सांसारिक प्रेम और देशप्रेम
मुंशी प्रेमचंद
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जन्म
प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन् १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।
जीवन
धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।
शादी
आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, ष्उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।.......ष् उसके साथ — साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है ष्पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दियारू मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।ष् हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।
विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।
शिक्षा
अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने — जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।
साहित्यिक रुचि
गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो — तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।
आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद ष्तिलस्मे — होशरुबाष् पढ़ डाली।
अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी — बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।
तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ — साथ रहा।
प्रेमचन्द की दूसरी शादी
सन् १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन् १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।
यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।
व्यक्तित्व
सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा ष्हमारा काम तो केवल खेलना है— खूब दिल लगाकर खेलना— खूब जी— तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात् — पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, ष्तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।ष् कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी—शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।
जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं ष्कि जाड़े के दिनों में चालीस — चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।ष्
प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी—शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।
ईश्वर के प्रति आस्था
जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे — धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा ष्तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो — जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।ष्
मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था — ष्जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।ष्
प्रेमचन्द की कृतियाँ
प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन् १८९४ ई० में ष्होनहार बिरवार के चिकने—चिकने पातष् नामक नाटक की रचना की। सन् १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय ष्रुठी रानीष् नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन् १९०४—०५ में ष्हम खुर्मा व हम सवाबष् नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा—जीवन और विधवा—समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।
जब कुछ आर्थिक निजिर्ंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।
इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।
ष्सेवा सदनष्, ष्मिल मजदूरष् तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए ष्महाजनी सभ्यताष् नाम से एक लेख भी लिखा था।
मृत्यु
सन् १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने ष्प्रगतिशील लेखक संघष् की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण—कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।
सांसारिक प्रेम और देशप्रेम
शहर लंदन के एक पुराने टूटे—फूटे होटल में जहां शाम ही से अंधेरा हो जाता है, जिस हिस्से में फैशनेबुल लोग आना ही गुनाह समझते हैं और जहां जुआ, शराबखोरी और बदचलनी के बड़े भयानक दृश्य हरदम आंख के सामने रहते हैं उस होटल में, उस बदचलनी के अखाड़े में इटली का नामवर देश—प्रेमी मैजिनी खामोश बैठा हुआ है। उसका सुंदर चेहरा पीला है, आंखों से चिन्ता बरस रही है, होंठ सूखे हुए हैं और शायद महीनों से हजामत नहीं बनी। कपड़े मैले—कुचौले हैं। कोई व्यक्ति जो मैजिनी को पहले से न जानता हो, उसे देखकर यह खयाल करने से नहीं रुक सकता कि हो न हो यह भी उन्हीं अभागे लोगों में है जो अपनी वासनाओं के गुलाम होकर जलील से जलील काम करते हैं।
मैजिनी अपने विचारों में डूबा हुआ हैं। आह बदनसीब कौम ! ऐ मजलूम इटली! क्या तेरी किस्मत कभी न सुधरेगी, क्या तेरे सैंकड़ों सपूतों का खून जरा भी रंग न लायेगा ! क्या तेरे देश से निकाले हुए हजारों जाँनिसारों की आहों में जरा भी तारीर नहीं। क्या तू अन्याय और अत्याचार और गुलामी के फंदे में हमेशा गिरफ्तार रहेगी। शायद तुझमें अभी सुधरने की, स्वतंत्र होने की योग्यता नहीं आयी। शायद तेरी किस्मत में कुछ दिनों और जिल्लत और बर्बादी झेलना लिखी है। आजादी, हाय आजादी, तेरे लिए मैंने कैसे—कैसे दोस्त, जान से प्यारे दोस्त कुर्बान किए। कैसे—कैसे नौजवान, होनहारा नौजवान, जिनकी माएं और बीवियां आज उनकी कब्र पर आंसू बहा रही हैं और अपने कष्टों और आपदाओं से तंग आकर उनके वियोग के कष्ट में अभागे, आफत के मारे मैजिनी को शाप दे रही हैं। कैसे—कैसे शेर जो दुश्मनों के सामने पीठ फेरना न जानते थे, क्या यह सब कुर्बानियां, यह सब भेंटें काफी नहीं हैं? आजादी, तू ऐसी कीमती चीज है! हां तो फिर मैं क्यों जिन्दा रहूं? क्या यह देखने के लिए कि मेरा प्यारा वतन, मेरा प्यारा देश, धोखेबाज—अत्याचारी दुश्मनों के पैरों तले रौंदा जाए, मेरे प्यारे भाई, मेरे प्यारेहमवतन, अत्याचार का शिकार बनें। नहीं, मैं यह देखने के लिए जिन्दा नहीं रह सकता !
मैजिनी इन्हीं खयालों में डुबा हुआ था कि उसका दोस्त रफेती, जो उसके साथ निर्वासित किया गया था, इस कोठरी में दाखिल हुआ। उसके हाथ में एक बिस्कुट का टुकड़ा था। रफेती उम्र में अपने दोस्त से दो—चार बरस छोटा था। भंगिमा से सज्जनता झलक रही थी। उसने मैजिनी का कंधा पकड़कर हिलाया और कहा—जोजेफ, यह लो, कुछ खा लो।
मैजिनी ने चौंककर सर उठाया और बिस्कुट देखकर बोला—यह कहां से लाये ? तुम्हारे पास पैसे कहां थे?
रफेती—पहले खा लो फिर यह बातें पूछना, तुमने कल शाम से कुछ नही खाया है।
मैजिनी—पहले यह बता दो, कहां से लाये। जेब में तंबाकू का डिब्बा भी नजर आता है। इतनी दौलत कहां हाथ लगी?
रफेती—पूछकर क्या करोगे? वही अपना नया कोट जो मां ने भेजा था, गिरवी रख आया हूँ।
मैजिनी ने एक ठंडी सांस ली, आंखों से आंसू टप—टप जमीन पर गिर पड़े। रोते हुए बोला—यह तुमने क्या हरकत की, क्रिसमस के दिन आते हैं, उस वक्त क्या पहनोगे? क्या इटली के एक लखपती व्यापारी का इकलौता बेटा क्रिसमस के दिन भी ऐसी ही फटे—पुराने कोट में बसर करेगा? ऐं?
रफेती—क्यों, क्या उस वक्त तक कुछ आमदनी न होगी, हम—तुम दोनों नये जोड़े बनवाएंगे और अपने प्यारे देश की आने वाली आजादी के नाम पर खुशियां मनाएंगे।
मैजिनी—आमदीन की तो कोई सूरत नजर नहीं आती। जो लेख मासिक पत्रिकाओं के लिए लिखे थे, वह वापस ही आ गये। घर से जो कुछ मिलता है, वह कब खत्म हो चुका है। अब और कौन—सा जरिया है ?
रफेती—अभी क्रिसमस को हफ्ता भर पड़ा है। अभी से उसकी क्या फिक्र करें। और अगर मान लो नहीं कोट पहना तो क्या ? तुमने नहीं मेरी बीमारी में डॉक्टर की फीस के लिए मैग्डलीन की अंगूठी बेच डाली थी ? मैं जल्दी ही यह बात उसे लिखने वाला हूं, देखना तुम्हें कैसा बनाती है।
क्रिसमस का दिन है, लंदन में चारों तरफ खुशियों का गर्म बाजारी है। छोटे—बड़े, अमीर—गरीब सब अपने—अपने घर खुशियां मना रहे हैं और
अपने अच्छे से अच्छे कपड़े पहनकर गिरजाघरों में जा रहे हैं। कोई उदास सूरत नजर नहीं आती। ऐसे वक्त मैजिनी और रेफती दोनों उसी छोटी—सी अंधेरी कोठरी में सर झुकाए खामोश बैठे हैं। मैजिनी ठण्डी आहें भर रहा है और रफेती रह—रहकर दरवाजे पर आता है और बदमस्त शराबियों को और दिनों से ज्यादा बहकते और दीवानेपन की हरकतें करते देखकर अपनी गरीबी और मुहताजी की फिक्र दूर करना चाहता है ! अफसोस! इटली का सरताज, जिसकी एक ललकार पर हजारों आदमी अपना खून बहाने के लिए तैयार हो जाते थे, आज ऐसा मुहताज हो रहा है कि उसे खाने का ठिकाना नहीं। यहां तक कि आज सुबह से उसने एक सिगार भी नहीं पिया। तंबाकू ही दुनिया की वह नेमत थी जिससे वह हाथ नहीं खींच सकता था और वह भी आज उसे नसीब न हुआ। मगर इस वक्त उसे अपनी फिक्र नहीं रफेती, नौजवान, खुशहाल और खूबसूरत होनहार रफेती की फिक्र जी पर भारी हो रही है। वह पूछता है कि मुझे क्या हक है कि मैं एक ऐसे आदमी को अपने साथ गरीबी की तकलीफें झेलने पर मजबूर करुं जिसके स्वागत के लिए दुनिया की बस नेमतें बांहें खोले खड़ी हैं।
इतने में एक चिट्ठीरसा ने पूछा—जोजेफ मैजिनी यहां कहां रहता है ? अपनी चिट्ठी लेजा।
रफेती ने खत ले लिया और खुशी के जोश से उछलकर बोला—जोजेफ, यह लो, मैग्डलीन का खत है।
मैजिनी ने चौंककर खत ले लिया और बड़ी बेसब्री से खोला। लिफाफा खोलते ही थोड़े—से बालों का एक गुच्छा गिर पड़ा, जो मैग्डलीन ने क्रिसमस के उपहार के रुप में भेजा था। मैजिनी ने उस गुच्छे को चूमा और उसे उठाकर अपने सीने की जेब में खोंसे लिया। खत में लिखा था—
माइ डियर जोजेफ,
यह तुच्छ भेंट स्वीकार करो। भगवान करे तुम्हें एक सौ क्रिसमय देखने नसीब हों। इस यादगार को हमेशा अपने पास रखना और गरीब मैग्डलीन को भूलना मत। मैं और क्या लिखूं। कलेजा मुँह को आया जाता है। आय जोजेफ, मेरे प्यारे, मेरे स्वामी, मेरे मालिक जोजेफ, तू मुझे कब तक तड़पायेगा। अब जब्त नहीं होता। आंखों में आसूं उमड़े आते हैं। मैं तेरे साथ मुसीबतें झेलूंगी, भूखों मरुंगी, यह सब मुझे गवारा है, मगर तुझसे जुदा रहना गवारा नही। तुझे कसम है, तुझे अपने ईमान की कसम है, तुझे अपने वतन की कसम, यहां आ जा, यह आंखें तरस रही हैं, कब तूझे देखूंगी। क्रिसमस करीब है, मुझे क्या, जब तक जिन्दा हूं, तेरी हूं।
तुम्हारी
मैग्डल
मैग्डलीन का घर स्विट्जरलैण्ड में था। वह एक समृद्ध व्यापारी की बेटी थी और अनिन्द्य सुंदरी। आन्तरिक सौंदर्य में भी उसका जोड़ मिलना मुश्किल था। कितने ही अमीर और रईस लोग उसका पागलपन सर में रखते थे, मगर वह किसी को कुछ खयाल में न लाती थी। मैजिनी जब इटली से भागा तो स्विट्जरलैण्ड में आकर शरण ली। मैग्डलीन उस वक्त भोली—भाली जवानी की गोद में खेल रही थी। मैजिनी की हिम्मत और कुर्बानियों की तारीफें पहले ही सुन चुकी थी। कभी—कभी अपनी मां के साथ यहां आने लगी और आपस का मिलना—जुलना जैसे—जैसे बढ़ा और मैजिनी के भीतरी सौन्दर्य का ज्यों—ज्यों उसके दिल पर गहरा असर होता गया, उसकी मुहब्बत उसके दिल में पक्की होती गयी। यहां तक कि उसने एक दिन खुद लाज—शर्म को किनारे रखकर मैजिनी के पैरों पर सिर रख दिया और कहा—मुझे अपनी सेवा में स्वीकार कर लीजिए।
मैजिनी पर भी उस वक्त जवानी छाई हुई थी, देश की चिन्ताओं ने अभी दिल ठंडा नहीं किया था। जवानी की पुरजोश उम्मीदें दिल में लहरें मार रही थीं, मगर उसने संकल्प कर लिया था कि मैं देश और जाति पर अपने को न्यौछावर कर दूंगा। और इस संकल्प पर कायम रहा। एक ऐसी सुंदर युवती के नाजुक—नाजुक होंठों से ऐसी दरख्वास्त सुनकर रद्द कर देना मैजिनी ही जैसे संकल्प के पक्के, हियाब के पूरे आदमी का काम था।
मैग्डलीन भीगी—भीगी आंखें लिए उठी, मगर निराश न हुई थी। इस असफलता ने उसके दिल में प्रेम की आग और भी तेज कर दी और गो आज मैजिनी को स्विट्जरलैंड छोड़े कई साल गुजरे मगर वफादार मैग्डलीन अभी तक मैजिनी को नहीं भूली। दिनों के साथ उसकी मुहब्बत और भी गाढ़ी और सच्ची होती जाती है।
मैजिनी खत पढ़ चुका तो एक लम्बी आह भरकर रफेती से बोला—देखा मैग्डलीन क्या कहती है ?
रफेती—उस गरीब की जान लेकर दम लोगे !
मैजिनी फिर खयाल में डूबा—मैग्डलीन, तू नौजवान है, सुंदर है, भगवान ने तुझे अकूत दौलत दी है, तू क्यों एक गरीब, दुखियारे, कंगाल, फक्कड़ परदेश में मारे—मारे फिरनेवाले आदमी के पीछे अपनी जिन्दगी मिट्टी में मिला रही है ! मुझ जैसा मायूस, आफत का मारा हुआ आदमी तुझे क्योंकर खुश रख सकेगा ? नहीं—नहीं, मैं ऐसा स्वार्थी नहीं हूं। दुनिया में बहुत—से ऐसे हंसमुख खुशहाल नौजवान हैं जो तुझे खुश रख सकते हैं, जो तेरी पूजा कर सकते हैं। क्यों तू उनमें से किसी को अपनी गुलामी में नहीं ले लेती। मैं तेरे प्रेम, सच्चे, नेक और निरूस्वार्थ प्रेम का आदर करता हूं। मगर मेरे लिए, जिसका दिल देश और जाति परी समर्पित हो चुका है, तू एक प्यारी हमदर्द बहन के सिवा और कुछ नहीं हो सकती। मुझमें ऐसी क्या खूबी है, ऐसे कौन से गुण हैं कि तुझ जैसी देवी मेरे लिए ऐसी मुसीबतें झेल रही है। आह मैजिनी, तू कहीं का ना हुआ। जिनके लिए तूने अपने को न्यौछावर कर दिया, वह तेरी सूरत से नफरत करते हैं। जो तेरे हमदर्द हैं, वह समझते हैं तू सपने देख रहा है।
इन खयालों में बेबस होकर मैजिनी न कलम—दवात निकाली और मैग्डलीन को खत लिखना शुरु किया।
प्यारी मैग्डलीन,
तुम्हारा खत उस अनमोल तोहफे के साथ आया। मैं तुम्हारा हृदय से कृतज्ञ हूं कि तुमने मुझ जैसे बेकस और बेबस आदमी को इस भेंट के काबिल समझा। मैं उसकी हमेशा कद्र करूंगा। यह मेरे पास हमेशा एक सच्चे, निरूस्वार्थ और अमर प्रेम की स्मृति के रुप में रहेगा और जिस वक्त यह मिट्टी का शरीर कब्र की गोद में जाएगा मेरी आखिरी वसीयत यह होगी कि वह यादगार मेरे जनाजे के साथ दफन कर दी जाये। मैं शायद खुद उस ताकत का अन्दाजा नहीं लगा सकता जो मुझे इस खयाल से मिलती है, कि दुनिया में जहां चारों तरफ मेरे बारे में बदगुमानियां फैल रही हैं, कम से कम एक ऐसी नेक औरत है जो मेरी नीयत की सफाई और मेरी बुराइयों से पाक कोशिश पर सच्ची निष्ठा रखती है और शायद तुम्हारी हमदर्दी का यकीन है कि मैं जिन्दगी की ऐसी कठिन परीक्षाओं में सफल होता जाता हूं।
मगर प्यारी बहन, मुझे कोई तकलीफ नहीं है। तुम मेरी तकलीफों के खयाल से अपना दिल मत दुखाना। मैं बहुत आराम से हूं। तुम्होरे प्रेम जैसी अक्षयनिधि पाकर भी अगर मैं कुछ थोड़े—से शारीरिक कष्टों का रोना रोऊं तो मुझ जैसा अभागा आदमी दुनिया में कौन होगा।
मैंने सुना है, तुम्हारी सेहत रोज—ब—रोज गिरती जा रही है। मेरा जी बेअख्तियार चाहता है कि तुम्हें देखूं। काश, मेरा दिल इस काबिल होता कि तुम्हें भेंट चढ़ा सकता। मगर एक पजमुर्दा उदास दिल तुम्हारे काबिल नहीं। मैग्डलीन, खुदा के वास्ते अपनी सेहत का खयाल रक्खो, मुझे शायद उससे ज्यादा और किसी बात की तकलीफ न होगी कि प्यारी मैग्डलीन तकलीफ में है और मेरे लिए ! तुम्हारा पाकीजा चेहरा इस वक्त निगाहों के सामने है। मेगा ! देखों मुझसे नाराज न हो। खुदा की कसम मैं तुम्हारे काबिल नहीं हूं। आज क्रिसमस का दिन है, तुम्हें क्या तोहफा भेजूँ। खुदा तुम पर हमेशा अपनी बेइन्तहा बरकतों का साया रक्खे। अपनी मां को मेरी तरफ से सलाम कहना। तुम लोगों को देखने की इच्छा है। देखें कब तक पूरी होती हैं।
तुम्हारा जोजेफ
इस वाकये के बाद बहुत दिन गुजर गए। जोजेफ मैजिनी फिर इटली पहुंचा और रोम में पहली बार जनता के राज्य का एलान किया गया। तीन आदमी राज्य की व्यवस्था के लिए निर्वाचित किये गये। मैजिनी भी उनमें एक था। मगर थोड़े ही दिनों में फ्रांस की ज्यादतियों और पोडमांट के बादशाह की दगाबाजियों की बदौलत इस जनता के राज का खात्मा हो गया और उसके कर्मचारी और मंत्री अपनी जानें लेकर भाग निकले। मैजिनी अपने विश्वसनीय मित्रों की दगाबाजी और मौका परस्ती पर पेचोताब खाता हुआ खस्ताहाल और परेशान रोम की गलियों की खाक छानता फिरता था। उसका यह सपना कि रोम को मैं जरुर एक दिन जनता के राज का केंद्र बनाकर छोडूंगा, पूरा होकर फिर तितर—बितर हो गया।
दोपहर का वक्त था, धूप से परेशान होकर वह एक पेड़ की छाया में दम लेने के लिए ठहर गया कि सामने से एक लेडी आती हुई दिखाई दी। उसका चेहरा पीला था, कपड़े बिलकुल सफेद और सादा, उम्र तीस साल से ज्यादा। मैजिनी आत्म—विस्मृति की दशा में था कि यह स्त्री प्रेम से व्यग्र होकर उससे गले लिपट गई। मैजिनी ने चौंककर देखा, बोला—प्यारी मैग्डलीन, तुम हो ! यह कहते—कहते उसकी आंखें भीग गईं। मैग्डलीन ने रोकर कहा—जोजेफ ! और मुंह से कुछ न निकला।
दोनों खामोश कई मिनट तक रोते रहे। आखिर आखिर मैजिनी बोला—तुम यहॉँ कब आयीं, मेगा?
मैग्डलीन— मैं यहॉँ कई महीने से हूँ, मगर तुमसे मिलने की कोई सूरत नहीं निकलती थी। तुम्हें काम—काज में डूबा हुआ देखकर और यह समझकर कि अब तुम्हें मुझ जैसी औरत की हमदर्दी की जरुरत बाकी नहीं रही, तुमसे मिलने की कोई जरुरत नहीं देखती थी। (रुककर) क्यों जोजेफ, यह क्या कारण है कि अकसर लोग तुम्हारी बुराई किया करते हैं? क्या वह अंधे हैं, क्या भगवान् ने उन्हें आंखें नहीं दी?
जोजेफ— मेगा, शायद वह लोग सच कहते होंगे। फिलहाल मुझमें वह गुण नहीं हैं जो मैं शान के मारे अकसर कहा करता हूं कि मुझमें हैं, या जिन्हें तुम अपनी सरलता और पवित्रता के कारण मुझमें मौजूद समझती हो। मेरी कमजोरियां रोज—ब—रोज मुझे मालूम होती जाती हैं।
मैग्डलीन— जभी तो तुम इस काबिल हो कि मैं तुम्हारी पूजा करुं। मुबारक है वह इन्सान जो खुदी को मिटाकर अपने को हेच समझने लगे। जोजेफ, भगवान के लिए मुझे इस तरह अपने से मत अलग करो। मैं तुम्हारी हो गई हूं और मुझे विश्वास है कि तुम वैसे ही पाक—साफ हो जैसा हमारा ईसू था। यह खयाल मेरे मन पर अंकित हो गया है और अगर उसमें जरा कमजोरी आ गई थी तो तुम्हारी इस वक्त की बातचीत ने उसे और भी पक्का कर दिया। बेशक तुम फरिश्ते हो। मगर मुझे अफसोस है कि दुनिया में क्यों लोग इतने तंगदिल और अंधे होते हैं और खासतौर पर वह लोग जिन्हें मैं तंगखयाल से ऊपर समझती थी। रफेती, रसारीनो, पलाइनो, बर्नाबास यह सब के सब तुम्हारे दोस्त हैं। तुम उन्हें अपना दोस्त समझते हो, मगर वह सब तुम्हारे दुश्मन हैं और उन्होंने मुझसे मेरे सामने सैंकड़ों ऐसी बातें तुम्हारे बारे में कही हैं जिनका मैं मरकर भी यकीन नहीं कर सकती। वह सब गलत, झूठ बकते हैं, हमारा प्यारा जोजेफ वैसा ही है जैसा मैं समझती थी, बल्कि उससे भी अच्छा। क्या यह भी तुम्हारी एक जाती खूबी नहीं है कि तुम अपने दुश्मनों को भी अपना दोस्त समझते हो?
जोजेफ से अब सब्र न हो सका। मैग्डलीन के मुरझाये हुए पीले—पीले हाथों को चूमकर कहा—प्यारी मेगा, मेरे दोस्त बेकसूर हैं और मैं खूद दोषी हूं। (रोकर) जोजेफ जो कुछ उन्होंने कहा वह सब मेरे ही इशारे और मर्जी के अनुसार था, मैंने तुमसे दगा की मगर मेरी प्यारी बहन, यह सिर्फ इसलिए था कि तुम मेरी तरफ से बेपरवाह हो जाओ और अपनी जवानी के बाकी दिन खुशी से बसर करो। मैं बहुत शर्मिन्दा हूं। मैंने तुम्हें जरा भी न समझा था। मैं तुम्हारे प्रेम की गहराई से अपरिचित था, क्योंकि मैं जो चाहता था उसका उल्टा असर हुआ। मगर मेगा, मैं माफी चाहता हूं।
मैग्डलीन— हाय जोजेफ, तुम मुझसे माफी मांगते हो, ऐं, तुम जो दुनिया के सब इन्सानों से ज्यादा नेक, ज्यादा सच्चे और ज्यादा लायक हो! मगर हाँ, बेशक तुमने मुझे बिलकुल न समझा था जोजेफ ! यह तुम्हारी गलती थी। मुझे ताज्जुब तो यह है कि तुम्हारा ऐसा पत्थर का दिल कैसे हो गया।
जोजेफ— मेगा, ईश्वर जानता है जब मैंने रफेती को यह सब सिखा—पढ़ाकर तुम्हारे पास भेजा है, उस वक्त मेरे दिल की क्या कैफियत थी। मैं जो दुनिया में नेकनामी को सबसे ज्यादा कीमती समझता हूं और मैं जिसने दुश्मनों के जाती हमलों को कभी पूरी तरह काटे बिना न छोड़ा, अपने मुंह से सिखाऊं कि जाकर मुझे बुरा कहा ! मगर यह केवल इसलिए था कि तुम अपने शरीर का ध्यान रक्खो और मुझे भूल जाओ।
सच्चाई यह थी कि मैजिनी ने मैग्डलीन के प्रेम को रोज—ब—रोज बढ़ते देखकर एक खास हिकमत की थी। उसे खूब मालूम था कि मैग्डलीन के प्रेमियों में से कितने ही ऐसे हैं जो उससे ज्यादा सुंदर, ज्यादा दौलतमंद और ज्यादा अक्लवाले हैं, मगर वह किसी को खयाल में नहीं लाती। मुझमें उसके लिए जो खास आकर्षण है, वह मेरे कुछ खास गुण हैं और अगर मेरे ऐसे मित्र, जिनका आदर मैग्डलीन भी करती है, उससे मेरी शिकायत करके इन गुणों को महत्व उसके दिल से मिटा दें तो वह खुद—ब—खुद भूल जायेगी। पहले तो उसके दोस्त इस काम के लिए तैयार न होते थे मगर इस डर से कि कहीं मैग्डलीन ने घुल—घुलकर जान दे दी तो मैजिनी जिन्दगी भर हमें माफ न करेगा, उन्होंने यह अप्रिय काम स्वीकार कर लिया था। वह स्विट्जरलैंड गये और जहां तक उनकी जबान में ताकत थी, अपने दोस्त की पीठ पीछे बुराई करने में खर्च की। मगर मैग्डलीन पर मुहब्बत का रंग ऐसा गहरा चढ़ा हुआ था कि इन कोशिशों का इसके सिवाय और कोई नतीजा न हो सकता था जो हुआ। वह एक रोज बेकरार होकर घर से निकल खड़ी हुई और रोम में आकर एक सराय में ठहर गई। यहां उसका रोज का नियम था कि मैजिनी के पीछे—पीछे उसकी निगाह से दूर घूमा करती मगर उसे आश्वस्त और अपनी सफलता से प्रसन्न पाकर उसे छेड़ने का साहस न करती थी। आखिरकार जब फिर उस पर असफलताओं का वार हुआ और वह फिर दुनिया में बेकस और बेबस हो गया तो मैग्डलीन ने समझा, अब इसको किसी हमदर्द की जरुरत है। और पाठक देख चुके हैं जिस तरह वह मैजिनी से मिली।
मैजिनी रोम से फिर इंगलिस्तान पहुंचा और यहां एक अरसे तक रहा। सन् १८७0 में उसे खबर मिली कि सिसली की रिआया बगावत पर आमादा है और उन्हें मैदाने—जंग में लाने के लिए एक उभारनेवाले की जरुरत है। बस, वह फौरन सिसली पहुंचा मगर उसके जाने से पहले शाही फौज ने बागियों को दबा दिया था। मैजिनी जहाज से उतरते ही गिरफ्तार करके एक कैदखाने में डाल दिया गया। मगर चूंकि अब वह बहुत बुढडा हो गया था, शाही हुक्कम ने इस डर से कि कहीं वह कैद की तकलीफों से मर जाय तो जनता को संदेह होगा कि बादशाह की प्रेरणा से वह कत्ल कर डाला गया, उसे रिहा कर दिया। निराश और टूटा हुआ दिल लिये मैजिनी फिर स्विट्जरलैंड की तरफ रवाना हुआ। उसकी जिन्दगी की तमाम उम्मीदें खाक में मिल गईं। इसमें शक नहीं कि इटली के एकताबद्ध हो जाने के दिन बहुत पास आ गये थे मगर उसकी हुकूमत की हालत उससे हरगिज बेहतर न थी जैसी आस्ट्रिया या नेपल्स के शासन—काल में। अंतर यह था कि पहले वह एक दूसरी कौम की ज्यादतियों से परेशान थे, अब अपनी कौम के हाथों। इन निरंतर असफलताओं ने दृढ़व्रती मैजिनी के दिल में यह ख्याल पैदा किया कि शायद जनता की राजनीतिक शिक्षा इस हद तक नहीं हुई है, कि वह अपने लिए एक प्रजातांत्रिक शासन—व्यवस्था की बुनियाद डाल सके और इसी नीयत से वह स्विट्जरलैंड जा रहा था कि वहां से एक जबर्दस्त कौमी अखबार निकाले क्योंकि इटली में उसे अपने विचारों को फैलाने की इजाजत न थी। वह रातभर नाम बदलकर रोम में ठहरा। फिर वहां से अपनी जन्मभूमि जिनेवा में आया और अपनी नेक मां की कब्र पर फूल चढ़ाये। इसके बाद स्विट्जरलैंड की तरफ चला और साल भर तक कुछ विश्वसनीय मित्रों की सहायता से अखबार निकालता रहा। मगर निरंतर चिंता और कष्टों ने उसे बिलकुल कमजोर कर दिया था। सन् १८७0 में वह सेहत के ख्याल से इंगलिस्तान आ रहा था कि आल्प्स पर्वत की तलहटियों में निमोनिया की बीमारी ने उसके जीवन का अंत कर दिया और वह एक अरमानों से भरा दिल लिये स्वर्ग को सिधारा। इटली का नाम मरते दम तक उसकी जबान पर था। यहां भी उसके बहुत—से समर्थक और हमदर्द शरीक थे। उसका जनाजा बड़ी धूम से निकला। हजारों आदमी साथ थे और एक बड़ी सुहानी खुली हुई जगह पर पानी के एक साफ चश्मे के किनारे पर इस कौम के लिए मर मिटनेवाले को सुला दिया गया।
मैजिनी को कब्र में सोये हुए आज तीस दिन गुजर गये। शाम का वक्त था, सूरज की पीली किरणें इस ताजा कब्र पर हसरतभरी आंखों से ताक रही हैं। तभी एक अधेड़ खूबसुरत औरत सुहाग के जोड़े पहने, लड़खड़ाती हुई आयी। यह मैग्डलीन थी। उसका चेहरा शोक में डूबा हुआ था, बिलकुल मुर्झाया हुआ, कि जैसे अब इस शरीर में जान बाकी नहीं रही। वह इस कब्र के सिरहाने बैठ गयी और अपने सीने पर खुंसे हुए फूल उस पर चढ़ाये, फिर घुटनों के बल बैठकर सच्चे दिल से दुआ करती रही। जब खूब अंधेरा हो गया, बर्फ पड़ने लगी तो वह चुपके से उठी और खामोश सर झुकाये करीब के एक गांव में जाकर रात बसर की और भोर की वेला अपने मकान की तरफ रवाना हुई।
मैग्डलीन अब अपने घर की मालिक थी। उसकी मां बहुत जमाना हुआ मर चुकी थी। उसने मैजिनी के नाम से एक आश्रम बनवाया और खुद आश्रम की ईसाई लेडियों के लिबास में वहां रहने लगी। मैजिनी का नाम उसके लिए एक निहायत पुरदर्द और दिलकश गीत से कम न था। हमददोर्ं और कद्रदानों के लिए उसका घर उनका अपना घर था। मैजिनी के खत उसकी इंजील और मैजिनी का नाम उसका ईश्वर था। आसपास के गरीब लड़कों और मुफलिस बीवियों के लिए यही बरकत से भरा हुआ नाम जीविका का साधन था। मैग्डलीन तीन बरस तक जिन्दा रही और जब मरी तो अपनी आखिरी वसीयत के मुताबिक उसी आश्रम में दफन की गयी। उसका प्रेम मामूली प्रेम न था, एक पवित्र और निष्कलंक भाव था और वह हमको उन प्रेम—रस में डूबी हुई गोपियों की याद दिलाता है जो श्रीकृष्ण के प्रेम में वृंदावन की कुंजों और गलियों में मंडलाया करती थीं, जो उससे मिले होने पर भी उससे अलग थीं और जिनके दिलों में प्रेम के सिवा और किसी चीज की जगह न थी। मैजिनी का आश्रम आज तक कायम है और गरीब और साधु—संत अभी तक मैजिनी का पवित्र नाम लेकर वहां हर तरह का सुख पाते हैं।