बच्चों पर केंद्रित फिल्में
आशीष कुमार त्रिवेदी
मनोरंजन प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यक्ता है। इसके माध्यम से कोई भी व्यक्ति रोजमर्रा की जीवनशैली से उत्पन्न ऊब को दूर करता है। मनोरंजन से मन और मष्तिष्क तरोताज़ा हो जाता है। जिससे हम अपने कार्य को कुशलता पूर्वक कर पाते हैं।
हमारे समाज में मनोरंजन के अनेक साधन उपलब्ध हैं जिनमें सबसे प्रमुख साधन है फिल्म। अमीर गरीब, साक्षर निरक्षर हर कोई फिल्में देख कर अपना मनोरंजन कर सकता है। हमारे देश में हर साल अनगिनत फिल्मों का निर्माण होता है। जिनके ज़रिए करोड़ों लोग अपना मनोरंजन करते हैं।
बच्चे किसी भी समाज का एक मुख्य अंग होते हैं। वयस्कों की तरह उन्हें भी मनोरंजन की आवश्यक्ता होती है। वह भी फिल्में देखना उतना ही पसंद करते हैं जितना बड़े।
बच्चों की अपनी सोंच, समझ तथा कल्पना शक्ति होती है। क्योंकी बच्चे ही आने वाले कल का भविष्य होते हैं। अतः यह आवश्यक है कि उन्हें इस तरह का मनोरंजन प्रदान किया जाए जो उनके मनोभावों के अनुकूल हो एवं उनके मनोविज्ञान पर बुरा असर ना डाले। बच्चों के लिए ऐसी फिल्मों का निर्माण हो जो खासकर उन्हें ध्यान में रख कर बनाई गई हों। जिनमें सीख और मनोरंजन का सही मिश्रण हो।
फिल्म एक ऐसा माध्यम है जिसमें हम पर्दे पर घटनाओं को घटित होते देखते हैं तथा साथ ही आवाज़ें भी सुनते हैं। अतः फिल्म देखते समय हमारी एक से अधिक इंद्रियां इसमें व्यस्त होती हैं। इसलिए फिल्मों का हमारे ऊपर अधिक प्रभाव होता है। बच्चों के कोमल मनोभावों को फिल्में और भी अधिक प्रभावित करती हैं।
दृश्य श्रव्य माध्यम होने के कारण फिल्मों के ज़रिए बच्चों को बहुत कुछ सिखाया भी जा सकता है। जो उनके चरित्र निर्माण में सहायक हो सकता है। अतः बच्चों के लिए फिल्मों का निर्माण करते समय उनकी आयु पर विशेष ध्यान देना बहुत ज़रूरी होता है। एक अच्छी बाल फिल्म वह होती है जो ना सिर्फ बच्चों की जिज्ञासा को बढ़ाए बल्कि उनके बहुत से प्रश्नों का उत्तर दे सकने में भी सक्षम हो।
फिल्मों के माध्यम से बच्चों को पृथ्वी के विभिन्न स्थानों से परिचित कराया जा सकता है। अलग अलग देशों की भाषा, सभ्यता व संस्कृति का ज्ञान देने में फिल्में बहुत सहायक हो सकती हैं।
बच्चों की इसी आवश्यक्ता को ध्यान में रखते हुए देश के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने 11 मई 1955 में चिल्ड्रेंस फिल्म सोसाइटी का गठन किया। इसका उद्देश्य बच्चों के लिए मनोरंजक व ज्ञानवर्धक फिल्मों का निर्माण करना था। ह्रदयनाथ कुंजरू इसके पहले प्रेसिडेंट बने थे।
इस सोसाइटी के अध्यक्ष का चुनाव तीन सालों के लिए होता है। इस समय इस पद पर बच्चों के बीच शक्तिमान किरदार के लिए प्रसिद्ध अभिनेता मुकेश खन्ना हैं।
पिछले 52 सालों में चिल्ड्रेंस फिल्म सोसाइटी द्वारा कुल 114 फीचर फिल्म्स, 45 लघु फिल्म्स, 9 कठपुतली फिल्म्स 52 डाक्यूमेंट्री फिल्में बनाई हैं।
चिल्ड्रेंस फिल्म सोसाइटी द्वारा निर्मित पहली फिल्म नितिन बोस निर्देशित 'चार दोस्त'(1956) थी। इसमें एक भालू, दो छोटे बच्चे तथा एक लड़की के सहजे प्रेम की कहानी चित्रित की गयी थी। इसके बाद केदार शर्मा के निर्देशन में बनी फिल्म 'जलदीप' का निर्माण हुआ। इस फिल्म ने वेनिस के बाल फिल्म समारोह में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था।
इसके अतिरिक्त 'जन्म तिथि (1958), विरसा एण्ड दि मैजिक हाल'(1959), 'वनियन डियर(वटमृग 1960), 'तरू'(दि ट्री 1991), दोस्त मगरमच्छ(सी फेज अवार्ड), 'अनोखा अस्पताल'(1990), 'अंकुर, मैना और कबूतर'(1989), 'अभयम(डब– मैं फिर आऊंगा 1991) तथा, 'मुझसे दोस्ती करोगे'(1993) उल्लेखनीय हैं।
'हम पंछी एक डाल के' को 1958 में प्रधानमंत्री का स्वर्णपदक प्राप्त करने का पहला अवसर मिला।
इन बाल फिल्मों को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहना तथा पुरस्कार तो मिले किंतु फिल्म महोत्सवों को छोड़ कर इनके प्रदर्शन की सही व्यवस्था नहीं की गई। अतः इनकी पहुंच अधिक दर्शकों तक नहीं हो सकी। धीरे धीरे बाल फिल्मों के निर्माण का स्तर भी कम होने लगा। कभी तकनीकि पक्ष कमज़ोर रह जाता तो कहीं कहानी कमज़ोर होती। समय के अनुसार नए विषयों को सम्मिलित ना करना भी एक वजह रही।
भारत में वयवसायिक सिनेमा जिसे बॉलीवुड कहा जाता है का बोलबाला रहा है। बॉलीवुड में विभिन्न विषयों पर फिल्में बनाई जाती हैं। जिनमें बजट अधिक होता है। अतः व्यवसायिक्ता पर अधिक ध्यान दिया जाता है। किंतु बॉलीवुड ने भी बच्चों को केंद्रित कर कई फिल्में बनाई हैं।
आजादी के पूर्व फजली ब्रदर्स की 'मासूम' (1941), गौतम चित्र की 'यतीम'(1945) उसके बाद न्यू थियेटर्स की 'छोटा भाई' (1949), आल्हाद चित्र की 'नन्हें–मुन्ने'(1952), न्यू थियेटर्स की 'नया सफर' एम पी प्रोडक्शन का 'बाबला' (1953) आदि फिल्में बनीं।
राजकपूर द्वारा सड़क पर रहने वाले अनाथ बच्चों के संघर्ष पर 1954 में प्रकाश अरोडा के निर्देशन में 'बूट पालिश’ नामक फिल्म बनाई गई। फिल्म में नाज और रतन कुमार ने मुख्य भूमिका निभाई थी। इस फिल्म का गीत 'नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है' बहुत प्रसिद्ध हुआ।
1954 में ही 'फिल्मिस्तान' स्टूडियो ने शिक्षा व्यवस्था पर ‘जाग्रति’ नाम की फिल्म बनाई। इसका निर्देशन सत्येन बोस ने किया था। इस फिल्म में शिक्षा का महत्व समझाते हुए देश के गौरवशाली अतीत को भी दिखाया गया है।
मशहूर फिल्म 'मदर इंडिया' बनाने वाले महबूब खान ने भी 1962 में 'सन ऑफ इंडिया के नाम से एक फिल्म बनाई थी। इसमें एक बच्चे की अपने मां-बाप की तलाश की कहानी को दिखाया गया है। यह बच्चा अपनी खोज के सफर में हर तरह की तकलीफ उठा कर भी हिम्मत नहीं हारता है। इसके अतिरिक्त बच्चों को केंद्रीय भूमिका में लेकर नौनिहाल (1967) विद्यार्थी (1968), बालक (1969), बचपन (1970),, बिन मां के बच्चे (1983) जैसी कई फिल्में बनाई गईं किंतु इन्होंने बहुत प्रभावित नहीं किया।
शेखर कपूर के द्वारा निर्देशित फिल्म 'मिस्टर इंडिया' बहुत प्रसिद्ध हुई। हलांकि यह बच्चों की फिल्म नहीं थी। किंतु 1980 के दशक में आई इस फिल्म में बच्चों की अहम भूमिका थी।
बीच में एक दौर आया जब केवल दो ही प्रकार की फिल्में बॉलीवुड में बनीं। इनमें गंभीर सामाजिक मुद्दों पर बनीं कला फिल्में थीं या फिर नाच गाने से भरी मसाला फिल्में। बच्चों के लिए ना के बराबर फिल्मों का निर्माण हुआ।
हाल के कुछ सालों में फिर कुछ ऐसी फिल्में बनीं जो बच्चों को ध्यान में रख कर बनाई गईं। जैसे कि 'भूत अंकल' 'चेन कुली की मेन कुली' ‘भूतनाथ’, ‘तारा रम पम’, ‘चिल्लर पार्टी’ 'आई एम कलाम’, ‘गट्टू’, ‘नन्हा जैसलमेर’, ‘मकड़ी’, ‘ब्लू अंब्रेला’ व ‘स्टेनले का डिब्बा’ आदि।
'मकड़ी' फिल्म हमारे समाज में फैले अंधविश्वास को दर्शाती है। गांव वालों की मान्यता थी कि हवेली में मकड़ी नाम की डायन रहती है। वह हवेली मे पहुँच गए लोगों को जानवर बना देती है। किंतु अपनी बहन की खोज में गई एक लड़की सब राज़ खोल देती है कि वहाँ लोगों को अवैध रूप से बंधक बना कर रखा जाता था।
विशाल भारद्वाज की 'ब्लू अंब्रेला' ने भी संवेदना के स्तर पर बहुत प्रभावित किया। यह एक बच्ची के नीले छाते की कहानी है। यह रस्किन बांड की रचना पर आधारित है। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
इरफान कमल ने अपनी फिल्म 'थैंक्स माँ' के ज़रिए मुंबई की झुग्गी-बस्तियों मे रहने वाले आवारा और अनाथ बच्चों के अधूरे बचपन को बहुत मार्मिक तरीके से दर्शाने की कोशिश की है। फिल्म 'पाठशाला' के ज़रिए समाज में बच्चों के भविष्य के साथ हो रहे खिलवाड़ को दिखाया गया है। किस प्रकार पब्लिक स्कूल व्यवसाय के केंद्र बन रहे हैं।
प्रियदर्शन की फिल्म 'बम बम बोले' बच्चों में बहुत पसंद की गई| फिल्म के केंद्र में भाई-बहन हैं। एक दिन भाई की गलती से बहन के जूते गुम हैं। दोनों भाई-बहन एक तरकीब सोचते हैं। सुबह जो जूता पहनकर बहन स्कूल जाती है वही जूता दोपहर में भाई पहन कर अपने स्कूल जाता है। भाई इंटर स्कूल मैराथन रेस में पहले नहीं बल्कि तीसरे नंबर पर आना चाहता है क्योंकि तीसरा पुरस्कार जूते हैं जो उसकी बहन को चाहिए। इसी कहानी पर प्रख्यात फिल्मकार माजिद मजिदी ने 'चिल्ड्रेन ऑव हेवेन' बनाई है।
अमोल गुप्ते क फिल्म 'स्टेनली का डिब्बा' 9 वर्षीय स्टेनली नाम के लड़के की कहानी है। स्टेनली एक गरीब लड़का है जो स्कूल में टिफिन लेकर नहीं जाता है। कहानी उसके टिफिन बॉक्स के इर्द-गिर्द बुनी गई है। यह फिल्म गरीब छात्रों के संघर्ष के एक और पक्ष को उजागर करती है।
'चिल्लर पार्टी' मासूम बच्चों के ऐसे समूह की कहानी है जो एक राजनेता के खिलाफ खड़े हो जाते हैं और एक आवारा कुत्ते की जिन्दगी बचाकर सबका दिल जीत लेते हैं।
राजन खोशा द्वारा निर्देशित फिल्म 'गट्टू’ एक गरीब लेकिन होशियार बालक के बारे में है। आसमान में अनगिनत पतंगों के बीच एक काली नाम का अजेय पतंग उड़ती है जिसके उड़ाने वाले का पता नहीं है। उस पतंग को हराने की चुनौती गट्टू नाम का बालक स्वीकार करता है। यह फिल्म संदेश देती है कि जब इच्छाशक्ति हो तो कुछ भी किया जा सकता है।
'आई एम कलाम' एक गरीब राजस्थानी लड़के छोटू की कहानी है। जो एक दिन कलाम का भाषण सपनता है। जियसे उसका जीवन के प्रति नजरिया बदल जाता है।
विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म 'फरारी की सवारी' में पिता-पुत्र संबंध का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया गया है।
आमिर खान की फिल्म 'तारे ज़मीं पर' हाल के समय में प्रदर्शित सबसे अच्छी फिल्म है। यह फिल्म डिसलेक्सिया से पीड़ित एक बच्चे तथा उसके शिक्षक के रिश्ते की भावनात्मक कहामी है। ईशान अवस्थी नाम के आठ साल के इस बच्चे की समस्या को कोई नहीं समझ पा रहा था। अपनी बीमारी के चलते वह पढ़ाई में मन नहीं लगा पाता है। माँ को छोड़ कर सभी उसे नालायक समझते हैं। यह सोंच कर कि बोर्डिंग में रह कर वह सुधर जाएगा पिता ने उसे बाहर भेज दिया। जहाँ वह अकेला पड़ गया। लेकिन उसके शिक्षक ने उसकी कमी को पहचान कर उत्साहित किया। जिससे वह एक सफल छात्र के रूप में उभर कर सामने आता है। ईशान का किरदार निभाने वाले दर्शील सफारी ने अपने अभिनय से सबका मन मोह लिया।
इन फिल्मों के अलावा पीयूष झा की फिल्म 'सिंकदर', अनुराग कश्यप की 'बाल गणेश', 'माई फ्रेंड गणेश', 'रिटर्न ऑफ हनुमान' जैसी फिल्में भी काफी चर्चा में रहीं।
जिस तरह हम अपने बच्चों को अच्छी परवरिश, अच्छी खुराक और अच्छी शिक्षा देते हैं वैसे ही हमारा कर्तव्य है कि हम मनोरंजन के लिए उन्हें ऐसी फिल्में दिखाएं जो उन्हें स्वस्थ व शिक्षाप्रद मनोरंजन दे सकें। चिल्ड्रेंस फिल्म सोसाइटी को चाहिए कि वह ऐसी बाल फिल्मों का निर्माण करें जिन्हें सही तरह से वितरित किया जा सके। ताकि वह अधिक से अधिक दर्शकों तक पहुँच सकें।
बॉलीवुड के और अधिक फिल्म निर्माताओं को भी इस काम के लिए आगे आना चाहिए।