Kavita mein Subah ki Talash! in Hindi Short Stories by Girish Pankaj books and stories PDF | कविता में सुबह की तलाश!

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कविता में सुबह की तलाश!

कविता में सुबह की तलाश !

कुछ लोग कविता में सुबह की तलाश में थे।
समय की ऐसी मार पड़ी कि अधिकांश कविताओं में या तो कड़ी दुपहरी थी या काली-अंधियारी रात। तब एक दिन कविता में सुबह की चिंता करने वालों की एक टीम बनी। इसमें एक-दो बड़े अफसर थे, कुछ नेतानुमा साहित्यकार या साहित्यकारनुमा नेता थे और कुछ व्यापारी थे। जो तथाकथित साहित्यप्रेमी अफसरों के डंडों के डर से चंदा-फंदा देते रहते थे। कुछ साहित्यकार भी थे जो यह मानकर चलते थे कि बड़े अफसर-नेता की पूंछ पकड़कर वे पुरस्कारों के स्वर्ग तक पहुंच सकते हैं।
तो, काव्य-चिंतक जमा हुए और कविता में सुबह की तलाश शुरू हुई। लेकिन सुबह हो तब तो मिले। हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा। आखिर सुबह गई कहां ?
अफसर ने सुबह की चिंता में रात को दारू की बोतल खोली। फिर जब रात ज्यादा गहराने लगी तो उसने सुबह पर कविता लिखी-''सुबह खड़ी है / एक फाइल की तरह/ सचिवालय की / मुंडेर पर।''
सबने खूब तारीफ की। एक ने कहा- ''कविता ज्ञानपीठ पुरस्कार के लायक है।'' दूसरा बोला- ''ज्ञानपीठ इसके लिए छोटी पड़ जाएगी। इसे तो नोबेल पुरस्कार के लिए भेजना चाहिए।''
बड़े अफसर की कविता बहुत बड़ी हो चुकी थी। जिस सुबह की तलाश में दुनिया भटक रही थी, वह सुबर मिली भी तो सचिवालय की मुंडेर पर। अफसर की सबने तारीफकी। उन्होंने कविता में सुबह की तलाश कर ली। व्यापारी ने कहा- ''सुबह बड़ी प्यारी है। आपने यह कविता कब लिखी ?'' अफसर बोला- ''रात को जब चढ़ा ली थी, तब।'' व्यापारी हँसा- ''जब दारू चढ़ जाती है तब कविता अच्छी बनती है न, साहब।''
सुविधाओं के लिए लार टपकाते लोकल लेखक बोले- ''हम लोगों ने ऐसी महान कविता अब तक नहीं पढ़ी। हम आपका नागरिक अभिनंदन करना चाहते हैं। सर, हमारे उस प्रोजेक्ट का क्या हुआ, जिसमें हमारी पुस्तकें छपने वाली थी।'' नशे के सुरूर में झूमता अफसर बोला- ''एक पैग और बनाओ। तुम्हारा प्रोजेक्ट जल्दी 'फ्लोर' पर आ जाएगा।''
उधर कविता की आत्मा रो रही थी। वह न जाने कैसे-कैसे शातिरों के चंगुल में फंसती जा रही है। बड़े अधिकार संपन्न लोग कविता कर रहे हैं और महाकवि बनते जा रहे हैं और जो सचमुच कवि हैं, और जो रौशनी के गीत या सुबह की कविता रच रहे हैं, वह अंधेरे में पड़े कराह रहे हैं। फिर भी लिख रहे हैं - वो सुबह कभी तो आएगी, ऐसे कवि अब नहीं चाहिए जो झोंपड़ी में रहकर पीड़ा की कविता करता हो। अब तो ऐसे कवियों का जमाना है जो चमकदार कारों में घूमता हो, कीमती वस्त्र पहनाता हो और 'फाइव स्टार कल्चर' को 'बिलॉन्ग' करता हो।
कविता में सुबह की तलाश करने वाले अफसर को मैंने गौर से देखा। वैसे तो वह दूसरे मनुष्यों की तरह नज़र आ रहा था। लेकिन अफसर होने के कारण उसके हाव-भाव महाकवि की तरह थे। वह हर किसी को इस अंदाज़ से देख रहा था, जैसे वह एक ऊंचे सिंहासन पर विराजमान है और बाकी सब उसकी प्रजा हैं। जो याचक की मुद्रा में बैठे हैं। मैंने अफसर को बधाई दी- ''आपके कारण कविता में सुबह आ गई।''
अफसर हँसा- ''अरे साहब, हमारे कारण गांवों में हरियाली आ जाती है, खेतों में पानी आ जाता है, नलकूप खुद जाते हैं, भले ही यह सब फाइलों में हो, तो फिर कविता में सुबह कैसे नहीं आएगी। ज़रूर आएगी। हम साहित्य से लेकर प्रशासन तक, हर जगह अपनी टांग घुसेड़े हुए हैं। और हर जगह एक दिखावटी जीवन ही हमारी ट्रेनिंग का मूल तत्व है। मेरी मानो, आप भी कविता में सुबह के लिए संघर्ष करो।'' मैंने कहा- ''महोदय, मैं तो अभी कविता में अंधेरे के खिलाफ ही संघर्ष कर रहा हूं। जब मेरा पेट भर जाएगा और मैं हवाई जहाज में बैठकर उडऩे लगूंगा तब मैं भी कविता में सुबह की तलाश करूंगा।''

अफसर ने 'हिच्च' किया और कहा- ''वाह क्या बात कही है।''