नाती की चाह
चिन्तन-मुद्रा में बैठी मधु ने शान्त भाव से कहा — “इस फरवरी में राजीव छब्बीस वर्ष का हो जायेगा। अब शीघ्र ही हमें इसका विवाह कर लेना चाहिये। यह उचित समय है उसके विवाह का। उच्च शिक्षा प्राप्त करके अच्छे वेतन पर कार्यरत है, और क्या चाहिये अब ?” मधु की बात सुनकर कुछ क्षणोपरान्त उसके पति महेश ने कहा — ”विवाह तो कर लेना चाहिए, परन्तु कोई सुयोग्य लडकी तो मिले ! ......इतने रिश्ते आ रहे हैं, पर कुछेक को राजीव पसन्द नहीं आता है, तो कुछ लड़कियाँ राजीव को पसन्द नहीं आतीं हैं। पिछले छः महीने के दौरान जितने भी रिश्ते आये हैं, उन सभी को राजीव पसन्द था, पर तुम्हें कोई लड़की पसन्द नहीं आयी !”
राजीव, जो अब तक अपने मम्मी—पापा की बातें चुपचाप बैठा सुन रहा था, अपने अन्तस्थः भावों को अभिव्यक्त करते हुए बोला — “मम्मी, मैं आज तक यह नहीं समझ पाया हूँ, आप बहू के रूप में कैसी लड़की चाहती हैं ? कुछ लड़कियों को तो आप यह कहकर अयोग्य सिद्ध कर देती हैं कि इसने नकल—चकल से बी0 ए0, एम0 ए0 तो पास कर लिया है, पर इसमें इस स्तर का बोध नहीं है ; पूर्णरूप से रूढि़वादी प्रकृति की लड़की है, किसी भी बात को तार्किक ढंग से नहीं सोचती है। ..... कई लड़कियाँ आपने इसलिए अयोग्य ठहरा दी, क्योंकि वे किसी कम्पनी में कार्यरत थी। आप मुझे ये बताइये कि प्राइवेट सैक्टर की किसी कम्पनी में कार्य करना गुनाह है क्या ? और यदि है तो क्यों है ? आज के युग में पचास प्रतिशत लड़कियाँ प्राइवेट सैक्टर में ही कार्यरत हैं। आपको केवल घर— परिवार की देखरेख करने वाली ही बहू चाहिए, तो आप अनपढ लड़की से मेरा विवाह क्यों नहीं कर लेती हैं ! उच्च शिक्षा प्राप्त और तार्किक दृष्टिकोंण वाली लड़की क्यों ढूँढती हैं आप !.....उच्च शिक्षित, तर्कगुणी औरे साथ—साथ भारतीय संस्कृति के लिए समर्पित लड़की चाहती हैं आप ! मुझे नहीं लगता, ऐसी लड़की ढूँढने में आपको सफलता मिल पायेगी !”
महेश ने भी बेटे की बात का समर्थन किया — “मुझे भी ऐसा ही लगता है ! ..... किसी भी लड़की में एक साथ वे सभी गुण मिलना, जिन्हें तुम अपनी बहू में चाहती हो, कठिन ही नहीं असम्भव है ! वैसे भी, इस विषय में हमारी पसन्द को नहीं, हमारे बेटे की पसन्द को वरीयता मिलनी चाहिए। समय बदल रहा है, समय के साथ—साथ लोगों की आवश्यकताएँ बदल रही हैं और उसी के साथ बच्चों की पसन्द में भी परिवर्तन हो रहा है। सभी माता—पिता अपने बच्चों को युगानुरूप शिक्षा और संस्कार देते हैं। स्वयं बच्चे भी युग के अनुरूप ही तो अपने व्यक्तित्व को सृजित करते हैं। ..... मेरा परामर्श है कि आपको अपनी सोच में लोच बनानी चाहिए।”
महेश की बातों से उनके बेटे को पर्याप्त सहारा मिला । पिता की बातों का अवलम्ब लेकर राजीव ने सकुचाते हुए कहा — “मम्मी आप इस कम्यूटर—युग में केवल घर सम्भालने के लिए लड़की मत ढूँढिये ! ऐसी बहू तलाशिये जो महँगाई के युग में घर—बाहर दोनों को सम्हालने में निपुण हो !.....मेरे सभी मित्रों की पत्नियाँ किसी न किसी व्यवसाय में कार्यरत हैं और वे सभी अपने जीवन—साथी के साथ संतुष्ट भी हैं, प्रसन्न भी हैं ! यदि मेरी पत्नी एकदम घरेलू होगी, तो मैं कभी उनसे आँख मिलाकर बात नहीं कर पाऊँगा ! मेरी पत्नी भी मेरे मित्रों की पत्नियों के साथ स्वयं को बौना अनुभव करेगी !”
“क्यों, क्या एक कुशल गृहणी किसी व्यवसायरत—स्त्री से कमतर है ?” मधु ने अपनी सोच को सही सिद्ध करने की मुद्रा में कहा।
“मम्मी, क्या आप ऐसा नहीं समझती हैं कि वह कमतर होती है !” राजीव ने अफसोस प्रकट किया।
“नहीं ! मैं समझती हूँ, एक बुद्धिसंपन्न और भावसंपन्न स्त्री श्रेष्ठतम होती है। वह किसी व्यवसाय में लगी है या घर सम्भाल रही है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है !”
“ फर्क पड़ता है मम्मी !”
“ तुम ऐसी लड़की से विवाह करना चाहते हो, जो महँगाई के युग में घर—बाहर दोनों को सम्हालने में निपुण हो, ..... पर तुमने कभी उस स्त्री के विषय में सोचा है ? जिस पर घर तथा ऑफिस दोनों को संभालने का दायित्व होता है ! कभी सोचा है तुमने, जिस समाज की संरचना ऐसी है कि पुरुष उठकर एक गिलास पानी न ले सके ; जहाँ रसोई से लेकर बच्चों के पालन—पोषण तक की सारी जिम्मेदारी स्त्री पर डाल दी जाती हैं, वहाँ कामकाजी स्त्री अपनी सामर्थ्याधिक कार्यभार वहन करने के कारण कितनी तनावग्रस्त रहती है ? घर तथा ऑफिस में सामंजस्य करते—करते कभी—कभी तो वह एक मशीन बनकर रह जाती है ; एकदम संवेदनाशून्य !” कुछ क्षण मौन रहकर मधु ने पुनः कहा — “इसलिए मैं चाहती हूँ कि लड़की व्यवसायरत न हो ! पढ़ी—लिखी इसलिए चाहती हूँ कि वह अपने विवेक के बल पर घर के किसी भी विषय पर उचित निर्णय लेने में सक्षम हो।........यह मेरी अपनी इच्छा रही है कि ऐसी बहू आए, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं आप दोनों के विचारों से सहमत नहीं हूँ। मेरी विचार—दृष्टि में पूर्णतः लोच है । जिस लड़की को राजीव पसंद करेगा, मैं उसी को बहू बनाकर ले आऊँगी !” मधु ने अपने पक्ष में तर्क देकर सहमति की मुद्रा में कहा।
राजीव और रीता दोनों एक ही ऑफिस में कार्य करते थे। दोनों में परस्पर सद्भाव भी था और आकर्षण भी, जिसे उनके कुछ सहकर्मी प्रेम की संज्ञा से अभिहित करने लगे थे। स्वयं उन्हें भी यह भ्रम हो गया था कि वे परस्पर एक—दूसरे से प्रेम करते हैं। किन्तु अपने—अपने अभिभावकों की अनुमति के बिना विवाह करना दोनों मे से किसी को स्वीकार नही था।.....राजीव ने अपने मम्मी—पापा के साथ हुए संवाद के विषय में रीता को बताया तो वह बहुत प्रसन्न हुई कि राजीव के माता—पिता व्यवसायरत लड़की को अपनी बहू के रूप में अपनाने के लिए तैयार हैं। रीता ने राजीव को वचन दिया कि वह शीघ्र ही उसके मम्मी—पापा से अपने मम्मी—पापा की भेंट करायेगी।
एक सप्ताह बाद रीता के मम्मी —पापा राजीव के घर पर आये। इस शर्त पर विवाह की सहमति बनी कि विवाह में दान—दहेज की अपेक्षा कदापि नहीं करेंगे और रीता के कैरियर में किसी भी प्रकार की कोई बाधा नहीं उसी दिन ज्योतिषाचार्य जी को बुलावाया गया और दोनों परिवारों ने विवाह का शुभ मुहुर्त निकलवाकर परस्पर एक—दूसरे को मिठाई खिलाई और बधाई दीं।
शीघ्र ही विवाह का शुभ दिन आ गया और दोनों का विवाह संपन्न हो गया। विवाह के परम्परागत रस्मों का निर्वाह करने के पश्चात् दस—बारह दिन प्रसन्नतापूर्वक हनीमून में व्यतीत हो गये। हनीमून से लौटने के पश्चात् घर में सभी का विचार था कि उनके जीवन की धारा धीरे—धीरे सामान्य गति से बहने लगेगी। पर यह विचार केवल विचार ही रह गया, क्योंकि अब दो स्वतंत्र पहिये एक साथ मिलकर गृहस्थी की उस गाड़ी का रूप धारण कर चुके थे, जहाँ दोनों को साथ—साथ चलकर इस गाड़ी को चलाते हुए जीवन—यात्रा तय करनी होती है। दम्पति रूपी पहियों पर अवलम्बित गृहस्थी की गाड़ी को चलाने के लिए दोनों में अधिकार की अपेक्षा प्रेम और सद्भावना की अधिक आवश्यकता होती है। जब एक पहिये का अहम् भाव उसके प्रेम—सद्भाव पर हावी हो जाए और उसका विवेक भी उसके अस्तित्व को प्रतिष्ठत करने का समर्थक हो जाए, तब उस गृहस्थी की गाड़ी चलती नही, घिसटती है। तब उस गाड़ी के पहियों का अस्तित्व अलग—अलग तो बना रह सकता है, गृहस्थी के अस्तित्व पर खतरा मँडराने लगता है। ऐसा ही कुछ रीता और राजीव की गृहस्थी में भी हुआ।
राजीव उस भारतीय संस्कृति के बीच पला—बढ़ा था, जहाँ पुरुष पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबंध नहीं रहता और स्त्री का हर कदम प्रतिबंधित होता है ; वह स्वतंत्रतापूर्वक एक कदम भी अपनी इच्छा से नहीं चल सकती। अपनी इसी संस्कृति को पोषित करता हुआ राजीव घर से प्रायः प्रातः दस बजे निकलकर रात में बारह बजे या उसके बाद ही घर लौटता था । तब तक दिन—भर ऑफिस में कार्य करके थकी हुई रीता सो चुकी होती थी। विवाह के उपरान्त आरंभ के कुछ दिनों तक राजीव ने अपनी पत्नी रीता की इस स्थिति को थोड़ा-सा समझा था, इसलिए वह रीता को जगाना नहीं चाहता था और प्रायः खाना या तो बाहर खाकर आता था या भूखे—पेट सो जाता था । परन्तु भोजन के अतिरिक्त दम्पति को एक दूसरे से जिन अनेक शारिरिक—मानसिक सुखों की अपेक्षाएँ होती हैं, उनका क्या ? एक—दूसरे के सुख—दुःख में सम्मिलित होना, दिन—भर के अपने—अपने अनुभव एक—दूसरे के साथ बाँटना, अपनी समस्याएँ बताना और जीवन—साथी की सुनना आदि से ही तो परस्पर प्रेम और विश्वास बढ़ता है ; दाम्पत्य सम्बन्धों में सुख और स्थायित्व आता है। राजीव एवं रीता के जीवन में इन सब बातों के लिए अवकाश नहीं था। यह कटु अनुभव दोनों को ही व्यथित कर रहा था। दोनों ही इस स्थिति से उभरना चाहते थे। किन्तु इस व्यथा से कैसे छुटकारा पाएँ ? कैसे दाम्पत्य—जीवन में सुख—शांति की प्रतिष्ठा की जाए ? इन यक्ष-प्रश्नों को हल कर पाना सरल नहीं था । समस्या गंभीर थी और समाधान कठिन था।
समस्या के समाधानस्वरूप एक दिन राजीव ने रीता के समक्ष नौकरी छोड़ने का या अन्य किसी कम्पनी में नौकरी करने का प्रस्ताव रखा, जहाँ से वह समय पर लौटकर घर आ सके और वे दोनों पैसे के सुख के साथ—साथ गार्हस्थ—जीवन का सुख भी प्राप्त कर सकें। रीता को राजीव का प्रस्ताव तनिक भी अच्छा नही लगा। वह उसकी बात सुनकर क्रोध से आग—बबूला हो गयी। उसने सपाट शैली में राजीव से कहा — “मेरे मम्मी—पापा ने विवाह से पूर्व ही आप लोगों से कह दिया था कि किसी भी कारण से आप मेरे कैरियर को दाँव पर नहीं लगायेंगे ! जहाँ तक मुझे स्मरण है, आप भी उस समय इस बात से सहमत थे। फिर, आज आप यह कैसे कह सकते हैं कि मैं अपने कैरियर को छोड़कर गृहस्थी की चिन्ताओं में लिप्त हो जाऊँ।”
राजीव और रीता में वाद—प्रतिवाद चल ही रहा था, तभी वहाँ मधु आ गयी । बात को सम्भालते हुए उसने दोनों को समझाया, तो पर रीता शान्त हो गयी। राजीव ने भी अपनी कही बातों के लिए क्षमा माँग ली और दोनों ने भविष्य में प्रेम—सद्भाव से एक—दूसरे के साथ सामंजस्य करने का संकल्प लिया। मधु भी मुस्कुराकर रीता के सिर पर वात्सल्यपूर्वक हाथ फेरते हुए कमरे से बाहर निकल गयी। कुछ महीने इसी प्रकार कभी प्रसन्नता और कभी व्यथा में व्यतीत होते रहे।
एक दिन रीता ने आँफिस से आते ही मधु को बाँहों में भर लिया। उस दिन वह बहुत अधिक प्रसन्न थी। वह प्रसन्नता से झूमते हुए बोली — “मम्मीजी ! मेरा प्रमोशन हो गया है ! आज मुझे अपने परिश्रम का पुरस्कार प्राप्त हुआ है ! कब से मैं इस दिन की प्रतीक्षा कर रही थी !”
रीता इतनी प्रसन्न थी कि अपनी प्रकृति के विपरीत उसने रसोईघर में जाकर सबकी रुचि के भिन्न—भिन्न प्रकार के व्यंजन तैयार किये और राजीव के साथ अपनी प्रसन्नता का आनन्द बाँटने के लिए देर रात तक जागकर उसकी प्रतीक्षा की। राजीव भी रीता की प्रोन्नति की सूचना पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। जब पूरा परिवार रीता की प्रोन्नति के उपलक्ष्य में प्रसन्नता में झूम रहा था, अचानक राजीव की बहन रिया ने पूछा — ”भाभीजी, प्रोन्नति के पश्चात् आप दिल्ली में ही रहेंगी ?”
“ नहीं रिया, मुझे इंग्लैंड जाने का अवसर मिला है। विदेश में जाने का जो सपना मैंने बचपन से देखा था, आज मैं उसे साकार होते हुए देख रही हूँ ! इस अवसर को मै किसी भी कारण से छोड़ना नहीं चाहती हूँ !” रीता ने प्रसन्नता से चहकते हुए कहा।
रीता का उत्तर सुनते ही सबको साँप सूँघ गया। एक क्षण के लिए वहाँ निःशब्दता छा गयी। राजीव तो सुनते ही जैसे पाषाण प्रतिमा बन गया। महेश ने समय की विषमता को भाँप लिया और तत्काल स्थिति को सम्भालते हुए कहा — ”अरे भाई, सब चुप क्यों हो गए ! कुछ अधिक पाने के लिए थोड़ा तो खोना ही पड़ता है। और यहाँ तो कुछ खोना ही नहीं है। रही घर से दूर जाने की बात, तो विज्ञान की उन्नति से ऐसे आविष्कार हो चुके हैं कि सारा संसार मुट्ठी में सिमट गया है। मोबाइल और इंटरनेट का युग है आज ! हर छोटी से छोटी बात आप अपनों से बिल्कुल ऐसे ही शेयर कर सकते हैं, जैसे साथ-साथ रहकर करते हैं। मधु ने भी स्थिति को समझते हुए महेश का समर्थन किया। वह राजीव को समझाते हुए बोली — ”बेटा, तुम इस प्रकार अप्रसन्न रहोगे तो रीता को अच्छा नहीं लगेगा। प्रसन्नता के अवसर पर अपनों का साथ न मिलने पर न केवल उस अवसर का, बल्कि सम्पूर्ण जीवन का आनन्द खतरे में पड़ जाता है ; आपसी सम्बन्धों में कड़वाहट और दूरी बढ़ने लगती है। रीता की प्रोन्नति भी ऐसा ही एक अवसर है ।.... अपने व्यकितगत स्वार्थों को भुलाकर तुम्हें अपनी पत्नी के साथ होना चाहिए। ऐसा करने से ही तुम दोनों में मधुरता यथावत् बनी रह सकती है।”
राजीव जानता था कि रीता महत्वाकांक्षी लड़की है। वह यह भी जानता था कि रीता अपनी उन्नति करने के लिए ऑफिस में कठोर परिश्रम करती रही है। वह सोचने लगा — “ यदि रीता को यह प्रतीत हुआ कि मैं उसकी प्रोन्नति से उत्साहित नही हूँ, तो उसके पास दो ही विकल्प होंगे — पहला, वह अपनी महत्वाकांक्षा का दमन करके अपने बढ़ते कदमों को विराम दें और परम्परागत भारतीय पत्नी बनकर अपने पति तथा उसके परिवार की अपेक्षाओें के अनुसार जीवन व्यतीत करे । दूसरा, इन सबको पीछे छोड़कर अपनी उन्नति के नये आयाम स्थापित करे। मैं जानता हूँ, पहला विकल्प वह कदापि नहीं चुनेगी और मेरी अप्रसन्नता का आभास होने पर उसके हृदय में मेरे प्रति प्रेम और विश्वास कम हो जाएगा ! ऐसे में हमारे दाम्पत्य—जीवन का आनंद किरकिरा हो जाएगा ! यदि रीता अब दूसरा विकल्प अपनाती है, तो हमारा दाम्पत्य सूत्र....? अस्तु, मम्मी ठीक ही कहती हैं, अब परिस्थति की माँग यही है कि मैं रीता की प्रोन्नति के अवसर पर प्रसन्नतापूर्वक उसका साथ दूँ ; उसकी प्रसन्नता में रोड़ा न बनूँ।....संम्भवतः ऐसा करने से उसकी महत्वाकांक्षा भी पूर्ण हो जाए और हमारा दाम्पत्य सूत्र भी टूटने से बच जाए। ”
विवेक का आश्रय लेते हुए राजीव ने रीता की प्रोन्नति को उत्सव की तरह मनाया और प्रसन्नचित्त होकर उसके रहने का प्रबन्ध करने के लिए उसके साथ इंग्लैंड भी गया। वहाँ जाकर उन दोनों ने फ्लैट, फर्नीचर और घर के अन्य सामान आदि की व्यवस्था की। कुछ महीनों तक दोनों ने प्रेम और माधुर्यपूर्ण दाम्पत्य सम्बन्धों का आनंदोपभोग किया। किन्तु कुछ समय पश्चात् अपने स्वभाव—संस्कारों के अनुरूप राजीव ने परम्परागत भारतीय पुरुष की भूमिका धारण कर ली । दूसरी ओर, अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए निरन्तर संघर्षशील रीता के लिए अपने अस्तित्व को पति के अस्तित्व में विलीन करके परम्परागत भारतीय—स्त्री की भूमिका का निर्वाह करना इतना आसान न था। परस्पर विपरीत जीवन-दृष्टि के चलते दोनों का अहं टकराने लगा और उनके दाम्पत्य-सम्बन्धों में दिनोंदिन कटुता बढ़ने लगी। कुछ समय बाद सम्बन्धों में इतना तनाव बढ़ गया कि मन में कुंठा और निराशा का बोझ लिए हुए रीता से विदाई लेकर राजीव अकेला भारत लौट आया।
कई वर्ष बीत चुके हैं उस समय को जब रीता दिल्ली से इंग्लैंड चली गयी थी। तब से एक अभाव—सा ; एक खालीपन—सा राजीव के जीवन में भर गया है। उसकी सरस वासनाँए कुंठित होकर मृतप्राय—सी हो गयी हैं। अनेक बार राजीव रीता से मिलने के लिए इंग्लैंड जाता है, रीता भी कभी—कभार दो—चार दिन के लिए दिल्ली आ जाती है, पर सम्बन्धों में वह प्रेम और माधुर्य प्रतिष्ठित नहीं रह गया है, जो जीवन में सुख—शान्ति के लिए अपेक्षित है।
रिया अब साइंस में रिसर्च कर रही है। अतः वह अपना अधिकांश समय घर से बाहर अपने शेाध—कार्य में व्यतीत करती है। दिन—रात सदैव उस पर अपने कार्य का भूत सवार रहता है। न उसके पास अपने लिए समय है, न माता—पिता के लिए। हर माता—पिता की तरह महेश और मधु चाहते हैं कि अब रिया का विवाह हो जाए। समय—समय पर परिचित लोग भी टोकते रहते हैं कि अब तो रिया चौबीस बसन्त पार कर चुकी है, अब विवाह के लिए विलम्ब करना ठीक नहीं है। परन्तु जब कभी भी मधु ने उससे उसके विवाह के विषय में बात करने का प्रयास किया है, तभी रिया और मधु के बीच में एक बहस—सी छिड़ जाती है —
“ मम्मी जी, मैं जानना चाहती हूँ कि अभी विवाह के लिए इतनी जल्दी क्यों कर रही हैं आप ?”
“ जल्दी कहाँ है बेटी ! अब तू व्यस्क हो गयी है ; शारीरिक—मानसिक रूप से परिपक्व और स्वस्थ है। कौन—सी बाधा है तेरे समक्ष ? अब कौन—सा लक्ष्य रह गया है, जिसे प्राप्त करने के पश्चात् विवाह करेगी तू ? ” मधु रिया को समझाती हुई कहती है। मधु की बात सुनकर रिया की झुंझलाहट बढ़ने लगती है। वह अपनी माँ को यह बताकर दुखी नहीं करना चाहती है कि उसने आजीवन अविवाहित रहने का निश्चय किया है। वह संयम धारण करके मधु से कहती है —
“मम्मा, न तो कोई बाधा है, न ही कोई ऐसा लक्ष्य है, जिसको प्राप्त करने के पश्चात् मैं विवाह करुँगी। मैं जानती हूँ, मैं पूर्णतया परिपक्व और स्वस्थ हूँ, लेकिन मैं अभी विवाह के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हूँ ! मैनें अभी इस विषय में सोचा ही नहीं है। आयअम सॉरी मम्मा !” इतनी बात करके रिया उठकर चली जाती है ताकि बहस और आगे न बढ़ सके।
राजीव बहुत विषादग्रस्त है और व्यथा में डूबा हुआ किसी गम्भीर विषय में उलझता जा रहा है। रात उसने खाना भी नहीं खाया। मधु ने खाने के लिए आग्रह किया तो भूख न होने का बहाना बनाकर उसने आँखे चुरा ली और अपने कमरे में जाकर लेट गया। रात—भर वह करवटें बदलता रहा ; नींद उसकी आँखों में दूर—दूर तक नहीं थी। शायद उसकी व्यग्रता का कारण रीता के साथ हुई बातें हैं, जिसके विषय में वह किसी को कुछ बताना नहीं चाहता है। रीता के साथ अपने विवाह को जीवन की गम्भीर भूल और समय का एक दुःस्वप्न समझकर वह भूल जाना चाहता है। बेटे की दशा को देखकर माँ का हृदय तड़फ उठा। माँ ने वात्सल्यपूर्वक बेटे की व्यग्रता का कारण जानना चाहा, पर राजीव ने टाल दिया —
“ कोई बात नहीं है मम्मी जी ! बस, ऐसे ही मन ठीक नहीं है !” परन्तु माँ की आत्मा से बेटे का दर्द कैसे छिपा रह सकता है ? माँ की आत्मा ने बेटे की मूक आँखों का सारा दर्द भाँपकर उसका कारण समझ लिया, .....किन्तु उस दर्द की दवा माँ के पास न थीं। माँ ने लम्बी साँस खींचते हुए कहा —
“ बेटा, इस समस्या का एक ही समाधान है — अपने समय से थोड़ा—सा आगे निकल जाओ ! या बहुत पीछे लौट जाओ, जहाँ समाज में स्त्री—पुरुष लिंग—भेद के आधार पर शासक और शासित न हों !” राजीव मूक दृष्टि से माँ की ओर देखता रहा। अब दोनों के बीच मूक संवाद चल रहा था, जिसकी भाषा को केवल माँ—बेटे का हृदय ही समझ सकता था। कमरे में व्यथा—निमज्जित नीरवता का साम्राज्य छा गया था, तभी अचानक किसी ने बाहर से दरवाजा खटखटाया।
मधु ने उठकर घर का दरवाजा खोला । सामने पडोस में रहने वाले मिस्टर रस्तोगी खड़े थे। मिस्टर रस्तोगी राजीव के साथ ही ऑफिस में काम करते थे । शायद राजीव के अस्वस्थ होने का समाचार सुनकर वे अपने सात वर्षीय बेटे बिट्टू को साथ लेकर उसकी कुशलक्षेम पूछने के लिए घर पर आये थे। बाल-स्वभाववश बिट्टू ने वहाँ आते ही अपनी बाल्योचित क्रियाएँ करनी शुरू कर दीं, उससे मधु की उदासी और अधिक बढ़ गयी । उसका अन्तःकरण रो उठा —
“कितना प्यारा बच्चा है ! काश ! रीता के सिर पर अपने कैरियर का भूत सवार न होता, तो हमारे आँगन में भी आज बच्चे की किलकारी गूँज रही होती ! .....दिन—भर दादी—दादी कहता फिरता !” मधु उस बच्चे में अपने नाती—पोते को ढूँढने लगी और उसी में खो गयी। कुछ समय पश्चात् मिस्टर रस्तोगी राजीव से विदा लेकर चले तो बच्चा भी अपने पिता के साथ चल दिया। इस थोड़े से समय में मधु के हृदय में आज उस बच्चे के प्रति ममता का ऐसा ज्वार उमड़ पड़ा कि बच्चा मधु से घुल—मिल गया और मधु भी अब उस नन्हें बिट्टू से अलग नहीं होना चाहती थी। परन्तु उसको इस बात को भली—भाँति ज्ञान था कि बिट्टू उनका अपना बच्चा नहीं है, इसलिए सदैव के लिए उसको अपने पास रखना सम्भव नहीं है । अन्ततः बिट्टू को सप्रेम विदा करके मधु अपना कलेजा थामकर रह गयी ।
बिट्टू के जाते ही मधु अचानक मूर्छित हो गयी। थोड़े समय पश्चात् जब वह चेतन हुई तब भी बिट्टू को विस्मृत नहीं कर पायी। वह बार—बार बिट्टू का नाम पुकारती रही और उसकी आँखों से धाराप्रवाह अश्रु बहते रहे। आज तक अपने बच्चों के सुख से सुखी तथा दुःख से दुःखी रहने वाली मधु को अनुभव हो रहा था कि राजीव का हृदय भी इसी अभाव से उत्पन्न पीड़ा को झेल रहा हो सकता है, लेकिन वह बेचारा किसी से कुछ कहता नहीं है।
मधु का स्वास्थ्य दिन—प्रतिदिन गिरता जा रहा था। अपनी मनोव्यथा व्यक्त करते हुए उसने एक दिन महेश से कहा — “ आप रिया को विवाह के लिए सहमत करने का प्रयास कीजिए ! यदि रिया विवाह विवाह के लिए सहमत हो जाए औैर माँ बन जाये तो हमारे घर को उत्तराधिकारी भी मिल जायेगा, मैं भी बच्चे का साथ पाकर स्वस्थ हो जाऊँगी या मेरी आत्मा आसानी से इस शरीर को छोड़ देगी।” महेश ने मधु को सांत्वना दी कि वह निश्चिन्त होकर आराम करे, सबकुछ ठीक हो जाएगा और वह पूर्णरूपेण स्वस्थ हो जाएगी। लेकिन महेश को अनुभव हो रहा था कि वह मधु से झूठ बोल रहा है । वह भली-भाँति जानता था कि रिया उनके कहने पर विवाह के लिए तैयार नहीं होगी !..... फिर भी महेश ने निश्चय किया कि वह भोजन करते समय रिया से विस्तारपूर्वक इस विषय पर बात करेगा । यद्यपि महेश को यह भी भय था कि रिया इन बातों से झुंझलाकर खाना बीच में ही न छोड़ दे, क्योंकि उसको अपने विवाह के संबंध में बातें करना अच्छा नहीं लगता है। महेश को निरन्तर यह भय भी सताये जा रहा था कि यदि रिया विवाह के लिए सहमत नहीं हुई, तो मधु का स्वास्थय और अधिक बिगड़ सकता है।
भोजन करने के उपरान्त महेश ने रिया को अपने कमरे में बुलाकर कहा — “ रिया, बेटी, तुम अपना अधिकांश समय घर से बाहर व्यतीत करती हो। मैं जानता हूँ, यह तुम्हारी विवशता है, परन्तु कुछ भी करके तुम्हें थोड़ा—सा समय अपनी मम्मी के लिए अवश्य निकालना चाहिए ! तुम्हें अपने काम के साथ—साथ यह भी सोचना चाहिए कि तुम्हारे माता—पिता को तुमसे क्या अपेक्षाएँ हैं ? ”
“ पापा, आप और मम्मी दोनों ही चाहते थे, हम पढ—लिख कर उन्नति के मार्ग पर अग्रसर रहें। क्या मैं उस मार्ग पर चलकर आप दोनों की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर रही हूँ ? आप जानते हैं कि किसी व्यक्ति का जितना बड़ा लक्ष्य होता है उसकी व्यस्तता भी उतनी ही बढ़ जाती है । मेरा लक्ष्य बड़ा है, इसी कारण से मुझे मम्मी के साथ रहने का अधिक अवसर नहीं मिल पाता है !.....फिर भी मैं आपको वचन देती हूँ, भविष्य में मम्मी के लिए अधिक से अधिक समय निकालने का प्रयास करुँगी। ” रिया ने आश्वासन देते हुए कहा। रिया का आश्वासन पाकर महेश ने बात आगे बढ़यी —
“ मधु का स्वास्थय दिन—प्रतिदिन तीव्र गति से बिगड़ता जा रहा है। बेटी, इस पहाड़—सी जिन्दगी को जीने के लिए एक जीवन—साथी बहुत जरूरी होता है, इसलिए तुम्हारी माँ की इच्छा है कि अपनी बेटी का विवाह वह अपने जीते—जी संपन्न करा दे ! .....यदि तुम्हारे विवाह से पूर्व मधु को कुछ हो गया तो उसकी आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी। तुम्हें कोई लड़का पसन्द है....., तो मुझे बता दो ! नहीं है, तो मैं तुम्हारे लिए योग्य वर की तलाश करूँगा, ताकि तुम्हारा विवाह तुम्हारी मम्मी के जीते—जी हो जाए और वह स्वस्थ होकर अपना शेष जीवन अपने नाती पर ममता लुटाते हुए व्यतीत कर सके।” महेश की बातें सुनकर तो रिया के मनःमस्तिष्क में अपने विवाह को लेकर निश्चय—अनिश्चय का द्वन्द्व छिड़ गया —
“ मम्मी की इच्छा के लिए मुझे विवाह कर लेना चाहिए ? नहीं ! मैं इतनी बड़ी भूल नहीं कर सकती ! मैंने अपनी माँ और भाभी के जीवन को निकट से देखा है। अपने रिश्ते को बचाये रखने के लिए मम्मी को हर पल हर कदम पर अपनी छोटी—बड़ी इच्छाओं का दमन करके पापा के साथ सामंजस्य करना पड़ता है ; अपने अस्तित्व को नगन्य बनाकर गलती न होते हुए भी सदैव झुकना पड़ता है ! भाभी ने ऐसा नहीं किया, तो उनके दाम्पत्य—सम्बन्ध में दरार पड़ गयी। मम्मी के भावात्मक दबाव में मैं अपनी स्वाधीनता का त्याग नहीं कर सकती !” रिया ने मन ही मन दृढ़ निश्चय किया और हठीली मुद्रा बनाते हुए कहा —
“पापा, आप मुझे इमोशनल—ब्लैकमेल कर रहे हैं ?”
“नहीं बेटी, मैं तुम्हें तुम्हारा कर्तव्य—बोध कराकर उचित मार्ग पर लाने का प्रयास कर रहा हूँ।”
महेश ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा, तो रिया ने अनुभव किया कि परिस्थिति गम्भीर रूप धारण कर चुकी हैं। वह सम्हल गयी कि अब हठ से काम नहीं चलेगा। उसने विनम्र होकर कहा — “ पापा, मुझे कर्तव्य—बोध है, तभी तो मैंने माँ के साथ अधिक समय बिताने का वचन दिया है। मैं आज के बाद कभी भी मम्मी को अकेलापन महसूस नहीं होने दूँगी ! आप जानते हैं कि मुझे अपने वचन के निर्वहण के लिए कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, फिर भी मैं ..... ! लेकिन पापा, प्लीज, मुझे विवाह के लिए विवश मत कीजिए !..... पापा, आज तक मैं मम्मी को अपना निर्णय नहीं बता पायी थी। मैं जानती थी, मम्मी को मेरा निर्णय अप्रिय लगेगा और व्यर्थ ही उनका तनाव बढ़ेगा ! मैं मम्मीजी को तनाव नहीं देना चाहती थी, किन्तु आज आपके समक्ष मैं स्पष्ट बता देना चाहती हूँ कि मैंने आजीवन अविवाहित रहने का निश्चय किया है। मैं उसी में अधिक प्रसन्न रहूँगी। पापा, मुझे अपने इस निर्णय में आपके समर्थन की आवश्यकता है ! मुझे विश्वास है, आप मेरा साथ अवश्य देंगे और आप मम्मी को भी सहमत कर लेंगे !”
जिस समय रिया अपनी बात कह ही रही थी, दुर्भागय से उस समय मधु कमरे के बाहर खड़ी हुई उन दोनों की बातें सुन रही थी। रिया की बातें सुनकर मधु की आँखों के सामने अँधेरा छा गया। उसने अनुभव किया कि यह घर घूम रहा है ; धरती घूम रही है ; शायद सारा ब्रह्माण्ड घूम रहा है ! उसी क्षण अचानक उसके मुहूँ से एक चीख निकली और वह मूर्छित होकर गिर पड़ी। चीख सुनकर महेश, रिया और राजीव कमरे से बाहर निकले तो उनके चेहरे फीके पड़ गये, सामने मधु अचेतावस्था में पड़ी थी।
***