Nirvasan in Hindi Short Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | निर्वासन

Featured Books
Categories
Share

निर्वासन

निर्वासन

मुंशी प्रेमचंद


© COPYRIGHTS

This book is copyrighted content of the concerned author as well as MatruBharti.

MatruBharti has exclusive digital publishing rights of this book.

Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.

MatruBharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.

जन्म

प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन्‌ १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।

जीवन

धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।

शादी

आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, ष्उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।.......ष् उसके साथ — साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है ष्पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दियारू मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।ष् हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।

विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।

शिक्षा

अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने — जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।

साहित्यिक रुचि

गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो — तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।

आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद ष्तिलस्मे — होशरुबाष् पढ़ डाली।

अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी — बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।

तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ — साथ रहा।

प्रेमचन्द की दूसरी शादी

सन्‌ १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन्‌ १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।

यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात्‌ आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।

व्यक्तित्व

सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा ष्हमारा काम तो केवल खेलना है— खूब दिल लगाकर खेलना— खूब जी— तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात्‌ — पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, ष्तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।ष् कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी—शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।

जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं ष्कि जाड़े के दिनों में चालीस — चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।ष्

प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी—शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।

ईश्वर के प्रति आस्था

जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे — धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा ष्तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो — जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।ष्

मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था — ष्जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।ष्

प्रेमचन्द की कृतियाँ

प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन्‌ १८९४ ई० में ष्होनहार बिरवार के चिकने—चिकने पातष् नामक नाटक की रचना की। सन्‌ १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय ष्रुठी रानीष् नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन्‌ १९०४—०५ में ष्हम खुर्मा व हम सवाबष् नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा—जीवन और विधवा—समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।

जब कुछ आर्थिक निजिर्ंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।

इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।

ष्सेवा सदनष्, ष्मिल मजदूरष् तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए ष्महाजनी सभ्यताष् नाम से एक लेख भी लिखा था।

मृत्यु

सन्‌ १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने ष्प्रगतिशील लेखक संघष् की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण—कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।

निर्वासन

परशुराम वहीं वहीं दालान में ठहरो!

मर्यादा क्यों, क्या मुझमें कुछ छूत लग गई!

परशुराम पहले यह बताओं तुम इतने दिनों से कहां रहीं, किसके साथ रहीं, किस तरह रहीं और फिर यहां किसके साथ आयीं? तब, तब विचार...देखी जाएगी।

मर्यादा क्या इन बातों को पूछने का यही वक्त हैय फिर अवसर न मिलेगा?

परशुराम हां, यही बात है। तुम स्नान करके नदी से तो मेरे साथ ही निकली थीं। मेरे पीछे—पीछे कुछ देर तक आयीं भीय मै पीछे फिर—फिर कर तुम्हें देखता जाता था, फिर एकाएक तुम कहां गायब हो गयीं?

मर्यादा तुमने देखा नहीं, नागा साधुओं का एक दल सामने से आ गया। सब आदमी इधर—उधर दौड़ने लगे। मै भी धक्के में पड़कर जाने किधर चली गई। जरा भीड़ कम हुई तो तुम्हें ढूंढ़ने लगी। बासू का नाम ले—ले कर पुकारने लगी, पर तुम न दिखाई दिये।

परशुराम अच्छा तब?

मर्यादा तब मै एक किनारे बैठकर रोने लगी, कुछ सूझ ही न पड़ता कि कहां जाऊं, किससे कहूं, आदमियों से डर लगता था। संध्या तक वहीं बैठी रोती रही।

परशुराम इतना तूल क्यों देती हो? वहां से फिर कहां गयीं?

मर्यादा संध्या को एक युवक ने आ कर मुझसे पूछा, तुम्हारे घर के लोग कहीं खो तो नहीं गए है? मैने कहा हां। तब उसने तुम्हारा नाम, पता, ठिकाना पूछा। उसने सब एक किताब पर लिख लिया और मुझसे बोला मेरे साथ आओ, मै तुम्हें तुम्हारे घर भेज दूंगा।

परशुराम वह आदमी कौन था?

मर्यादा वहां की सेवा—समिति का स्वयंसेवक था।

परशुराम तो तुम उसके साथ हो लीं?

मर्यादा और क्या करती? वह मुझे समिति के कार्यलय में ले गया। वहां एक शामियाने में एक लम्बी दाढ़ीवाला मनुष्य बैठा हुआ कुछ लिख रहा था। वही उन सेवकों का अध्यक्ष था। और भी कितने ही सेवक वहां खड़े थे। उसने मेरा पता—ठिकाना रजिस्टर में लिखकर मुझे एक अलग शामियाने में भेज दिया, जहां और भी कितनी खोयी हुई स्त्रियों बैठी हुई थीं।

परशुराम तुमने उसी वक्त अध्यक्ष से क्यों न कहा कि मुझे पहुंचा दीजिए?

पर्यादा मैने एक बार नहीं सैकड़ो बार कहाय लेकिन वह यह कहते रहे, जब तक मेला न खत्म हो जाए और सब खोयी हुई स्त्रियां एकत्र न हो जाएं, मैं भेजने का प्रबन्ध नहीं कर सकता। मेरे पास न इतने आदमी हैं, न इतना धन?

परशुराम धन की तुम्हे क्या कमी थी, कोई एक सोने की चीज बेच देती तो काफी रूपए मिल जाते।

मर्यादा आदमी तो नहीं थे।

परशुराम तुमने यह कहा था कि खर्च की कुछ चिन्ता न कीजिए, मैं अपने गहने बेचकर अदा कर दूंगी?

मर्यादा सब स्त्रियां कहने लगीं, घबरायी क्यों जाती हो? यहां किस बात का डर है। हम सभी जल्द अपने घर पहुंचना चाहती हैय मगर क्या करें? तब मैं भी चुप हो रही।

परशुराम और सब स्त्रियां कुएं में गिर पड़ती तो तुम भी गिर पड़ती?

मर्यादा जानती तो थी कि यह लोग धर्म के नाते मेरी रक्षा कर रहे हैं, कुछ मेरे नौकरी या मजूर नहीं हैं, फिर आग्रह किस मुंह से करती? यह बात भी है कि बहुत—सी स्त्रियों को वहां देखकर मुझे कुछ तसल्ली हो गईग्‌ परशुराम हां, इससे बढ़कर तस्कीन की और क्या बात हो सकती थी? अच्छा, वहां के दिन तस्कीन का आनन्द उठाती रही? मेला तो दूसरे ही दिन उठ गया होगा?

मर्यादा रात— भर मैं स्त्रियों के साथ उसी शामियाने में रही।

परशुराम अच्छा, तुमने मुझे तार क्यों न दिलवा दिया?

मर्यादा मैंने समझा, जब यह लोग पहुंचाने की कहते ही हैं तो तार क्यों दूं?

परशुराम खैर, रात को तुम वहीं रही। युवक बार—बार भीतर आते रहे होंगे?

मर्यादा केवल एक बार एक सेवक भोजन के लिए पूछने आयास था, जब हम सबों ने खाने से इन्कार कर दिया तो वह चला गया और फिर कोई न आया। मैं रात—भर जगती रही।

परशुराम यह मैं कभी न मानूंगा कि इतने युवक वहां थे और कोई अन्दर न गया होगा। समिति के युवक आकाश के देवता नहीं होत। खैर, वह दाढ़ी वाला अध्यक्ष तो जरूर ही देखभाल करने गया होगा?

मर्यादा हां, वह आते थे। पर द्वार पर से पूछ—पूछ कर लौट जाते थे। हां, जब एक महिला के पेट में दर्द होने लगा था तो दो—तीन बार दवाएं पिलाने आए थे।

परशुराम निकली न वही बात!मै इन धूतोर्ं की नस—नस पहचानता हूं। विशेषकर तिलक—मालाधारी दढि़यलों को मैं गुरू घंटाल ही समझता हूं। तो वे महाशय कई बार दवाई देने गये? क्यों तुम्हारे पेट में तो दर्द नहीं होने लगा था.?

मर्यादा तुम एक साधु पुरूष पर आक्षेप कर रहे हो। वह बेचारे एक तो मेरे बाप के बराबर थे, दूसरे आंखे नीची किए रहने के सिवाय कभी किसी पर सीधी निगाह नहीं करते थे।

परशुराम हां, वहां सब देवता ही देवता जमा थे। खैर, तुम रात—भर वहां रहीं। दूसरे दिन क्या हुआ?

मर्यादा दूसरे दिन भी वहीं रही। एक स्वयंसेवक हम सब स्त्रियों को साथ में लेकर मुख्य—मुख्य पवित्र स्थानो का दर्शन कराने गया। दो पहर को लौट कर सबों ने भोजन किया।

परशुराम तो वहां तुमने सैर—सपाटा भी खूब किया, कोई कष्ट न होने पाया। भोजन के बाद गाना—बजाना हुआ होगा?

मर्यादा गाना बजाना तो नहीं, हां, सब अपना—अपना दुखड़ा रोती रहीं, शाम तक मेला उठ गया तो दो सेवक हम लोगों को ले कर स्टेशन पर आए।

परशुराम मगर तुम तो आज सातवें दिन आ रही हो और वह भी अकेली?

मर्यादा स्टेशन पर एक दुर्घटना हो गयी।

परशुराम हां, यह तो मैं समझ ही रहा था। क्या दुर्घटना हुई?

मर्यादा जब सेवक टिकट लेने जा रहा था, तो एक आदमी ने आ कर उससे कहा यहां गोपीनाथ के धर्मशाला में एक आदमी ठहरे हुए हैं, उनकी स्त्री खो गयी है, उनका भला—सास नाम है, गोरे—गोरे लम्बे—से खूबसूरत आदमी हैं, लखनऊ मकान है, झवाई टोले में। तुम्हारा हुलिया उसने ऐसा ठीक बयान किया कि मुझे उसस पर विश्वास आ गया। मैं सामने आकर बोली, तुम बाबूजी को जानते हो? वह हंसकर बोला, जानता नहीं हूं तो तुम्हें तलाश क्यो करता फिरता हूं। तुम्हारा बच्चा रो—रो कर हलकान हो रहा है। सब औरतें कहने लगीं, चली जाओं, तुम्हारे स्वामीजी घबरा रहे होंगे। स्वयंसेवक ने उससे दो—चार बातें पूछ कर मुझे उसके साथ कर दिया। मुझे क्या मालूम था कि मैं किसी नर—पिशाच के हाथों पड़ी जाती हूं। दिल मैं खुशी थी किअब बासू को देखूंगी तुम्हारे दर्शन करूंगी। शायद इसी उत्सुकता ने मुझे असावधान कर दिया।

परशुराम तो तुम उस आदमी के साथ चल दी? वह कौन था?

मर्यादा क्या बतलाऊं कौन था? मैं तो समझती हूं, कोई दलाल था?

परशुराम तुम्हे यह न सूझी कि उससे कहतीं, जा कर बाबू जी को भेज दो?

मर्यादा अदिन आते हैं तो बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।

परशुराम कोई आ रहा है।

मर्यादा मैं गुसलखाने में छिपी जाती हूं।

परशुराम आओ भाभी, क्या अभी सोयी नहीं, दस तो बज गए होंगे।

भाभी वासुदेव को देखने को जी चाहता था भैया, क्या सो गया?

परशुराम हां, वह तो अभी रोते—रोते सो गया।

भाभी कुछ मर्यादा का पता मिला? अब पता मिले तो भी तुम्हारे किस काम की। घर से निकली स्त्रियां थान से छूटी हुई घोड़ी हैं। जिसका कुछ भरोसा नहीं।

परशुराम कहां से कहां लेकर मैं उसे नहाने लगा।

भाभी होनहार हैं, भैया होनहार। अच्छा, तो मै जाती हूं।

मर्यादा (बाहर आकर) होनहार नहीं हूं, तुम्हारी चाल है। वासुदेव को प्यार करने के बहाने तुम इस घर पर अधिकार जमाना चाहती हो।

परशुराम बको मत! वह दलाल तुम्हें कहां ले गया।

मर्यादा स्वामी, यह न पूछिए, मुझे कहते लज्ज आती है।

परशुराम यहां आते तो और भी लज्ज आनी चाहिए थी।

मर्यादा मै परमात्मा को साक्षी देती हूं, कि मैंने उसे अपना अंग भी स्पर्श नहीं करने दिया।

पराशुराम उसका हुलिया बयान कर सकती हो।

मर्यादा सांवला सा छोटे डील डौल काआदमी था।नीचा कुरता पहने हुए था।

परशुराम गले में ताबीज भी थी?

मर्यादा हां,थी तो।

परशुराम वह धर्मशाले का मेहतर था।मैने उसे तुम्हारे गुम हो जाने की चर्चा की थी। वहउस दुष्ट ने उसका वह स्वांग रचा।

मर्यादा मुझे तो वह कोई ब्रह्मण मालूम होता था।

परशुराम नहीं मेहतर था। वह तुम्हें अपने घर ले गया?

मर्यादा हां, उसने मुझे तांगे पर बैठाया और एक तंग गली में, एक छोटे— से मकान के अन्दर ले जाकर बोला, तुम यहीं बैठो, मुम्हारें बाबूजी यहीं आयेंगे। अब मुझे विदित हुआ कि मुझे धोखा दिया गया। रोने लगी। वह आदमी थोडी देर बाद चला गया और एक बुढिया आ कर मुझे भांति—भांति के प्रलोभन देने लगी। सारी रात रो—रोकर काटी दूसरे दिन दोनों फिर मुझे समझाने लगे कि रो—रो कर जान दे दोगी, मगर यहां कोई तुम्हारी मदद को न आयेगा। तुम्हाराएक घर डूट गया। हम तुम्हे उससे कहीं अच्छा घर देंगें जहां तुम सोने के कौर खाओगी और सोने से लद जाओगी। लब मैने देखा किक यहां से किसी तरह नहीं निकल सकती तो मैने कौशल करने का निश्चय किया।

परशुराम खैर, सुन चुका। मैं तुम्हारा ही कहना मान लेता हूं कि तुमने अपने सतीत्व की रक्षा की, पर मेरा हृदय तुमसे घृणा करता है, तुम मेरे लिए फिर वह नहीं निकल सकती जो पहले थीं। इस घर में तुम्हारे लिए स्थान नहीं है।

मर्यादा स्वामी जी, यह अन्याय न कीजिए, मैं आपकी वही स्त्री हूं जो पहले थी। सोचिए मेरी दशा क्या होगी?

परशुराम मै यह सब सोच चुका और निश्चय कर चुका। आज छरू दिन से यह सोच रहा हूं। तुम जानती हो कि मुझे समाज का भय नहीं। छूत—विचार को मैंने पहले ही तिलांजली दे दी, देवी—देवताओं को पहले ही विदा कर चुकारूपर जिस स्त्री पर दूसरी निगाहें पड चुकी, जो एक सप्ताह तक न—जाने कहां और किस दशा में रही, उसे अंगीकार करना मेरे लिए असम्भव है। अगर अन्याय है तो ईश्वर की ओर से है, मेरा दोष नहीं।

मर्यादा मेरी विवशमा पर आपको जरा भी दया नहीं आती?

परशुराम जहां घृणा है, वहां दया कहां? मै अब भी तुम्हारा भरण—पोषण करने को तैयार हूं।जब तक जीऊगां, तुम्हें अन्न—वस्त्र का कष्ट न होगा पर तुम मेरी स्त्री नहीं हो सकतीं।

मर्यादा मैं अपने पुत्र का मुह न देखूं अगर किसी ने स्पर्श भी किया हो।

परशुराम तुम्हारा किसी अन्य पुरूष के साथ क्षण—भर भी एकान्त में रहना तुम्हारे पतिव्रत को नष्ट करने के लिए बहुत है। यह विचित्र बंधन है, रहे तो जन्म—जन्मान्तर तक रहेरू टूटे तो क्षण—भर में टूट जाए। तुम्हीं बताओं, किसी मुसलमान ने जबरदस्ती मुझे अपना उच्छिट भोलन खिला दियया होता तो मुझे स्वीकार करतीं?

मर्यादा वह.... वह.. तो दूसरी बात है।

परशुराम नहीं, एक ही बात है। जहां भावों का सम्बन्ध है, वहां तर्क और न्याय से काम नहीं चलता। यहां तक अगर कोई कह दे कि तुम्हारें पानी को मेहतर ने छू निया है तब भी उसे ग्रहण करने से तुम्हें घृणा आयेगी। अपने ही दिन से सोचो कि तुम्हारेंसाथ न्याय कर रहा हूं या अन्याय।

मर्यादा मै तुम्हारी छुई चीजें न खाती, तुमसे पृथक रहती पर तुम्हें घर से तो न निकाल सकती थी। मुझे इसलिए न दुत्कार रहे हो कि तुम घर के स्वामी हो और कि मैं इसका पलन करतजा हूं।

परशुराम यह बात नहीं है। मै इतना नीच नहीं हूं।

मर्यादा तो तुम्हारा यहीं अतिमं निश्चय है?

परशुराम हां, अंतिम।

मर्यादा—— जानते हो इसका परिणाम क्या होगा?

परशुराम जानता भी हूं और नहीं भी जानता।

मर्यादा मुझे वासुदेव ले जाने दोगे?

परशुराम वासुदेव मेरा पुत्र है।

मर्यादा उसे एक बार प्यार कर लेने दोगे?

परशुराम अपनी इच्छा से नहीं, तुम्हारी इच्छा हो तो दूर से देख सकती हो।

मर्यादा तो जाने दो, न देखूंगी। समझ लूंगी कि विधवा हूं और बांझ भी। चलो मन, अब इस घर में तुम्हारा निबाह नहीं है। चलो जहां भाग्य ले जाय।

परीक्षा

नादिरशाह की सेना में दिल्ली के कत्लेआम कर रखा है। गलियों मे खून की नदियां बह रही हैं। चारो तरफ हाहाकार मचा हुआ है। बाजार बंद है। दिल्ली के लोग घरों के द्वार बंद किये जान की खैर मना रहे है। किसी की जान सलामत नहीं है। कहीं घरों में आग लगी हुई है, कहीं बाजार लुट रहा हैय कोई किसी की फरियाद नहीं सुनता। रईसों की बेगमें महलो से निकाली जा रही है और उनकी बेहुरती की जाती है। ईरानी सिपाहियों की रक्त पिपासा किसी तरह नहीं बुझती। मानव हृदया की क्रूरता, कठोरता और पैशाचिकता अपना विकरालतम रूप धारण किये हुए है। इसी समया नादिर शाह ने बादशाही महल में प्रवेश किया।

दिल्ली उन दिनों भोग—विलास की केंद्र बनी हुई थी। सजावट और तकल्लुफ के सामानों से रईसों के भवन भरे रहते थे। स्त्रियों को बनाव—सिगांर के सिवा कोई काम न था। पुरूषों को सुख—भोग के सिवा और कोई चिन्ता न थी। राजीनति का स्थान शेरो—शायरी ने ले लिया था। समस्त प्रन्तो से धन खिंच—खिंच कर दिल्ली आता था। और पानी की भांति बहाया जाता था। वेश्याओं की चादीं थी। कहीं तीतरों के जोड़ होते थे, कहीं बटेरो और बुलबुलों की पलियां ठनती थीं। सारा नगर विलास निद्रा में मग्न था। नादिरशाह शाही महल में पहुंचा तो वहां का सामान देखकर उसकी आंखें खुल गयीं। उसका जन्म दरिद्र—घर में हुआ था। उसका समसत जीवन रणभूमि में ही कटा था। भोग विलास का उसे चसका न लगा था। कहां रण—क्षेत्र के कष्ट और कहां यह सुख—साम्राज्य। जिधर आंख उठती थी, उधर से हटने का नाम न लेती थी।

संध्या हो गयी थी। नादिरशाह अपने सरदारों के साथ महल की सैर करता और अपनी पसंद की चीजों को बटोरता हुआ दीवाने—खास में आकर कारचोबी मसनद पर बैठ गया, सरदारों को वहां से चले जाने का हुक्म दे दिया, अपने सबहथियार रख दिये और महल के दरोगा को बुलाकर हुक्म दिया मै शाही बेगमों का नाच देखना चाहता हूं। तुम इसी वक्त उनको सुंदर वस्त्राभूषणों से सजाकर मेरे सामने लाओं खबरदार, जरा भी देर न हो! मै कोई उज्र या इनकार नहीं सुन सकता।

दारोगा ने यह नादिरशाही हुक्म सुना तो होश उड़ गये। वह महिलएं जिन पर सूर्य की टि भी नहीं पड़ी कैसे इस मजलिस में आयेंगी! नाचने का तो कहना ही क्या! शाही बेगमों का इतना अपमान कभी न हुआ था। हा नरपिशाच! दिल्ली को खून से रंग कर भी तेरा चित्त शांत नहीं हुआ। मगर नादिरशाह के सम्मुख एक शब्द भी जबान से निकालना अग्नि के मुख में कूदना था! सिर झुकाकर आदाग लाया और आकर रनिवास में सब वेगमों को नादीरशाही हुक्म सुना दियाय उसके साथ ही यह इत्त्ला भी दे दी कि जरा भी ताम्मुल न हो , नादिरशाह कोई उज्र या हिला न सुनेगा! शाही खानदोन पर इतनी बड़ी विपत्ति कभी नहीं पड़ीय पर अस समय विजयी बादशाह की आज्ञा को शिरोधार्य करने के सिवा प्राण—रक्षा का अन्य कोई उपाय नहीं था।

बेगमों ने यह आज्ञा सुनी तो हतबुद्धि—सी हो गयीं। सारेरनिवास में मातम—सा छा गया। वह चहल—पहल गायब हो गयीं। सैकडो हृदयों से इस सहायता—याचक लोचनों से देखा, किसी ने खुदा और रसूल का सुमिरन कियाय पर ऐसी एक महिला भी न थी जिसकी निगाह कटार या तलवार की तरफ गयी हो। यद्यपी इनमें कितनी ही बेगमों की नसों में राजपूतानियों का रक्त प्रवाहित हो रहा थाय पर इंद्रियलिप्सा ने जौहर की पुरानी आग ठंडी कर दी थी। सुख—भोग की लालसा आत्म सम्मान का सर्वनाश कर देती है। आपस में सलाह करके मर्यादा की रक्षा का कोई उपाया सोचने की मुहलत न थी। एक—एक पल भाग्य का निर्णय कर रहा था। हताश का निर्णय कर रहा था। हताश होकर सभी ललपाओं ने पापी के सम्मुख जाने का निश्चय किया। आंखों से आसूं जारी थे, अश्रु—सिंचित नेत्रों में सुरमा लगाया जा रहा था और शोक—व्यथित हृदयां पर सुगंध का लेप किया जा रहा था। कोई केश गुंथतीं थी, कोई मांगो में मोतियों पिरोती थी। एक भी ऐसे पक्के इरादे की स्त्री न थी, जो इश्वर पर अथवा अपनी टेक पर, इस आज्ञा का उल्लंघन करने का साहस कर सके।

एक घंटा भी न गुजरने पाया था कि बेगमात पूरे—के—पूरे, आभूषणों से जगमगातीं, अपने मुख की कांति से बेले और गुलाब की कलियों को लजातीं, सुगंध की लपटें उड़ाती, छमछम करती हुई दीवाने—खास में आकर नादिरशाह के सामने खड़ी हो गयीं।

नादिर शाह ने एक बार कनखियों से परियों के इस दल को देखा और तब मसनद की टेक लगाकर लेट गया। अपनी तलवार और कटार सामने रख दी। एक क्षण में उसकी आंखें झपकने लगीं। उसने एक अगड़ाई ली और करवट बदल ली। जरा देर में उसके खर्राटों की अवाजें सुनायी देने लगीं। ऐसा जान पड़ा कि गहरी निद्रा में मग्न हो गया है। आध घंटे तक वह सोता रहा और बेगमें ज्यों की त्यों सिर निचा किये दीवार के चित्रों की भांति खड़ी रहीं। उनमें दो—एक महिलाएं जो ढीठ थीं, घूघंट की ओट से नादिरशाह को देख भी रहीं थीं और आपस में दबी जबान में कानाफूसी कर रही थीं कैसा भंयकर स्वरूप है! कितनी रणोन्मत आंखें है! कितना भारी शरीर है! आदमी काहे को है, देव है।

सहसा नादिरशाह की आंखें खुल गई परियों का दल पूर्ववत्‌ खड़ा था। उसे जागते देखकर बेगमों ने सिर नीचे कर लिये और अंग समेट कर भेड़ो की भांति एक दूसरे से मिल गयीं। सबके दिल धड़क रहे थे कि अब यह जालिम नाचने—गाने को कहेगा, तब कैसे होगा! खुदा इस जालिम से समझे! मगर नाचा तो न जायेगा। चाहे जान ही क्यों न जाय। इससे ज्यादा जिल्लत अब न सही जायगी।

सहसा नादिरशाह कठोर शब्दों में बोला ऐ खुदा की बंदियो, मैने तुम्हारा इम्तहान लेने के लिए बुलाया था और अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि तुम्हारी निसबत मेरा जो गुमान था, वह हर्फ—ब—हर्फ सच निकला। जब किसी कौम की औरतों में गैरत नहीं रहती तो वह कौम मुरदा हो जाती है।

देखना चाहता था कि तुम लोगों में अभी कुछ गैरत बाकी है या नहीं। इसलिए मैने तुम्हें यहां बुलाया था। मै तुमहारी बेहुरमली नहीं करना चाहता था। मैं इतना ऐश का बंदा नहीं हूं , वरना आज भेड़ो के गल्ले चाहता होता। न इतना हवसपरस्त हूं, वरना आज फारस में सरोद और सितार की तानें सुनाता होता, जिसका मजा मै हिंदुस्तानी गाने से कहीं ज्यादा उठा सकता हूं। मुझे सिर्फ तुम्हारा इम्तहान लेना था। मुझे यह देखकर सचा मलाल हो रहा है कि तुममें गैरत का जौहर बाकी न रहा। क्या यह मुमकिन न था कि तुम मेरे हुक्म को पैरों तले कुचल देतीं? जब तुम यहां आ गयीं तो मैने तुम्हें एक और मौका दिया। मैने नींद का बहाना किया। क्या यह मुमकिन न था कि तुममें से कोई खुदा की बंदी इस कटार को उठाकर मेरे जिगर में चुभा देती। मै कलामेपाक की कसम खाकर कहता हूं कि तुममें से किसी को कटार पर हाथ रखते देखकर मुझे बेहद खुशी होती, मै उन नाजुक हाथों के सामने गरदन झुका देता! पर अफसोस है कि आज तैमूरी खानदान की एक बेटी भी यहां ऐसी नहीं निकली जो अपनी हुरमत बिगाड़ने पर हाथ उठाती! अब यह सल्लतनत जिंदा नहीं रह सकती। इसकी हसती के दिन गिने हुए हैं। इसका निशान बहुत जल्द दुनिया से मिट जाएगा। तुम लोग जाओ और हो सके तो अब भी सल्तनत को बचाओ वरना इसी तरह हवस की गुलामी करते हुए दुनिया से रुखसत हो जाओगी।

स्त्री और पुरुष

विपिन बाबू के लिए स्त्री ही संसार की सुन्दर वस्तु थी। वह कवि थे और उनकी कविता के लिए स्त्रियों के रुप और यौवन की प्रशसा ही सबसे चिंताकर्षक विषय था। उनकी ष्टि में स्त्री जगत में व्याप्त कोमलता, माधुर्य और अलंकारों की सजीव प्रतिमा थी। जबान पर स्त्री का नाम आते ही उनकी आंखे जगमगा उठती थीं, कान खड़ें हो जाते थे, मानो किसी रसिक ने गाने की आवाज सुन ली हो। जब से होश संभाला, तभी से उन्होंने उस सुंदरी की कल्पना करनी शुरु की जो उसके हृदय की रानी होगीय उसमें ऊषा की प्रफुल्लता होगी, पुष्प की कोमलता, कुंदन की चमक, बसंत की छवि, कोयल की ध्वनि वह कवि वर्णित सभी उपमाओं से विभूषित होगी। वह उस कल्पित मूत्रि के उपासक थे, कविताओं में उसका गुण गाते, वह दिन भी समीप आ गया था, जब उनकी आशाएं हरे—हरे पत्तों से लहरायेंगी, उनकी मुरादें पूरी हो होगी। कालेज की अंतिम परीक्षा समाप्त हो गयी थी और विवाह के संदेशे आने लगे थे।

विवाह तय हो गया। बिपिन बाबू ने कन्या को देखने का बहुत आग्रह किया, लेकिन जब उनके मांमू ने विश्वास दिलाया कि लड़की बहुत ही रुपवती है, मैंने अपनी आंखों से देखा है, तब वह राजी हो गये। धूमधाम से बारात निकली और विवाह का मुहूर्त आया। वधू आभूषणों से सजी हुई मंडप में आयी तो विपिन को उसके हाथ—पांव नजर आये। कितनी सुंदर उंगलिया थीं, मानों दीप—शिखाएं हो, अंगो की शोभा कितनी मनोहारिणी थी। विपिन फूले न समाये। दूसरे दिन वधू विदा हुई तो वह उसके दर्शनों के लिए इतने अधीर हुए कि ज्यों ही रास्ते में कहारों ने पालकी रखकर मुंह—हाथ धोना शुरु किया, आप चुपके से वधू के पास जा पहुंचे। वह घूंघट हटाये, पालकी से सिर निकाले बाहर झांक रही थी। विपिन की निगाह उस पर पड़ गयी। यह वह परम सुंदर रमणी न थी जिसकी उन्होने कल्पना की थी, जिसकी वह बरसों से कल्पना कर रहे थे———यह एक चौड़े मुंह, चिपटी नाक, और फुले हुए गालों वाली कुरुपा स्त्री थी। रंग गोरा था, पर उसमें लाली के बदले सफदी थीय और फिर रंग कैसा ही सुंदर हो, रुप की कमी नहीं पूरी कर सकता। विपिन का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया———हां! इसे मेरे ही गले पड़ना था। क्या इसके लिए समस्त संसार में और कोई न मिलता था? उन्हें अपने मांमू पर क्रोध आया जिसने वधू की तारीफों के पुल बांध दिये थे। अगर इस वक्त वह मिल जाते तो विपिन उनकी ऐसी खबर लेता कि वह भी याद करते।

जब कहारों ने फिर पालकियां उठायीं तो विपिन मन में सोचने लगा, इस स्त्री के साथ कैसे मैं बोलूगा, कैसे इसके साथ जीवन काटंगा। इसकी ओर तो ताकने ही से घृणा होती है। ऐसी कुरुपा स्त्रियां भी संसार में हैं, इसका मुझे अब तक पता न था। क्या मुंह ईश्वर ने बनाया है, क्या आंखे है! मैं और सारे ऐबों की ओर से आंखे बंद कर लेता, लेकिन वह चौड़ा—सा मुंह! भगवान्! क्या तुम्हें मुझी पर यह वज्रपात करना था।

विपिन हो अपना जीवन नरक—सा जान पड़ता था। वह अपने मांमू से लड़ा। ससुर को लंबा खर्रा लिखकर फटकारा, मां—बाप से हुज्जत की और जब इससे शांति न हुई तो कहीं भाग जाने की बात सोचने लगा। आशा पर उसे दया अवश्य आती थी। वह अपने का समझाता कि इसमें उस बेचारी का क्या दोष है, उसने जबरदस्ती तो मुझसे विवाह किया नहीं। लेकिन यह दया और यह विचार उस घृणा को न जीत सकता था जो आशा को देखते ही उसके रोम—रोम में व्याप्त हो जाती थी। आशा अपने अच्छे—से—अच्छे कपड़े पहनतीय तरह—तरह से बाल संवारती, घंटो आइने के सामने खड़ी होकर अपना श्रृंगार करती, लेकन विपिन को यह शुतुरगमज—से मालूम होते। वह दिल से चाहती थी कि उन्हें प्रसन्न करुं, उनकी सेवा करने के लिए अवसर खोजा करती थीय लेकिन विपिन उससे भागा—भागा फिरता था। अगर कभी भेंट हो जाती तो कुछ ऐसी जली—कटी बातें करने लगता कि आशा रोती हुई वहां से चली जाती।

सबसे बुरी बात यह थी कि उसका चरित्र भ्रष्ट होने लगा। वह यह भूल जाने की चेष्टा करने लगा कि मेरा विवाह हो गया है। कई—कई दिनों क आशा को उसके दर्शन भी न होते। वह उसके कहकहे की आवाजे बाहर से आती हुई सुनती, झरोखे से देखती कि वह दोस्तों के गले में हाथ डालें सैर करने जा रहे है और तड़प कर रहे जाती।

एक दिन खाना खाते समय उसने कहा अब तो आपके दर्शन ही नहीं होतें। मेरे कारण घर छोड़ दीजिएगा क्या ?

विपिन ने मुंह फेर कर कहा घर ही पर तो रहता हूं। आजकल जरा नौकरी की तलाश है इसलिए दौड़—धूप ज्यादा करनी पड़ती है।

आशा किसी डाक्टर से मेरी सूरत क्यों नहीं बनवा देते ? सुनती हूं, आजकल सूरत बनाने वाले डाक्टर पैदा हुए है।

विपिन क्यों नाहक चिढ़ती हो, यहां तुम्हे किसने बुलाया था ?

आशा आखिर इस मर्ज की दवा कौन करेंगा ?

विपिन इस मर्ज की दवा नहीं है। जो काम ईश्चर से ने करते बना उसे आदमी क्या बना सकता है ?

आशा यह तो तुम्ही सोचो कि ईश्वर की भुल के लिए मुझे दंड दे रहे हो। संसार में कौन ऐसा आदमी है जिसे अच्छी सूरत बुरी लगती हो, किन तुमने किसी मर्द को केवल रुपहीन होने के कारण क्वांरा रहते देखा है, रुपहीन लड़कियां भी मां—बाप के घर नहीं बैठी रहतीं। किसी—न—किसी तरह उनका निर्वाह हो ही जाता हैय उसका पति उप पर प्राण ने देता हो, लेकिन दूध की मक्खी नहीं समझता।

विपिन ने झुंझला कर कहा क्यों नाहक सिर खाती हो, मै तुमसे बहस तो नहीं कर रहा हूं। दिल पर जब्र नहीं किया जा सकता और न दलीलों का उस पर कोई असर पड़ सकता है। मैं तुम्हे कुछ कहता तो नहीं हूं, फिर तुम क्यों मुझसे हुज्जत करती हो ?

आशा यह झिड़की सुन कर चली गयी। उसे मालूम हो गया कि इन्होने मेरी ओर से सदा के लिए ह्रदय कठोर कर लिया है।

विपिन तो रोज सैर—सपाटे करते, कभी—कभी रात को गायब रहते। इधर आशा चिंता और नैराश्य से घुलते—घुलते बीमार पड़ गयी। लेकिन विपिन भूल कर भी उसे देखने न आता, सेवा करना तो दूर रहा। इतना ही नहीं, वह दिल में मानता था कि वह मर जाती तो गला छुटता, अबकी खुब देखभाल कर अपनी पसंद का विवाह करता।

अब वह और भी खुल खेला। पहले आशा से कुछ दबता था, कम—से—कम उसे यह धड़का लगा रहता था कि कोई मेरी चाल—ढ़ाल पर निगाह रखने वाला भी है। अब वह धड़का छुट गया। कुवासनाओं में ऐसा लिप्त हो गया कि मरदाने कमरे में ही जमघटे होने लगे। लेकिन विषय—भोग में धन ही का सर्वनाश होता, इससे कहीं अधिक बुद्धि और बल का सर्वनाश होता है। विपिन का चेहरा पीला लगा, देह भी क्षीण होने लगी, पसलियों की हड्डियां निकल आयीं आंखों के इर्द—गिर्द गढ़े पड़ गये। अब वह पहले से कहीं ज्यादा शोक करता, नित्य तेल लगता, बाल बनवाता, कपड़े बदलता, किन्तु मुख पर कांति न थी, रंग—रोगन से क्या हो सकता ?

एक दिन आशा बरामदे में चारपाई पर लेटी हुई थी। इधर हफ्तों से उसने विपिन को न देखा था। उन्हे देखने की इच्छा हुई। उसे भय था कि वह सन आयेंगे, फिर भी वह मन को न रोक सकी। विपिन को बुला भेजा। विपिन को भी उस पर कुछ दया आ गयी आ गयी। आकार सामने खड़े हो गये। आशा ने उनके मुंह की ओर देखा तो चौक पड़ी। वह इतने दुर्बल हो गये थे कि पहचनाना मुशिकल था। बोली तुम भी बीमार हो क्या? तुम तो मुझसे भी ज्यादा घुल गये हो।

विपिन उंह, जिंदगी में रखा ही क्या है जिसके लिए जीने की फिक्र करुं !

आशा जीने की फिक्र न करने से कोई इतना दुबला नहीं हो जाता। तुम अपनी कोई दवा क्यों नहीं करते?

यह कह कर उसने विपिन का दाहिन हाथ पकड़ कर अपनी चारपाई पर बैठा लिया। विपिन ने भी हाथ छुड़ाने की चेष्टा न की। उनके स्वाभाव में इस समय एक विचित्र नम्रता थी, जो आशा ने कभी ने देखी थी। बातों से भी निराशा टपकती थी। अक्खड़पन या क्रोध की गंध भी न थी। आशा का ऐसा मालुम हुआ कि उनकी आंखो में आंसू भरे हुए है।

विपिन चारपाई पर बैठते हुए बोले मेरी दवा अब मौत करेगी। मै तुम्हें जलाने के लिए नहीं कहता। ईश्वर जानता है, मैं तुम्हे चोट नहीं पहुंचाना चाहता। मै अब ज्यादा दिनों तक न जिऊंगा। मुझे किसी भयंकर रोग के लक्षण दिखाई दे रहे है। डाक्टर नें भी वही कहा है। मुझे इसका खेद है कि मेरे हाथों तुम्हे कष्ट पहुंचा पर क्षमा करना। कभी—कभी बैठे—बैठे मेरा दिल डूब दिल डूब जाता है, मूर्छा—सी आ जाती है।

यह कहतें—कहते एकाएक वह कांप उठे। सारी देह में सनसनी सी दौड़ गयी। मूर्छित हो कर चारपाई पर गिर पड़े और हाथ—पैर पटकने लगे।

मुंह से फिचकुर निकलने लगा। सारी देह पसीने से तर हो गयी।

आशा का सारा रोग हवा हो गया। वह महीनों से बिस्तर न छोड़ सकी थी। पर इस समय उसके शिथिल अंगो में विचित्र स्फुर्ति दौड़ गयी। उसने तेजी से उठ कर विपिन को अच्छी तरह लेटा दिया और उनके मुख पर पानी के छींटे देने लगी। महरी भी दौड़ी आयी और पंखा झलने लगी। पर भी विपिन ने आंखें न खोलीं। संध्या होते—होते उनका मुंह टेढ़ा हो गया और बायां अंग शुन्य पड़ गया। हिलाना तो दूर रहा, मूंह से बात निकालना भी मुश्किल हो गया। यह मूर्छा न थी, फालिज था।

फालिज के भयंकर रोग में रोगी की सेवा करना आसान काम नहीं है। उस पर आशा महीनों से बीमार थी। लेकिन उस रोग के सामने वह पना रोग भूल गई। 15 दिनों तक विपिन की हालत बहुत नाजुक रही। आशा दिन—के—दिन और रात—की—रात उनके पास बैठी रहती। उनके लिए पथ्य बनाना, उन्हें गोद में सम्भाल कर दवा पिलाना, उनके जरा—जरा से इशारों को समझाना उसी जैसी धैयशाली स्त्री का काम था। अपना सिर दर्द से फटा करता, ज्वर से देह तपा करती, पर इसकी उसे जरा भी परवा न थी।

१५ दिनों बाद विपिन की हालत कुछ सम्भली। उनका दाहिना पैर तो लुंज पड़ गया था, पर तोतली भाषा में कुछ बोलने लगे थे। सबसे बुरी गत उनके सुन्दर मुख की हुई थी। वह इतना टेढ़ा हो गया था जैसे कोई रबर के खिलौने को खींच कर बढ़ा दें। बैटरी की मदद से जरा देर के लिए बैठे या खड़े तो हो जाते थेय लेकिन चलनेफिरने की ताकत न थी।

एक दिनों लेटेलेटे उन्हे क्या ख्याल आया। आईना उठा कर अपना मुंह देखने लगे। ऐसा कुरुप आदमी उन्होने कभी न देखा था। आहिस्ता से बोलेआशा, ईश्वर ने मुझे गरुर की सजा दे दी। वास्तव में मुझे यह उसी बुराई का बदला मिला है, जो मैने तुम्हारे साथ की। अब तुम अगर मेरा मुंह देखकर घृणा से मुंह फेर लो तो मुझेसे उस दुर्व्‌यवहार का बदला लो, जो मैने, तुम्हारे साथ किए है।

आशा ने पति की ओर कोमल भाव से देखकर कहामै तो आपको अब भी उसी निगाह से देखती हुं। मुझे तो आप में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता।

विपिनवाह, बन्दर कासा मुंह हो गया है, तुम कहती हो कि कोई अन्तर ही नहीं। मैं तो अब कभी बाहर न निकलूंगा। ईश्वर ने मुझे सचमुच दंड दिया।

बहुत यत्न किए गए पर विपिन का मुंह सीधा न हुआ। मुख्य का बायां भाग इतना टेढ़ा हो गया था कि चेहरा देखकर डर मालूम होता था। हां, पैरों में इतनी शक्ति आ गई कि अब वह चलनेफिरने लगे।

आशा ने पति की बीमारी में देवी की मनौती की थी। आज उसी की पुजा का उत्सव था। मुहल्ले की स्त्रियां बनावसिंगार किये जमा थीं। गानाबजाना हो रहा था।

एक सेहली ने पुछाक्यों आशा, अब तो तुम्हें उनका मुंह जरा भी अच्छा न लगता होगा।

आशा ने गम्भीर होकर कहामुझे तो पहले से कहीं मुंह जरा भी अच्छा न लगता होगा।

‘चलों, बातें बनाती हो।'

‘नही बहन, सच कहती हुंय रुप के बदले मुझे उनकी आत्मा मिल गई जो रुप से कहीं बढ़कर है।'

विपिन कमरे में बैठे हुए थे। कई मित्र जमा थे। ताश हो रहा था।

कमरे में एक खिड़की थी जो आंगन में खुलती थी। इस वक्त वह बन्दव थी। एक मित्र ने उसे चुपके से खोल दिया। एक मित्र ने उसे चुपके दिया और शीशे से झांक कर विपिन से कहाआज तो तुम्हारे यहां पारियों का अच्छा जमघट है।

विपिनबन्दा कर दो।

‘अजी जरा देखो तोरू कैसीकैसी सूरतें है ! तुम्हे इन सबों में कौन सबसे अच्छी मालूम होती है ?

विपिन ने उड़ती हुई नजरों से देखकर कहामुझे तो वहीं सबसे अच्छी मालूम होती है जो थाल में फुल रख रही है।

‘वाह री आपकी निगाह ! क्या सूरत के साथ तुम्हारी निगाह भी बिगड़ गई? मुझे तो वह सबसे बदसुरत मालूम होती है।'

‘इसलिए कि तुम उसकी सूरत देखते हो और मै उसकी आत्मा देखता हूं।'

‘अच्छा, यही मिसेज विपिन हैं?'

‘जी हां, यह वही देवी है।

स्वर्ग की देवी

भाग्य की बात ! शादी विवाह में आदमी का क्या अख्तियार । जिससे ईश्वर ने, या उनके नायबों ब्रह्मण ने तय कर दी, उससे हो गयी। बाबू भारतदास ने लीला के लिए सुयोग्य वर खोजने में कोई बात उठा नही रखी। लेकिन जैसा घर—घर चाहते थे, वैसा न पा सके। वह लडकी को सुखी देखना चाहते थे, जैसा हर एक पिता का धर्म है य किंतु इसके लिए उनकी समझ में सम्पत्ति ही सबसे जरूरी चीज थी। चरित्र या शिक्षा का स्थान गौण था। चरित्र तो किसी के माथे पर लिखा नही रहता और शिक्षा का आजकल के जमाने में मूल्य ही क्या ? हां, सम्पत्ति के साथ शिक्षा भी हो तो क्या पूछना ! ऐसा घर बहुत ढढा पर न मिला तो अपनी विरादरी के न थे। बिरादरी भी मिली, तो जायजा न मिला!य जायजा भी मिला तो शर्ते तय न हो सकी। इस तरह मजबूर होकर भारतदास को लीला का विवाह लाला सन्तसरन के लडके सीतासरन से करना पडा। अपने बाप का इकलौता बेटा था, थोडी बहुत शिक्षा भी पायी थी, बातचीत सलीके से करता था, मामले—मुकदमें समझता था और जरा दिल का रंगीला भी था । सबसे बडी बात यह थी कि रूपवान, बलिष्ठ, प्रसन्न मुख, साहसी आदमी था य मगर विचार वही बाबा आदम के जमाने के थे। पुरानी जितनी बाते है, सब अच्छी य नयी जितनी बातें है, सब खराब है। जायदाद के विषय में जमींदार साहब नये—नये दफों का व्यवहार करते थे, वहां अपना कोई अख्तियार न था य लेकिन सामाजिक प्रथाओं के कटटर पक्षपाती थे। सीतासरन अपने बाप को जो करते या कहते वही खुद भी कहता था। उसमें खुद सोचने की शक्ति ही न थी। बुद्वि की मंदता बहुधा सामाजिक अनुदारता के रूप में प्रकट होती है।

लीला ने जिस दिन घर में वॉँव रखा उसी दिन उसकी परीक्षा शुरू हुई। वे सभी काम, जिनकी उसके घर में तारीफ होती थी यहां वर्जित थे। उसे बचपन से ताजी हवा पर जान देना सिखाया गया था, यहां उसके सामने मुंह खोलना भी पाप था। बचपन से सिखाया गया था रोशनी ही जीवन है, यहां रोशनी के दर्शन दुर्भभ थे। घर पर अहिंसा, क्षमा और दया ईश्वरीय गुण बताये गये थे, यहां इनका नाम लेने की भी स्वाधीनता थी। संतसरन बडे तीखे, गुस्सेवर आदमी थे, नाक पर मक्खी न बैठने देते। धूर्तता और छल—कपट से ही उन्होने जायदाद पैदा की थी। और उसी को सफल जीवन का मंत्र समझते थे। उनकी पत्नी उनसे भी दो अंगुल ऊंची थीं। मजाल क्या है कि बहू अपनी अंधेरी कोठरी के द्वार पर खडी हो जाय, या कभी छत पर टहल सकें । प्रलय आ जाता, आसमान सिर पर उठा लेती। उन्हें बकने का मर्ज था। दाल में नमक का जरा तेज हो जाना उन्हें दिन भर बकने के लिए काफी बहाना था । मोटी—ताजी महिला थी, छींट का घाघरेदार लंहगा पहने, पानदान बगल में रखे, गहनो से लदी हुई, सारे दिन बरोठे में माची पर बैठीे रहती थी। क्या मजाल कि घर में उनकी इच्छा के विरूद्व एक पत्ता भी हिल जाय ! बहू की नयी—नयी आदतें देख देख जला करती थी। अब काहे की आबरू होगी। मुंडेर पर खडी हो कर झांकती है। मेरी लडकी ऐसी दीदा—दिलेर होती तो गला घोंट देती। न जाने इसके देश में कौन लोग बसते है ! गहनें नही पहनती। जब देखो नंगी बुच्ची बनी बैठी रहती है। यह भी कोई अच्छे लच्छन है। लीला के पीछे सीतासरन पर भी फटकार पडती। तुझे भी चॉँदनी में सोना अच्छा लगता है, क्यों ? तू भी अपने को मर्द कहता कहेगा ? यह मर्द कैसा कि औरत उसके कहने में न रहे। दिन—भर घर में घुसा रहता है। मुंह में जबान नही है ? समझता क्यों नही ?

सीतासरन कहता———अम्मां, जब कोई मेरे समझाने से माने तब तो?

मां———मानेगी क्यो नही, तू मर्द है कि नही ? मर्द वह चाहिए कि कडी निगाह से देखे तो औरत कांप उठे।

सीतासरन —————तुम तो समझाती ही रहती हो ।

मां ———मेरी उसे क्या परवाह ? समझती होगी, बुढिया चार दिन में मर जायगी तब मैं मालकिन हो ही जाउँगी

सीतासरन ——— तो मैं भी तो उसकी बातों का जबाब नही दे पाता। देखती नही हो कितनी दुर्बल हो गयी है। वह रंग ही नही रहा। उस कोठरी में पडे—पडे उसकी दशा बिगडती जाती है।

बेटे के मुंह से ऐसी बातें सुन माता आग हो जाती और सारे दिन जलती य कभी भाग्य को कोसती, कभी समय को ।

सीतासरन माता के सामने तो ऐसी बातें करता य लेकिन लीला के सामने जाते ही उसकी मति बदल जाती थी। वह वही बातें करता था जो लीला को अच्छी लगती। यहां तक कि दोनों वृद्वा की हंसी उडातें। लीला को इस में ओर कोई सुख न था । वह सारे दिन कुढती रहती। कभी चूल्हे के सामने न बैठी थी य पर यहां पसेरियों आटा थेपना पडता, मजूरों और टहलुओं के लिए रोटी पकानी पडती। कभी—कभी वह चूल्हे के सामने बैठी घंटो रोती। यह बात न थी कि यह लोग कोई महाराज—रसोइया न रख सकते होय पर घर की पुरानी प्रथा यही थी कि बहू खाना पकाये और उस प्रथा का निभाना जरूरी था। सीतासरन को देखकर लीला का संतप्त ह्रदय एक क्षण के लिए शान्त हो जाता था।

गर्मी के दिन थे और सन्ध्या का समय था। बाहर हवा चलती, भीतर देह फुकती थी। लीला कोठरी में बैठी एक किताब देख रही थी कि सीतासरन ने आकर कहा——— यहां तो बडी गर्मी है, बाहर बैठो।

लीला यह गर्मी तो उन तानो से अच्छी है जो अभी सुनने पडेगे।

सीतासरन आज अगर बोली तो मैं भी बिगड जाऊंगा।

लीला तब तो मेरा घर में रहना भी मुश्किल हो जायेगा।

सीतासरन बला से अलग ही रहेंगे !

लीला मैं मर भी लाऊं तो भी अलग रहूं । वह जो कुछ कहती सुनती है, अपनी समझ से मेरे भले ही के लिए कहती—सुनती है। उन्हें मुझसे कोई दुश्मनी थोडे ही है। हां, हमें उनकी बातें अच्छी न लगें, यह दूसरी बात है।उन्होंने खुद वह सब कष्ट झेले है, जो वह मुझे झेलवाना चाहती है। उनके स्वास्थ्य पर उन कष्टो का जरा भी असर नही पडा। वह इस ६५ वर्ष की उम्र में मुझसे कहीं टांठी है। फिर उन्हें कैसे मालूम हो कि इन कष्टों से स्वास्थ्य बिगड सकता है।

सीतासरन ने उसके मुरझाये हुए मुख की ओर करुणा नेत्रों से देख कर कहा तुम्हें इस घर में आकर बहुत दुरूख सहना पडा। यह घर तुम्हारे योग्य न था। तुमने पूर्व जन्म में जरूर कोई पाप किया होगा।

लीला ने पति के हाथो से खेलते हुए कहा यहां न आती तो तुम्हारा प्रेम कैसे पाती ?

पांच साल गुजर गये। लीला दो बच्चों की मां हो गयी। एक लडका था, दूसरी लडकी । लडके का नाम जानकीसरन रखा गया और लडकी का नाम कामिनी। दोनो बच्चे घर को गुलजार किये रहते थे। लडकी लडकी दादा से हिली थी, लडका दादी से । दोनों शोख और शरीर थें। गाली दे बैठना, मुंह चिढा देना तो उनके लिए मामूली बात थी। दिन—भर खाते और आये दिन बीमार पडे रहते। लीला ने खुद सभी कष्ट सह लिये थे पर बच्चों में बुरी आदतों का पडना उसे बहुत बुरा मालूम होता थाय किन्तु उसकी कौन सुनता था। बच्चों की माता होकर उसकी अब गणना ही न रही थी। जो कुछ थे बच्चे थे, वह कुछ न थी। उसे किसी बच्चे को डाटने का भी अधिकार न था, सांस फाड खाती थी।

सबसे बडी आपत्ति यह थी कि उसका स्वास्थ्य अब और भी खराब हो गया था। प्रसब काल में उसे वे भी अत्याचार सहने पडे जो अज्ञान, मूर्खता और अंध विश्वास ने सौर की रक्षा के लिए गढ रखे है। उस काल—कोठरी में, जहॉँ न हवा का गुजर था, न प्रकाश का, न सफाई का, चारों और दुर्गन्ध, और सील और गन्दगी भरी हुई थी, उसका कोमल शरीर सूख गया। एक बार जो कसर रह गयी वह दूसरी बार पूरी हो गयी। चेहरा पीला पड गया, आंखे घंस गयीं। ऐसा मालूम होता, बदन में खून ही नही रहा। सूरत ही बदल गयी।

गर्मियों के दिन थे। एक तरफ आम पके, दूसरी तरफ खरबूजे । इन दोनो फलो की ऐसी अच्छी फसल कभी न हुई थी अबकी इनमें इतनी मिठास न जाने कहा से आयी थी कि कितना ही खाओ मन न भरे। संतसरन के इलाके से आम औरी खरबूजे के टोकरे भरे चले आते थे। सारा घर खूब उछल—उछल खाता था। बाबू साहब पुरानी हड्डी के आदमी थे। सबेरे एक सैकडे आमों का नाश्ता करते, फिर पसेरी—भर खरबूज चट कर जाते। मालकिन उनसे पीछे रहने वाली न थी। उन्होने तो एक वक्त का भोजन ही बन्द कर दिया। अनाज सडने वाली चीज नही। आज नही कल खर्च हो जायेगा। आम और खरबूजे तो एक दिन भी नही ठहर सकते। शुदनी थी और क्या। यों ही हर साल दोनों चीजों की रेल—पेल होती थीय पर किसी को कभी कोई शिकायत न होती थी। कभी पेट में गिरानी मालूम हुई तो हड की फंकी मार ली। एक दिन बाबू संतसरन के पेट में मीठा—मीठा दर्द होने लगा। आपने उसकी परवाह न की । आम खाने बैठ गये। सैकड़ा पूरा करके उठे ही थे कि कै हुई । गिर पडे फिर तो तिल—तिल करके पर कै और दस्त होने लगे। हैजा हो गया। शहर के डाक्टर बुलाये गये, लेकिन आने के पहले ही बाबू साहब चल बसे थे। रोना—पीटना मच गया। संध्या होते—होते लाश घर से निकली। लोग दाह—क्रिया करके आधी रात को लौटे तो मालकिन को भी कै दस्त हो रहे थे। फिर दौड धूप शुरू हुईय लेकिन सूर्य निकलते—निकलते वह भी सिधार गयी। स्त्री—पुरूष जीवनपयर्ंत एक दिन के लिए भी अलग न हुए थे। संसार से भी साथ ही साथ गये, सूर्यास्त के समय पति ने प्रस्थान किया, सूर्योदय के समय पत्नी ने ।

लेकिन मुशीबत का अभी अंत न हुआ था। लीला तो संस्कार की तैयारियों मे लगी थीय मकान की सफाई की तरफ किसी ने ध्यान न दिया। तीसरे दिन दोनो बच्चे दादा—दादी के लिए रोत—रोते बैठक में जा पंहुचे। वहां एक आले का खरबूजज कटा हुआ पडा थाय दो—तीन कलमी आम भी रखे थे। इन पर मक्खियां भिनक रही थीं। जानकी ने एक तिपाई पर चढ कर दोनों चीजें उतार लीं और दोंनों ने मिलकर खाई। शाम होत—होते दोनों को हैजा हो गया और दोंनो मां—बाप को रोता छोड चल बसे। घर में अंधेरा हो गया। तीन दिन पहले जहां चारों तरफ चहल—पहल थी, वहां अब सन्नाटा छाया हुआ था, किसी के रोने की आवाज भी सुनायी न देती थी। रोता ही कौन ? ले—दे के कुल दो प्राणी रह गये थे। और उन्हें रोने की सुधि न थी।

लीला का स्वास्थ्य पहले भी कुछ अच्छा न था, अब तो वह और भी बेजान हो गयी। उठने—बैठने की शक्ति भी न रही। हरदम खोयी सी रहती, न कपडे—लत्ते की सुधि थी, न खाने—पीने की । उसे न घर से वास्ता था, न बाहर से । जहां बैठती, वही बैठी रह जाती। महीनों कपडे न बदलती, सिर में तेल न डालती बच्चे ही उसके प्राणो के आधार थे। जब वही न रहे तो मरना और जीना बराबर था। रात—दिन यही मनाया करती कि भगवान्‌ यहां से ले चलो । सुख—दुरूख सब भुगत चुकी। अब सुख की लालसा नही हैय लेकिन बुलाने से मौत किसी को आयी है ?

सीतासरन भी पहले तो बहुत रोया—धोयाय यहां तक कि घर छोडकर भागा जाता थाय लेकिन ज्यों—ज्यो दिन गुजरते थे बच्चों का शोक उसके दिल से मिटता थाय संतान का दुरूख तो कुछ माता ही को होता है। धीरे—धीरे उसका जी संभल गया। पहले की भॉँति मित्रों के साथ हंसी—दिल्लगी होने लगी। यारों ने और भी चंग पर चढाया । अब घर का मालिक था, जो चाहे कर सकता था, कोई उसका हाथ रोकने वाला नही था। सैर'—सपाटे करने लगा। तो लीला को रोते देख उसकी आंखे सजग हो जाती थीं, कहां अब उसे उदास और शोक—मग्न देखकर झुंझला उठता। जिंदगी रोने ही के लिए तो नही है। ईश्वर ने लडके दिये थे, ईश्वर ने ही छीन लिये। क्या लडको के पीछे प्राण दे देना होगा ? लीला यह बातें सुनकर भौंचक रह जाती। पिता के मुंह से ऐसे शब्द निकल सकते है। संसार में ऐसे प्राणी भी है।

होली के दिन थे। मर्दाना में गाना—बजाना हो रहा था। मित्रों की दावत का भी सामान किया गया था । अंदर लीला जमींन पर पडी हुई रो रही थी त्याहोर के दिन उसे रोते ही कटते थें आज बच्चे बच्चे होते तो अच्छे— अच्छे कपडे पहने कैसे उछलते फिरते! वही न रहे तो कहां की तीज और कहां के त्योहार।

सहसा सीतासरन ने आकर कहा क्या दिन भर रोती ही रहोगी ? जरा कपडे तो बदल डालो , आदमी बन जाओ । यह क्या तुमने अपनी गत बना रखी है ?

लीला तुम जाओ अपनी महफिल मे बैठो, तुम्हे मेरी क्या फिक्र पडी है।

सीतासरन क्या दुनिया में और किसी के लडके नही मरते ? तुम्हारे ही सिर पर मुसीबत आयी है ?

लीला यह बात कौन नही जानता। अपना—अपना दिल ही तो है। उस पर किसी का बस है ?

सीतासरन मेरे साथ भी तो तुम्हारा कुछ कर्तव्य है ?

लीला ने कुतूहल से पति को देखा, मानो उसका आशय नही समझी। फिर मुंह फेर कर रोने लगी।

सीतासरन मै अब इस मनहूसत का अन्त कर देना चाहता हूं। अगर तुम्हारा अपने दिल पर काबू नही है तो मेरा भी अपने दिल पर काबू नही है। मैं अब जिंदगी भर मातम नही मना सकता।

लीला तुम रंग—राग मनाते हो, मैं तुम्हें मना तो नही करती ! मैं रोती हूं तो क्यूं नही रोने देते।

सीतासरन मेरा घर रोने के लिए नही है ?

लीला अच्छी बात है, तुम्हारे घर में न रोउंगी।

लीला ने देखा, मेरे स्वामी मेरे हाथ से निकले जा रहे है। उन पर विषय का भूत सवार हो गया है और कोई समझाने वाला नहीं। वह अपने होश मे नही है। मैं क्या करुं, अगर मैं चली जाती हूं तो थोडे ही दिनो में सारा ही घर मिट्टी में मिल जाएगा और इनका वही हाल होगा जो स्वार्थी मित्रो के चुंगल में फंसे हुए नौजवान रईसों का होता है। कोई कुलटा घर में आ जाएगी और इनका सर्वनाश कर देगी। ईश्वा ! मैं क्या करूं ? अगर इन्हें कोई बीमारी हो जाती तो क्या मैं उस दशा मे इन्हें छोडकर चली जाती ? कभी नही। मैं तन मन से इनकी सेवा—सुश्रूषा करती, ईश्वर से प्रार्थना करती, देवताओं की मनौतियां करती। माना इन्हें शारीरिक रोग नही है, लेकिन मानसिक रोग अवश्य है। आदमी रोने की जगह हंसे और हंसने की जगह रोये, उसके दीवाने होने में क्या संदेह है ! मेरे चले जाने से इनका सर्वनाश हो जायेगा। इन्हें बचाना मेरा धर्म है।

हां, मुझें अपना शोक भूल जाना होगा। रोऊंगी, रोना तो तकदीर में लिखा ही है रोऊंगी, लेकिन हंस—हंस कर । अपने भाग्य से लडूंगी। जो जाते रहे उनके नाम के सिवा और कर ही क्या सकती हूं, लेकिन जो है उसे न जाने दूंगी। आ, ऐ टूटे हुए ह्रदय ! आज तेरे टुकडों को जमा करके एक समाधि बनाऊं और अपने शोक को उसके हवाले कर दूं। ओ रोने वाली आंखों, आओ, मेरे आसुंओं को अपनी विहंसित छटा में छिपा लो। आओ, मेरे आभूषणों, मैंने बहुत दिनों तक तुम्हारा अपमान किया है, मेरा अपराध क्षमा करो। तुम मेरे भले दिनो के साक्षी हो, तुमने मेरे साथ बहुत विहार किए है, अब इस संकट में मेरा साथ दो य मगर देखो दगा न करना य मेरे भेदों को छिपाए रखना।

पिछले पहर को पहफिल में सन्नाटा हो गया। हू—हा की आवाजें बंद हो गयी। लीला ने सोचा क्या लोग कही चले गये, या सो गये ? एकाएक सन्नाटा क्यों छा गया। जाकर दहलीज में खडी हो गयी और बैठक में झांककर देखा, सारी देह में एक ज्वाला—सी दौड गयी। मित्र लोग विदा हो गये थे। समाजियो का पता न था। केवल एक रमणी मसनद पर लेटी हुई थी और सीतासरन सामने झुका हुआ उससे बहुत धीरे—धीरे बातें कर रहा था। दोनों के चेहरों और आंखो से उनके मन के भाव साफ झलक रहे थे। एक की आंखों में अनुराग था, दूसरी की आंखो में कटाक्ष ! एक भोला—भोला ह्रदय एक मायाविनी रमणी के हाथों लुटा जाता था। लीला की सम्पत्ति को उसकी आंखों के सामने एक छलिनी चुराये जाती थी। लीला को ऐसा क्रोध आया कि इसी समय चलकर इस कुल्टा को आडे हाथों लूं, ऐसा दुत्कारूं वह भी याद करें, खडे—,खडे निकाल दूं। वह पत्नी भाव जो बहुत दिनो से सो रहा था, जाग उठा और विकल करने लगा। पर उसने जब्त किया। वेग में दौडती हुई तृष्णाएं अक्समात्‌ न रोकी जा सकती थी। वह उलटे पांव भीतर लौट आयी और मन को शांत करके सोचने लगी वह रूप रंग में, हाव—भाव में, नखरे—तिल्ले में उस दुष्टा की बराबरी नही कर सकती। बिलकुल चांद का टुकडा है, अंग—अंग में स्फूर्ति भरी हुई है, पोर—पोर में मद छलक रहा है। उसकी आंखों में कितनी तृष्णा है। तृष्णा नही, बल्कि ज्वाला ! लीला उसी वक्त आइने के सामने गयी । आज कई महीनो के बाद उसने आइने में अपनी सूरत देखी। उस मुख से एक आह निकल गयी। शोक न उसकी कायापलट कर दी थी। उस रमणी के सामने वह ऐसी लगती थी जैसे गुलाब के सामने जूही का फूल

6

सीतासरन का खुमार शाम को टूटा । आखें खुलीं तो सामने लीला को खडे मुस्करातेदेखा।उसकी अनोखी छवि आंखों में समा गई। ऐसे खुश हुए मानो बहुत दिनो के वियोग के बाद उससे भेंट हुई हो। उसे क्या मालूम था कि यह रुप भरने के लिए कितने आंसू बहाये हैय कैशों मे यह फूल गूंथने के पहले आंखों में कितने मोती पिरोये है। उन्होनें एक नवीन प्रेमोत्साह से उठकर उसे गले लगा लिया और मुस्कराकर बोले आज तो तुमने बडे—बडे शास्त्र सजा रखे है, कहां भागूं ?

लीला ने अपने ह्रदय की ओर उंगली दिखकर कहा —यहा आ बैठो बहुत भागे फिरते हो, अब तुम्हें बांधकर रखूगीं । बाग की बहार का आनंद तो उठा चुके, अब इस अंधेरी कोठरी को भी देख लो।

सीतासरन ने जज्जित होकर कहा उसे अंधेरी कोठरी मत कहो लीला वह प्रेम का मानसरोवर है !

इतने मे बाहर से किसी मित्र के आने की खबर आयी। सीताराम चलने लगे तो लीला ने हाथ उनका पकडकर हाथ कहा मैं न जाने दूंगी।

सीतासरन—— अभी आता हूं।

लीला मुझे डर है कहीं तुम चले न जाओ।

सीतासरन बाहर आये तो मित्र महाशय बोले आज दिन भर सोते हो क्या ? बहुत खुश नजर आते हो। इस वक्त तो वहां चलने की ठहरी थी न ? तुम्हारी राह देख रही है।

सीतासरन चलने को तैयार हूं, लेकिन लीला जाने नहीं देगीं।

मित्र निरे गाउदी ही रहे। आ गए फिर बीवी के पंजे में ! फिर किस बिरते पर गरमाये थे ?

सीतासरन लीला ने घर से निकाल दिया था, तब आश्रय ढूढता फिरता था। अब उसने द्वार खोल दिये है और खडी बुला रही है।

मित्र आज वह आनंद कहां ? घर को लाख सजाओ तो क्या बाग हो जायेगा ?

सीतासरन भई, घर बाग नही हो सकता, पर स्वर्ग हो सकता है। मुझे इस वक्त अपनी क्षद्रता पर जितनी लज्जा आ रही है, वह मैं ही जानता हूं। जिस संतान शोक में उसने अपने शरीर को घुला डाला और अपने रूप—लावण्य को मिटा दिया उसी शोक को केवल मेरा एक इशारा पाकर उसने भुला दिया। ऐसा भुला दिया मानो कभी शोक हुआ ही नही ! मैं जानता हूं वह बडे से बडे कष्ट सह सकती है। मेरी रक्षा उसके लिए आवश्यक है। जब अपनी उदासीनता के कारण उसने मेरी दशा बिगडते देखी तो अपना सारा शोक भूल गयी। आज मैंने उसे अपने आभूषण पहनकर मुस्कराते हुंए देखा तो मेरी आत्मा पुलकित हो उठी । मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि वह स्वर्ग की देवी है और केवल मुझ जैसे दुर्बल प्राणी की रक्षा करने भेजी गयी है। मैने उसे कठोर शब्द कहे, वे अगर अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर भी मिल सकते, तो लौटा लेता। लीला वास्तव में स्वर्ग की देवी है!

तेंतर

आखिर वही हुआ जिसकी आंशका थीय जिसकी चिंता में घर के सभी लोग और विषेशतरू प्रसूता पड़ी हुई थी। तीनो पुत्रो के पश्चात्‌ कन्या का जन्म हुआ। माता सौर में सूख गयी, पिता बाहर आंगन में सूख गये, और की वृद्ध माता सौर द्वार पर सूख गयी। अनर्थ, महाअनर्थ भगवान्‌ ही कुशल करें तो हो? यह पुत्री नहीं राक्षसी है। इस अभागिनी को इसी घर में जाना था! आना था तो कुछ दिन पहले क्यों न आयी। भगवान्‌ सातवें शत्रु के घर भी तेंतर का जन्म न दें।

पिता का नाम था पंडि़त दामोदरदत्त। शिक्षित आदमी थे। शिक्षा—विभाग ही में नौकर भी थेय मगर इस संस्कार को कैसे मिटा देते, जो परम्परा से हृदय में जमा हुआ था, कि तीसरे बेटे की पीठ पर होने वाली कन्या अभागिनी होती है, या पिता को लेती है या पिता को, या अपने कों। उनकी वृद्धा माता लगी नवजात कन्या को पानी पी—पी कर कोसने, कलमुंही है, कलमुही! न जाने क्या करने आयी हैं यहां। किसी बांझ के घर जाती तो उसके दिन फिर जाते!

दामोदरदत्त दिल में तो घबराये हुए थे, पर माता को समझाने लगे अम्मा तेंतर—बेंतर कुछ नहीं, भगवान्‌ की इच्छा होती है, वही होता है। ईश्वर चाहेंगे तो सब कुशल ही होगाय गानेवालियों को बुला लो, नहीं लोग कहेंगे, तीन बेटे हुए तो कैसे फूली फिरती थीं, एक बेटी हो गयी तो घर में कुहराम मच गया।

माता अरे बेटा, तुम क्या जानो इन बातों को, मेरे सिर तो बीत चुकी हैं, प्राण नहीं में समाया हुआ हैं तेंतर ही के जन्म से तुम्हारे दादा का देहांत हुआ। तभी से तेंतर का नाम सुनते ही मेरा कलेजा कांप उठता है।

दामोदर इस कष्ट के निवारण का भी कोई उपाय होगा?

माता उपाय बताने को तो बहुत हैं, पंडित जी से पूछो तो कोई—न—कोई उपाय बता देंगेय पर इससे कुछ होता नहीं। मैंने कौन—से अनुष्ठान नहीं किये, पर पंडित जी की तो मुट्ठियां गरम हुईं, यहां जो सिर पर पड़ना था, वह पड़ ही गया। अब टके के पंडित रह गये हैं, जजमान मरे या जिये उनकी बला से, उनकी दक्षिणा मिलनी चाहिए। (धीरे से) लकड़ी दुबली—पतली भी नहीं है। तीनों लकड़ों से हृष्ट—पुष्ट है। बड़ी—बड़ी आंखे है, पतले—पतले लाल—लाल ओंठ हैं, जैसे गुलाब की पत्ती। गोरा—चिट्टा रंग हैं, लम्बी—सी नाक। कलमुही नहलाते समय रोयी भी नहीं, टुकुरटुकुर ताकती रही, यह सब लच्छन कुछ अच्छे थोड़े ही है।

दामोदरदत्त के तीनों लड़के सांवले थे, कुछ विशेष रूपवान भी न थे। लड़की के रूप का बखान सुनकर उनका चित्त कुछ प्रसन्न हुआ। बोले अम्मा जी, तुम भगवान्‌ का नाम लेकर गानेवालियों को बुला भेजों, गाना—बजाना होने दो। भाग्य में जो कुछ हैं, वह तो होगा ही।

माता—जी तो हुलसता नहीं, करूं क्या?

दामोदर गाना न होने से कष्ट का निवारण तो होगा नहीं, कि हो जाएगा? अगर इतने सस्ते जान छूटे तो न कराओ गान।

माता बुलाये लेती हूं बेटा, जो कुछ होना था वह तो हो गया। इतने में दाई ने सौर में से पुकार कर कहा बहूजी कहती हैं गानावाना कराने का काम नहीं है।

माता भला उनसे कहो चुप बैठी रहे, बाहर निकलकर मनमानी करेंगी, बारह ही दिन हैं बहुत दिन नहीं हैय बहुत इतराती फिरती थी यह न करूंगी, वह न करूंगी, देवी क्या हैं, मरदों की बातें सुनकर वही रट लगाने लगी थीं, तो अब चुपके से बैठती क्यो नहीं। मैं तो तेंतर को अशुभ नहीं मानतीं, और सब बातों में मेमों की बराबरी करती हैं तो इस बात में भी करे।

यह कहकर माता जी ने नाइन को भेजा कि जाकर गानेवालियों को बुला ला, पड़ोस में भी कहती जाना।

सवेरा होते ही बड़ा लड़का सो कर उठा और आंखे मलता हुआ जाकर दादी से पूछने लगा बड़ी अम्मा, कल अम्मा को क्या हुआ?

माता लड़की तो हुई है।

बालक खुशी से उछलकर बोला ओ—हो—हो पैजनियां पहन—पहन कर छुन—छुन चलेगी, जरा मुझे दिखा दो दादी जी?

माता अरे क्या सौर में जायगा, पागल हो गया है क्या?

लड़के की उत्सुकता न मानीं। सौर के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया और बोला अम्मा जरा बच्ची को मुझे दिखा दो।

दाई ने कहा बच्ची अभी सोती है।

बालक जरा दिखा दो, गोद में लेकर।

दाई ने कन्या उसे दिखा दी तो वहां से दौड़ता हुआ अपने छोटे भाइयें के पास पहुंचा और उन्हें जगा—जगा कर खुशखबरी सुनायी।

एक बोला नन्हीं—सी होगी।

बड़ा बिलकुल नन्हीं सी! जैसी बड़ी गुडि़या! ऐसी गोरी है कि क्या किसी साहब की लड़की होगी। यह लड़की मैं लूंगा।

सबसे छोटा बोला अमको बी दिका दो।

तीनों मिलकर लड़की को देखने आये और वहां से बगलें बजाते उछलते—कूदते बाहर आये।

बड़ा देखा कैसी है!

मंझला कैसे आंखें बंद किये पड़ी थी।

छोटा हमें हमें तो देना।

बड़ा खूब द्वार पर बारात आयेगी, हाथी, घोड़े, बाजे आतशबाजी। मंझला और छोटा ऐसे मग्न हो रहे थे मानो वह मनोहर श्य आंखो के सामने है, उनके सरल नेत्र मनोल्लास से चमक रहे थे।

मंझला बोला फुलवारियां भी होंगी।

छोटा अम बी पूल लेंगे!

छट्ठी भी हुई, बरही भी हुई, गाना—बजाना, खाना—पिलाना—देना—दिलाना सब—कुछ हुआय पर रस्म पूरी करने के लिए, दिल से नहीं, खुशी से नहीं। लड़की दिन—दिन दुर्बल और अस्वस्थ होती जाती थी। मां उसे दोनों वक्त अफीम खिला देती और बालिका दिन और रात को नशे में बेहोश पड़ी रहती। जरा भी नशा उतरता तो भूख से विकल होकर रोने लगती! मां कुछ ऊपरी दूध पिलाकर अफीम खिला देती। आश्चर्य की बात तो यह थी कि अब की उसकी छाती में दूध नहीं उतरा। यों भी उसे दूध दे से उतरता थाय पर लड़कों की बेर उसे नाना प्रकार की दूधवर्द्‌धक औषधियां खिलायी जाती, बार—बार शिशु को छाती से लगाया जाता, यहां तक कि दूध उतर ही आता थाय पर अब की यह आयोजनाएं न की गयीं। फूल—सी बच्ची कुम्हलाती जाती थी। मां तो कभी उसकी ओर ताकती भी न थी। हां, नाइन कभी चुटकियां बजाकर चुमकारती तो शिशु के मुख पर ऐसी दयनीय, ऐसी करूण बेदना अंकित दिखायी देती कि वह आंखें पोंछती हुई चली जाती थी। बहु से कुछ कहने—सुनने का साहस न पड़ता। बड़ा लड़का सिद्धु बार—बार कहता अम्मा, बच्ची को दो तो बाहर से खेला लाऊं। पर मां उसे झिड़क देती थी।

तीन—चार महीने हो गये। दामोदरदत्त रात को पानी पीने उठे तो देखा कि बालिका जाग रही है। सामने ताख पर मीठे तेल का दीपक जल रहा था, लड़की टकटकी बांधे उसी दीपक की ओर देखती थी, और अपना अंगूठा चूसने में मग्न थी। चुभ—चुभ की आवाज आ रही थी। उसका मुख मुरझाया हुआ था, पर वह न रोती थी न हाथ—पैर फेंकती थी, बस अंगूठा पीने में ऐसी मग्न थी मानों उसमें सुधा—रस भरा हुआ है। वह माता के स्तनों की ओर मुंह भी नहीं फेरती थी, मानो उसका उन पर कोई अधिकार है नहीं, उसके लिए वहां कोई आशा नहीं। बाबू साहब को उस पर दया आयी। इस बेचारी का मेरे घर जन्म लेने में क्या दोष है? मुझ पर या इसकी माता पर कुछ भी पड़े, उसमें इसका क्या अपराध है? हम कितनी निर्दयता कर रहे हैं कि कुछ कल्पित अनिष्ट के कारण इसका इतना तिरस्कार कर रहे है। मानों कि कुछ अमंगल हो भी जाय तो क्या उसके भय से इसके प्राण ले लिये जायेंगे। अगर अपराधी है तो मेरा प्रारब्ध है। इस नन्हें—से बच्चे के प्रति हमारी कठोरता क्या ईश्वर को अच्छी लगती होगी? उन्होनें उसे गोद में उठा लिया और उसका मुख चूमने लगे। लड़की को कदाचित्‌ पहली बार सच्चे स्नेह का ज्ञान हुआ। वह हाथ—पैर उछाल कर ‘गूं—गूं' करने लगी और दीपक की ओर हाथ फैलाने लगी। उसे जीवन—ज्योति—सी मिल गयी।

प्रातरूकाल दामोदरदत्त ने लड़की को गोद में उठा लिया और बाहर लाये। स्त्री ने बार—बार कहा उसे पड़ी रहने दो। ऐसी कौन—सी बड़ी सुन्दर है, अभागिन रात—दिन तो प्राण खाती रहती हैं, मर भी नहीं जाती कि जान छूट जायय किंतु दामोदरदत्त ने न माना। उसे बाहर लाये और अपने बच्चों के साथ बैठकर खेलाने लगे। उनके मकान के सामने थोड़ी—सी जमीन पड़ी हुई थी। पड़ोस के किसी आदमी की एकबकरी उसमें आकर चरा करती थी। इस समय भी वह चर रही थी। बाबू साहब ने बड़े लड़के से कहा सिद्धू जरा उस बकरी को पकड़ो, तो इसे दूध पिलायें, शायद भूखी है बेचारी! देखो, तुम्हारी नन्हीं—सी बहन है न? इसे रोज हवा में खेलाया करो।

सिद्धु को दिल्लगी हाथ आयी। उसका छोटा भाई भी दौड़ा। दोनो ने घेर कर बकरी को पकड़ा और उसका कान पकड़े हुए सामने लाये। पिता ने शिशु का मुंह बकरी थन में लगा दिया। लड़की चुबलाने लगी और एक क्षण में दूध की धार उसके मुंह में जाने लगी, मानो टिमटिमाते दीपक में तेल पड़ जाये। लड़की का मुंह खिल उठा। आज शायद पहली बार उसकी क्षुधा तृप्त हुई थी। वह पिता की गोद में हुमक—हुमक कर खेलने लगी। लड़कों ने भी उसे खूब नचाया—कुदाया।

उस दिन से सिद्धु को मनोंरजन का एक नया विषय मिल गया। बालकों को बच्चों से बहुत प्रेम होता है। अगर किसी घोंसनले में चिडि़या का बच्चा देख पायं तो बार—बार वहां जायेंगे। देखेंगें कि माता बच्चे को कैसे दाना चुगाती है। बच्चा कैसे चोंच खोलता हैं। कैसे दाना लेते समय परों को फड़फड़ाकर कर चें—चें करता है। आपस में बड़े गम्भीर भाव से उसकी चरचा करेंगे, उपने अन्य साथियों को ले जाकर उसे दिखायेंगे। सिद्धू ताक में लगा देता, कभी दिन में दो—दो तीन—तीन बा पिलाता। बकरी को भूसी चोकर खिलाकार ऐसा परचा लिया कि वह स्वयं चोकर के लोभ से चली आती और दूध देकर चली जाती। इस भांति कोई एक महीना गुजर गया, लड़की हृष्ट—पुष्ट हो गयी, मुख पुष्प के समान विकसित हो गया। आंखें जग उठीं, शिशुकाल की सरल आभा मन को हरने लगी।

माता उसको देख—देख कर चकित होती थी। किसी से कुछ कह तो न सकतीय पर दिल में आशंका होती थी कि अब वह मरने की नहीं, हमीं लोगों के सिर जायेगी। कदाचित्‌ ईश्वर इसकी रक्षा कर रहे हैं, जभी तो दिन—दिन निखरती आती है, नहीं, अब तक ईश्वर के घर पहुंच गयी होती।

मगर दादी माता से कहीं जयादा चिंतित थी। उसे भ्रम होने लगा कि वह बच्चे को खूब दूध पिला रही हैं, सांप को पाल रही है। शिशु की ओर आंख उठाकर भी न देखती। यहां तक कि एक दिन कह बैठी लड़की का बड़ा छोह करती हो? हां भाई, मां हो कि नहीं, तुम न छोह करोगी, तो करेगा कौन?

‘अम्मा जी, ईश्वर जानते हैं जो मैं इसे दूध पिलाती होऊं?'

‘अरे तो मैं मना थोड़े ही करती हूं, मुझे क्या गरज पड़ी है कि मुफ्त में अपने ऊपर पाप लूं, कुछ मेरे सिर तो जायेगी नहीं।'

‘अब आपको विश्वास ही न आये तो क्या करें?'

‘मुझे पागल समझती हो, वह हवा पी—पी कर ऐसी हो रही है?'

‘भगवान्‌ जाने अम्मा, मुझे तो अचरज होता है।'

बहू ने बहुत निर्दोषिता जतायीय किंतु वृद्धा सास को विश्वास न आया। उसने समझा, वह मेरी शंका को निर्मूल समझती है, मानों मुझे इस बच्ची से कोई बैर है। उसके मन में यह भाव अंकुरित होने लगा कि इसे कुछ हो जोये तब यह समझे कि मैं झूठ नहीं कहती थी। वह जिन प्राणियों को अपने प्राणों से भी अधिक समझती थीं। उन्हीं लोगों की अमंगल कामना करने लगी, केवल इसलिए कि मेरी शंकाएं सत्य हा जायं। वह यह तो नहीं चाहती थी कि कोई मर जायय पर इतना अवश्य चाहती थी कि किसी के बहाने से मैं चेता दूं कि देखा, तुमने मेरा कहा न माना, यह उसी का फल है। उधर सास की ओर से ज्यो—ज्यों यह द्वेष—भाव प्रकट होता था, बहू का कन्या के प्रति स्नेह बढ़ता था। ईश्वर से मनाती रहती थी कि किसी भांति एक साल कुशल से कट जाता तो इनसे पूछती। कुछ लड़की का भोला—भाला चेहरा, कुछ अपने पति का प्रेम—वात्सल्य देखकर भी उसे प्रोत्साहन मिलता था। विचित्र दशा हो रही थी, न दिल खोलकर प्यार ही कर सकती थी, न सम्पूर्ण रीति से निर्दय होते ही बनता था। न हंसते बनता था न रोते।

इस भांति दो महीने और गुजर गये और कोई अनिष्ट न हुआ। तब तो वृद्धा सासव के पेट में चूहें दौड़ने लगे। बहू को दो—चार दिन ज्वर भी नहीं जाता कि मेरी शंका की मर्यादा रह जाये। पुत्र भी किसी दिन पैरगाड़ी पर से नहीं गिर पड़ता, न बहू के मैके ही से किसी के स्वर्गवास की सुनावनी आती है। एक दिन दामोदरदत्त ने खुले तौर पर कह भी दिया कि अम्मा, यह सब ढकोसला है, तेंतेर लड़कियां क्या दुनिया में होती ही नहीं, तो सब के सब मां—बाप मर ही जाते है? अंत में उसने अपनी शंकाओं को यथार्थ सिद्ध करने की एक तरकीब सोच निकाली। एक दिन दामोदरदत्त स्कूल से आये तो देखा कि अम्मा जी खाट पर अचेत पड़ी हुई हैं, स्त्री अंगीठी में आग रखे उनकी छाती सेंक रही हैं और कोठरी के द्वार और खिड़कियां बंद है। घबरा कर कहा अम्मा जी, क्या दशा है?

स्त्री दोपहर ही से कलेजे में एक शूल उठ रहा है, बेचारी बहुत तड़फ रही है।

दामोदर मैं जाकर डॉक्टर साहब को बुला लाऊं न.? देर करने से शायद रोग बढ़ जाय। अम्मा जी, अम्मा जी कैसी तबियत है?

माता ने आंखे खोलीं और कराहते हुए बोली बेटा तुम आ गये?

अब न बचूंगी, हाय भगवान्, अब न बचूंगी। जैसे कोई कलेजे में बरछी चुभा रहा हो। ऐसी पीड़ा कभी न हुई थी। इतनी उम्र बीत गयी, ऐसी पीड़ा कभी न हुई।

स्त्री वह कलमुही छोकरी न जाने किस मनहूस घड़ी में पैदा हुई।

सास बेटा, सब भगवान करते है, यह बेचारी क्या जाने! देखो मैं मर जाऊं तो उसे कश्ट मत देना। अच्छा हुआ मेरे सिर आयीं किसी कके सिर तो जाती ही, मेरे ही सिर सही। हाय भगवान, अब न बचूंगी।

दामोदर जाकर डॉक्टर बुला लाऊं? अभ्भी लौटा आता हूं।

माता जी को केवल अपनी बात की मर्यादा निभानी थी, रूपये न खच्र कराने थे, बोली नहीं बेटा, डॉक्टर के पास जाकर क्या करोगे? अरे, वह कोई ईश्वर है। डॉक्टर के पास जाकर क्या करोगें? अरे, वह कोई ईश्वर है। डॉक्टर अमृत पिला देगा, दस—बीस वह भी ले जायेगा! डॉक्टर—वैद्य से कुछ न होगा। बेटा, तुम कपड़े उतारो, मेरे पास बैठकर भागवत पढ़ो। अब न बचूंगी। अब न बचूंगी, हाय राम!

दामोदर तेंतर बुरी चीज है। मैं समझता था कि ढकोसला है।

स्त्री इसी से मैं उसे कभी नहीं लगाती थी।

माता बेटा, बच्चों को आराम से रखना, भगवान तुम लोगों को सुखी रखें। अच्छा हुआ मेरे ही सिर गयी, तुम लोगों के सामने मेरा परलोक हो जायेगा। कहीं किसी दूसरे के सिर जाती तो क्या होता राम! भगवान्‌ ने मेरी विनती सुन ली। हाय! हाय!!

दामोदरदत्त को निश्चय हो गया कि अब अम्मा न बचेंगी। बड़ा दुरूख हुआ। उनके मन की बात होती तो वह मां के बदले तेंतर को न स्वीकार करते। जिस जननी ने जन्म दिया, नाना प्रकार के कष्ट झेलकर उनका पालन—पोषण किया, अकाल वैधव्य को प्राप्त होकर भी उनकी शिक्षा का प्रबंध किया, उसके सामने एक दुधमुहीं बच्ची का कया मूल्य था, जिसके हाथ का एक गिलास पानी भी वह न जानते थे। शोकातुर हो कपड़े उतारे और मां के सिरहाने बैठकर भागवत की कथा सुनाने लगे।

रात को बहू भोजन बनाने चली तो सास से बोली अम्मा जी, तुम्हारे लिए थोड़ा सा साबूदाना छोड़ दूं?

माता ने व्यंग्य करके कहा बेटी, अन्य बिना न मारो, भला साबूदाना मुझसे खया जायेगाय जाओं, थोड़ी पूरियां छान लो। पड़े—पड़े जो कुछ इच्छा होगी, खा लूंगी, कचौरियां भी बना लेना। मरती हूं तो भोजन को तरस—तरस क्यों मरूं। थोड़ी मलाई भी मंगवा लेना, चौक की हो। फिर थोड़े खाने आऊंगी बेटी। थोड़े—से केले मंगवा लेना, कलेजे के दर्द में केले खाने से आराम होता है।

भोजन के समय पीड़ा शांत हो गयीय लेकिन आध घंटे बाद फिर जोर से होने लगी। आधी रात के समय कहीं जाकर उनकी आंख लगी। एक सप्ताह तक उनकी यही दशा रही, दिन—भर पड़ी कराहा करतीं बस भोजन के समय जरा वेदना कम हो जाती। दामोदरदत्त सिरहाने बैठे पंखा झलते और मातृवियोग के आगत शोक से रोते। घर की महरी ने मुहल्ले—भर में एक खबर फैला दीय पड़ोसिनें देखने आयीं, तो सारा इलजाम बालिका के सिर गया।

एक ने कहा यह तो कहो बड़ी कुशल हुई कि बुढि़या के सिर गयीय नहीं तो तेंतर मां—बाप दो में से एक को लेकर तभी शांत होती है। दैव न करे कि किसी के घर तेंतर का जन्म हो।

दूसरी बोली मेरे तो तेंतर का नाम सुनते ही रोयें खड़े हो जाते है। भगवान्‌ बांझ रखे पर तेंतर का जन्म न दें।

एक सप्ताह के बाद वृद्धा का कष्ट निवारण हुआ, मरने में कोई कसर न थी, वह तो कहों पुरूखाओं का पुण्य—प्रताप था। ब्राह्मणों को गोदान दिया गया। दुर्गा—पाठ हुआ, तब कहीं जाके संकट कटा।