Retirement in Hindi Short Stories by Ramesh Khatri books and stories PDF | रिटायरमेन्ट

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रिटायरमेन्ट

कहानी रिटायरमेन्ट रमेष खत्री

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पौधों में पानी देते हुए आज अचानक उनकी आँखें नम हो गई, ज़िन्दगी के इस पड़ाव पर आकर उनकी आँखों का इस तरह से नम होना खटकने वाली बात है । पानी के साथ ही न जाने क्या क्या बह गया जैसे जीवन की सच्चाई ही बह गई और एक कटु नग्नता अचानक ही मुँह बाये खड़ी हो गई । हालांकि इस समय तो वे पाहप को हाथ में थामे बारी बारी से पौधों में पानी दे रहे हैं । वैसे भी उनका तो पूरा जीवन ही इसी तरह से सींचते हुए ही बीता है । हाँ, बस फर्क है तो इतना कि कभी पेड़दृपौधो को सींचा तो कभी अपनो को । यह सब करते हुए वे स्वयं अपने आपसे ही बहुत पहले छुट चुके है ।

वैसे आदमी नौकरी से रिटायर होने के बाद किस तरह से अपनी ज़िन्दगी से भी धीरे धीरे रिटायर होता जाता है । एक एक कर परिवार के सदस्य उसे बेकार आदमी की तरह देखने लगते हैं और देखते ही देखते अपनों की नज़रों में ही भारी परिवर्तन आ जाता है । और फिर कैसे आदमी का जीवन बौझ बनकर रह जाता है । जिसके मन में जो भी आता है कह देता है । आदमी के रिटायर होने के बाद सारे रिष्ते नाते ताक पर धरे रह जाते हैं । यह सब शायद इसलिये भी होता है कि उस समय तक आदमी पूरी तरह से चूक चुका होता है । ठीक ऐसी ही हालत बनवारी लाल की भी हो रही है । तभी तो आज पत्थर जैसी आँखों से भी पानी छलक गया । और बून्दों के रूप में गालों पर बहकर टपक रहा है । जिस दिन उनके रिटायर होने की घड़ी आई बस उसी दिन से उनका अस्तित्व भी घने कोहरे के साये में डूबने लगा । बस उसी दिनों से उनकी आँखों में एक अजीब तरह की गहन वेदना देखी जाने लगी । वह अन्दर घंस कर किसी गहरे गड्‌डे का रूप धारण करने लगी और वे अन्दर ही अन्दर घुटने लगे और उनकी आवाज़ ऐसी हो गई जैसे किसी गहरे कुए से आ रही हो ।

बनवारी लाल भार्गव कभी अपने ज़माने में बैंक का एक शेर दिल अधिकारी हुआ करता था । उस समय उनकी धाक पूरे स्टाफ पर छाई रहती, अपनी ड्‌यूटी पर तैनात सिद्धांत के पक्के बनवारी लाल उसी बैंक के डिविजनल मैनेजर के पर से रिटायर हुए हैं । ये सब उन्हें यूं ही राह चलते नहीं मिल गया । इसे पाने के लिए उन्होंने कितनी मेहनत की । ये तो वे ही जानते हैं । उनकी पूरी ज़िन्दगी जैसे कस्तुरी मृग की तरह भागते हुए निकल गई । क्या क्या नहीं किया और क्या क्या नहीं सहा । तब जाकर कहीं वह सब नसीब हो पाया । वैसे आदमी रेगीस्तान में भागते हुए उस ऊँट की तरह है जिसे कुछ दूरी पर ही पानी का चष्मा दिखाई देता है और वह उसे पाने के लिए फिर भागने लग जाता है । लेकिन वह जितना भागता है पानी उससे उतना ही दूर जाता चला जाता है । ठीक हमारी प्यास भी ऐसी ही है, जितना हम उसे बुझाने की कोषिष करते हैं वह तो उतनी ही बढ़ती जाती है ।

इसी प्यास के पीछे बनवारी लाल भी जीवन भर भागते रहे । यह बात और है कि एक स्थान पर आकर उनकी प्यास बुझी भी परन्तु तब तक काफी देर हो चुकी थी और लगभग जीवन की शाम ही ढलने वाली थी । उस समय उस तृप्ति के कोई माने नहीं रह जाते । लेकिन फिर भी हम सब उस ओर तो भागते ही है । यह जानते हुए कि, ‘जो कुछ भी हम संग्रहित कर रहे हैं, वह सब हमें यहीं पर वैसा ही छोड़कर जाना है ।' लेकिन फिर भी हमारी जीजीविषा यथावत बनी रहती है । जब हम अपनी मंज़िल के करीब पहुँचते हैं तब अहसास होता है कि क्या इसके लिए ही हम दौड़ रहे थे या और कुछ भी था जिसे हम पाना चाहते थे.....? बस ऐसे ही ख़्ायालों में वे उस समय भी खोये रहते थे जिस समय वे अपने केबिन में बैठकर कार्यालय का काम निपटाते थे । उस समय उन्हें वे सारे के सारे चित्र उन्हें फाइल के पन्नों में नज़र आने लगते और कुछ समय को उनके हाथ वहीं के वहीं रूक जाते । इन्हीं पन्नों में उन्हें वह छोटा सा बालक घुमता हुआ दिखाई देता । जो रात के अंधकार में सड़क के किनारे बैठा किताबों में जीवन की रौषनी तलाषने की कोषिष करता रहता । उसके इस प्रयास में ही रात का अंधेरा बढ़ता जाता और उसकी कोषिष लगातार जारी रहती किताबों के पृष्ठ पलटे जाते कि तभी सड़क पर लगी ट्‌यूब लाईट से आती हुई रौषनी बर्फ की मानिंद जम जाती । पन्नों पर छपे हुए अक्षर न जाने कैसे कैसे चित्र बनाने लगते और फिर वे अनायास ही खिलखिलाकर हंसने लगते । उनकी हंसी सन्नाटे को चीरती हुई दूर तक निकल जाती । सड़क तो उस समय तक पूरी तरह से सो चुकी होती । वहाँ या तो आवारा कुत्तों की आवाज़ होती या फिर रात में गष्त देते पुलिस वालों की सीटियाँ सुनाई देती । जो कभी कभी उसका ध्यान भंग करने का काम करती । बस इसी तरह से रात अपना सफर तय करती और वह लड़का उसके साथ ही रौषनी की तलाष में किताबों के पन्नों को पलटता रहता । और रात कब बित जाती पता भी नहीं चलता ।

बस इसी तरह से उनके जीवन का सफर चलता रहा । पिता की मध्यम सामर्थ के साथ ही उनके सपने भी अधकचरे ही रह गये । घर में उनसे छोटा रवि था और उससे छोटी सीमा । पिताजी उस समय किसी प्राइवेट कम्पनी में नोकरी किया करते थे । उनकी सीमित आया घर के लिए काफी नहीं थी । बस इसी चिन्ता में घर हमेषा कलह में डूबा रहता था । खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे वाली स्थिति उस समय पिताजी की थी । वे अपना गुस्सा सदा माँ पर ही उतारा करते । उनके मन मुटाव के साथ ही घर की खुषी हवा हो जाती और घर में तैरने लगता डर का साया । उस समय माँ कितनी असहाय नज़र आती । पर वह भी लगी रहती किसी तरह से परिवार की गाड़ी को खेने में । कुल मिलाकर पिताजी और माँ दोनों ही बैल की तरह जुते हुए थे उस परिवार रूपी गाड़ी में और अपनी पूरी ताकत से उसे खे भी रहे थे ।

इस सबके चलते ही वे समय से पहले ही समझदार हो गये । ज़िन्दगी के न जाने कौन कौन से गुन उन्होंने राह चलते ही सीख लिये । इस तरह से वे भट्‌टी से निकले हुए कुंदन की तरह चमकदा रहो गये थे । उस छोटी सी उम्र में ही उनका मन न जाने कौन कौन से किले बनाता रहता था हर समय । कभी वे रेत के घरोंदों की भांति बिखर कर रह जाते तो कभी ठोस आकृति का रूप लेकर उनके सामने साकार होने लगते । अब तक वे अपनी पढ़ाई के साथ साथ हॉकर का काम भी करने लगे थे । रोज़ सुबह पाँच बजे उठना, ऐजेन्सी जाना वहाँ से पेपर लेकर उनको घर घर डालना उनकी दैनिक दिनचर्या में शामिल हो गया था । इस काम के साथ उनके हाथ में कुछ रूपये आने लगे जिससे वें अपनी तथा अपने भाई बहन की छोटी मोटी आवष्यकताओं को पूरी करने लगे थे । इसके साथ ही उनकी दिनचर्या भी नियत हो गई थी । फिर सर्दी, गर्मी और बरसार तीनों मौसम उनके लिए एक समान हो गये । वे बारी बारी से आते और चले जाते । पर उनका काम अपने समय पर अपनी तरह से चलता रहता । ये सब उनके काम में किसी भी तरह की कोई बाधा नहीं पहुँचा पाते ।

ठीक ऐसे ही दो साल बीत गये । इस बार उन्होंने मैंट्रिक की परीक्षा दी थी । और परीक्षा के बाद परीक्षाफल के इन्तज़ार में दो महिनों के लिए वे स्कूल से अलग हुए थे । ये दो महिने कब और कैसे बीत इसका उन्हें तनिक भी आभास नहीं हो पाया । जहाँ उनके संगी साथी इन दिनों को छुटि्‌टयाँ मानकर इसका आनन्द उठाने के लिए घुमने निकल गये थे । तो वहीं वे इन दिनों में और ज़्यादा काम करके अधिक से अधिक पैसा कमाना चाहते थे । इस छोटी सी उम्र मैं ही वे इस तरह से भागने के आदि हो गये । देखते ही देखते समय चिड़िया की तरह उड़ गया और उनका मैट्रिक का रिजल्ट भी आ गया । जिसके कारण कुद समय के लिए घर खुषी के वातावरण में डूबा पर फिर यह खुषी ज़्यादा समय तक टिक नहीं पाई । और एक बार फिर से उदासी के क़तरे फर्ष पर फैल गये । पहलें जैसा ही माहौल फिर से बन गया और मन की भटकन और आँखों की थकन बढ़ती चली गई ।

कि तभी अचानक फाईल का पन्ना हवा में फड़फड़ा गया । और वे अपने अतीत से लौटकर वर्तमान से जुड़ गये । जहाँ ऑफिस के कमरे में छत पर पंखा अपनी गती से चल रहा था । एक कोने से टाइपराटर की खटर पटर की आवाज़ उनके कानों तक आ रही थी । जो उन्हें मषीनीकरण की ओर लगातार खींच रही थी । उनकी नज़र बारी बारी से ऑफिस की हर एक उस चीज़ पर गई जो उनके आस पास थी । दीवार पर लगी घड़ी ने उन्हें समय से बान्ध दिया । जब वे अजीब निगाहों से इन सबका देख रहे थे, तभी टेबल पर रखा फोन अचानक ही घन्ना गया । उनका हाथ यन्त्रवद्ध सा बढ़ा और चोगे को उठा लिया । उस समय तक कमरे में हवा लगभग जम सी गई थी । टेबल पर रखी फाइल के पन्नों को उस समय भी वे अपनी ऊँगलियों से उलटते पलटते जा रहे थे । और इन सबके बीच वह मैट्रिक पास लड़का कहीं खोकर रह गया । और इसी तरह ऑफिस का समय बीतने लगता और ऑफिस की फाइलों में घुलते रहते बनवारी लाल । शाम के पाँच बज जाते और वे कुर्सी से उठ खड़े होते अपने घर की ओर दौड़ने के लिए । तभी रास्तें में चलते हुए उन्हें लगने लगता जैसे उनका बहुत कुछ पीछे छूट गया है और वे फिर से उसे शून्य में तलाषने लगते ।

अब तक पिताजी का असामयिक निधन हो गया था । फिर तो उनके ही नाजुक कन्धों पर पूरी ग्रहस्थी का बोझ आ गया । बीस वर्ष की कच्ची उम्र में ही उन्होंने कोल्हू का बैल बनना स्वीकार कर लिया । जिस समय पिताजी का देहावसान हुआ उस समय वे बी.ए. फाइनल में थे । हालांकि उनकी पढ़ाई जारी थी किन्तु अक्सर मन उदास हो जाता । कई कई प्रष्न एक साथ मुँह बाये उनके सम्मुख आ उपस्थित होते, ‘क्या करे.....? और क्या न करें........? किस तरह से ज़िन्दगी का जिया जाये ? और एसे ही कब तक जीया जा सकता है ?' बस इन्ही प्रष्नों के उत्तर खोजने के लिए उन्हें न जाने कितनी पीढ़ा सहनी पड़ती । क्योंकि अब वे अकेले ही थे और उनके कन्धों पर तीन तीन प्राणियों का बोझ था । जिसे उन्हें वहन करना था । हालांकि माँ का बहुत सहयोग सिलाई के माध्यम से होता था । पर इस मंहगाई के ज़माने में सारे के सारे प्रयार ऊँट के मुँह में जीरे के समान ही थे । जीवन की सच्चाई उस समय उन्हें तराषने में लगी थी । वे उन दिनों बार बार कसौटी पर परखे जा रहे थे । इसी तरह से समय अपनी गति से गुजरता रहा और सफलता उनके नज़दीक नज़र आने लगी । हाँ उन दिनों समय हवा से तेजी से बहता चला जा रहा था । उसके बहने का अहसास ही आँखों में चमक पैदा करता । वैसे हवा तो जीवन है या फिर जीवन का एक हिस्सा तभी तो उसके बहने से मन में उत्साह पैदा होता है । और इसी हवा की तेज रफ्तारे के साथ जीवन के सपने भागने लगते हैं ।

जीवन की इन सभी कलुषित घटनाओं को पीते हुए वे अक्सर अपने पैरों की ओर देखने लगते । क्योंकि एक वही तो साधन है जिस पर आदमी अपना तथा अपने परिवार का बोझा ढोता है । इन्हीं पर खड़ा होकर वह दौड़ता है और फिर थककर बैठ भी जाता है । लेकिन उस थकान से पहले ही समय ने करवट ली और वे बैंक में क्लर्क पद के लिए चुन लिए गये । जब उनको यह नौकरी मिली थी उस समय उनके चेहरे पर खुषियों की ऐसी चमक आई थी जिसका कोई सानी नहीं था । मानो पूरी रात के सफर के बाद सूरज की पहली किरण ने मन में उजालों की सौगात कर दी हो । और उनके अरमानों की चिड़िया चह चहाकर अपने पंख फड़फड़ाने लगी हो । ठीक एसी ही चह चहाहट उनके मन में चल रही थी । उस समय घर में खुषियों की अजीब तरह आवा जाही हो रही थी । मानों वे तहों में जम गई हो । प्रसन्नता के बादल चारों तरफ मंडराने लगे । यह सब स्वाभाविक भी था अब घर में नियमित आय का साधन बन गया था । पर कहते हैं कि खुषियों को तुरंत किसी न किसी की नज़र लग जाती है । वह तो चन्द्र मिनटों की होती है फिर उसके बाद आता है स्याह बादलों का सिलसिला । जिसे सभी को भोगना पड़ता है । मन की मृगतृष्णा फिर कुलांचे भरती निकल पड़ती है ।

अब तक रवि भी बड़ा हो गया था । वह अपनी कॉलेज की पढ़ाई में व्यस्त रहने लगा । माँ घर के कामें में और सीमा अपनी ही व्यस्तताओं में उलझी रहने लगी । हाँ, इन सबके बीच वे खुद अपने आपको कई बार अजनबी महसूस करने लगे थे । कई बार आदमी को इस तरह का अहसास होने लगता है । वह अपनों के बीच भी अकेला होता चला जाता है । उसे लगने लगता है जहाँ वह है वहाँ वह शायद गलती से आ गया है । और यही ख़याल उसे हरदम सताने लगता है । पता नहीं क्यो ? पर उन दिनों उन्हें भी इसी तरह का आभास होने लगा था । यह शायद इस लिये भी रहा होगा कि अभी तक उनके सपनों की दुनिया पूरी तरह से सज नहीं पाई थी । तभी तो वे फिर से अपने मन में टुटन का अनुभव करने लगे थे । जब इस तरह के विचार उनके मन में आते तो उनके चेहरे पर एक अजीब तरह का तनाव उभरने लगता । जिसे माँ की नज़रोें से छिपाना कठिन हो जाता । माँ ममत्व भरी पारदर्षी वे आँखें अक्सर उनके चेहरे का मुआइना करती रहती । उन आँखों से छलकते ममत्व के झरने में वे नहाते रहते । किन्तु अपने मन की पीढ़ा को छिपाने के लिए वे हरदम व्यस्त रहने का स्वांग करने लगे । इस सबके बीच उनके चेहरे की हँसी रास्ते के चौराहे पर ही खो जाती । जिसका उन्हें आभास भी नहीं हो पाता । इसी कष्मकष को वे ज़िन्दगी समझने लगे थे ।

एक बार फिर से उनके मन में खुषी की लहर भाटे के रूप में आई जब उनका चयन पी.ओ. के लिए हो गया । इसकी तैयारी वे पिछले काफी दिनों से कर रहे थे । आखिर देर सबेर उनकी मेहनत परवान चढ़ी, आँखों में बिताई रातों का परिणाम अब उनके सम्मुख था । उनका मन खुषी से नाच उठा । उनके साथ पूरा परविार ही इस खुषी की बारिष में झमाझम नहा रहा था ।

अब तक रवि भी अपने कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके नौकरी की तलाष में भटकने लगा था । बेरोगजगारी की जो लम्बी कतार है वह भी एक तरह से उसी कतार में षामिल हो गया । अब उसकी परेषानी भी इनको सताने लगी, क्योंकि उनकी तो अब तक यही आदत बन चुकी थी कि वे अपने होते हुए परिवार के किसी भी सदस्य को दुःखी नहीं देखना चाहते थे । परिवार का हर सदस्य उनके रहते खुष रहे यही उनकी दिली कामना थी । उनकी खुषी के लिए ही वे हमेषा सोचते रहते और कुछ भी करने को उतारू हो जाते । भाई बहन की थोड़ी सी तकलिफ भी उनकी रातों की नींद हराम कर देती थी । उनको लगने लगता कि जैसे स्वयं उनसे ही कोई बड़ा अपराध हो गया है ।

बस फिर कुछ ही दिनों में सीमा की बढ़ती हुई लम्बाई उनकी चिन्ता का कारण बन गई । वे बार बार उसकी ओर देखते और फिर अपने बौनेपन को कौसने लगते । उसके लम्बे लम्बे बाल बनवारी लाल के लिए तो जैसे बढ़ती हुई परेषानी की लम्बी कहानी बन रहे थे । जब भी वे सीमा की ओर देखते तो उनकी नज़र न जाने कैसी भाव भंगिमा बनाने लगती और वे मन ही मन तड़पड़ाने लगते । हालांकि उस समय उनकी सोच में जिम्मेदारियों का एक ऊँचा पहाड़ दिखाई देने लगता । वे उस पर चढ़ने की बार बार कोषिष करते कि तभी अचानक पैर फिसल जाता और अपने आपको किसी गहरी खाई में गिरते हुए महसूस करने लगते । यह सब कुछ सोचते हुए कब उनकी आँखों से आँसू बहने लगते जिसका उन्हें अहसास भी नहीं हो पाता ।

कि तभी अचानक कार चिरमिराकर रूक जाती और उनकी नज़रें भीड़ भरी सड़क के चौराहे पर जाकर ठहर जाती । उस समय वे अपने आपको उसी चोराहे पर पाते जहाँ बारी बारी से कई गाड़ियां आ रही थी जा रही थी । फिर वे अपना हाथ उठाकर उसकी लकीरों को पढ़ने का प्रयास करते और अपनी ऊँगलियों को हिला डुला कर देखते । यह सब करते हुए उन्हें कुछ अजीब सा महसूस होने लगता । पर उस समय उन्हें यह सब करना अच्छा लगता । कि तभी उनके मन में ख़याल आता, ‘आज फिर से क्यूं पुरानी यादें सर्प की तरह मेरे इर्द गिर्द घुमने लगी है ?'और फिर वे अपने बालों को सहलाने लगते । इसी बीच ग्रीन लाईट हो जाती और उनकी गाड़ी एक झटके के साथ फिर से सड़क पर दौड़ने लगती ।

ठीक इसी चौराहे की तरह ही उनके जीवन में भी पूरे एक साल तक रेड लाईट ठहर कर रह गई । उन दिनों कैसा ठहराव आ गया था उनके जीवन में जैसे पानी की लहरें किसी भंवर में फसकर एक सीमित दायरे में ही घूमने लगती है ठीक ऐसे ही उनका जीवन भी एक सीमित दायरे में घुमने लगा था । जीवन की सहज गति कहीं खो गई थी । उनकी सारी कोषिषों के बाद भी परिस्थितियां अचल अटल बनकर ठहर गई । घर की पारिवारिक समस्याओं के नाग उनके चारों तरफ अपने फन फैलाकर मंडराने लगे । रवि बेरोजगारी की चपेट में अपनी सुध बुध खो बैठा था । उसकी पीढ़ा असह्म थी ही । इस पर भी नीयति को चैन नहीं था । शायद उनकी परीक्षा अभी तक पूरी नहीं हो पाई थी । तभी तो रह रहकर उनको परीक्षा की घड़ी से गुजरना पड़ता था । अब की बार माँ बीमारी का ग्रास बनी थी । लाख कोषिषों के बाद भी माँ को बचाने में सफल नहीं हो पाये वे । उनकी सारी भाग दौड़ जैसे कोई भुलावा बन कर ही रह गई थी । डाक्टरों का आना जाना बना रहा, दवाईयों की खरीद फरोख्त होती रही और इन सबके बीच से माँ चुपचाप चली गईं । उनके चले जाने के बाद बाकी रह गया तो बस आँसुओं का खारा पानी और टकटकी लगाकर देखती हुई माँ की वे आँखें जो अब मात्र याद बन कर ही रह गई थी ।

माँ के चले जाने के बाद एक बार फिर वे अनाथ हो गये । उनका मन पूरी तरह से टूट गया परन्तु ऊपर से उन्हें रवि और सीमा का धैर्य बंधाने के लिए चट्‌टान की तरह अडिग रहना था, सो रहे । खुद उनके उपर से ममता का साया उठ गया पर उन्हे उन दोनों को माँ का प्यार और पिता का आषिष देना था । हाँ, अब उनकी देखभाल करने वाला कोई नही था किन्तु वे रवि और सीमा को जीवन की सारी खुषियाँ देना चाहते थे । घर से बुजुर्ग के चले जाने के बाद जो स्थान खाली होता है वह एक लम्बे समय तक यूं ही पड़ा रहता है जिसे चाहकर भी कोई नहीं भर सकता । परन्तु उन्होंने तो रवि और सीमा के लिए वह स्थान जैसे खाली ही नहीं होने दिया ।

इसके बाद उनके हिस्से में आई ज़िम्मेदारी की कड़ी घूप जिसमें उन्हें हरदम तपना है । इसी ज़िम्मेदारी को जीवन अपने बन्धों पर उठाकर घूमना ही उनकी नियति बन गया है । अब तक उन्होंने रवि को एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी दिलवा दी थी । इसके लिए उन्हें एक बार तो अपना ज़मीर भी गिरवी रखना पड़ा । लेकिन नौकरी लगने के बाद ही अनायास ही रवि के पर निकलने लगे । कहते हैं कि ‘पैसा आदमी की बुद्धि को भ्रष्ट कर देता है, रवि की बुद्धि भी पैसे के आने के साथ भ्रष्ट होती चली गई । कुछ ही दिनों के बाद उसने अपने साथ काम करने वाली रीतू से शादी कर ली और उसके साथ ही उसके मकान में रहने लगा । इस तरह से रवि उन्हें छोड़कर चला गया ।

उन्ही दिनों मेरी मुलाक़ात बनवारी लाल से हुई । कितना टूटा हुआ था वह । जैसे उसके जीवन की सम्पूर्ण कमाई कोई चोर चुराकर ले गया हो । उसके पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक गई थी । उसके शब्द गले में ही फंसकर रह गये वह हकलाते हुए बोला, ‘प्रकाष......जानते हो न मेरे भाई रवि को......क्या किया है उसने.....? देखो वह अपने ही घर को छोड़ गया.....! मुझे छोड़कर चला गया वह.....उसके मन में एक बार भी यह बात नहीं आई कि उसके भाई पर क्या बीतेगी.....इस भाई पर क्या बीतेगी....? जिसने उसके लिए तिल तिल घुटकर जीवन की राह तैयार की उस भाई पर क्या बीतेगी नहीं सोचा उसने.....प्रकाष...कुछ भी नहीें सोचा उसने....! सब स्वार्थी होते हैं......!'

मैंने उसे ढांढस बंधाते हुए कहा, ‘यही जीवन का सच है मित्र....और यही दुनियादारी भी ।'

वह देर तक मेरे चेहरे की ओर देखता रहा मानो कुछ समझने की कोषिष कर रहा हो ।

और फिर इसके बाद वह अपने ग़म को अन्दर ही अन्दर ही गया । एक कड़वी सच्चाई अपने सहस्त्रफन फैलाकर उसके सम्मुख खड़ी हो गई थी । उसके अपने ही उसे छोड़कर चले गये थे वह अपने जिनके लिए वह उम्र भर पिसता रहा था धुन की तरह । जिनकी सुख सुविधाओं का ध्यान रखते रखते वह अपने आपको भुल गया था । वे एक ही पल में कैसे घर को छोड़कर चले गये थे ।

जब घर का दरवाज़ा एक बार खुल गया तो खुल गया । फिर कुछ ही दिनों के बाद सीमा की भी शादी हो गई और वह भी इस घर को घर को सदा सदा के लिए छोड़कर चली गई । धीरे धीरे वह अपने तथा अपने परिवार में मगन हो गई । अब तो उसके पान बनवारी लाल को देखने तक का समय नहीं था । अकेला रह गया तो बस वही । उसका जीवन सूखे पत्ते सा खड़खड़ाने लगा । जो तूफानों में बीच ही अपना घरोंदा तलाष रहा था । भला तूफानों में भी घरोंदा टिक पाता है । तूफानों में तो घरोंदे उखड़ जाया करते है ।

फिर अचानक गाड़ी घर के दरवाज़े पर आकर रूकी और वह एक बार फिर से चौका । इस बार उनकी आँखों से आँसू की लम्बी धार बह निकली । जिससे उनका चष्मा पूरी तरह से भीग गया और गालों पर भी उसके अवषेष दिखाई देने लगे । वहाँ से होती हुई वह उनके कोट के आगोष में छुप गई । वे चौंके तो तब, जब उनकी नज़र पास ही पड़ी हुई ताज़ा फूलों की माला पर गई । जो यहाँ पड़ी हुई उनके रिटायर होने की कहानी कह रही थी । उसके ताज़ा फूलों से आती हुई खुषबू पूरी कार को महका रही थी । तभी उन्होंने हाथ बड़ाकर उसे उठा लिया और उसे अपने सीने से लगाकर कुछ देर के लिए अपनी आँखें मूंद ली जैसे उसी में वे अपनी ज़िन्दगी की छवि देख रहे हो ।

बस इसके बाद उन्हें होष तब आया जब पानी ने उन्हें पूरी तरह से भिगो दिया । शरीर के भीगने के साथ ही वे कल्पना की उड़ान से वालस लौट आए वास्तविकता की दुनिया में यहाँ कठोर भूमि उनका स्वागत कर रही थी । और यही कठोरता उनका वर्तमान बनी हुई थी । और फिर उन्हें याद आया इन पौधों को पानी देते देते मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया था । तभी अचानक उनके मुँह से निकला, ‘आदमी रिटायर होने के बाद एकदम से बेकार क्यों हो जाता है ?'