ और कुछ दिन उसी बगीचे में आराम से रहें; मगर अलारक्खी ने एक न मानी। मियाँ नुदरत का उसे बार-बार ताने देना, उसे टके की औरत और बेसवा कहना उसके दिल में काँटे की तरह खटक रहा था। उसकी आँखों में आँसू भर आए।

नवाब - सच कहिए बी साहब, आखिर आप क्यों इस कदर रंजीदा हैं। अगर मुझसे कोई खता हुई हो, तो माफ करो।

अलारक्खी - जाने हमें इस वक्त क्या याद आया। आपसे क्या बताएँ। दिल ही तो है।

नवाब - मुझसे तो कोई कसूर नहीं हुआ?

अलारक्खी - हुजूर, ये सब किस्मत के खेल हैं। हमारी से बेहया जिंदगी किसी की न हो? माँ बाप ने अंधे कुएँ में ढकेल दिया; आप तो चैन उड़ाया किए, हमें भाड़ में झोंक गए। हमारे बूढ़े मियाँ शादी करते ही दूसरे शहर में जा बसे। हम उनके नाम को रो बैठे। जब वह अंटागफील हो गए, तो हमारी माँ ने बड़ा जश्न किया और एक दूसरे लड़के से शादी ठहराई। मगर अम्माँ से किसी ने कह दिया - खबरदार, लड़की को अब न ब्याहना, भलेमानसों में बेवा का निकाह नहीं होता। बस, अम्माँ चट से बदल गईं। आखिर मैं एक रात को घर से निकल भागी। लेकिन उस दिन से आज तक जैसी पाक पैदा हुई थी, वैसी ही हूँ। आज उस आदमी ने जो मुझे टके की औरत और बेसवा बनाया, तो मेरा दिल भर आया। कसम ले लीजिए, जो मियाँ आजाद के सिवा किसी से कभी आँखें लड़ी हो।

नवाब - कौन, कौन? किसका नाम तुमने लिया?

हाफिज - अच्छा पता लगा। वह तो नवाब साहब के दोस्त हैं।

नवाब - हमको उनकी खबर मिले, तो फौरन बुलवा लें।

अलारक्खी - वह तो कहीं बाहर गए हैं। कुछ दिनों हमारी सराय में ठहरे थे। अच्छे खूबसूरत जवान हैं। उनको एक भोले-भाले नवाब मिल गए थे। नवाब ने एक बटेर पाला था। मियाँ आजाद ने उसे काबुक से निकाल कर छिपा लिया। नवाब के मुसाहबों ने बटेर की खूब तारीफें कीं। किसी ने कहा, कुरान पढ़ता था; किसी ने कहा, रोजे रखता था। सबने मिल कर नवाब को उल्लू बना लिया। मियाँ आजाद को ऊँटनी दी गई कि जा कर बटेर ढूँढ़ लाओ। आजाद ऊँटनी ले कर हमारे यहाँ बहुत दिन तक रहे।

नवाब साहब मारे शर्म के गले जाते थे। उम्र भर में आज ही तो उन्हें खयाल आया कि ऐसे मुसाहबों से नफरत करना लाजिम है। मुसाहबों ने लाख-लाख चाहा कि रंग जमाएँ, मगर नवाब ओर भी बददिमाग हो गए।

नवाब - वह भोला-भाला नवाब मैं ही हूँ। आपने इस वक्त मेरी आँखें खोल दीं।

मुसाहब - गरीबपरवर, खुदा जानता है, हम लोग कट मरनेवाले हैं।

नवाब - बस, हम समझ गए।

हाफिज - हुजूर, तोप-दम कर दीजिए, जो जरा खता हो। हम लोग जान देनेवाले आदमी हैं।

नवाब - बस, चिढ़ाओ नहीं। अब कलई खुल गई।

मुसाहब - खुदा जानता है।

नवाब - अब कसमें खाने की कुछ जरूरत नहीं। जो हुआ सो हुआ, आगे समझा जायगा।

अलारक्खी - जो मुझको मालूम होता, तो यह जिक्र ही कभी न करती।

नवाब - खुदा की कसम, तुमने मुझ पर और मेरे बाप पर, दोनों पर इस वक्त एहसान किया। तुम जिक्र न करतीं, तो मैं हमेशा अंधा बना रहता, तुमने तो इस वक्त मुझे जिला लिया।

मुसाहब - जिसने जो कह दिया, वही हुजूर ने मान लिया। बस, यही तो खराबी है। जरा हमारी खिदमतों को देखें, तो हमको मोतियों में तौलें - कसम खुदा की - मोतियों में तोलें।

नवाब - मेरा बस चले, तो तुम सबको कालेपानी भेज दूँ। और ऊपर से बातें बनाते हो? बटेर भी रोजा रखते हैं?

हाफिज - खुदाबंद, खुदा की खुदाई में क्या कुछ बईद है।

नवाब - चलो बस, मैं खुदाई दखल न दो। मालूम हुआ, बड़े दीनदार हो। मेरा बस चले, तो तुमको ऐसी जगह कत्ल करूँ, जहाँ पानी तक न मिले।

हाफिज - अगर कोई कसूर साबित हो, तो कत्ल कर डालिए।

मुसाहब - खुदाबंद, वह आजाद एक ही गुर्गा है, बड़ा दगाबाज।

अलारक्खी - बस, बस, उनको कुछ न कहिएगा। उनका सा आदमी कोई हो तो ले!

नवाब - क्या शक है। खैर, अब भी सवेरा है, सस्ते छूटे।

अलारक्खी - छूटे तो सस्ते। ऐ हाँ, यह कहाँ की नमकहलाली है कि बटेर को रोजादार ओर नमाजी बना दिया? जो सुनेगा, क्या कहेगा?

नवाब - नमकहलाल के बच्चे बने हैं!

मुसाहब - खुदाबंद! जो चाहे, कह लीजिए, हम लोग हुज्जत और तकरार थोड़े ही कर सकते हैं।

नवाब - अजी, तुम तो जहर दे दो, संखिया खिला दो! खूब देख चुका।

अलारक्खी - ऐसे बेईमानों से खुदा बचाए।

मुसाहब - हाँ, मसनद पर बैठ कर जो चाहो कह लो। बाजार में झोटम-झोट करती फिरती हो, और यहाँ आके बातें बनाती हों।

नवाब - बस, जबान बंद करो। मेरा दिल खट्टा हो गया।

मुसाहब - जो हम खतावार हों, तो हमारा खुदा हमसे समझे। जरा भी किसी बात में नमकहरामी की हो, तो हम पर आसमान फट पड़े। हुजूर चाहे न मानें, मगर दुनिया कहती है कि जैसे मुसाहब हुजूर को मिले हैं, वैसे बड़े खुशकिस्मतों को मिलते हैं।

नवाब - यों कहो कि जिसकी किस्मत फूट जाती है, उसको तुम जैसे गुर्गे मिलते हैं। बस, आप लोग बोरिया-बँधना उठाइए और चलते-फिरते नजर आइए।

मुसाहब - हुजूर, मरते दम तक साथ न छोड़ेंगे, न छोड़ेंगे।

हाफिज -यह दामन छोड़ कर कहाँ जाएँ?

मिरजा - कहीं ठिकाना भी है?

हाफिज - ठिकाना तो सब कुछ हो जाय, मगर छोड़ कर जाने को भी जब जी चाहे। जिसका इतने दिन तक नमक खाया, उससे भला अलग होना कैसे गवारा हो? मार डालिए, मगर हम तो इस ड्योढ़ी से नहीं जाने के। यह दर और यह सर। मरें भी, तो हुजूर ही की चौखट पर, और जनाजा भी निकले, तो इसी दरवाजे से !

नवाब - बातें न बनाओ। जहाँ सींग समाय, चले जाओ।

हाफिज - हुजूर को खुदा सलामत रखे। जहाँ हुजूर का पसीना गिरे, वहाँ हमारा खून जरूर गिरेगा।

मगर नवाब साहब इन चकमों में न आए। खिदमतगारों को हुक्म दिया कि इन सबों को पकड़ कर बाहर निकाल दो। अगर न जाएँ, तो ठोकर मार कर निकाल दो।

अब बी अलारक्खी का भी हाल सुनिए। उनको मियाँ नुदरत की बातों का ऐसा कलक हुआ, दिल पर ऐसी चोट लगी कि अपने कुल जेवर और असबाब बेच कर बस्ती के बाहर एक टीले पर फकीरों की तरह रहने लगीं। कसम खा ली कि अब तक आजाद रूम से न लौटेगें, इसी तरह रहूँगी।

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