Diary ke Panne in Hindi Drama by Sudarshan Vashishth books and stories PDF | डायरी के पन्नें

Featured Books
  • ખજાનો - 86

    " હા, તેને જોઈ શકાય છે. સામાન્ય રીતે રેડ કોલંબસ મંકી માનવ જા...

  • ફરે તે ફરફરે - 41

      "આજ ફિર જીનેકી તમન્ના હૈ ,આજ ફિર મરનેકા ઇરાદા હૈ "ખબર...

  • ભાગવત રહસ્ય - 119

    ભાગવત રહસ્ય-૧૧૯   વીરભદ્ર દક્ષના યજ્ઞ સ્થાને આવ્યો છે. મોટો...

  • પ્રેમ થાય કે કરાય? ભાગ - 21

    સગાઈ"મમ્મી હું મારા મિત્રો સાથે મોલમાં જાવ છું. તારે કંઈ લાવ...

  • ખજાનો - 85

    પોતાના ભાણેજ ઇબતિહાજના ખભે હાથ મૂકી તેને પ્રકૃતિ અને માનવ વચ...

Categories
Share

डायरी के पन्नें

डायरी के पन्ने

नाटक

सुदर्शन वशिष्ठ

पात्र

1.वसुधा : मुख्य पात्र

2.मां : वसुधा की मां

3.पापा : वसुधा के पापा

4.नीलू : वसुधा की सहेली

5.युवक

6.टोपी वाला आदमी

7.गंजा आदमी

8.ढीली पेंट वाला आदमी

9.बौना आदमी

पहला दृश्य

( घर का एक सामान्य सा बैठकनुमा कमरा। कमरे में पुराना सा सोफा,कुर्सी मेज़,लकड़ी की पुरानी अलमारी टी.वी.,रेडियो आदि। कोने में मेज़ पर टेलिफोन, पानी का जग, कुछ गिलास आदि। दाईं ओर मुख्य द्वार, एक दरवाजा भीतर के कमरे को खुलता है। रेडियो पर गाना बज रहा है। गाने के साथ गुनगुनाती वसुधा झाड़पोंछ भी करती जा रही है।)

वसुधा : (गुनगुनाते हुए) : लगन लागी तुमसे मन की लगन,

लगन लागी तुमसे मन की लगन, गली गली ढूंढे.....

(धीरे धीरे गाना बैकग्राउंड में चला जाता है।)

......पता नहीं झाड़ने पोंछने का काम हमारे ही जिम्मे क्यों है!

पहले मां गांव के घर में आंगन बुहारती थीं। मरद दिन चढ़े तक सोए रहते घर के भीतरी कमरों में खुर्राटे मारते। और आंगन में पड़े होते बासी पीले नामरद पत्ते। जिन्हें हिलाने और जगाने के लिए औरतें आंगन बुहारतीं। मरदों के सोये भीतर बुहारना अशकुन है, इसलिए पहले आंगन बुहारती हैं।

मां ही नहीं, गांव की सभी औरतें मुंह अंधेरे अपने आंगन बुहारतीं।

...... ऐसा न हो सुबह सबेरे आने वाले अभ्यागत यह बोलें कि औरत के रहते साफ नहीं हो पाया आंगन। सर्दियों में तड़के ही नंगे पांव आंगन बुहारते बुहारतेे उनके पांवों में बिबाईयां फटने हो जातीं, हाथ हो जाते चितकबरे।

फिर भी वे आंगन बुहारतीं।

...... कभी कभी तो आंगन बहुत लम्बा हो जाता। नयी बहु को तो चार घरों का आंगन बुहारना पड़ता और मजाल है कहीं कचरे का कण भी रह जाए।

जिस पड़ौसी से नहीं बोल चाल या मिलबरतन, उसका भी। जिसने परसों ही निकाल ली थी तलवार उसका भी। चाहे हो कच्चा, पक्का या मुशतरका

बहु को तो बुहारना ही है, चाहे सारी पृथ्वी आंगन क्यों न हो जाए।

आंगन, मंच है

घर नेपथ्य, जिसमें सारी तैयारी चलती है

शहरों में आंगन नहीं होता, इसलिए अब बैठक ही मंच है

कमरों में होती कानाफूसी, लिहाफ फुसफुसाते, रचे जाते षड्‌यन्त्र

योजनाएं बनतीं, बिगड़तीं, फिर तैयार होते पात्र

सीरियल के सीन की तरह

अलग अलग दरवाजों से, सीढ़ियों से

एक एक कर एकदम आ जाते बैठक में

अब यहीं, बैठक में, सब कुछ करना है हमें

झाड़ना, बुहारना, छानना, फटाकना। और पकाना, खिलाना तो नियति है हमारी ;

( कोने से कचरा निकालते हुए )...... तभी से मुझे आदत हो गई है महीन से महीन कचरा देखने और बुहारने की। महीन से महीन देखने की आदत सदा अच्छी भी नहीं होती ..पराये घर जाना है.... मां बार बार कहती।

(रेडियो पर पर उसी गाने की आवाज गूंजती हैः

गली गली ढूंढे....... )

......पता नहीं कैसे हर जगह फैंक देते हैं चीजें। भई, जहां से चीज़ उठाई है, वहां रखो। पर नहीं। पापा की ऐनक नीचे गिरी है। यदि किसी का पांव आ गया तो गई। अम्मी की सिलाईयां सोफे पर ऊन के गोले के बीच खड़ी रखी हुई हैें। कोई ऊपर बैठ गया तो...। सीना पिरोना तो अब होता नहीं। फिर भी नन्हेें पोते के लिए , जो अभी देखा तक नहीं, स्वेटर बुन रही हैं। पता नहीं क्यों लगी रहती हैं इस उम्र में और किन के लिए।....आग अपना सेक छोड़ सकती है, हवा अपनी ठण्डक, मां ममता नहीं छोड़ सकती। भईया यह ‘‘मां‘‘ शब्द ही बुरा है, आदमी के जन्म से मरण तक मुंह से यही निकलता है।

उई मां ..... अरे! मेरी डायरी! (पन्ने उलटते हुए....) ये यहां कहां और कब छूट गई!.... किसी ने पढ़ी न हो। हाय अम्मी जी!..... ( पढ़ने बैठ जातीे है........)

........अम्मी कहती हैं ... जब मेरा जन्म हुआ, मेरी आंखें भेंगी थीं। ( ऐस्से..भेंगी देखते हुए )........ और रंग... काल्ला सुरमे जैसा। इस ओर सुलाओ तो दूसरी आंख की पुतली घूम जाती, उस ओर सुलाओ तो इधर की। अम्मी ने मुझे कभी इस करवट, कभी उस करवट सुला सुला कर आंखें ठीक कीं। चोरी से बादाम रोगन की मालिश कर कर के मेरा रंग काले से सांवला कर दिया।... कैसे न करती, अच्छा वर तो तभी मिलना था।

....... और पापा! पापा कहते हैं,जब मेरा जन्म हुआ, सभी के चेहरे एकदम फक्‌क। सब उदास हो गए थे। यहां तक कि नर्सें भी गुमसुम हो गईं। दोस्तों ने कोई पार्टी नहीं मांगी। पुरोहित ने जन्म का समय नहीं पूछा। हां, डाक्टरनी ने मां को सांत्वना थी ... क्या पहला ईश्यू है,डांेंट वरी। बाहर खड़े उदास रिश्तेदारों ने पापा को दिलाया दिया, कोई बात नहीं। प्रारब्ध में जो है, वही मिलेगा। हां, यदि पहले ही बेटा हो जाए तो आदमी निश्िंचत हो जाता है।

और उसके बाद प्रारब्ध ने साथ दिया और दो दो बेटे दिए.... तू बड़े भाग्य वाली आई री.... दो दो भाई दिए....।

....... भेड़ों के रेवड़ की तरह सिर झुकाए स्कूल जाती लड़कियों में मैं भी शामिल हो गई। सभी ऐसे भागतीं जैसे कोई गडरिया लाठी लिए भगा रहा हैं। नजरेंं, बस एक तरफ, सीधी सामने। न इधर न उधर।

स्कूल का काम, घर में घर के काम में बदल जाता। भाई स्कूल जाने काबिल हुए तो उन्हें भी गोद में उठा उठा कर स्कूल छोड़ा।

.....अरे! भाई कोई बोझा थोड़े ही होता है। दोनाें भाई छोटे थे, इसलिए लड़की होते हुए भी लड़का बनी। छोटा तो बहुत बार स्कूल में ही कपड़े गंदे कर देता तो टीचर मुझे बुला कर साफ करवाती।

सारी साफ सफाई करते हुए भी मिडिल से ही बजीफा मिला। मेट्रिक के बाद दो साल घर बैठी रही। तीसरे साल छोटा भाई कॉलेज गया तो उसने साथ दिया और कॉलेज जाने लगी। वहां भी बी0ए0 तक वजीफा मिला। उसके बाद भाई बाहर पढ़े, नौकरियों में लगे और मैं.......।

...... अरे मैं क्या पढ़ने बैठ गई सुबह ही। रखो इसे पर करो। अभी समय नहीं है।

(रेडियो पर अगले गाने की आवाज आती हैः

सैयां...सैयां....तू जो कह दे प्यार से)

मां : (भीतर से) वसु! वसु! अरे कहां रह गई बेटा! गर्म पानी दे पापा को। ठण्डे पानी से ही हाथ मुह धो रहे हैं.....।

वसुधा : आई अम्मी... ठहरो ठहरो पापा! लो पानी। गैस पर पानी गर्म हो गया है। यह आपके लिए ही तो रखा था।

पापा : (भीतर से) ठीक है बेटा! क्यों इतना काम करती हो सुबह सुबह... पानी तो मैं ले रहा हूं। तूझे ऑफिस भी जाना है। नहां धो कर तैयार हो बस।.... राम!राम! सुखी रहो बेटा.... मैें कुछ नहीं कर सका तुम्हारे लिए...।

वसुधा : आप भी पापा! बस अब कुछ न कहना सवेरे सवेरे। ऐसे ही क्या कहते रहते हैं। क्या नहीं किया आपने...... चुप रहो। राम का नाम लो।

मां : (रसोई से बाहर आ कर) बेटा! सब्जी मैं बना देती हूं। तू तैयार हो जा। जल्दी जाएगी तो बस में आराम से बैठ सकेगी नहीं खड़े खडे़ ही धक्का मुक्की में ही पहुंच जाओगी। यहां तो बसों में महिलाओं के अलग सीटें भी नहीं हैं। अब तो कोई बैठने के लिए जगह भी नहीं छोड़ता। यह भी नहीं सोचते कि अकेली लड़की जात खड़ी हो कर सफर कर रही है। कोई सीट ही छोड़ दो। हट्‌टे कट्‌टे मरद डेढ़ सीट घेरे टेढ़े हो बैठे रहते हैं। जो खड़े हैं, वे ब्रेक लगने पर ऊपर चढ कर धक्के पर धक्का लगाते जाते हैं... कुछ ड्‌्राईवर जानबूझ कर एकदम ब्रेक लगाते जाते हैं। सीट मिल जाए तो साथ बैठे आदमी को इतने से सफर में ही नींद आने लगती है।

वसुधा : अम्मी! छोड़ो न। यह तो रोज की बात है। ऐसे ही चलता है। मैं नहा लेती हूं, चपाती आ कर बनाऊंगी।

मां : (भीतर जाते हुए, धीमे से) बेटा! आगे के बाल काले कर लेना।

वसुुधा : (बालों पर हाथ फेरते हुए) अम्मी! शीशा कहां रखा है... अच्छा ये मिल गया।

(शीशे में अपना चेहरा देखते हुए हुए मन नही मन)

...... कितना निष्ठुर है यह कांच का टुकड़ा। जरा लिहाज नहीं करता। जो है, वही दिखाता जाता है। (साफ करते हुए) जितना इसे साफ करो, उतना ही बेरहम होता जाता है....जितना दुलार करो, शरारती बच्चे का उतना ही मलचला हो जाता है....।

.......मेरे आगे के बाल... कितने सफेद होने लगे। जितना रंगती हूं, उतने ही सफेद हुए जाते हेैं। कितनी बार रंगू। कई बार सोचा एक बार काट कर देखूं, कोई स्टाइल बनाऊं, तो अम्मी नहीं मानती। कहती हैें : अभी मत काट बेटा, अभी दूसरे घर जाना है।

.... कहां है मेरा घर.....यह घर मेरा नहीं जहां मैं अपने मां बाप के साथ रह रही हूं....इस घर में दो कमरों में तो बड़े भाई ने ताला मार रखा है। छोटा हालांकि अमेरिका में है, बाकी के दो कमरों पर अपना अधिकार जताना नहीं छोड़ता।

.....कभी लगता है मैं सूखे पत्ते सी उड़ रही हूं, पता नहीं कहां पहुंचूंगी। कहीं पहुंचूंगी भी या ऐसे ही हवा में उड़ती रहूंगी और आखिर चूर चूर हो धूल में मिल जाऊंगी। क्या कभी कोई झंझावत मुझे कहीं दूर ले जा फेंकेगा.... जहां दूसरी दुनिया होगी.... जहां मेरे सपनाें का राजकुमार लम्बी गाड़ी पर सवार धूल उड़ाता आएगा.........घूं..घूं..घूं.........(भीतर जाती है)।

मां : (बाहर आ कर सब्जी छीलते हुए) पागल... इतनी बड़ी हो गई फिर भी।

बड़ी नहीं अम्मी जी!....बूढ़ी... (जाते हुए चिल्लाती है।)

..... पता नहीं कैसी अल्हड़ है ये लड़की। दिन रात दौड़ी हुई है।... पापा कमजोर हो रहे हैं... मां को नींद नहीं आती... । आज च्यवनप्रास ले आएगी, अगले दिन कोई विटामिन की शीशी ले आएगी.... सिर में लगाने का कोई तेल ले आएगी।

कितनी बार कहा विजय से शादी कर ले। कितनी भला लड़का है। यहां आता है तो कितनी शराफत से बैठा रहता है। क्या मजाल कभी ऊंची नजर इधर उधर डाले...तू ऐसी है कि न हां करती है, न खुल कर मना करती है... इसकी तो ये ही जाने....। हम कब तक बैठे रहेंगे...फिर भाई कहां पूछेंगे... वे तो पहले ही अपने अपने हैं.... अब जल्दी तैयार हो जा।

वसु : (भीतर से) मैं तो हमेशा तैयार ही रहती हूं अम्मी, बस दो मिनट...।

दूसरा दृश्य

( स्थान : वही। समय बदला है। पापा भीतर के कमरे में कराह रहे हैं। मां और वसु की सहेली नीलू बैठक में बैठी हैं। बीच में पापा के खांसने और कराहने की आवाज आती है)

मां : नीलू... तुम दोनों की दोस्ती पक्की हैै। जब भी मायके आती हो, यहां आ ही जाती हो। कब आई... तुम्हारे वो कहां हैं!

नीलू : कल ही मां जी! वे आजकल बैंगलोर में हैं। बीच बीच में सास ससुर को देखने भी तो जाना पड़ता है।.... सोचा, ससुराल जाने से पहले मम्मी से मिल आऊं। ये तो कह रहे हैंं, मैं बैंगलोर में ही कोई जॉब कर लूं। बच्चे बड़े हो गए।

मां : अच्छा! कौन कौन सी क्लास में हैं!

नीलू : एक ही तो है मां जी... सातवीं में हो गई है।

मां : अच्छा! लड़का नहीं है.....लड़का भी हो जाएगा, अभी उम्र ही क्या है तुम्हारी।

नीलू : लड़का क्या करना मां जी! आजकल कौन लड़का है जो मां बाप के साथ रहता है। यह तो लड़कियां ही है, जो शादी के बाद भी मायके दौड़ी रहती हैं, चाहे वे बुलाएं या न बुलाएं। आपको पता ही है वैसे आजकल बुलाता बलाता कोई नहीं।..... वसु नहीं आई अभी...।

मां : सो तो ठीक है.....(लंबा सांस भरते हुए) बेटी! बैठो, मैें चाय बनाती हूं... वसु भी आती ही होगी।

(वसु भीतर आते ही अपना पर्स सोफे पर फैंक नीलू से लिपट जाती हैं)

वसु : अरे नीलू! कब आई! अब तो फोन भी नहीं करती, ऐसी क्या बिजी हो गई।

माना कि तू मस्त है, सहेली को याद कर लिया कर।

(पापा के खांसने की आवाज आती है... वसु अपने स्वर को धीमा करती है।)

.... यार! पापा की तबीयत ठीक नहीं है। बुखार सा है।

नीलू : देख लूं... क्या अंदर सोये हैं.....।

वसु : हां, रहने दे । आराम करने को कहा है डॉक्टर ने। बुखार उतर जाए तो ठीक हो जाएंगे।

नीलू : तुम्हारे उस मजनूं का क्या हुआ..... यार अब तो कुछ कर ही ले.... बहुत समय बीत गया। तेरे दोनों भाई अच्छी नौकरियों में लग गए। बड़ा तो इतनी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर हो गया है और छोटा तो बाहर ही है।

वसु : हां यार....उसने तो शादी कर ली। उसे शादी की बड़ी जल्दी मची हुई थी। वह अच्छा आदमी नहीं था यार! ...... .........मुझे पता चला, वह कहता था इसके साथ मुझे अपनी सास से भी शादी करनी पड़ेगी। पत्नी तो बाद में, सास पहले घर लानी पड़ेगी।

नीलू : हा, इतनी बद्‌तमीज! ये तो मजाक किया होगा।..... देरी तो तूने ही की... तुम्हारा भी कसूर है इसमें। एक, क्या नाम था....विजय.. विजय भी तो आता था

वसु : श... चुप कर अम्मी बहुत नाराज होंगी उसका नाम सुन कर।

नीलू : और तेरा वह बचपन का साथी जो न जाने कब तक घर के चक्कर काटता रहा..।

वसु : चल हट, शरारती कहीं की।

( मां का चाय ले कर प्रवेश )

वसु : अम्मी! आप क्यों लाए चाय। मैं बना लाती।

मां : कोई बात नहीं बेटा। तुम बातें करो। मैं भीतर इनकी टांगें दबाती हूं।

( मां चाय, नाश्ता रख भीतर जाती है।)

नीलू : वसु! जल्दी करो। मैं कहती हूं जल्दी करो। मैं भी कहीं देखती हूं। एक उम्र होती है कुछ करने की । हर काम के लिए कोई समय होता है।

वसु : ऐसा कुछ नहीं है यार! कुछ और सुना क्या हो रहा है... बेटी कहां पढ़ रही है।

नीलू : तूझे पता है आजकल लड़कियां पढ़ने में कितनी तेज हैं। हर क्लास में फर्स्ट या सैकेण्ड आती है।

वसु : बस तू उसे अच्छे से पढ़ा लिखा देना, बस।

नीलू : पापा को देख लूं.....

वसु : रहने दे.... शायद सोये हैं..... तू मिलेगी तो मेरे बारे में बहुत बोलेंगे.... डॉक्टर ने ज्यादा बोलने और टेंशन लेने को मना किया है....बहुत टेशन लेते हैं, अपने को हमेशा गिल्टी फील करते हैं। क्या करूं.......।

नीलू : अच्छा, मैं चलती हूं। फिर आऊंगी। अपना ख्याल रख... कमजोर हो गई है। हफ्‌ते में कम से कम एक बार ब्यूटी पार्लर जा कर चेहरे की मैसाज करवाया कर।

वसु : ठीक है... ठीक है... चल, बहुत बोलती है। तेरी पुरानी आदतें नहीं गईं...। आजकल सबके बाल धूप में सफेद हैं... धूप ही ऐसी है। सब की चमड़ी लटकी है फिर भी दमडी़ से कस कर बांधे रखते हैं। अब कुछ पता नहीं चलता यार....कभी सुंदर होना मंहगा पड़ता ह,ै कभी बड़ा सस्ता...देख मैं उम्र से दस साल छोटी लगती हूं ....लगती हूं न सिरफ पच्चीस की (हंसती है)।

(भीतर से पापा की खांसने कराहने और बोलने की आवाज.......)

नीलू : चलती हूं...फिर आऊंगी। पापा का ख्याल रख और अपना भी। बाय!

वसु : बाय! फिर आना, जरूर।

(नीलू के बाहर निकलने पर पापा को आवाज लगाती है।)

वसु : पापा! बाहर आ जाओ। नीलू गई...।

(मां, पापा को सहारे से बाहर ला कर सोफे पर बिठा देती है।)

मां : बेटा! मैं रसोई में कुछ करती हूं। तू थकी है, यहां पापा के साथ बैठ।

पापा पता नहीं कैसा बुखार है ये, उतरने का नाम ही नहीं ले रहा। सारा शरीर जैसे निचोड़ कर रख दिया। पूरे शरीर में दर्द.... जकड़न सी हो गई है।

वसुधा : पापा! दवाई तो आप पूरी खा रहे हैं न! आप पूरी दवाई नहीं खाते हैं,ये आप की पुरानी आदत है। डॉक्टर ने जितनी दवाई बताई है, उसका पूरा कोर्स करना होता है, तभी असर होता है।

पापा : बेटा! इतनी मंहगी दवाई। ये अंगे्रजी दवाईयां तो वैसे भी ढेर सारी लिख देते हैं।

वसुधा : महंगी हुईं तो क्या। सारे पैसे रिएंबर्स हो जाएंगे। मैंने ऑफिस में डिपेंडेंट में आपका और अम्मी का नाम ही तो दिया है। पैसे तो देर सबेर मिल ही जाएंगे।

पापा : खा रहा हूं बेटा! पर इन दवाईयों से खुश्की हो जाती है। भूख मर जाती है। पता नहीं ये बुखार उतर क्यों नहीं रहा। (खांसते हुए) मेरे ऊपर तुम्हारा बहुत भार और उपकार रह गया.... कुछ नहीं कर पाया मैं तुम्हारे लिए..... ये तोे तुम्हारी अपनी हिम्मत थी तो कॉलेज तक पढ़ गई।

वसुधा : आप बार बार ऐसा क्यों कहते हैं पापा। आप जो अपनी शक्ति और समय के अनुसार जितना कर सकते थे, आपने किया। तभी मैं आज नौकरी लगी हूं। मेरी पी0ए0 की नौकरी के लिए आपने क्या कुछ नहीं किया। किस किस के पास नहीं गये। कितनी दोैड़ धूप की आपने। वरना आज ऐसी अर्ध सरकारी संस्था में भी नौकरी कहां मिलती है...

(फोन की घण्टी बजती हैं)

.....ठहरो, मैें देखती हूं।....हेलो!.... हां, भेैया कैसे हैं......पापा ठीक हैं, बस बुखार अभी पूरा नहीं उतरा है।........हां, एक्स रे करवा लिया है। लंग्ज़ में इंफेक्शन है......जी , आप आसानी से आ सकते हैं तो ठीक है, नहीं तो रहने दें... जी भैया, रखती हूं।

पापा : किसका फोन था..... वीरेन्द्र का... वह नहीं आएगा। मुझे पता था। और वह छोटा धीरेन्द्र, वह तो सात समुद्र पार अमेरिका में है। वह तो मजबूर है, इतनी ूदर से कैसे आ सकता है।.... वह तो मेरे मरने पर भी नहीं पहुंच पाएगा।

वसुधा : ऐसा मत कहा कहिए पापा! आप बस आराम करिए।

पापा : अपनी हिम्मत से बहुत आगे बढ़ कर मैंने ऊंची से ऊंची शिक्षा दी इनको।... शायद संस्कार नहीं दे पाया। या अब संस्कार ही ऐसे हो गए हैं। बड़ा कभी इस ओर आता है तो उसे बताना पड़ता है कि घर हो के जाना।.....कैसा उल्टा जमाना आ गया है आज! पहले लड़कियाें को विदा करते थे, हम ने पढ़ा लिख कर लड़कों को विदा किया।.... कंपनियों से विवाह कर दिया। एक एक करके दोनाें ऐसे गए कि लौट कर नहीं आए........कभी लगता है ,वे लड़के नहीं, लड़कियां ही थे। ... मां की ठण्डी छांव, बाबुल का बेहड़ा, पहले बड़े ने छोड़ा, फिर छोटे ने। तभी इनके पहली बार घर से बाहर जाने पर तुम्हारी मां बहुत रोयी थी। मैंने उसे डांटा भी कि ऐसे क्यों रो रही है। इस तरह जोर जोर से रोना भी अपशकुन होता है। मैंने उसके रोने का राज उस वक्त नहीें जाना। आज सोचता हूं, सच ही वह विदाई की घड़ी थी।

वसुधा : पापा! आप आराम करिए। ये फिलॉस्फी मत झाड़िए, बस।

पापा : बेटा! पैसा ही तो सब कुछ नहीं होता जीवन में। जिनके पास पैसा नहीं है, वे भी जीते हैं। और वे ज्यादा मेलमिलाप से जीते हैं। कभी कभी कमी आप को और करीब लाती है और संपन्नता दूर करती है।

वसुधा : पापा! अब आप आराम करो। अब कुछ न बोलो और न सोचो। बस यहीं लेट जाओ। मैं अम्मीजी के साथ कुछ करती हूं।

तीसरा दृश्य

(स्थान : वही, केवल समय बदला है।

बैठक में रखे रेडियो पर गाना बज रहा है : नित खैर मनां सोह्‌णया मैं तेरी

दुआ ना कोई होर मंगदी ।

धीरे धीरे गाना बेकग्राउंड में जाता है।)

वसुधा : (अपने आपसे)

..... यह डायरी बार बार मेरे हाथों में क्यों आ जाती है....इसे अब मैं न लिखना चाहती हूं और न ही पढ़ना..... फिर भी ये पन्ने न जाने क्यों कबूतरों की तरह पंख फड़फड़ाते हैं......

पापा नहीं रहे।

मां रोती है...... मां का काम बस रोना है। सब औरतों का काम रोना है। बात बात में औरतें रोती हैं। गांव में तो सभी औरतें एक साथ बाकायदा स्वर से रोती थीं। कोई भी मरे, रोने की रस्म तो औरतों के ही जिम्मे थी।

वे रो देती थीं अचानक। और रोते रोते हंस देती थीं अचानक। कोई अपना नहीं रहा हो , चाहे बेगाना, वे एकदम रो देतीं। कभी अपने मेंं ही रोती रहतीं, कभी अपने में ही हंस देती। ऐसा केवल औरतें ही कर सकती हैं,आदमी नहीं।

डरी हुई रहतीं हमेशा......डरते डरते पूछती सब्जी का स्वाद... मिर्च ज्यादा तो नहीं नकम कम तो नहीं!, ....वे खाना नहीं, प्यार परोसती हैं। और जो खाते हैं नमक, नमक हरामी करते हैं।

पुराना समय छोड़ दीजिए, गांव भी छोड़ दीजिए... शहर में भी औरतें ही रोती हैं।

कहते हैं औरत के पेट में कोई बात नहीं पचती। बिल्कुल गलत है ये बात......।

आज भी वे छिपाए रखतीं हैं प्यार ताउम्र। और आप कहते हैं कि कोई बात नहीं पचती!

कभी ऐसे ही कोई अकेला मरद देखा आपने रोता हुआ.... या तीन चार मरद झुंड में इकट्‌ठे बैठ रोते देखे.... नहीं न। बस यही फर्क है।

पता है औरतों की एक जात को किसी भी बड़े आदमी के मरने पर रोने के लिए बुलाया जाता है। इन्हें बेड़नी कहा जाता है। ये मरने पर रोने की रस्म अदा करती हैं।

औरतें अब इतनी अनजान भी नहीं है, फिर भी।

उन्हें मालूम है उनके लिए अब आरक्षित है सीटें, सभाओं, विधानसभाओं में। वे बन सकतीं हैं विश्वसुंदरी। वे बन सकतीं हैं मन्त्री, प्रधान मन्त्री।

फिर भी वे दहलीज से बाहर नहीं जातीं। मां करतीं बेटे का इंतजार, बहन भाई का,पत्नी पति का। मां को ही ले लो। दहलीज तक लांघी, जब पापा की अस्थियां हरिद्वार ले जानी थीं।

पापा नहीं रहे।

छोटे भाई ने मां के नाम डॉलर भेजे, जो पापा की मृत्यु के तीन दिन बाद मिले। बड़े भाई ने इन्हें खुले मन से क्रिया कर्म पर खर्च किया और यश कमाया।

मां किसी तरह घिसट रही है। वह तेजी से चलती है, जोर जोर से बोलती है, सब काम करती है। पहले से ज्यादा एक्टिव हो गई है। शायद ऐसा जतलाना चाहती है कि कुछ हुआ ही नहीं।... या मां पर और जिम्मेबारी आन पड़ी है..या मुझे दिलासा देना चाहती है... वह अब कहती है... बेटा! सम्भल के। तूझे पराये घर जाना है।

कहां है मेरा घर और कहां है वह पराया घर, जो मेरा होगा। लोग कहने लगे है, मैंने जानबूझ कर अपना घर नहीं बसाया.. या मेरी अम्मी नहीं चाहती... या मेरे पापा नहीं चाहते थे। यह कहां तक सच है! सच कौन सा है! सब के अपने अपने सच हैं।

सच का अर्थ भी तो समझ नहीं आता। जैसे केवल मां ही जानती है बच्चे का जन्मस्थान, समय, बच्चे का पिता और जनने की पीड़ा। वैसे आप ही अपना सच जानते हैं। आपका सच कोई दूसरा नहीं जान सकता।

......जैसे अपना सच और समय मैं ही जानती हूं, मैं अब भी बाल रंगती हूं, यह मैं ही जानती हूं .... मैं हर हफ्‌ते ब्यूटी पार्लर जाती हूं......डिक्टेशन देती बार मेरा बॉस मुझ में क्या क्या देखता है... बस में या बाहर लोग मुझमें क्या क्या देखते हेैं...पीछे से क्या क्या फब्तियां कसते हैं....या फिर मेरा सच मेरी मां जानती है, क्योंकि वह भी मेरी तरह एक औरत है।

मेरी मां, जिसने पूरी उम्र बिता दी रसोई घर में। उसके लिए रसोई का एक कमरा ही घर है। वहीं बैठे रहना, सुस्ताना,बतियाना, निढाल होना और सोना। मां को मैंने कभी बाहर जाते नहीं देखा।... हां, वह गई अपने पति के फूल ले कर हरिद्वार अपने कमाऊ बेटे के साथ।

कोई भाई नहीं पहुंचा पिता के संस्कार के समय। हालांकि हमारे औरतें संस्कार के स्थान पर नहीं जातीं। .... मैं सब के मना करने पर भी गई.... मेरे पापा अनाथ नहीं है... मैं हूं न उनका बेटा।

....... मैंने जब मुखाग्नि दी तो जो भय मेरे भीतर शेष था, वह भी जाता रहा। सिरफ मैं वह संस्कार नहीं निभा पाई जिसमें मुखाग्नि देने के बाद चिता पर लेटे सम्बन्धी की ओर देखते हुए जोर से एक ख़ास स्वर चिल्लाया जाता है : हाय ओ मेरेया बापूआ... या हाय ओ मेरिए माए .......।

(वायलिन वादन के पीछे दूर से जैसे किसी और के कराहने की आवाज आती है।)

.......मृत्यु मेरे सामने सामने आई। पापा ने मुझे देखा... उन की आंखें डूबी डूबी थीं। वे बहुत निरीह लगे। देखा और ख़्ाामोश हो गए... सारी मोह ममता से परे, उस एक ही क्षण में। प्रेम का धागा धीमे से टूटा, दोनों तरफ झूला और लटक गया। ठीक ही कहा है किसी ने.... पल में पराई हो जाती है।

........अब कुछ नहीं बचा..मां ने सिसकते हुए उनकी आंखें बंद कर दीं, जो अब भी एकटक मुझे निहार रहीं थीं।

और मृत्यु... जो मेरे सामने सामने आई थी, शायद वापिस नहीं गई। आसपास मंडराती रही।.... वह छिपी बैठी है आज भी बिल्ली की तरह मां की पुरानी अलमारी में।

मगर, उसी क्षण मैं भय मुक्त हो गई। मेरे हाथ में पापा का हाथ बहुत देर तक गर्म रहा... बहुत देर तक पापा, मेरे लिए पापा ही थे। लोगों ने उन्हें मिट्‌टी कह कर मुझे उन से अलग किया था।

(मां के कराहने के साथ धीमी आवाज आती है।)

मां : बेटा! मुझे उठा कर बिठा जा....

वसुधा : आई अम्मी! (लगभग दौड़ती हुई अंदर भागने है। उतने में फोन की घण्टी बजती हैं।)

हैलो... हैलो...(फोन शायद कट जाता है)

(अंदर जाने लगती है तो फिर घण्टी बजती है)

हैलो! हेैलो! कोैन है भई... बोलता क्यों नहीं!‘...(शायद फोन फिर कट जाता है)

हैलो! ओह! छोटे भईया.... कहां है आप....

क्या!.... कल भी फोन किया था, हमें पता है भईया बाहर से फोन करते हो तो बहुत बिल आता है पर अम्मी जी तो उठ नहीं सकते न। शाम को मैं लेट पहुंचती हूं मैं तो फोन कौन उठाएगा...खैर आपकी भी मजबूरी है आप शाम को ही फोन कर सकते हैं......हमारी शाम, आपकी सुबह होती है, हमारी रात तो आप दिन।

(इस बीच मां के कराहने के साथ खीज भरी आवाज... मुझे उठा, जल्दी कर बेटा कहां है...)

छोटे भईया... हां, अम्मी ठीक हैं। सुनो मुझे बुला रही हैें। पिछले हफ्‌ते पेरालाइसिस का अटैक हो गया था, अब खुद उठ कर बैठ नहीं सकतीं।... क्या बड़े भईया, वे अभी नहीं आए, बिजी होंगे।...... इंजेक्शन लग रहे हैें भईया... उम्मीद है कुछ समय में उठ खड़ी होंगी।........मै उन्हें ज्यादा देर बिस्तर पर लेटने नहीं दूंगी।

हैलो...हैलो...हैलो.....(शायद फोन कट गया है... भीतर जैसे किसी के गिरने की आवाज आती है। वसुधा जोर से चिल्लाती हैः)

हा!...... अम्मी जी......!

चौथा दृश्य

(स्थान : वही, केवल समय बदला है।

बैठक का कमरा जैसे पुराना पड़ गया है, हालांकि परदे मोटे हो गए हैं। बैठक में एक ओर दीवान रखा है जिस पर धुली हुई चादर और गाव तकिए रखे करीने से रखे हैं। दरवाजे पर धीमे से दस्तक होती जो धीरे धीरे बढ़ती जाती है। वसु दौड़ती हुई आ कर दरवाजा खोलती है। तिरछी टोपी,पेंट कमीज़ पहने एक सभ्य सा आदमी भीतर आता है।)

वसु : अरे! इतनी देर कर दी। अब रिहसल कैसे पूरी होगी। जल्दी नहीं आ सकते थे..टोपी वाला : (हाथ में उठाया पैकेट इत्मीमान से मेज़ पर रख कर मजे से तकिया ले दीवान पर पसर जाता है।)

..... सामान भी तो लाना था हजूर।

मां : (भीतर से) कौन है वसु.... ये घण्टी तो ठीक करा दे, सब ठकाठक्‌ ठकाठक्‌ लगाते हेैं।

वसु : वही। नाटक वाले अम्मी जी! रिहसल करनी है। और जगह तो कहीं मिल नहीं रही। बस कुछ ही दिनों की बात है..... महीने भर में रिहसल बंद और घर में आराम।

मां : ठीक है, ठीक है। पानी धानी पिला देना इन्हें।

वसु : जी,अम्मी जी! ( सोफे पर बैठ जाती है।)

टोपी वाला : तुम दूर क्यों बैठ गई! आज कुछ थकी थकी लग रही हो। बात क्या है, बताओ तो । ये थकान किस तरह की है!

वसु : नहीं तो। कोई बात नहीं है। बस जरा ऑफिस में थक गई हूं। और कुछ नहीं।

टोपी वाला : इधर आओ, सिर दबा दूं। चैन मिलेगा।... या मैं ही उधर आता हूं।

( उठ कर आने लगता है।)

वसु : नहीं,नहीं। अभी बैठो। ऐसा कुछ नहीं है।

टोपी वाला : अच्छा, मैं कोक और कुछ सेंडविच लाया था। चलो पहले यही खाते हैं,शायद तुम्हारा मूड कुछ ठीक हो। फिर .......रिहसल होगी।

(आदमी कोक की बोतलें खोलता है। उसे गिलासों में पेग की तरह धीरे धीेरे डालता है। वसु सेंडविच एक प्लेट में सजा कर रखती है। लगे हाथ एक लाइट बंद कर वह रेडियो ऑन कर देती है। रेडियो पर एक गाना चला हुआ है : पिया बसंती रे...

नीम अंधेरे में दोनों खाते पीते हैं। एकाएक आदमी उठ कर उसकी कमर में हाथ डाल नाचने लगता है।)

कुछ देर बाद बेकग्राउंड में जोर से कराहने और चिल्लाने की आवाजें उभरती हैं।)

मां : कहां मर गई.... यह क्या लगा रखा है जोर से। मुझे पानी पिला।

वसु : आई अम्मीजी...( टोपी वाले से) चलो अब, जाओ।

(टोपी वाला आदमी धीमे से दरवाजा खोल बाहर निकल जाता है। वसु लाइट ऑन कर रेडियो धीमे करती है।)

अभी आती हूं अम्मी जी... बाहर आओगे।

मां : बाहर तो बाद में आऊंगी, पहले बता बाहर कौन था।

वसु : विक्रम.... विक्रम थे अम्मीजी, नाटक के एक एक्टर जो खलनायक का रोल कर रहे हैं।

मां : ठीक है, पानी पिला जा।

वसु : आई अम्मी।

(भीतर जाती है तो दरवाजे पर फिर दस्तक होती है।)

मां : पानी यहां रख दे। जा देख, अब कौन है!

(बैठक में आ कर जल्दी से बोतलें और प्लेट सोफे के नीचे छिपा कर दरवाजा खोलती है। एक सजीला युवक भीतर आता है। पेंट कमीज़ में चुस्त दुस्स्त और एक्टिव।)

युवक : हा प्रिये! हा उर्वशी! आज मुझे पूरे डायलॉग स्मरण हैं।

वसु : अच्छा! एक तो सुनाओ।

युवक : (करीब आते हुए) तुम बहुत सुंदर हो... तुम्हारी आंखें, तुम्हारे हाेंठ, तुम्हारे बाजू... तुम्हारे हाथ, हाथों में ये पतली पतली उंगलियां,...तुम्हारा ये, तुम्हारा वो....

वसु : अच्छा, जरा दूर रहो..।

युवक : मैंने प्यार किया है संध्या... कोई चोरी तो नहीं की।

वसु : प्यार तो मैंने भी किया है मगर...

युवक : मगर क्या... जब प्यार किया तो डरना क्या।

वसु : पता नहीं क्या कमी रह गई हमारे प्यार में...

युवक : कमी तो मुझे कोई नजर नहीं आती संध्या....

वसु : मैं नीच जात... तू बाह्‌मण का छोरा....

युवक : अगर मैं कहूं, मैं भी नीच जात... फिल्मी स्टोरी की तरह मैंने छिपायी अपनी जात।

वसु तो मैं बाह्‌मण की छोरी....

युवक : अच्छा! मैं अमीर... बहुत अमीर टाटा,बिरला, धीरू भाई का चेला...।

वसु तो मैं गांव की छोरी, जैसे बंसरी की तान...।

युवक : तो सीधे सीधे ही कह दो, हम ने कब्भी नीं मिलणा।

वसु : हां, विकल, हम नदी के दो पाट, हम पर्वत के दो ऊंचे शिखर... हम कभी मिल नहीं पाएंगे। जैसे मिल नहीं पाए हीर रांझा, फुलमूं रांझा..

युवक : मैं फिर बैठ कर पिऊंगा गांजा...

( दोनो हंसते हैं।)

अच्छा, चलता हूं, कई काम पड़े हैं।

वसु : थोड़ा और रूकते....

( युवक बाय बाय कर चला जाता है। वसु उदास सी सोफे पर बैठ जाती है।)

दरवाजे पर जोर की दस्तक। एकाएक दरवाजा खुलता है। गले में लाल रूमाल बांधे

सफेद पाजामे कुरते वाला एक अधेड़ सा गंजा और लफंगा सा आदमी भीतर आता है। दरवाजा बंद होते ही वह सोफे पर धम्म से बैठ जाता है। वसु रेडियो बंद कर टी.वी. ऑन कर देती है।)

गंजा आदमी : (रौब से) इतनी देर लगा दी दरवज्जा खोलने में।

वसु : श... मां भीतर है... धीरे बोलो। चाय पियोगे।

गंजा आदमी : (हंसते हुए) .. चाय का टेम है... सूंघ..कैसी मस्त बास है।

(अपना मुंह खोल कर वसु के मुंह के पास ले जाता है।)

वसु : हटो परे। क्या करते हो। पी कर आ गए...अब क्या ख़ाक रिहसल करोगे। बैठो यहां आराम से।

(पकड़ कर बिठा देती है।)

ग्ांजा आदमी : देख। तूझे ले जाऊंगा इक दिन यांह से। बंगला लूंगा तेरे लिए। तेरा साला कोई भाई नहीं आएगा तूझे लेने। मैं ही काम आऊंगा इक दिन। तूझे ले जाऊंगा इक दिन : (गाना गाता है और उसे बांहों में भरने का प्रयास करता है)

बाहों का तूझे हार मैं पहनाऊंगा इक दिन

सब देखते रह जाएंगे ले जाऊंगा इक दिन.... ओ महबूबा ओ महबूबा

मां : कौन आया वसु... चाय पिला दे।

गंजा आदमी : कौन! माताजी! कहां है माताजी! माताजी! मैं आपके पैरों में पड़ूंगा...।

वसु : आज आपने बहुत पी ली है। चलो, जाओ। फिर कभी आना।

गंजा आदमी : न, फिर कभी नहीं, आज ही। माता जी! माताजी!

(वसु उसे किसी तरह धक्का मार कर बाहर निकालती है

वह दरवाजा खोल फिर झांकता है।)

गंजा आदमी : शराबी की एक्टिंग कैसी रही... तूझे देख बिन पिए ही झूम जाते हैं जानेमन।

वसु : चोप..... बा ह र जा ओ......।

(वसु अपने को संभालने की कोशिश करती है। उतने में दरवाजे पर धीमी सी दस्तक होती है। पहले तो सुनाई नहीं पड़ती। गौर से सुनने पर लगता है कोई दस्तक दे रहा है।)

वसु : कौन है!

(कोई उत्तर नहीं आता। थोड़ी देर बार फिर दस्तक होती है।)

है कौन! बोलता क्यों नहीं.....।

(बाहर से धीमी सी पतली आवाज आती है।)

....... : मैं हूं जी...

वसु : मैं... कौन बकरी...

..... : नहीं जी, मैं हूं जी...।

वसु : तो भीतर आओ न...

(एक पतले युवक का प्रवेश जिसकी जीन का आसन घुटनों तक लम्बा है। वह बार बार अपनी जीन हाथ से ऊपर खींचता है। ऐसा लगता है उसकी जीन अब गिरी कि अब गिरी।)

भीतर क्यों नही आ रहे। बाहर खड़े किस का इंतजार कर रहे हो...।

ढीली पेंट वाला : मैं... मैं जी... सोच रहा था... आप पता नीं क्या सोचें।

वसु : सोचना क्या.... मैं तो इंतजार में थी कि तुम आाओ तो तुम्हारा रोल भी खतम करूं।

ढीली पेंट वाला : जी, मेरा रोल....(शर्मा कर मुंह ढांप लेता है)

वसु : ये क्या लड़कियों की तरह मुंह ढांप रहे हो...

ढीली पेंट वाला :जी...(शर्माता है।)

वसु : ऐसे शर्माने से तो नाटक नहीं होगा।.. यहां तो कोई नहीं है, स्टेज पर तो कितने ही लोग देख रहे होंगे।

ढीली पेंट वाला : पर डायरेक्टर साब कह रहे थे, मुझे कुछ नहीं दिखेगा। वहां तो लाइटें ही लाइटें होंगीं।

वसु : सो तो है। नाटक में हमें सब देखते हैं, हम किसी को नहीं देख सकते। लगता है हमारे सामने कोई नहीं हैं, जबकि सब हमें देख रहे होते हैं।

(तभी दरवाजे से हवा आती है। वह हाथ से अपनी पेंट सम्भालता है।)

ढीली पेंट वाला : ये दरवाजा, खिड़की तो बंद कर दो जी... मेरी पेंट....।

(वसु दरवाजा कस कर बंद कर देती है।)

ये कुंडी क्यूं लगा दी जी...(शर्माता है)

वसु : कुंडी नहीं लागई, बस कस कर बंद किया है। आपकी पेंट जो गिर जाएगी।

ढीली पेंट वालाः आप बहुत मजाक करती हैं।

वसु : डायलॉग याद हैं न...

ढीली पेंट वाला : जी... ये जो हवा है...ये जो हवा है (पेंट पकड़ता है) ये बड़ी खराब है जी। दिखाई तो देती नहीं। पता नहीं कब अचानक चल पड़े और....(फिर पेंट पकड़ता है).....

वसु : हवा का आकार नहीं, रंग नहीं, रूप नहीं...

ढीली पेंट वाला : फिर भी होती है जी... हर जगह..यांह भी, बांह भी।

वसु : दाएं भी, बाएं भी।

ढीली पेंट वाला : ऊपर भी, नीचे भी (छत और दीवान के नीचे इशारा करता है। तभी हवा चलती है और दरवाजा खुलने लगता है साथ ही उसकी पेंट गिरने को हो जाती है।)

मैं चलता हूं जी... अब साल़ी बेल्ट लगानी पड़ेगी..।

(बाहर चला जाता है। वसु हंसते हुए दरवाजा बंद कर देती है और अस्त व्यस्त सामान ठीक करने लगती है.... उतने में दरवाजे पर टक्‌...टक्‌ होती है और एक आवाज आती है।)

.......... मे आई कम इन सर.... मे आई कम इन सर..... मे आई कम इन सर जी........!

(बौने आदमी का प्रवेश। कद छोटा ,वैसे सांगोपांग। नर्तकों जैसा कुरता पाजामा, कमर में पटका।)

बौना आदमी : मे आई कम इन.....सर... ओह्‌ मैडमजी....।

वसु : भीतर तो आ ही गए हो, अब क्या मे आई........

बौना आदमी : पूछ कर आना पड़ता है म्हाराज़ जी... जनाना जात... ऐस्से ही कैस्से घुस आणा भीत्तर...मे आई कम इन तो बोलणा ही पड़ता है चाहे बाहर हो चाहे भीत्तर।

वसु : अच्छा....अच्छा.....

बौना आदमी : (जेब से कागज निकालते हुए) एह देखो मेरा सर्टिफिकेट..... सत्तर परसेंट अपंग हूं। मुझे इस से हर जगह छूट मिलती है म्हाराज़जी।

वसु : अच्छा... पर नाटक में कोई छूट नहीं है किसी को....।

बौना आदमी : नहीं म्हाराज! हर जगह छूट है... मैं मन्त्री, मुख्यमन्त्री सबसे अलग से मिलता हूं। मुझे एकदम अंदर जाने देते हैं.... मुख्य मन्त्री ने तो मुझे गोद में उठा लिया था...।

वसु : अच्छा!

बौना आदमी : हां, सच्ची मुच्ची। एक बार मुझे मन्त्री जी ने कन्धे पर उठा लिया और लग्गे नाचणे.... हां सच्ची...इन की भी तो पराईवेट लैफ होती है म्हाराज़... इन्हें तो कोई भी जीने नहीं देता। हर जगह पत्रकार, फोटूग्राफर, कैमरे लश लश..ये बेचारे क्या करें। अब तो स्टिंग प्रेशन भी हो जाता है म्हाराज! पता ही नहीं चलता और सी0डी0 बन जाती है।.... आपने तो नहीं छिपा रक्खा कहीं कैमरा....( टेबल,कुर्सी के पीछे झांकता है)।

वसु : यांह कांह कैमरा म्हाराज....अगली बात सुणाओ।

बौना आदमी : हां, मेरे को उठा लियाजी उन्होंने कन्धे पर और लग्गे नाचणे... मैडम जी आप भी नाच्चो न मेरे साथ...नाच्चो न.....

(पहले अकेला ही नाचता है फिर वसु का हाथ पकड़ कर गाने और नाचने लगता है।

नीलिमा म्हारी नीलिमा ओ नीलिमा म्हारी नीलिमा.......)

वसु : मत करो ऐसे..... ये क्या कर रहे हो....।

बौना आदमी : नाच्चो मैडम जी नाच्चो...( वसु की बांह पकड़ जोर से मरोड़ देता है। वसु जैसे रोने को हो जाती है।)

वसु : छोड़ो छोड़ो... जाओ.... अब एकदम निकल जाओ...(धक्का दे बाहर करती है)

बौना आदमी : (जाते हुए) ठीक है मैडम जी... बाय ... बाय ....।

(वसु बांह सहलाती हुई जैसे रोने को हो जाती है।)

मां : मुझे बाहर ले जा छोकरी। क्या शोर शराबा मचा रखा है! बंद कर ये नाटक फाटक। घर में कौन नाटक करता है।

वसु : आई अम्मी।

(भीतर जा कर मां को सहारे से बाहर लाती है। मां ने एक हाथ में सहारे के लिए स्टील की सोटी ले रखी है, दूसरे से वसु के कंधे का सहारा लिया हुआ है। मां की एक टांग शरीर का कुछ भार उठा रही है। एक बांह भी कुछ ठीक लग रही है।)

मां : जिसका कोई न हो , वह सुखी रहता है। चलो कोई नहीं है अपना... इतनी तो तसल्ली रहती है। जिसका होते हुए भी न हो... कहने को तो सब कोई है, असल में न होने के बरोबर ।

वसु : (हंसते हुए) ये कौन सी फिलॉसिफी हुई...।

मां : (गम्भीरता से) हंसने की बात नहीं है अब... विजय की पत्नी नहीं रही। मेरे पास बेचारा लगातार आ रहा है। पहली पत्नी के दो बच्चे है... एक पांच साल का बेटा और दूसरी तीन साल की बेटी। कर ले उससे शादी। अच्छा भला नौकरी में लगा है। उम्र भी ज्यादा नहीं और मरद की उम्र थोड़े देखे जाती है।

वसु : वह तो बड़ा डरपोक और कमीना आदमी निकला अम्मी। कहते हैं उसने पत्नी की बीमारी की कोई परवाह नहीं की। ऐसे भी कोई जवानी में मरती है! आखिर मरने के लिए भी तो सौ बहाने चाहिए। आजकल हर बीमारी का इलाज है....। और मैं उसके बच्चों को नहीं पालूंगी। मैं दूसरे के बच्चों को क्यों पालूं...।

मां : तूने हम बूढ़ों को पाला तो बच्चों को पालने में कौन सी आफत आ जाएगी।

वसु : मैं अपने बच्चोें को पालूंगी, केवल अपने बच्चों को। किसी गैर का बोझ ढोने की क्षमता नहीं रही है अम्मी, अब मुझ में।

मां : तेेरे बच्चे कहां हैं और कब होंगे। शादी तो कर।..... कोई है तो खुद ही बता .... मैं बात करती हूं। .....वह जो ढीली सी पैंट वाला आया था इक दिन।

वसु : उसकी पैंट बार बार नीचे लटकती है। बड़ा चालू आदमी है वो...पैंट लटकती ऐसे है जैेसे अभी गिरी कि अभी गिरी। कूल्हे के नीचे नीचे फंसी रहती है। जरा सी हवा चले तो लिफाफे सी उड़ जाए.....पर पट्‌ठा गिरने नहीं देता कभी।

मां : तो ऐसे ही बैठी रहेगी उम्र भर, घर बार नहीं बसाएगी...।

वसु : (कुछ सोचने के बाद) मैंने कहा न, मैं अपने ही बच्चे को पालूंगी.....।

मां : कहां है तुम्हारा बच्चा, क्या आसमान से टपकेगा...!

वसु : वह मेरे भीतर है मां......(पेट पर हाथ फेरती है)।

मां : क्या..... अब मजाक करके असली बात न टाल। यह कोई नाटक नहीं है। ज़िंदगी की सच्चाई की बात हो रही है।

वसु : सच्च, अम्मीजी.... वह मेरे भीतर है। और मैं अब इसे ही पालूंगी।

मां : क्या बकवास कर रही है छोकरी....! ( बेकग्राउंड में तबले की आवाज )

वसु : मैं ठीक कह रही हूं अम्मी।

मां : क्या........!

( मां का मुंह खुला का खुला रह जाता है। अचानक वह कांप उठती है। वह सोटी तड़ातड़ वसु को मारने लगती है। जैसे उसके पेरालाइसिस से सुन्न बांह में एकदम रक्त का संचार हो जाता है। वसु चीखने लगती है। तबले की आवाज द्रुत होती जाती है।)

वसु : हाय अम्मी जी! मत मारो! मत मारो! हाय मैं मर गई। मत मारो अम्मी।

मां : बोल किसका पाप है ये.......।

वसु : पता नहीं... मुझे मत मारो, सच मुझे नहीं पता।

मां : कैसे नहीं पता नही.ं... कैसी बातें कर रही है तू..।

वसु : नहीं पता अम्मीजी ....सच्च बोल रही हूं। मुझे इतना पता है कि ये मेरा है, सिरफ मेरा।

मां : छोकरी.....मुझे जहर दे दे। (एक झांपड़ मार हांफती हुई सोफे पर निढाल हो

धड़ाम्‌ से गिर जाती है।

बेक ग्राउंड में वायलन की धुन।)

वसु : अम्मी जी..अम्मी जी..(एकदम नीचे से उठ कर मां को हिलाती है। मां निश्चेष्ट

पड़ी रहती है। लंगड़ाती हुई दौड़ कर भीतर से पानी

ला कर पिलाने की कोशिश करती है। पानी मुंह से दूसरी

ओर निकल जाता है। रोते हुए जोर से पानी के छींटे मुंह पर

मारती है जिससे मां को होश आने लगती है।)

मां : (वसु के सिर पर हाथ फेरते हुए)

वसु! मेरी बच्ची!...किस किस का पाप पालती रहेगी तू मेरी बच्ची! अपने भाईयों को तूने पाला... यह पहला पाप किया था तूने। अपने पापा को पाला.. ये दूसरा पाप था। मुझे पाला... ये तीसरा पाप था। और अब यह चौथा पाप..... कैसे पालेगी...!

(दोनों मां बेटी एक दूसरे को दिलासा देते हुए रोने लगती हैं। मां उसे बार बार सहलाती है। वायलिन और तबला जोर से बजने के बाद धीरे धीरे बेकग्राउंड में चला जाता है।)

सुदर्शन वशिष्ठ

24 सितम्बर 1949 को पालमुपर (हिमाचल) में जन्म। 125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन।

वरिष्ठ कथाकार। नौ कहानी संग्रह, दो उपन्यास, दो नाटक, चार काव्य संकलन, एक व्यग्ंय संग्रह। चुनींदा कहानियों के चार संकलन। हिमाचल की संस्कृति पर विशेष लेखन में ‘‘हिमालय गाथा'' नाम से छः खण्डों में पुस्तक श्रृंखला के अतिरिक्त संस्कृति व यात्रा पर बीस पुस्तकें। पांच कहानी संग्रह और दो काव्य संकलनों के अलावा सरकारी सेवा के दौरान सत्तर पुस्तकों का सपांदन।

जम्मू अकादमी, हिमाचल अकादमी, साहित्य कला परिषद्‌ (दिल्ली प्रशासन) तथा व्यंग्य यात्रा दिल्ली सहित कई स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा साहित्य सेवा के लिए पुरस्कृत।हाल ही में हिमाचल अकादमी से ‘‘जो देख रहा हूं'' काव्य संकलन पुरस्कृत।

कई रचनाओं का भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद। कथा साहित्य तथा समग्र लेखन पर हिमाचल तथा बाहर के विश्वविद्‌यालयों से दस एम0फिल0 व पीएच0डी0।

पूर्व उपाध्यक्ष/सचिव हिमाचल अकादमी तथा उप निदेशक संस्कृति विभाग। पूर्व सदस्य साहित्य अकादेमी, दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।

वर्तमान सदस्यः राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, आकाशवाणी सलाहकार समिति, विद्याश्री न्यास भोपाल।

पूर्व फैलो : राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्‌।

सीनियर फैलो : संस्कृति मन्त्रालय भारत सरकार।

सम्प्रति : ‘‘अभिनंदन'' कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला—171009. (094180—85595, 0177— 2620858)

ई—मेल : vashishthasudarshan@yahoo,com