Azad Katha - 1 - 46 in Hindi Fiction Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | आजाद-कथा - खंड 1 - 46

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आजाद-कथा - खंड 1 - 46

आजाद-कथा

(खंड - 1)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 46

सवेरे हुस्नआरा तो कुछ पढ़ने लगी और बहारबेगम ने सिंगारदान मँगा कर निखरना शुरू किया।

हुस्नआरा - बस, सुबह तो सिंगार, शाम तो सिंगार। कंघी-चोटी, तेल-फुलेल। इसके सिवा तुम्हें और किसी चीज से वास्ता नहीं। रूहअफजा सच कहती हैं कि तुम्हें इसका रोग है।

बहारबेगम - चलो, फिर तुम्हें क्या? तुम्हारी बातों में खयाल बँट गया, माँग टेढ़ी हो गई।

हुस्नआरा - है-है! गजब हो गया। यहाँ तो दूल्हा भाई भी नहीं हैं! आखिर यह निखार दिखाओगी किसे?

बहारबेगम - हम उठ कर चले जायँगे। तुम छेड़ती जाती हो और यह मुआ छपका सीधा नहीं रहता।

हुस्नआरा - अब तक माँग का खयाल था, अब छपके का खयाल है।

बहारबेगम - अच्छा, एक दिन हम तुम्हारा सिंगार कर दें, खुदा की कसम वह जोबन आ जाय कि जिसका हक है।

हुस्नआरा - फिर अब साफ-साफ कहलाती हो। तुम लाख बनो-ठनो, हमारा जोबन खुदाबंद होता है। हमें बनाव-चुनाव की क्या जरूरत भला!

बहारबेगम - अपने मुँह मिया मिट्ठू बन लो।

हुस्नआरा - अच्छा, सिपहआरा से पूछो। जो यह कहे वह ठीक।

सिपहआरा - जिस तरह बहार बहन निखरती हैं, उस तरह अगर तुम भी निखरो, तो चाँद का टुकड़ा बन जाओ। तुम्हारे चेहरे पर सुर्खी और सफेदी के सिवा नमक भी बहुत है। मगर वह गोरी-चिट्ठी हैं बस, नमक नहीं।

रूहअफजा - सच्ची बात तो यह है कि हुस्नआरा हम सबसे बढ़-चढ़ कर हैं।

इतने में एक फिटन खड़खड़ाती हुई आई, मुश्की जोड़ी जुती हुई। नवाब खुरशेदअली उतर कर बड़ी बेगम के पास पहुँचे और सलाम किया।

बड़ी बेगम - आओ बेटा, बाईं आँख जब फड़कती है, तब कोई न कोई आता जरूर है। उस दिन आँख फड़की, तो लड़कियाँ आईं। यह रूहअफजा की क्या हालत हो गई है?

नवाब साहब - अब तो बहुत अच्छी हैं! मगर परहेज नहीं करतीं। तीता मिर्च न हो, तो खाना न खायँ। फिर भला अच्छी क्योंकर हों?

यहाँ से बाते करके नवाब साहब उस कमरे में पहुँचे, जिसमें चारों बहने बैठी थीं। नवाब साहब का लिबास देखिए, जुर्राब खाकी रंग का, घुटन्ना चुस्त, कुर्ता सफेद फलालैन का। उस पर स्याह बनात का दगला और हरी गिरंट की गोट। बाँकी नुक्केदार टोपी। पाँव में स्याह वारनिश का बूट, एक सफेद दुलाई ओढ़े हुए। हुस्नआरा और सिपहआरा ने नीची गरदन करके बंदगी की। रूहअफजा ने कहा - आप बेइत्तला किए हमारे कमरे में क्यों चले आए साहब?

नवाब साहब - हुक्म हो, तो लौट जाऊँ।

बहारबेगम - शौक से। बिन बुलाए कोई नहीं आता। लो सिपहआरा, अब इनके साथ बग्घी पर हवा खाने जाओ।

सिपहआरा - वाह, क्या झूठ-मूठ लगाती हो। भला मैंने कब कहा था।

रूहअफजा - हम गवाह हैं।

नवाब साहब - अच्छा, फिर उसमें ऐब ही क्या है?

इतने में रूहअफजा एक शीशे की तश्तरी में चिकनी डलियाँ रख कर लाई। नवाब साहब ने दो उठा कर खा लीं और 'आख थू, आख थू!' करते-करते बोले - पानी मँगाओ खुदा के वास्ते।

वह चिकनी डली असल में मिट्टी की थी। चारों बहनों ने कहकहा लगाया और हजरत बहुत झेंपे। जब मुँह धो चुके, तो सिपहआरा ने एक गिलोरी दी।

नवाब साहब - (गिलौरी खोल कर) अब बे देखे भाले खानेवाले की ऐसी-तैसी। कहीं इसमें मिरचें न झोंक दी हों। इस वक्त तो भूख लगी हुई है। आँतें कुलहु-अल्लाह पढ़ रही हें।

हुस्नआरा - बासी खीर खाइए, तो लाऊँ?

नवाब साहब - नेकी और पूछ-पूछ ?

हुस्नआरा जा कर एक कुफुली उठा लाई। नवाब साहब ने बड़ी खुशी से ली, मगर खोलते हैं तो मेंढकी उचक कर निकल पड़ी!

नवाब साहब - खूब! यह रूहअफजा से भी बढ़ कर निकलीं। 'बड़ी बी तो बड़ी बी, छोटी बी सुभान अल्लाह।'

रात को नवाब साहब आराम करने गए, तो बहारबेगम ने पूछा - कहो, तुम्हारी अम्माँजान तो जीती हैं? या ढुलक गईं?

नवाब साहब - क्या बेतुकी उड़ाती हो, ख्वाहमख्वाह दिल दुखाती हो। ऐसी बातें करती हो कि सारा शौक ठंडा पड़ जाता है।

बहारबेगम - हाँ, उनकी तो मुहब्बत फट पड़ी है तुमको। बत्तीस धार का दूध पिलाया है कि नहीं!

नवाब साहब - इसी से आने को जी नहीं चाहता था।

बहारबेगम - तो क्यों आए? क्या चकला निगोड़ा उजड़ गया है? या बाजार में किसी ने आग लगा दी?

नवाब साहब - अच्छा, इस वक्त तो खुदा के लिए ये बातें न करो? कोई छह दिन के बाद मुलाकात हुई है।

बहारबेगम - क्या कहीं आज और ठिकाना न लगा?

नवाब साहब - तुम तो जैसे लड़ने पर तैयार हो कर आई हो।

बहारबेगम - क्यों? आप प्राटन साहब न बनोगे? कोट पतलून पहनके न जाओगे? मुझसे उड़ते हो!

नवाब साहब रंगीन-मिजाज आदमी थे। बहारबेगम को उनके सैर-सपाटे बुरे मालूम होते थे। इसी सबब से कभी-कभी मियाँ-बीवी में चख चल जाती थी। मगर अबकी मरतबा बहारबेगम ने एक ऐसी बात सुनी थी कि आँखों से खून बरसने लगा था। एक दिन नवाब साहब कोट-पतलून डाट कर एक बँगले पर जा पहुँचे और दरवाजा खटखटाया। अंदर से आदमी ने आ कर पूछा - आप कहाँ से आते हैं? आपने कहा - हमारा नाम प्राटन साहब है। मेम साहब को बुलाओ। अब सुनिए, एक कुँजड़िन जो पड़ोस में रहती थी, वहाँ तरकारी बेचने गई हुई थी। वह इन हजरत को पहचान गई और घर में आ कर बहार-बेगम से कच्चा चिट्ठा कह सुनाया। बेगम सुनते ही आग-भभूका हो गईं और सोचीं कि आज आने तो दो, कैसा आड़े-हाथों लेती हँ कि छठी का दूध या आ जाय। मगर उसी दिन यहाँ चली आईं और बात ज्यों कि त्यों रह गई। भरी तो बैठी ही थीं, इस वक्त मौका मिला, तो उबल पड़ीं। नवाब ने जो पते-पते की सुनी, तो सन्नाटे में आ गए।

बहारबेगम - कहिए प्राटन साहब, मिजाज तो अच्छे हैं?

नवाब साहब - तुम क्या कहती हो? मेरी समझ ही में नहीं आता कुछ।

बहारबेगम - हाँ, हाँ, आप क्या समझेंगे। हम हिंदोस्तानी और आप खासी विलायत के प्राटन साहब! हमारी बोली आप क्या समझेंगे?

नवाब साहब - कहीं भंग तो नहीं पी गई हो?

बहारबेगम - अब भी नहीं शरमाते?

नवाब साहब - खुदा गवाह है, जो कुछ समझ में भी आया हो।

बहारबेगम - जलाए जाओ और फिर कहो कि धुआँ न निकले। मैं क्या जानती थी कि तुम प्राटन साहब बन जाओगे।

इधर तो मियाँ-बीबी में नोक-झोंक हो रही थी, उधर उनकी सालियाँ दरवाजे के पास खड़ी चुपके-चुपके झाँकती और सारी दास्तान सुन रही थीं। मारे हँसी के रहा न जाता था। आखिर जब एक मरतबा बहार ने जोर से नवाब का हाथ झटक कर कहा - आप तो प्राटन साहब हैं, मैं आपको अपने घर में न घुसने दूँगी - तो सिपहआरा खिलखिला कर हँस पड़ी। बहार ने हँसी की आवाज सुनी, तो धक से रह गई। नवाब भी हक्का-बक्का हो गए।

नवाब साहब - तुम्हारी बहनें बड़ी शोख हैं।

रूहअफजा - बहन, सलाम!

सिपहआरा - दूल्हा भाई, बंदगीअर्ज।

हुस्नआरा - मैं भी प्राटन साहब को आदाबअर्ज करती हूँ।

नवाब साहब - समझा दो, यह बुरी बात है।

सिपहआरा - बिगड़ते क्यों हो प्राटन साहब!

बहारबेगम - (कमरे से निकल कर) ऐ, तो अब भागी कहाँ जाती हो?

रूहअफजा - बहन, अब जाइए। प्राटन साहब से बातें कीजिए।

बहारबेगम - आओ-आओ, तुम्हें खुदा की कसम।

सिपहआरा - कोई भाई-बंद अपना हो, तो आएँ। भला प्राटन साहब को क्या मुँह दिखाएँ?

नवाब साहब - इस प्राटन के नाम ने तो हमें खूब झंडे पर चढ़ाया। कैसे रुसवा हुए!

बहारबेगम - अपनी करतूतों से।

सिपहआरा - अब तो कलई खुल गई?

तीनों बहनों ने नवाब साहब को खूब आड़े हाथों लिया। बेचारे बहुत झेंपे जब वे चली गईं, तो बहारबेगम ने भी प्राटन साहब का कसूर माफ कर दिया -

दिलों में कहने-सुनने से अदावत आ ही जाती है;

जब आँखें चार होती हैं, मुहब्बत आ ही जाती हैं।

***