सिनेमा की पहली महिला फिल्म निर्देशक
अभी 4-6 साल पहले तक अखबारों में इस आशय की खबरें लोगों को आकर्षित करती थीं कि फलां महिला मुम्बई की पहली टैक्सी ड्राइवर होगी या फिर फलां महिला पहली बार रेलगाड़ी चलाएगी। ऐसे समाज में लगभग 100 वर्ष पीछे जाकर यह कल्पना करना कि उस समय एक आम भारतीय महिला के लिए मनोरंजन के साधन क्या होते होंगे, मुश्किल काम है। यह वह दौर था जब हिन्दुस्तान में आया सिनेमा विस्मय का विषय था ओर दबे - छुपे शब्दों में घरेलू चर्चाओं में यह बात भी शामिल हो जाती थी कि महिलाओं को सिनेमाघरों में जाकर बायोस्कोप के मार्फत मनोरंजन का हक मिलना चाहिए यानि कि सिनेमा को देखना तक उस समय के भारतीय समाज में कोई अच्छी बात नहीं समझी जाती थी। जाहिर है कि सिनेमा घर मात्र पुरूषों की टीका टिप्पणियों, सीटियों तथा पुरूषोचित श्लील-अश्लील संवादों से ही गूंजते रहते होंगे, लेकिन ठीक इसी वक्त कुछ महिलाएं ऐसी भी थीं जिन्होंने तमाम सामाजिक वर्जनाओं के खिलाफ खडे़ होकर सिनेमा उद्योग में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज करायी। इतिहास का विषय बन चुकी, फिल्म जगत से जुड़ी ऐसी ही कुछ महिलाओं की जांच - पड़ताल इस बार ’सिनेमा के सफर’ में।
हिन्दुस्तान की पहली महिला फिल्म निर्देशक फातिमा बेगम एक ऐसा ही नाम है। छोटे मोटे उर्दू नाटकों के मंचन से जुड़ी फातिमा ने सन् 1922 में आर्देशिर ईरानी की मूक फिल्म ’वीर अभिमन्यु’ से अपनी निर्देशन यात्रा शुरू की। ध्यान रखना होगा यह लगभग वही समय था जब दादा साहब फाल्के को अपनी फिल्म ’राजा हरिश्चन्द्र’ के लिए पूरे फिल्म उद्योग में अभिनय के लिए कोई महिला पात्र न मिल पाने के कारण अपने युवा रसाइये सालुंके को रंग रोगन की मदद से स्त्री कलाकार के रूप में प्रस्तुत करना पड़ा था। इस दौरान फातिमा बेगम ने 3 वर्षों में सात फिल्मों का निर्देशन किया। उनके द्वारा अभिनीत कुछ फिल्मों के नाम हैं - सती सरदारवा (1924), पृथ्वी बल्लभ (1924), काला नाग (1924), गुल-ए-बकावली (1924), मुम्बई नी मोहनी (1925)। जबकि उनके निर्देशन में बनी फिल्में हैं बुलबुल-ए-परिस्तान (1926) गाॅडेस आॅफ लव (1927), हीर रांझा (1928), चन्द्रावली (1928), शकुन्तला (1929), मिलन (1929) कनकतारा (1929), गाॅडेस आॅफ लक (1929)। वर्ष 1926 में फातिमा बेगम ने फातिमा फिल्म्स के नाम से अपनी कम्पनी की स्थापना की जिसे कतिपय कारणों से 1928 में विक्टोरिया फातिमा फिल्म्स का नाम दिया गया। फिल्म लेखन, डायरेक्शन के साथ - साथ फातिमा ने अनेक फिल्मों में अभिनय किया। ये फिल्में अपने बैनर फातिमा फिल्म्स के अलावा काहिनूर स्टूडियोज और इम्पीरियल स्टूडियोज के बैनर तले बनी थीं। फातिमा बेगम की फिल्मी पारी लगभग 16 वर्ष की थी और सन् 1938 में उन्होंने अपनी आखिरी फिल्म ’दुनिया क्या है’ में अभिनय के बाद फिल्मी दुनिया से किनारा कर लिया। सन् 1983 में 91 साल की उम्र में वो दुनिया छोड़कर चल बसीं लेकिन उनकी परम्परा को अपने समय की मशहूर अदाकारा जुबैदा सुल्ताना ने आगे बढाया जो मूक फिल्मों के दौर की स्टार अदाकारा तो मानी ही जाती थी, भारत की पहली बोलती फिल्म ’आलमआरा’ की हीरोइन होने का सम्मान भी उन्हें ही मिला। फातिमा बेगम द्वारा निर्देशित सबसे मशहूर फिल्म ’बुलबुले परिस्तान’ एक बडे़ बजट वाली फैन्टेसी फिल्म थी जिसमें विदेशी तकनीकी सहायकों की मदद से लाखों रूपये खर्च करके विशेष प्रभाव डाले गये थे।
फाल्के की महिला कलाकार विहीन फिल्म ’राजा हरिश्चन्द्र’ की अपार सफलता के बाद पढे़ - लिखे लोगों के वर्ग में ऐसा माना जाने लगा कि फिल्में भी स्वस्थ मनोरंजन का साधन हो सकती है। वर्ष 1913 में बनी अपनी फिल्म ’मोहिनी भस्मासुर’ में दादा साहब फाल्के ने बतौर हीरोइन दुर्गाबाई कामत को पेश किया जिन्हें सिनेमा जगत की पहली अभिनेत्री होने का श्रेय प्राप्त हुआ। इस फिल्म में दुर्गाबाई ने पार्वती की भूमिका अदा की जबकि उनकी बेटी कमलाबाई गोखले ने इसी फिल्म में मोहिनी की भूमिका अदा करके फिल्म उद्योग की सर्वप्रथम बाल कलाकार होने का श्रेय प्राप्त किया।
दुर्गाबाई कामत के प्रारम्भिक योगदान के सम्मान के लिए भारत सरकार ने उनकी स्मृति में एक डाक टिकट भी जारी किया, दुर्गाबाई कामत के संघर्ष की कहानी में कई मोड़ हैं।
कमलाबाई गोखले के जीवन पर रीना मोहन ने 1992 में 46 मिनट का एक वृत्तचित्र ’कमलाबाई’ भी बनाया था। (देखिए पोस्टर)
मूक फिल्मों के दौर की कहानी पर विस्तार से काम नहीं किया जा सका, यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि लगभग 1300 ऐसी फिल्मों में से बहुत कम फिल्मों के अवशेष बचा कर रखे जा सके हैं, जिनके निर्माण में हजारों कलाकारों, टेक्नीशियनों और लेखकों का अमूल्य योगदान है जिनकी मेहनत ने सिनेमा को हिन्दुस्तान में घर-घर पहुंचाया। ऐसी स्थिति में ’कमलाबाई’ वृत्तचित्र को एक महत्वपूर्ण दस्तावेज माना जा सकता है जिसमें कमला के बयान तत्कालीन फिल्म उद्योग में महिलाओं के अन्तहीन संघर्षों की करूणगाथा है।
भारतीय रजतपट की पहली सफल अभिनेत्री कमलाबाई के अनुसार उनकी मां दुर्गाबाई कामत की उम्र बहुत कम थी जब उनके पति आनन्द नानोस्कर, जो जे.जे. स्कूल आॅफ आर्ट में इतिहास के प्रोफेसर थे, से सम्बन्ध विच्छेद हो गया। ऐसे में दुर्गाबाई के समक्ष तीन विकल्प सामने थे, लोगों के घरों में काम करना, वैश्यावृत्ति का पेशा अपना लेना अथवा अभिनय के लिए फिल्मों की ओर रूख करना। तत्कालीन परिवेश को देखते हुए ये तीनों ही काम किसी महिला के लिए सम्मान योग्य नहीं थे। दुर्गाबाई ने एक घुमक्कड थिएटर कम्पनी में शामिल होना बेहतर समझा। समाज के तिरस्कार, आर्थिक तंगी और बदहाली के बीच कमलाबाई बडी हुईं। कमलाबाई का कहना है उनकी मां न केवल बेहद खूबसूरत थीं बल्कि उतनी ही प्रतिभावान भी थीं वे चित्रकारी और गायन के अलावा कई वादयन्त्रों के संचालन में भी कुशल थीं। कमलाबाई कभी स्कूल का मुंह नहीं देख सकीं क्योंकि उनकी मां का काम घुमक्कडी का था। कमला ने भी चार साल की उम्र में थिएटर में काम करना शुरू कर दिया, लेकिन 1912-13 में कमला जो अभी 15 वर्ष की नहीं हुई थी, फाल्के की फिल्म में आते ही अचानक सेलेब्रिटी बन गयी।
कमलाबाई की कहानी विस्तार से फिर कभी। ’सिनेमा का सफर’ के अन्तर्गत ऐसे अनेक महिला पात्रों, चरित्रों और मायानगरी से जुडे प्रारम्भिक दौर के किस्सों का सिलसिला आगे के अंकों में जारी रहेगा।
प्रभु झिंगरन
वरिष्ठ मीडिया समीक्षक
mediamantra2000@gmail.com