Swamini in Hindi Short Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | स्वामिनी

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स्वामिनी

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मुंशी प्रेमचंद


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जन्म

प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन्‌ १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।

जीवन

धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।

शादी

आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, ष्उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।.......ष् उसके साथ — साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है ष्पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दियारू मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।ष् हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।

विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।

शिक्षा

अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने — जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।

साहित्यिक रुचि

गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो — तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।

आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद ष्तिलस्मे — होशरुबाष् पढ़ डाली।

अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी — बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।

तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ — साथ रहा।

प्रेमचन्द की दूसरी शादी

सन्‌ १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन्‌ १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।

यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात्‌ आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।

व्यक्तित्व

सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा ष्हमारा काम तो केवल खेलना है— खूब दिल लगाकर खेलना— खूब जी— तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात्‌ — पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, ष्तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।ष् कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी—शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।

जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं ष्कि जाड़े के दिनों में चालीस — चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।ष्

प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी—शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।

ईश्वर के प्रति आस्था

जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे — धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा ष्तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो — जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।ष्

मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था — ष्जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।ष्

प्रेमचन्द की कृतियाँ

प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन्‌ १८९४ ई० में ष्होनहार बिरवार के चिकने—चिकने पातष् नामक नाटक की रचना की। सन्‌ १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय ष्रुठी रानीष् नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन्‌ १९०४—०५ में ष्हम खुर्मा व हम सवाबष् नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा—जीवन और विधवा—समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।

जब कुछ आर्थिक निजिर्ंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।

इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।

ष्सेवा सदनष्, ष्मिल मजदूरष् तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए ष्महाजनी सभ्यताष् नाम से एक लेख भी लिखा था।

मृत्यु

सन्‌ १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने ष्प्रगतिशील लेखक संघष् की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण—कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।

स्वामिनी

शिवदास ने भंडारे की कुंजी अपनी बहू रामप्यारी के सामने फेंककर अपनी बूढ़ी अॉंखों में अॉंसू भरकर कहा बहू, आज से गिरस्ती की देखभाल तुम्हारे ऊपर है। मेरा सुख भगवान्‌ से नहीं देखा गया, नहीं तो क्या जवान बेटे को यों छीन लेते! उसका काम करने वाला तो कोई चाहिए। एक हल तोड़ दूं, तो गुजारा न होगा। मेरे ही कुकरम से भगवान्‌ का यह कोप आया है, और मैं ही अपने माथे पर उसे लूंगा। बिरजू का हल अब मैं ही संभालूँगा। अब घर देख—रेख करने वाला, धरने—उठाने वाला तुम्हारे सिवा दूसरा कौन है? रोओ मत बेटा, भगवान्‌ की जो इच्छा थी, वह हुआय और जो इच्छा होगी वह होगा। हमारा—तुम्हारा क्या बस है? मेरे जीते—जी तुम्हें कोई टेढ़ी अॉंख से देख भी न सकेगा। तुम किसी बात का सोच मत किया करो। बिरजू गया, तो अभी बैठा ही हुआ हूं।

रामप्यारी और रामदुलारी दो सगी बहनें थीं। दोनों का विवाह मथुरा और बिरजू दो सगे भाइयों से हुआ। दोनों बहनें नैहर की तरह ससुराल में भी प्रेम और आनंद से रहने लगीं। शिवदास को पेन्शन मिली। दिन—भर द्वार पर गप—शप करते। भरा—पूरा परिवार देखकर प्रसन्न होते और अधिकतर धर्म—चर्चा में लगे रहते थेय लेकिन दैवगति से बड़ा लड़का बिरजू बिमार पड़ा और आज उसे मरे हुए पंद्रह दिन बित गए। आज क्रिया—कर से फुरसत मिली और शिवदास ने सच्चे कर्मवीर की भॉँति फिर जीवन संग्राम के लिए कमर कस ली। मन में उसे चाहे कितना ही दुरूख हुआ हो, उसे किसी ने रोते नहीं देखा। आज अपनी बहू को देखकर एक क्षण के लिए उसकी अॉंखें सजल हो गईय लेकिन उसने मन को संभाला और रूद्ध कंठ से उसे दिलासा देने लगा। कदाचित्‌ उसने, सोचा था, घर की स्वामिनी बनकर विधवा के अॉंसू पुंछ जांगे, कम—से—कम उसे इतना कठिन परिश्रम न करना पड़ेगा, इसलिए उसने भंडारे की कुंजी बहू के सामने फेंक दी थी। वैधव्य की व्यथा को स्वामित्व के गर्व से दबा देना चाहता था।

रामप्यारी ने पुलकित कंठ से कहा कैसे हो सकता है दादा, कि तुम मेहनत—मजदूरी करो और मैं मालकिन बनकर बैठूं? काम धंधे में लगी रहूंगी, तो मन बदला रहेगा। बैठे—बैठे तो रोनो के सिवा और कुछ न होगा।

शिवदास ने समझाया बेटा, दैवगति में तो किसी का बस नहीं, रोने—धोने से हलकानी के सिवा और क्या हाथ आएगा? घर में भी तो बीसों काम हैं। कोई साधु—सन्त आ जांए, कोई पहुना ही आ पहुंचे, तो उनके सेवा—सत्कार के लिए किसी को घर पर रहना ही पड़ेगा।

बहू ने बहुत से हीले किए, पर शिवदास ने एक न सुनी।

शिवदास के बाहर चले जाने पर रामप्यारी ने कुंजी उठायी, तो उसे मन में अपूर्व गौरव और उत्तरदायित्व का अनुभव हुआ। जरा देर के लिए पति—वियोग का दुरूख उसे भूल गया। उसकी छोटी बहन और देवर दोनों काम करने गये हुए थे। शिवदास बाहर था। घर बिलकुल खाली था। इस वक्त वह निश्चित होकर भंडारे को खोल सकती है। उसमें क्या—क्या सामान है, क्या—क्या विभूति है, यह देखने के लिए उसका मन लालायित हो उठा। इस घर में वह कभी न आयी थी। जब कभी किसी को कुछ देना या किसी से कुछ लेना होता था, तभी शिवदास आकर इस कोठरी को खोला करता था। फिर उसे बन्दकर वह ताली अपनी कमर में रख लेता था।

रामप्यारी कभी—कभी द्वार की दरारों से भीतर झॉँकती थी, पर अंधेरे में कुछ न दिखाई देता। सारे घर के लिए वह कोठरी तिलिस्म या रहस्य था, जिसके विषय में भॉंति—भॉंति की कल्पनाएं होती रहती थीं। आज रामप्यारी को वह रहस्य खोलकर देखने का अवसर मिल गया। उसे बाहर का द्वार बन्द कर दिया, कि कोई उसे भंडार खोलते न देख ले, नहीं सोचेगा, बेजरूरत उसने क्यों खोला, तब आकर कॉंपते हुए हाथों से ताला खोला। उसकी छाती धड़क रही थी कि कोई द्वार न खटखटाने लगे। अन्दर पॉंव रखा तो उसे कुछ उसी प्रकार का, लेकिन उससे कहीं तीव्र आनन्द हुआ, जो उसे अपने गहने—कपड़े की पिटारी खोलने में होता था। मटकों में गुड़, शक्कर, गेहूँ, जौ आदि चीजें रखी हुई थीं। एक किनारे बड़े—बड़े बरतन धरे थे, जो शादी—ब्याह के अवसर पर निकाले जाते थे, या मॉंगे दिये जाते थे। एक आले पर मालगुजारी की रसीदें और लेन—देन के पुरजे बॅंधे हुए रखे थे। कोठरी में एक विभूति—सी छायी थी, मानो लक्ष्मी अज्ञात रूप से विराज रही हो। उस विभूति की छाया में रामप्यारी आध घण्टे तक बैठी अपनी आत्मा को तृप्त करती रही। प्रतिक्षण उसके हृदय पर ममत्व का नशा—सा छाया जा रहा था। जब वह उस कोठरी से निकली, तो उसके मन के संस्कार बदल गए थे, मानो किसी ने उस पर मंत्र डाल दिया हो।

उसी समय द्वार पर किसी ने आवाज दी। उसने तुरन्त भंडारे का द्वार बन्द किया और जाकर सदर दरवाजा खोल दिया। देखा तो पड़ोसिन झुनिया खड़ी है और एक रूपया उधार मॉंग रही है।

रामप्यारी ने रूखाई से कहा अभी तो एक पैसा घर में नहीं है जीजी, क्रिया—कर्म में सब खरच हो गया।

झुनिया चकरा गई। चौधरी के घर में इस समय एक रूपया भी नहीं है, यह विश्वास करने की बात न थी। जिसके यहॉं सैकड़ों का लेन—देन है, वह सब कुछ क्रिया—कर्म में नहीं खर्च कर सकता। अगर शिवदास ने कहाना किया होता, तो उसे आश्चर्य न होता। प्यारी तो अपने सरल स्वभाव के लिए गाँव में मशहूर थी। अकसर शिवदास की अॉंखें बचाकर पड़ोसियों को इच्छित वस्तुएं दे दिया करती थी। अभी कल ही उसने जानकी को सेर—भर दूध दिया। यहॉं तक कि अपने गहने तक मॉंगे दे देती थी। पण शिवदास के घर में ऐसी सखरच बहू का आना गॉंव वाले अपने सौभाग्य की बात समझते थे।

झुनिया ने चकित होकर कहा ऐसा न कहो जीजी, बड़े गाढ़े में पड़कर आयी हूं, नहीं तुम जानती हो, मेरी आदत ऐसी नहीं है। बाकी एक एक रूपया देना है। प्यादा द्वार पर खड़ा बकझक कर रहा है। रूपया दे दो, तो किसी तरह यह विपत्ति टले। मैं आज के आठवें दिन आकर दे जाऊंगी। गॉंव में और कौन घर है, जहॉं मांगने जाऊं?

प्यारी टस से मस न हुई।

उसके जाते ही प्यारी सॉँझ के लिए रसोई पानी का इंतजाम करने लगी। पहले चावल—दाल बिनना अपाढ़ लगता था और रसोई में जाना तो सूली पर चढ़ने से कम न था। कुछ देर बहनों में झॉंव—झॉंव होती, तब शिवदास आकर कहते, क्या आज रसोई न बनेगी, तो दो में एक एक उठती और मोटे—मोटे टिक्कड़ लगाकर रख देती, मानो बैलों का रातिब हो। आज प्यारी तन—मन से रसोई के प्रबंध में लगी हुई है। अब वह घर की स्वामिनी है।

तब उसने बाहर निकलकर देखा, कितना कूड़ा—करकट पड़ा हुआ है! बुढ़ऊ दिन—भर मक्खी मारा करते हैं। इतना भी नहीं होता कि जरा झाड़ू ही लगा दें। अब क्या इनसे इतना भी न होगा? द्वार चिकना होना चाहिए कि देखकर आदमी का मन प्रसन्न हो जाए। यह नहीं कि उबकाई आने लगे। अभी कह दूँ, तो तिनक उठें। अच्छा, मुन्नी नींद से अलग क्यों खड़ी है?

उसने मुन्नी के पास जाकर नॉँद में झॉँका। दुर्गन्ध आ रही थी। ठीक! मालूम होता है, महीनों से पानी ही नहीं बदला गया। इस तरह तो गाय रह चुकी। अपना पेट भर लिया, छुट्टी हुई, और किसी से क्या मतलब? हॉं, सबको अच्छा लगता है। दादा द्वार पर बैठे चिलम पी रहे हैं, वह भी तीन कौड़ी का। खाने को डेढ़ सेरय काम करते नानी मरती है। आज आता है तो पूछती हूँ, नॉँद में पानी क्यों नहीं बदला। रहना हो, रहे या जाए। आदमी बहुत मिलेंगे। चारों ओर तो लोग मारे—मारे फिर रहे हैं।

आखिर उससे न रहा गया। घड़ा उठाकर पानी लाने चली।

शिवदास ने पुकारा पानी क्या होगा बहूँ? इसमें पानी भरा हुआ है।

प्यारी ने कहा नॉँद का पानी सड़ गया है। मुन्नी भूसे में मुंह नहीं डालती। देखते नहीं हो, कोस—भर पर खड़ी है।

शिवदास मार्मिक भाव से मुस्कराए और आकर बहू के हाथ से घड़ा ले लिया।

कई महीने बीत गए। प्यारी के अधिकार मे आते ही उस घर मे जैसे वसंत आ गया। भीतर—बाहर जहॉं देखिए, किसी निपुण प्रबंधक के हस्तकौशल, सुविचार और सुरूचि के चिन्ह दिखते थे। प्यारी ने गृहयंत्र की ऐसी चाभी कस दी थी कि सभी पुरजे ठीक—ठाक चलने लगे थे। भोजन पहले से अच्छा मिलता है और समय पर मिलता है। दूध ज्यादा होता है, घी ज्यादा होता है, और काम ज्यादा होता है। प्यारी न खुद विश्राम लेती है, न दूसरों को विश्राम लेने देती है। घर में ऐसी बरकत आ गई है कि जो चीज मॉंगो, घर ही में निकल आती है। आदमी से लेकर जानवर तक सभी स्वस्थ दिखाई देते हैं। अब वह पहले की—सी दशा नहीं है कि कोई चिथड़े लपेटे घूम रहा है, किसी को गहने की धुन सवार है। हॉं अगर कोई रूग्ण और चिंतित तथा मलिन वेष में है, तो वह प्यारी हैय फिर भी सारा घर उससे जलता है। यहॉं तक कि बूढ़े शिवदास भी कभी—कभी उसकी बदगोई करते हैं। किसी को पहर रात रहे उठना अच्छा नहीं लगता। मेहनत से सभी जी चुराते हैं। फिर भी यह सब मानते हैं कि प्यारी न हो, तो घर का काम न चले। और तो और, दोनों बहनों में भी अब उतना अपनापन नहीं।

प्रातरूकाल का समय था। दुलारी ने हाथों के कड़े लाकर प्यारी के सामने पटक दिये और भुन्नाई हुई बोली लेकर इसे भी भण्डारे में बंद कर दे।

प्यारी ने कड़े उठा लिये और कोमल स्वर से कहा कह तो दिया, हाथ में रूपये आने दे, बनवा दूंगी। अभी ऐसा घिस नहीं गया है कि आज ही उतारकर फेंक दिया जाए।

दुलारी लड़ने को तैयार होकर आयी थी। बोली तेरे हाथ मं काहे को कभी रूपये आएंगे और काहे को कड़े बनेंगे। जोड़—तोड़ रखने में मजा आता है न?

प्यारी ने हॅंसकर कहा जोड—तोड़ रखती हूँ तो तेरे लिए कि मेरे कोई और बैठा हुआ है, कि मैं सबसे ज्यादा खा—पहन लेती हूँ। मेरा अनन्त कब का टूटा पड़ा है।

दुलारी तुम न खाओ—न पहनो, जस तो पाती हो। यहॉं खाने—पहनने के सिवा और क्या है? मैं तुम्हारा हिसाब—किताब नहीं जानती, मेरे कड़े आज बनने को भेज दो।

प्यारी ने सरल विनोद के भाव से पूछा रूपये न हों, तो कहॉँ से लाऊं?

दुलारी ने उद्दंडता के साथ कहा मुझे इससे कोई मतलब नहीं। मैं तो कड़े चाहती हूँ।

इसी तरह घर के सब आदमी अपने—अपने अवसर पर प्यारी को दो—चार खोटी—खरी सुना जाते थे, और वह गरीब सबकी धौंस हँसकर सहती थी। स्वामिनी का यह धर्म है कि सबकी धौंस सुन ले और करे वहीं, जिसमें घर का कल्याण हो! स्वामित्व के कवच पर धौंस, ताने, धमकी किसी का असर न होता। उसकी स्वामिनी की कल्पना इन आघातों से और भी स्वस्थ होती थी। वह गृहस्थी की संचालिका है। सभी अपने—अपने दुरूख उसी के सामने रोते हैं, पर जो कुछ वह करती है, वही होता है। इतना उसे प्रसन्न करने के लिए काफी था। गॉँव में प्यारी की सराहना होती थी। अभी उम्र ही क्या है, लेकिन सारे घर को सँभाले हुए है। चाहती तो सगाई करके चौन से रहती। इस घर के पीछे अपने को मिटाए देती है। कभी किसी से हँसती—बोलती भी नहीं, जैसे काया पलट हो गई।

कई दिन बाद दुलारी के कड़े बनकर आ गए। प्यारी खुद सुनार के घर दौड़—दौड़ गई।

संध्या हो गई थी। दुलारी और मथुरा हाट से लौटे। प्यारी ने नये कड़े दुलारी को दिये। दुलारी निहाल हो गई। चटपट कड़े पहले और दौड़ी हुई बरौठे में जाकर मथुरा को दिखाने लगी। प्यारी बरौठे के द्वार पर छिपी खड़ी यह दृश्य देखने लगी। उसकी अॉंखें सजल हो गईं। दुलारी उससे कुल तीन ही साल तो छोटी है! पर दोनों में कितना अंतर है। उसकी अॉंखें मानों उस दृश्य पर जम गईं, दम्पति का वह सरल आनंद, उनका प्रेमालिंगन, उनकी मुग्ध मुद्रा प्यारी की टकटकी—सी बँध गई, यहॉँ तक तक दीपक के धुँधले प्रकाश में वे दोनों उसकी नजरों से गायब हो गए और अपने ही अतीत जीवन की एक लीला अॉंखों के सामने बार—बार नए—नए रूप में आने लगी।

सहसा शिवदास ने पुकारा—बड़ी बहू! एक पैसा दो। तमाखू मॅंगवाऊं।

प्यारी की समाधि टूट गई। अॉंसू पोंछती हुई भंडारे में पैसा लेने चली गई।

एक—एक करके प्यारी के गहने उसके हाथ से निकलते जाते थे। वह चाहती थी, मेरा घर गॉंव में सबसे सम्पन्न समझा जाए, और इस महत्वाकांक्षा का मूल्य देना पड़ता था। कभी घर की मरम्मत के लिए और कभी बैलों की नयी गोई खरीदने के लिए, कभी नातेदारों के व्यवहारों के लिए, कभी बैलों का नयी गोई खरीदने के लिए, कभी नातेदारों के व्यवहारों के लिए, कभी बिमारों की दवा—दारू के लिए रूपये की जरूरत पड़ती रहती थी, और जब बहुत कतरब्योंत करने पर भी काम न चलता तो वह अपनी कोई—न—कोई चीज निकाल देती। और चीज एक बार हाथ से निकलकर फिर न लौटती थी। वह चाहती, तो इनमें से कितने ही खचोर्ं को टाल जातीय पर जहॉं इज्जत की बात आ पड़ती थी, वह दिल खोलकर खर्च करती। अगर गॉंव में हेठी हो गई, तो क्या बात रही! लोग उसी का नाम तो धरेंगे। दुलारी के पास भी गहने थे। दो—एक चीजें मथुरा के पास भी थीं, लेकिन प्यारी उनकी चीजें न छूती। उनके खाने—पहनने के दिन हैं। वे इस जंजाल में क्यों फॅंसें!

दुलारी को लड़का हुआ, तो प्यारी ने धूम से जन्मोत्सव मनाने का प्रस्ताव किया। शिवदास ने विरोध किया—क्या फायदा? जब भगवान्‌ की दया से सगाई—ब्याह के दिन आएंगे, तो धूम—धाम कर लेना।

प्यारी का हौसलों से भरा दिल भला क्यों मानता! बोली—कैसी बात कहते हो दादा? पहलौठे लड़के के लिए भी धूम—धाम न हुई तो कब होगी? मन तो नहीं मानता। फिर दुनिया क्या कहेगी? नाम बड़े, दर्शन थोड़े। मैं तुमसे कुछ नहीं मॉंगती। अपना सारा सरंजाम कर लूंगी।

‘गहनों के माथे जाएगी, और क्या!' शिवदास ने चिंतित होकर कहा—इस तरह एक दिन धागा भी न बचेगा। कितना समझाया, बेटा, भाई—भौजाई किसी के नहीं होते। अपने पास दो चीजें रहेंगी, तो सब मुंह जोहेंगेय नहीं कोई सीधे बात भी न करेगा।

प्यारी ने ऐसा मुंह बनाया, मानो वह ऐसी बूढ़ी बातें बहुत सुन चुकी है, और बोली—जो अपने हैं, वे भी न पूछें, तो भी अपने ही रहते हैं। मेंरा धरम मेंरे साथ है, उनका धरम उनके साथ है। मर जाऊँगी तो क्या छाती पर लाद ले जाऊंगी?

धूम—धाम से जन्मोत्सव मनाया गया। बारही के दिन सारी बिरादरी का भोज हुआ। लोग खा—पीकर चले गये, प्यारी दिन—भर की थकी—मॉंदी अॉंगन में एक टाट का टुकड़ा बिछाकर कमर सीधी करने लगी। अॉंखें झपक गई। मथुरा उसी वक्त घर में आया। नवजात पुत्र को देखने के लिए उसका चित्त व्याकुल हो रहा था। दुलारी सौर—गृह से निकल चुकी थी। गर्भावस्था में उसकी देह क्षीण हो गई थी, मुंह भी उतर गया था, पर आज स्वस्थता की लालिमा मुख पर छाई हुई थी। सौर के संयम और पौष्टिटक भोजन ने देह को चिकना कर दिया था। मथुरा उसे अॉंगन में देखते ही समीप आ गया और एक बार प्यारी की ओर ताककर उसके निद्रामग्न होने का निश्चय करके उसने शिशु को गोद में ले लिया और उसका मुंह चूमने लगा।

आहट पाकर प्यारी की अॉंखें खुल गईय पर उसने लींद का बहाना किया और अधखुली अॉंखों से यह आनन्द—क्रिड़ा देखने लगी। माता और पिता दोनों बारी—बारी से बालक को चूमते, गले लगाते और उसके मुख को निहारते थे। कितना स्वर्गीय आनन्द था! प्यारी की तृषित लालसा एक क्षण के लिए स्वामिनी को भूल गई। जैसे लगाम मुखबद्ध बोझ से लदा हुआ, हॉंकने वाले के चाबुक से पीडित, दौड़ते—दौड़ते बेदम तुरंग हिनहिनाने की आवाज सुनकर कनौतियॉं खड़ी कर लेता है और परिस्थिति को भूलकर एक दबी हुई हिनहिनाहट से उसका जवाब देता है, कुछ वही दशा प्यारी की हुई। उसका मातृत्व की जो पिंजरे में बन्छ, मूक, निश्चेष्ट पड़ा हुआ था, समीप से आनेवाली मातृत्व की चहकार सुनकर जैसे जाग पड़ा और चिनताओं के उस पिंजरे से निकलने के लिए पंख फड़फड़ाने लगा।

मथुरा ने कहा यह मेरा लड़का है।

दुलारी ने बालक को गोद में चिपटाकर कहा हॉं, क्यों नहीं। तुम्हीं ने तो नौ महीने पेट में रखा है। सॉँसत तो मेरी हुई, बाप कहलाने के लिए तुम कूद पड़े।

मथुरा मेरा लड़का न होता, तो मेरी सूरत का क्यों होता। चेहरा—मोहरा, रंग—रूप सब मेरा ही—सा है कि नहीं?

दुलारी इससे क्या होता है। बीज बनिये के घर से आता है। खेत किसान का होता है। उपज बनिये की नहीं होती, किसान की होती है।

मथुरा बातों में तुमसे कोई न जीतेगा। मेरा लड़का बड़ा हो जाएगा, तो मैं द्वार पर बैठकर मजे से हुक्का पिया करूंगा।

दुलारी मेरा लड़का पढ़े—लिखेगा, कोई बड़ा हुद्दा पाएगा। तुम्हारी तरह दिल—भर बैल के पीछे न चलेगा। मालकिन का कहना है, कल एक पालना बनवा दें।

मथुरा अब बहुत सबेरे न उठा करना और छाती फाड़कर काम भी न करना।

दुलारी यह महारानी जीने देंगी?

मथुरा मुझे तो बेचारी पर दया आती है। उसके कौन बैठा हुआ है? हमीं लोगों के लिए मरती है। भैया होते, तो अब तक दो—तीन बच्चों की मॉं हो गई होती।

प्यारी के कंठ में अॉंसुओं का ऐसा वेग उठा कि उसे रोकने में सारी देह कॉंप उठी। अपना वंचित जीवन उसे मरूस्थल—सा लगा, जिसकी सूखी रेत पर वह हरा—भरा बाग लगाने की निष्फल चेष्टा कर रही थी।

कुछ दिनों के बाद शिवदत्त भी मर गया। उधर दुलारी के दो बच्चे और हुए। वह भी अधिकतर बच्चों के लालन—पालन में व्यस्त रहने लगी। खेती का काम मजदूरों पर आ पड़ा। मथुरा मजदूर तो अच्छा था, संचालक अच्छा न था। उसे स्वतंत्र रूप से काम लेने का कभी अवसर न मिला। खुद पहले भाई की निगरानी में काम करता रहा। बाद को बाप की निगरानी के काम करने लगा। खेती का तार भी न जानता था। वही मजूर उसके यहॉं टिकते थे, जो मेहनत नहीं, खुशामद करने में कुशल होते थे, इसलिए प्यारी को अब दिन में दो—चार चक्कर हार के भी लगाना पड़ता। कहने को अब वह अब भी मालकिन थी, पर वास्तव में घर—भर की सेविका थी। मजूर भी उससे त्योरियॉँ बदलते, जमींदार का प्यादा भी उसी पर धौंस जमाता। भोजन में किफायत करनी पड़तीय लड़कों को तो जीतनी बार मॉंगे, उतनी बार कुछ—न—कुछ चाहिए। दुलारी तो लड़कौरी थी, उसे भरपूर भोजन चाहिए। मथुरा घर का सरदार था, उसके इस अधिकार को कौन छीन सकता था? मजूर भला क्यों रियायत करने लगे थे। सारी कसर प्यारी पर निकलती थी। वही एक फालतू चीज थीय अगर आधा पेट खाए, तो किसी को हानि न हो सकती थी। तीस वर्ष की अवस्था में उसके बाल पक गए, कमर झुक गई, अॉंखों की जोत कम हो गईय मगर वह प्रसन्न थी। स्वामितव का गौरव इन सारे जख्मों पर मरहम का काम करता था।

एक दिन मथुरा ने कहा भाभी, अब तो कहीं परदेश जाने का जी होता है। यहॉं तो कमाई में बरकत नहीं। किसी तरह पेट की रोटी चल जाती है। वह भी रो—धोकर। कई आदमी पूरब से आये हैं। वे कहते हैं, वहॉं दो—तीन रूपये रोज की मजदूरी हो जाती है। चार—पॉंच साल भी रह गया, तो मालामाल हो जाऊंगा। अब आगे लड़के—बाले हुए, इनके लिए कुछ तो करना ही चाहिए।

दुलारी ने समर्थन किया हाथ में चार पैसे होंगे, लड़कों को पढ़ाएंगे—लिखाएंगे। हमारी तो किसी तरह कट गई, लड़कों को तो आदमी बनाना है।

प्यारी यह प्रस्ताव सुनकर अवाक्‌ रह गई। उनका मुंह ताकने लगी। इसके पहले इस तरह की बातचीत कभी न हुई थी। यह धुन कैसेट सवार हो गई? उसे संदेह हुआ, शायद मेरे कारण यह भावना उत्पन्न हुई। बोली मैं तो जाने को न कहूँगी, आगे जैसी इच्छा हो। लड़कों को पढ़ाने—लिखाने के लिए यहां भी तो मदरसा है। फिर क्या नित्य यही दिन बने रहेंगे। दो—तीन साल भी खेती बन गई, तो सब कुछ हो जाएगा।

मथुरा इतने दिन खेती करते हो गए, जब अब तक न बनी, तो अब क्या बन जाएगी! इस तरह एक दिन चल देंगे, मन—की—मन में रह जाएगी। फिर अब पौरूख भी तो थक रहा हैद्य यह खेती कौन संभालेगा। लड़कों को मैं चक्की में जोतर उनकी जिन्दगी नहीं खराब करना चाहता।

प्यारी ने अॉंखों में अॉंसू लाकर कहा—भैया, घर पर जब तक आधी मिले, सारी के लिए न धावना चाहिए, अगर मेरी ओर से कोई बात हो, तो अपना घर—बार अपने हाथ में करो, मुझे एक टुकड़ा दे देना, पड़ी रहूंगी।

मथुरा आर्द्र कंठ होकर बोला— भाभी, यह तुम क्या कहती हो। तुम्हारे ही सॅंभाले यह घर अब तक चला है, नहीं रसातल में चला गया होता। इस गिरस्ती के पीछे तुमने अपने को मिटटी में मिला दिया, अपनी देह घुला डाली। मैं अंधा नहीं हूं। सब कुछ समझता हुं। हम लोगों को जाने दो। भगवान ने चाहा, तो घर पिर संभल जायगा। तुम्हारे लिए हम बराबर खरच—बरच भेजते रहेंगे।

प्यारी ने कहा—ऐसी ही है तो तुम चले जाआ, बाल—बच्चों को कहॉं—कहॉं बॉंधे पिरोगे।

दुलारी बोली—यह कैसे हो सकता है बहन, यहॉं देहात में लड़के पढ़े—लिखेंगे। बच्चों के बिना इनका जी भी वहॉं न लगेगा। दौड—दौड़कर घर आएंगे और सारी कमाई रेल खा जाएगी। परदेश में अकेले जितना खरचा होगा, उतने में सारा घर आराम से रहेगा।

प्यारी बोली—तो मैं ही यहॉं रहकर क्या करूंगी। मुझे भी लेते चलो।

दुलारी उसे साथ ले चलने को तेयार न थी। कुछ दिन का आनंद उठाना चाहती थी, अगर परदेश में भी यह बंधन रहा, तो जाने से फायदा ही क्या। बोली—बहन, तुम चलतीं तो क्या बात थी, लेकिन पिर यहॉं का कारोबार तो चौपट हो जाएगा। तुम तो कुछ—न—कुछ देखभाल करती ही रहोगी।

प्रस्थापन की तिथि के एक दिन पहले ही रामप्यारी ने रात—भर जागकर हलुआ और पूरियॉं पकायीं। जब से इस घर में आयी, कभी एक दिन के लिए अकेले रहने का अवसर नहीं आया। दोनों बहनें सदा साथ रहीं। आज उस भयंकर अवसर को सामने आते देखकर प्यारी का दिल बैठा जाता था। वह देखती थी, मथुरा प्रसन्न है, बाल—वृन्द यात्रा के आनंद में खाना—पीना तक भूले हुए हैं, तो उसके जी में आता, वह भी इसी भॉंति निर्द्‌वन्द रहे, मोह और ममता को पैरों से कुचल डाले, किन्तु वह ममता जिस खाद्य को खा—खाकर पली थी, उसे अपने सामने से हटाए जाते देखकर क्षुब्ध होने से न रूकती थी, दुलारी तो इस तरह निश्चिंत होकर बैठी थी, मानो कोई मेला देखने जा रही है। नई—नई चीजों को देखने, नई दुनिया में विचरने की उत्सुक्ता ने उसे क्रियाशून्य—सा कर दिया था। प्यारी के सिरे सारे प्रबंध का भार था। धोबी के घर सेसब कपड़े आए हैं, या नहीं, कौन—कौन—से बरतन साथ जाएंगे, सफर—खर्च के लिए कितने रूपये की जरूरत होगी। एक बच्चे को खॉंसी आ रही थी, दूसरे को कई दिन से दस्त आ रहे थे, उन दोनों की औषधियों को पीसना—कूटना आदि सैकड़ों ही काम व्यस्त किए हुए थे। लड़कौरी न होकर भी वह बच्चों के लालन—पोषण में दुलारी से कुशल थी। ‘देखो, बच्चों को बहुत मारना—पीटना मत। मारने से बच्चे जिद्दी या बेहया हो जाते हैं। बच्चों के साथ आदमी को बच्चा बन जाना पड़ता है। जो तुम चाहो कि हम आराम से पड़े रहें और बच्चे चुपचाप बैठे रहें, हाथ—पैर न हिलाएं, तो यह हो नहीं सकता। बच्चे तो स्वभाव के चंचल होते हैं। उन्हें किसी—न—किसी काम में फॅंसाए रखो। धेले का खिलौना हजार घुड़कियों से बढ़कर होता है।‘ दुलारी इन उपदेशों को इस तरह बेमन होकर सुनती थी, मानों कोई सनककर बक रहा हो।

विदाई का दिन प्यारी के लिए परीक्षा का दिन था। उसके जी में आता था कहीं चली जाए, जिसमें वह दृश्य देखना न पड़े। हां। घड़ी—भर में यह घर सूना हो जाएगा। वह दिन—भर घर में अकेली पड़ी रहेगी। किससे हॅंसेगी—बोलेगी। यह सोचकर उसका हृदय कॉंप जाता था। ज्यों—ज्यों समय निकट आता था, उसकी वृतियां शिथिल होती जातीं थीं। वह कोई काम करते—करते जैसे खो जाती थी और अपलक नेत्रों से किसी वस्तु को ताकने लगती। कभी अवसर पाकर एकांत में जाकर थोड़ा—सा रो आती थी। मन को समझा रही थी, वह लोग अपने होते तो क्या इस तरह चले जाते। यह तो मानने का नाता है, किसी पर कोई जबरदस्ती है। दूसरों के लिए कितना ही मरो, तो भी अपने नहीं होते। पानी तेल में कितना ही मिले, पिर भी अलग ही रहेगा।

बच्चे नए—नए कुरते पहने, नवाब बने घूत रहे थे। प्यारी उन्हें प्यार करने के लिए गोद लेना चाहती, तो रोने का—सा मुंह बनाकर छुड़ाकर भाग जाते। वह क्या जानती थी कि ऐसे अवसर पर बहुधा अपने बच्चे भी निष्ठुर हो जाते हैं।

दस बजते—बजते द्वार पर बैलगाड़ी आ गई। लउके पहले ही से उस पर जा बैठे। गॉंव के कितने स्त्री—पुरूष मिलने आये। प्यारी को इस समय उनका आना बुरा लग रहा था। वह दुलारी से थोड़ी देर एकांत गले मिलकर रोना चाहती थी, मथुरा से हाथ जोड़कर कहना चाहती थी, मेंरी खोज—खबर लेते रहना, तुम्हारे सिवा मेंरा संसार में कौन है, लेकिन इस भम्भड़ में उसको इन बातों का मौका न मिला। मथुरा और दुलारी दोनों गाड़ी में जा बैठे और प्यारी द्वार पर रोती खड़ी रह गई। वह इतनी विहृवल थी कि गॉंव के बाहर तक पहुंचाने की भी उसे सुधि न रही।

कई दिन तक प्यारी मूर्छित भी पड़ी रही। न घर से निकली, न चुल्हा जलाया, न हाथ—मुंह धोया। उसका हलवाहा जोखू बार—बार आकर कहता ‘मालकिन, उठो, मुंह—हाथ धाओ, कुछ खाओ—पियो। कब तक इस तरह पड़ी रहोगी। इस तरह की तसल्ली गॉंव की और स्ित्रयॉं भी देती थीं। पर उनकी तसल्ली में एक प्रकार की इर्ष्या का भाव छिपा हुआ जान पड़ता था।

जोखू के स्वर में सच्ची सहानुभूति झलकती थी। जोखू कामचोर, बातूनी और नशेबाज था। प्यारी उसे बराबर डॉंटती रहती थी। दो—एक बार उसे निकाल भी चुकी थी। पर मथुरा के आग्रह से पिर रख लिया था। आज भी जोखू की सहानुभूति—भरी बातें सुनकर प्यारी झुंझलाती, यहकाम करने क्यों नहीं जाता। यहॉं मेरे पीछे क्यों पड़ा हुआ है, मगर उसे झिड़क देने को जी न चाहता था। उसे उस समय सहानुभूति की भूख थी। फल कॉंटेदार वृक्ष से भी मिलें तो क्या उन्हें छोड़ दिया जाता है।

धीरे—धीरे क्षोभ का वेग कम हुआ। जीवन में व्यापार होने लगे। अब खेती का सारा भार प्यारी पर था। लोगों ने सलाह दी, एक हल तोड़ दो और खेतों को उठा दो, पर प्यारी का गर्व यों ढोल बजाकर अपनी पराजय सवीकार न करना था। सारे काम पूर्ववत्‌ चलने लगे। उधर मथुरा के चिट्ठी—पत्री न भेजने से उसके अभिमान को और भी उत्तेजना मिली। वह समझता है, मैं उसके आसरे बैठी हुं, उसके चिट्ठी भेजने से मुझे कोई निधि न मिल जाती। उसे अगर मेरी चिन्ता नहीं है, तो मैं कब उसकी परवाह करती हूं।

घर में तो अब विशेष काम रहा नहीं, प्यारी सारे दिन खेती—बारी के कामों में लगी रहती। खरबूजे बोए थे। वह खूब फले और खूब बिके। पहले सारा दूध घर में खर्च हो जाता था, अब बिकने लगा। प्यारी की मनोवृत्तियों में ही एक विचित्र परिवर्तन आ गया। वह अब साफ कपड़े पहनती, मॉंग—चोटी की ओर से भी उतनी उदासीन न थी। आभूषणों में भी रूचि हुई। रूपये हाथ में आते ही उसने अपने गिरवी गहने छुड़ाए और भोजन भी संयम से करने लगी। सागर पहले खेतों को सींचकर खुद खाली हो जाता था। अब निकास की नालियॉं बन्द हो गई थीं। सागर में पानी जमा होने लगा और उसमें हल्की—हल्की लहरें भी थीं, खिले हुए कमल भी थे।

एक दिन जोखू हार से लौटा, तो अंधेरा हो गया था। प्यारी ने पूछा— अब तक वहॉं क्या करता रहा?

जोखू ने कहा—चार क्यारियॉं बच रही थी। मैनें सोचा, दस मोट और खींच दूं। कल का झंझट कौन रखे?

जोखू अब कुछ दिनों से काम में मन लगाने लगा था। जब तक मालिक उसके सिर पर सवार रहते थे, वह हीले—बहाने करता था। अब सब—कुछ उसके हाथ में था। प्यारी सारे दिन हार में थोड़ी ही रह सकती थी, इसलिए अब उसमें जिम्मेदारी आ गई थी।

प्यारी ने लोटे का पानी रखते हुए कहा—अच्छा, हाथ मूंह धो डालो। आदमी जान रखकर काम करता है, हाय—हाय करने से कुछ नहीं होता। खेत आज न होते, कल होते, क्या जल्दी थी।

जोखू ने समझा, प्यारी बिगड़ रही है। उसने तो अपनी समझ में कारगुजारी की थी और समझाा था, तारीफ होगी। यहॉं आलोचना हुई। चिढ़कर बोला—मालकिन, दाहने—बायें दोनो ओर चलती हो। जो बात नहीं समझती हो, उसमें क्यों कूदती हो? कल के लिए तो उंचवा के खेत पड़े सूख रहे हैं। आज बड़ी मुसकिल से कुअॉं खालीद हुआ। सवेरे मैं पहूंचता, तो कोई और आकर न छेंक लेता? फिर अठवारे तक रह देखनी पड़ती। तक तक तो सारी उख बिदा हो जाती।

प्यारी उसकी सरलता पर हॅंसकर बोली—अरे, तो मैं तुझे कुछ कह थोड़ी रही हूं, पागल। मैं तो कहती हूं कि जान रखकर काम कर। कहीं बिमार पड़ गया, तो लेने के देने पड़ जाएंगे।

जोखू—कौन बीमार पड़ जाएगा, मै? बीस साल में कभी सिर तक तो दुखा नहीं, आगे की नहीं जानता। कहो रात—भर काम करता रहूं।

प्यारी—मैं क्या जानूं, तुम्हीं अंतरे दिन बैठे रहते थे, और पूछा जाता था तो कहते थे—जुर आ गया था, पेट में दरद था।

जोखू झेंपता हुआ बोला— वह बातें जब थीं, जब मालिक लोग चाहते थे कि इसे पीस डालें। अब तो जानता हूं, मेरे ही माथे हैं। मैं न करूंगा तो सब चौपट हो जाएगा।

प्यारी मै क्या देख—भाल नहीं करती?

जोखू तुम बहुत करोगी, दो बेर चली जाओगी। सारे दिन तुम वहॉँ बैठी नहीं रह सकतीं।

प्यारी को उसके निष्कपट व्यवहार ने मुग्ध कर दिया। बोली तो इतनी रात गए चूल्हा जलाओगे। कोई सगाई क्यों नही कर लेते?

जोखू ने मुँह धोते हुए कहा तुम भी खूब कहती हो मालकिन! अपने पेट—भर को तो होता नहीं, सगाई कर लूँ! सवा सेर खाता हूँ एक जून पूरा सवा सेर! दोनों जून के लिए दो सेर चाहिए।

प्यारी अच्छा, आज मेरी रसोई में खाओ, देखूँ कितना खाते हो?

जोखू ने पुलकित होकर कहा नहीं मालकिन, तुम बनाते—बनाते थक जाओगी। हॉँ, आध—आध सेर के दो रोटा बनाकर खिला दों, तो खा लूँ। मैं तो यही करता हूँ। बस, आटा सानकर दो लिट बनाता हूँ ओर उपले पर सेंक लेता हूँ। कभी मठे से, कभी नमक से, कभी प्याज से खा लेता हूँ ओर आकर पड़ रहता हूँ।

प्यारी मैं तुम्हे आज फूलके खिलाऊँगी।

जोखू तब तो सारी रात खाते ही बीत जाएगी।

प्यारी बको मत, चटपट आकर बैठ जाओ।

जोखू जरा बैलों को सानी—पानी देता जाऊँ तो बैठूँ।

जोखू और प्यारी में ठनी हुई थी।प्यारी ने कहा में कहती हूं, धान रोपने की कोई जरूरत नही। झड़ी लग जाए, तो खेत ड़ब जाए। बर्खा बन्द हो जाए, तो खेत सूख जाए। जुआर, बाजरा, सन, अरहर सब तो हें, धान न सही।

जोखू ने अपने विशाल कंधे पर फावड़ा रखते हुए कहा जब सबका होगा, तो मेरा भी होगा। सबका डूब जाएगा, तो मेरा भी डूब जाएगा। में क्यों किसी से पीछे रहूँ? बाबा के जमाने में पॉँच बीघा से कम नहीं रोपा जाता था, बिरजू भैया ने उसमें एक—दो बीघे और बढ़ा दिए। मथुरा ने भी थोड़ा—बहुत हर साल रोजा, तो मैं क्या सबसे गया—बीता हूँ? में पॉँच बीघे से कम न लागाऊँगा।

‘तब घर में दो जवान काम करने वाले थे।‘

‘मै अकेला उन दानों के बराबर खाता हूँ। दोनों के बराबर काम क्यों न करूँगा?

‘चल, झूठा कहीं का। कहते थे, दो सेर खाता हूँ, चार सेर खाता हूँ। आध सेर में रह गए।‘

‘एक दिन तौला तब मालूम हो।‘

‘तौला है। बड़े खानेवाले! मै कहे देती हूँ धान न रोपों मजूर मिलेंगे नहीं, अकेल हलकान होना पड़ेगा।

‘तुम्हारी बला से, मैं ही हलकान हूँगा न? यह देह किस दिन काम आएगी।‘

प्यारी ने उसके कंधे पर से फावड़ा ले लिया और बोली तुम पहर रात से पहर रात तक ताल में रहोगे, अकेले मेरा जी ऊबेगा।

जोखू को ऊबने का अनुभव न था। कोई काम न हो, तो आदमी पड़ कर सो रहे। जी क्यों ऊबे? बोला जीऊबे तो सो रहनां मैं घर रहूँगा तब तो और जी ऊबेगा। मैं खाली बेठता हूँ तो बार—बार खाने की सूझती हे। बातों में देंर हो रही है ओर बादल घिरे आते हैं।

प्यारी ने कहा अच्छा, कल से जाना, आज बैठो।

जोखू ने माने बंधन में पड़कर कहा अच्छा, बैठ गया, कहो क्या कहती हो?

प्यारी ने विनोद करते हुए पूछा कहना क्या हे, में तुमसे पूछती हूँ, अपनी सगाई क्यों नही कर लेते? अकेल मरती हूँ। तब एक से दो हो जाऊँगी।

जोखू शरमाता हुआ बोला तुमने फिर वही बेबात की बात छेड़ दी, मालकिन! किससे सगाई कर लूँ यहॉँ? ऐसी मेहरिया लेकर क्या करूँगा, जो गहनों के लिए मेरी जान खाती रहे।

प्यारी यह तो तुमने बड़ी कड़ी शर्त लगाई। ऐसी औरत कहॉँ मिलेगी, जो गहने भी न चाहे?

जोखू यह में थोड़े ही कहता हूँ कि वह गहने न चाहे, मेरी जान न खाए। तुमने तो कभी गहनों के लिए हठ न किया, बल्कि अपने सारे गहने दूसरों के ऊपर लगा दिए।

प्यारी के कपोलों पर हल्का सा रंग आ गया। बोली अच्छा, ओर क्या चहते हो?

जोखू में कहने लगूँगा, तो बिगड़ जाओगी।

प्यारी की अॉंखों में लज्जा की एक रेखा नजर आई, बोली बिगड़ने की बात कहोगे, तो जरूर बिगडूँगी।

जोखू तो में न कहूँगा।

प्यारी ने उसे पीछे की ओर ठेलते हुए कहा कहोगे कैसे नहीं, मैं कहला के छोड़ूँगी।

जोखू मैं चाहता हूँ कि वह तुम्हारी तरह हो, ऐसी गंभीर हो, ऐसी ही बातचीत में चतुर हो, ऐसा ही अच्छा पकाती हो, ऐसी ही किफायती हो, ऐसी ही हँसमुख हो। बस, ऐसी औरत मिलेगी, तो करूँगा, नहीं इसी तरह पड़ा रहूँगा।

प्यारी का मुख लज्जा से आरकत हो गया। उसने पीछे हटकर कहा तुम बड़े नटखट हो! हँसी—हँसी में सब कुछ कह गए।