डिजिटल होती दुनिया और हिंदी
प्रभात रंजन
हाल में ही प्रधानमंत्री ने विश्व हिंदी सम्मलेन का उद्घाटन करते हुए जब यह बात कही कि डिजिटल विश्व में तीन भाषाएँ प्रभावी हैं- अंग्रेजी, चीनी और हिंदी. इससे मुझे हाल में ही एक अंग्रेजी अखबार इन्डियन एक्सप्रेस में प्रकाशित खबर की याद आई जिसमें यह कहा गया है कि इंटरनेट पर हिंदी कंटेंट में 94% की वृद्धि हुई है. जबकि इस दौरान इस माध्यम में अंग्रेजी कंटेंट में महज 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
यह हिंदी की बदलती हुई दुनिया है. हिंदी जो हमारी पीढ़ी तक शर्म की भाषा मानी जाती थी. वह गर्व की भाषा भले न बन पाई हो लेकिन सहज उपयोग की भाषा बन चुकी है. इसे एक और धीरे धीरे घटित हो रही तकनीकी क्रांति के माध्यम से समझा जा सकता है. जिससे हिंदी को जोड़ने की कवायद बड़ी तेजी से चल रही है- ईबुक क्रांति. ईबुक ने अमेरिका, यूरोप में किताबों की दुनिया को, किताबों को पढने के तौर तरीकों को और किताबों के बाजार को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है. पुस्तक की दुकानें एक एक कर बंद होती जा रही हैं जबकि किंडल ईबुक रीडर जैसे उपकरणों के माध्यम से पुस्तकें कम कीमत में पाठकों की जेबों में पहुँचती जा रही हैं. पहले किताबें घर में रखी जाती थी आज ईबुक रीडर के माध्यम से वे उपभोक्ता वस्तुओं में बदलती जा रही हैं. आज पाठक उनको सिर्फ सजाने के लिए नहीं बल्कि उपयोगिता और पढने के लिए खरीद रहा है.
इसके लिए भारत में ईबुक रीडर के स्थान पर एंड्रोइड फोन को ही ईबुक के विकल्प के रूप में मानकर उसके माध्यम से पुस्तकों के बाजार को बदलने और उनके ऊपर कब्ज़ा जमाने की होड़ मची हुई है. पिछले कुछ वर्षों में न्यूजहंट नामक एक मोबाइल ऐप ने आपके फोन में ईबुक पहुंचाने की शुरुआत की है. और हैरानी की बात यह है कि पिछले एक साल के भीतर ही इसके हिंदी उपयोगकर्ताओं में जिस तादाद में वृद्धि हुई वह इस बात के लिए आश्वस्त करने वाले हैं कि हिंदी में पाठकों की बहुत बड़ी सम्भावना है. उस ऐप में हर पुस्तक के नीचे उसकी डाउनलोड करने वालों की संख्या भी दी गई होती है. सबसे अधिक बिकने वाली किताबों में प्रेरक पुस्तकें, हेल्प बुक्स आदि के साथ गजानन माधव मुक्तिबोध की किताब ‘भारतीय इतिहास एवं संस्कृति’ भी है. जिसको अब तक ईबुक के रूप में करीब दस हजार पाठक खरीद कर पढ़ चुके हैं.
यहाँ एक छोटा सा आंकड़ा और साझा कर लूं. यह सम्भावना जताई जा रही है कि 2017 तक भारत में इंटरनेट के उपयोगकर्ता 50 करोड़ हो जायेंगे. जिसमें से 49 करोड़ लोग मोबाइल फोन के माध्यम से इंटरनेट का उपयोग करेंगे. इस समय भारत में हर पांचवां उपयोगकर्ता हिंदी वाला है. यह हिंदी का नया बाजार है. पिछले 15 सालों से हिंदी में तकनीकी अनुप्रयोगों के क्षेत्र में काम करने वाले युवा तकनीकविद राजेश रंजन का आकलन इस सम्बन्ध में दिलचस्प है, “यह तय हो चुका है जो नई तकनीक से आए बदलाव को समझेंगे वही बचेंगे। अगला तीन-चार साल हमारा-आपका बचा-खुचा भी बदल देगा। कंप्यूटर और मोबाइल ही आज के कागज कलम दावात हैं। भगवान के लिए तीन-चार महीने के लिए कविता, कहानी भी लिखना बंद करना पड़े तो कीजिए और नई तकनीक को समझने में उन समय को लगाइए। यह हमारे और हमारी भाषा सबके लिए जरूरी है।“
90 के दशक में बाजार के दबाव के सामने हिंदी का साहित्यिक परिदृश्य लड़खड़ा गया था. उसका एक बड़ा कारण यह था कि उस ससमय जो पीढ़ी हिंदी में सक्रिय थी वह 80 के दशक में कम्प्यूटरीकरण का विरोध करते बड़ी हुई थी. अचानक हिंदी की बड़ी-बड़ी पत्रिकाएं बंद होने लगी और हिंदी साहित्य लघु पत्रिकाओं एवं हिंदी विभागों में सिमटता चला गया था. वह फर्स्ट एज मीडिया था, बाजारवाद के नाम पर हिंदी का साहित्यिक समाज जिसका विरोध करने में लगा रहा.
लेकिन सेकेण्ड एज मीडिया को समझने में हिंदी वालों ने देरी नहीं की. पुरानी पीढ़ी ने आरम्भ में उसका विरोध किया लेकिन युवा पीढ़ी के जोश ने उसकी बड़ी ताकत का अहसास उनको जल्दी ही करवा दिया. सेकेण्ड एज मीडिया के माध्यमों ने लेकिन एक बड़ा संकट के निराकरण को दिशा दी. वह संकट था ऐसे मंच का अभाव जो व्यापक स्तर पर हिंदी समाज में सूचनाओं का संचरण करे, बड़े पैमाने पर हिंदी समाज को जोड़े, बड़े पैमाने पर उनके बीच संवाद को संभव बनाए. ब्लॉगिंग, वेबसाइट्स के बाद फेसबुक जैसे माध्यम ने इसको संभव बना दिया है. यह सही है कि आरम्भ में ये माध्यम भड़ास निकालने के माध्यम के रूप में सामने आये. यानी इसके माध्यम से आपसी दुश्मनी निकाली जाने लगी, हिंदी के तथाकथित सामंती मठाधीशों की हवा निकाली जाने लगी. लेकिन आरम्भ में यह हर माध्यम के साथ शायद होता है. आरम्भ में उसका उपयोग निरुद्देश्य होता है, अराजक होता है. बाद में उसका स्थित संयत चेहरा सामने आने लगता है. इंटरनेट और उससे जुड़े सभी अनुप्रयोगों के बारे में यही कहा जा सकता है कि पहले उसे आश्चर्यलोक के रूप में देखा गया, उन्मुक्तता के साथ उसका प्रयोग किया गया. बाद में हिंदी वालों ने उसका सबसे बेहतरीन उपयोग किया.
बहरहाल, सोशल मीडिया का हिंदी में विस्तृत पैमाने पर अनुप्रयोग शुरू हुए अभी ठीक से पांच साल भी नहीं हुए हैं लेकिन इसके सकारात्मक संकेत दिखाई देने लगे हैं. इसने सबसे बड़ा मिथ यह तोड़ा है कि हिंदी में पाठक नहीं हैं. आज कम से कम 5 ऐसे साहित्यिक वेबसाईट हैं, ब्लॉग हैं जिनकी पाठक संख्या लाखों में है. वह भी बिना किसी सनसनी के, बिना अश्लीलता परोसे. जबकि यह आम धारणा रही है कि जो मूल्यहीन साहित्य होता है, जो लोकप्रियता के मानदंडों के ऊपर आधारित होता है उसका ही बड़ा पाठक वर्ग होता है. उदाहरण के रूप में जासूसी, रूमानी साहित्य की धारा का जिक्र किया जाता रहा है. लेकिन सोशल मीडिया ने यह दिखा दिया है कि अच्छे और बुरे साहित्य के सांचे अकादमिक ही हैं. फेसबुक जैसे माध्यम हों या ब्लॉग्स, वेबसाइट्स तथाकथित गंभीर समझे जाने वाले, वैचारिक कहे जाने वाले साहित्य के लिए पाठक कम नहीं हैं बल्कि बढे ही हैं. यह बात कही जा सकती है कि टीवी क्रांति के दौर में जो पाठक हिंदी से जुदा हो गया था सोशल मीडिया ने उसकी वापसी करवा दी है.
कुछ समय पहले तक पुस्तकों के प्रचार का एकमात्र सुगम माध्यम पत्रिकाओं में समीक्षा प्रकाशित करवाना होता था. लघु पत्रिकाओं के पाठक सीमित होते हैं, बड़ी पत्र पत्रिकाएं हिंदी में न के बराबर रह गई हैं. ऐसे में जिन पुस्तकों की समीक्षाएं छप जाती थीं उनके बारे में तो पाठकों को पता चल जाता था लेकिन अनेक अच्छी पुस्तकें भी समीक्षाओं के प्रकाशन न होने के कारण गुमनाम रह जाती थी. पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा के लिए चयन का आधार अक्सर जनतांत्रिक नहीं होता है जिसकी वजह से जरूरी नहीं है कि गुणवत्ता के आधार पर ही समीक्षा के लिए पुस्तकों का चयन किया जाए. लेकिन आज सोशल मीडिया ने अचानक से पत्रिकाओं में की जाने वाली समीक्षाओं की वह तानाशाही जाती रही. आज सोशल मीडिया पर किसी पुस्तक की खूब चर्चा हो जाए तो वह अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है.
ऐसा नहीं है कि सभी कुछ सकारात्मक ही हो. अभी इंटरनेट के माध्यम से से, ईबुक के माध्यम से जो कंटेंट हिंदी में विकसित हो रहा है उसमें बहुत हद तक बाजार की जरूरतों का ध्यान रखा जाता है, लोकरुचि को प्रमुखता दी जाती है. लेकिन आरम्भ में बाजार बनाने के लिए शायद यह जरूरी भी होता है. जब बाजार बन जाता है तो श्रेष्ठता और लोकप्रियता के मानक तय होते हैं.
शायद यह बात कुछ लोगों को अरुचिकर लगे लेकिन बाजार के विरोध के कारण ही हिंदी का साहित्य 90 के दशक में हाशिये पर चला गया था. बाजार को सही ढंग से समझने के कारण ही सकेंड एज मीडिया के दौर में हिंदी की धमक सुनाई देने लगी है. जरूरत इस बात की है कि गंभीर लोग भी डिजिटल क्रांति से जुड़ें और उसको एक वैचारिक आधार देने में अपनी सामाजिक भूमिका का निर्वाह करें.