नाग—पूजा
मुंशी प्रेमचंद
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जन्म
प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन् १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।
जीवन
धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।
शादी
आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, ष्उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।.......ष् उसके साथ — साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है ष्पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दियारू मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।ष् हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।
विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।
शिक्षा
अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने — जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।
साहित्यिक रुचि
गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो — तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।
आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद ष्तिलस्मे — होशरुबाष् पढ़ डाली।
अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी — बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।
तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ — साथ रहा।
प्रेमचन्द की दूसरी शादी
सन् १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन् १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।
यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।
व्यक्तित्व
सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा ष्हमारा काम तो केवल खेलना है— खूब दिल लगाकर खेलना— खूब जी— तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात् — पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, ष्तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।ष् कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी—शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।
जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं ष्कि जाड़े के दिनों में चालीस — चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।ष्
प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी—शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।
ईश्वर के प्रति आस्था
जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे — धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा ष्तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो — जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।ष्
मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था — ष्जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।ष्
प्रेमचन्द की कृतियाँ
प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन् १८९४ ई० में ष्होनहार बिरवार के चिकने—चिकने पातष् नामक नाटक की रचना की। सन् १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय ष्रुठी रानीष् नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन् १९०४—०५ में ष्हम खुर्मा व हम सवाबष् नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा—जीवन और विधवा—समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।
जब कुछ आर्थिक निजिर्ंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।
इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।
ष्सेवा सदनष्, ष्मिल मजदूरष् तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए ष्महाजनी सभ्यताष् नाम से एक लेख भी लिखा था।
मृत्यु
सन् १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने ष्प्रगतिशील लेखक संघष् की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण—कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।
नाग—पूजा
प्रातःकाल था। आषढ़ का पहला दौंगड़ा निकल गया था। कीट—पतंग चारों तरफ रेंगते दिखायी देते थे। तिलोत्तमा ने वाटिका की ओर देखा तो वृक्ष और पौधे ऐसे निखर गये थे जैसे साबुन से मैले कपड़े निखर जाते हैं। उन पर एक विचित्र आध्यात्मिक शोभा छायी हुई थी मानों योगीवर आनंद में मग्न पड़े हों। चिडियों में असाधारण चंचलता थी। डाल—डाल, पात—पात चहकती फिरती थीं। तिलोत्तमा बाग में निकल आयी। वह भी इन्हीं पक्षियों की भॉँति चंचल हो गयी थी। कभी किसी पौधे की देखती, कभी किसी फूल पर पड़ी हुई जल की बूँदो को हिलाकर अपने मुँह पर उनके शीतल छींटे डालती। लाज बीरबहूटियॉँ रेंग रही थी। वह उन्हें चुनकर हथेली पर रखने लगी। सहसा उसे एक काला वृहत्काय सॉँप रेंगता दिखायी—दिया। उसने पिल्लाकर कहा अम्मॉँ, नागजी जा रहे हैं। लाओ थोड़ा—सा दूध उनके लिए कटोरे में रख दूं।
अम्मॉँ ने कहा जाने दो बेटी, हवा खाने निकले होंगे।
तिलोत्तमा गर्मियों में कहॉँ चले जाते हैं ? दिखायी नहीं देते।
मॉँ कहीं जाते नहीं बेटी, अपनी बॉँबी में पड़े रहते हैं।
तिलोत्तमा और कहीं नहीं जाते ?
मॉँ बेटी, हमारे देवता है और कहीं क्यों जायेगें ? तुम्हारे जन्म के साल से ये बराबर यही दिखायी देतें हैं। किसी से नही बोलते। बच्चा पास से निकल जाय, पर जरा भी नहीं ताकते। आज तक कोई चुहिया भी नहीं पकड़ी।
तिलोत्तमा तो खाते क्या होंगे ?
मॉँ बेटी, यह लोग हवा पर रहते हैं। इसी से इनकी आत्मा दिव्य हो जाती है। अपने पूर्वजन्म की बातें इन्हें याद रहती हैं। आनेवाली बातों को भी जानते हैं। कोई बड़ा योगी जब अहंकार करने लगता है तो उसे दंडस्वरुप इस योनि में जन्म लेना पड़ता है। जब तक प्रायश्चित पूरा नहीं होता तब तक वह इस योनि में रहता है। कोई—कोई तो सौ—सौ, दो—दो सौं वर्ष तक जीते रहते हैं।
तिलोत्तमा इसकी पूजा न करो तो क्या करें।
मॉँ बेटी, कैसी बच्चों की—सी बातें करती हो। नाराज हो जायँ तो सिर पर न जाने क्या विपत्ति आ पड़े। तेरे जन्म के साल पहले—पहल दिखायी दिये थे। तब से साल में दस—पॉँच बार अवश्य दर्शन दे जाते हैं। इनका ऐसा प्रभाव है कि आज तक किसी के सिर में दर्द तक नहीं हुआ।
कई वर्ष हो गये। तिलोत्तमा बालिका से युवती हुई। विवाह का शुभ अवसर आ पहुँचा। बारात आयी, विवाह हुआ, तिलोत्तमा के पति—गृह जाने का मुहूर्त आ पहुँचा।
नयी वधू का श्रृंगार हो रहा था। भीतर—बाहर हलचल मची हुई थी, ऐसा जान पड़ता था भगदड़ पड़ी हुई है। तिलोत्तमा के ह्रदय में वियोग दुरूख की तरंगे उठ रही हैं। वह एकांत में बैठकर रोना चाहती है। आज माता—पिता, भाईबंद, सखियॉँ—सहेलियॉँ सब छूट जायेगी। फिर मालूम नहीं कब मिलने का संयोग हो। न जाने अब कैसे आदमियों से पाला पड़ेगा। न जाने उनका स्वभाव कैसा होगा। न जाने कैसा बर्ताव करेंगे। अममाँ की अॉंखें एक क्षण भी न थमेंगी। मैं एक दिन के लिए कही, चली जाती थी तो वे रो—रोकर व्यथित हो जाती थी। अब यह जीवनपर्यन्त का वियोग कैसे सहेंगी ? उनके सिर में दर्द होता था जब तक मैं धीरे—धीरे न मलूँ, उन्हें किसी तरह कल—चौन ही न पड़ती थी। बाबूजी को पान बनाकर कौन देगा ? मैं जब तक उनका भोजन न बनाऊँ, उन्हें कोई चीज रुचती ही न थी? अब उनका भोजन कौन बानयेगा ? मुझसे इनको देखे बिना कैसे रहा जायगा? यहॉँ जरा सिर में दर्द भी होता था तो अम्मॉं और बाबूजी घबरा जाते थे। तुरंत बैद—हकीम आ जाते थे। वहॉँ न जाने क्या हाल होगा। भगवान् बंद घर में कैसे रहा जायगा ? न जाने वहॉँ खुली छत है या नहीं। होगी भी तो मुझे कौन सोने देगा ? भीतर घुट—घुट कर मरुँगी। जगने में जरा देर हो जायगी तो ताने मिलेंगे। यहॉँ सुबह को कोई जगाता था, तो अम्मॉँ कहती थीं, सोने दो। कच्ची नींद जाग जायगी तो सिर में पीड़ा होने लगेगी। वहॉँ व्यंग सुनने पड़ेंगे, बहू आलसी है, दिन भर खाट पर पड़ी रहती है। वे (पति) तो बहुत सुशील मालूम होते हैं। हॉँ, कुछ अभिमान अवश्य हैं। कहों उनका स्वाभाव निठुर हुआ तो............?
सहसा उनकी माता ने आकर कहा—बेटी, तुमसे एक बात कहने की याद न रही। वहॉं नाग—पूजा अवश्य करती रहना। घर के और लोग चाहे मना करेंय पर तुम इसे अपना कर्तव्य समझना। अभी मेरी अॉंखें जरा—जरा झपक गयी थीं। नाग बाबा ने स्वप्न में दर्शन दिये।
तिलोत्तमा अम्मॉँ, मुझे भी उनके दर्शन हुए हैं, पर मुझे तो उन्होंले बड़ा विकाल रुप दिखाया। बड़ा भंयंकर स्वप्न था।
मॉँ देखना, तुम्हारे धर में कोई सॉँप न मारने पाये। यह मंत्र नित्य पास रखना।
तिलोत्तमा अभी कुछ जवाब न देने पायी थी कि अचानक बारात की ओर से रोने के शब्द सुनायी दिये, एक क्षण में हाहाकर मच गया। भंयकर शोक—घटना हो गयी। वर को सौंप ने काट लिया। वह बहू को बिदा कराने आ रहा था। पालकी में मसनद के नीचे एक काला साँप छिपा हुआ था। वर ज्यों ही पालकी में बैठा, साँप ने काट लिया।
चारों ओर कुहराम मच गया। तिलात्तमा पर तो मनों वज्रपात हो गया। उसकी मॉँ सिर पीट—पीट रोने लगी। उसके पिता बाबू जगदीशचंद्र मूर्चि्छत होकर गिर पड़े। ह्रदयरोग से पहले ही से ग्रस्त थे। झाड़—फूँक करने वाले आये, डाक्टर बुलाये गये, पर विष घातक था। जरा देर में वर के होंठ नीले पड़ गये, नख काले हो गये, मूर्छा आने लगी। देखते—देखते शरीर ठंडा पड़ गया। इधर उषा की लालिमा ने प्र ति को अलोकित किया, उधर टिमटिमाता हुआ दीपक बुझ गया।
जैसे कोई मनुष्य बोरों से लदी हुई नाव पर बैठा हुआ मन में झुँझलाता है कि यह और तेज क्यों नहीं चलती , कहीं आराम से बैठने की जगह नहीं, राह इतनी हिल क्यों रही हैं, मैं व्यर्थ ही इसमें बैठाय पर अकस्मात् नाव को भँवर में पड़ते देख कर उसके मस्तूल से चिपट जाता है, वही दशा तिलोत्तमा की हुई। अभी तक वह वियोगी दुरूख में ही मग्न थी, ससुराल के कष्टों और दुर्व्यवस्थाओं की चिंताओं में पड़ी हुई थी। पर, अब उसे होश आया की इस नाव के साथ मैं भी डूब रही हूँ। एक क्षण पहले वह कदाचित् जिस पुरुष पर झुँझला रही थी, जिसे लुटेरा और डाकू समझ रही थी, वह अब कितना प्यारा था। उसके बिना अब जीवन एक दीपक थाय बुझा हुआ। एक वृक्ष थाय फल—फूल विहीन। अभी एक क्षण पहले वह दूसरों की इर्ष्या का कारण थी, अब दया और करुणा की।
थोड़े ही दिनों में उसे ज्ञात हो गया कि मैं पति—विहीन होकर संसार के सब सुखों से वंचित हो गयी।
एक वर्ष बीत गया। जगदीशचंद्र पक्के धर्मावलम्बी आदमी थे, पर तिलोत्तमा का वैधव्य उनसे न सहा गया। उन्होंने तिलोत्तमा के पुनर्विवाह का निश्चय कर लिया। हँसनेवालों ने तालियॉँ बाजायीं पर जगदीश बाबू ने हृदय से काम लिया। तिलात्तमा पर सारा घर जान देता था। उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई बात न होने पाती यहॉँ तक कि वह घर की मालकिन बना दी गई थी। सभी ध्यान रखते कि उसकी रंज ताजा न होने पाये। लेकिन उसके चेहरे पर उदासी छायी रहती थी, जिसे देख कर लोगों को दुरूख होता था। पहले तो मॉँ भी इस सामाजिक अत्याचार पर सहमत न हुईय लेकिन बिरादरीवालों का विरोध ज्यों—ज्यों बढ़ता गया उसका विरोध ढीला पड़ता गया। सिद्धांत रुप से तो प्रायरू किसी को आपत्ति न थी किन्तु उसे व्यवहार में लाने का साहस किसी में न था। कई महीनों के लगातार प्रयास के बाद एक कुलीन सिद्धांतवादी, सुशिक्षित वर मिला। उसके घरवाले भी राजी हो गये। तिलोत्तमा को समाज में अपना नाम बिकते देख कर दुरूख होता था। वह मन में कुढ़ती थी कि पिताजी नाहक मेरे लिए समाज में नक्कू बन रहे हैं। अगर मेरे भाग्य में सुहाग लिखा होता तो यह वज्र ही क्यों गिरता। तो उसे कभी—कभी ऐसी शंका होती थी कि मैं फिर विधवा हो जाऊँगी। जब विवाह निश्चित हो गया और वर की तस्वीर उसके सामने आयी तो उसकी अॉंखों में अॉंसू भर आये। चेहरे से कितनी सज्जनता, कितनी दृढ़ता, कितनी विचारशीलता टपकती थी। वह चित्र को लिए हुए माता के पास गयी और शर्म से सिर झुकाकर बोली—अम्मॉं, मुँह मुझे तो न खोलना चाहिए, पर अवस्था ऐसी आ पड़ी है कि बिना मुँह खोले रहा नहीं जाता। आप बाबूजी को मना कर दें। मैं जिस दशा में हूँ संतुष्ट हूँ। मुझे ऐसा भय हो रहा है कि अबकी फिर वही शोक घटना.............
मॉँ ने सहमी हुई अॉंखों से देख कर कहा बेटी कैसी अशगुन की बात मुँह से निकाल रही हो। तुम्हारे मन में भय समा गया है, इसी से यह भ्रम होता है। जो होनी थी, वह हो चुकी। अब क्या ईश्वर क्या तुम्हारे पीछे पड़े ही रहेंगे ?
तिलोत्तमा हॉँ, मुझे तो ऐसा मालूम होता है ?
मॉँ क्यों, तुम्हें ऐसी शंका क्यों होती है ?
तिलोत्तमा न जाने क्यो ? कोई मेरे मन मे बैठा हुआ कह रहा है कि फिर अनिष्ट होगा। मैं प्रयारू नित्य डरावने स्वप्न देखा करती हूँ। रात को मुझे ऐसा जान पड़ता है कि कोई प्राणी जिसकी सूरत सॉँप से बहुत मिलती—जुलती है मेरी चारपाई के चारों ओर घूमता है। मैं भय के मारे चुप्पी साध लेती हूँ। किसी से कुछ कहती नहीं।
मॉँ ने समझा यह सब भ्रम है। विवाह की तिथि नियत हो गयी। यह केवल तिलोत्तमा का पुनसर्ंस्कार न था, बल्कि समाज—सुधार का एक क्रियात्मक उदाहरण था। समाज—सुधारकों के दल दूर से विवाह सम्मिलित होने के लिए आने लगे, विवाह वैदिक रीति से हुआ। मेहमानों ने खूब वयाख्यान दिये। पत्रों ने खूब आलोचनाऍं कीं। बाबू जगदीशचंद्र के नैतिक साहस की सराहना होने लगी। तीसरे दिन बहू के विदा होने का मुहूर्त था।
जनवासे में यथासाध्य रक्षा के सभी साधनों से काम लिया गया था। बिजली की रोशनी से सारा जनवास दिन—सा हो गया था। भूमि पर रेंगती हुई चींटी भी दिखाई देती थी। केशों में न कहीं शिकन थी, न सिलवट और न झोल। शामियाने के चारों तरफ कनातें खड़ी कर दी गयी थी। किसी तरफ से कीड़ो—मकोड़ों के आने की संम्भावना न थीय पर भावी प्रबल होती है। प्रातरूकाल के चार बजे थे। तारागणों की बारात विदा हो रही थी। बहू की विदाई की तैयारी हो रही थी। एक तरफ शहनाइयॉँ बज रही थी। दूसरी तरफ विलाप की आर्त्तध्वनि उठ रही थी। पर तिलोत्तमा की अॉंखों में अॉंसू न थे, समय नाजुक था। वह किसी तरह घर से बाहर निकल जाना चाहती थी। उसके सिर पर तलवार लटक रही थी। रोने और सहेलियों से गले मिलने में कोई आनंद न था। जिस प्राणी का फोड़ा चिलक रहा हो उसे जर्राह का घर बाग में सैर करने से ज्यादा अच्छा लगे, तो क्या आश्चर्य है।
वर को लोगों ने जगया। बाजा बजने लगा। वह पालकी में बैठने को चला कि वधू को विदा करा लाये। पर जूते में पैर डाला ही था कि चीख मार कर पैर खींच लिया। मालूम हुआ, पॉँव चिनगारियों पर पड़ गया। देखा तो एक काला साँप जूते में से निकलकर रेंगता चला जाता था। देखते—देखते गायब हो गया। वर ने एक सर्द आह भरी और बैठ गया। अॉंखों में अंधेरा छा गया।
एक क्षण में सारे जनवासे में खबर फैली गयी, लोग दौड़ पड़े। औषधियॉँ पहले ही रख ली गयी थीं। सॉँप का मंत्र जाननेवाले कई आदमी बुला लिये गये थे। सभी ने दवाइयॉँ दीं। झाड़—फूँक शुरु हुई। औषधियॉँ भी दी गयी, पर काल के समान किसी का वश न चला। शायद मौत सॉँप का वेश धर कर आयी थी। तिलोत्तमा ने सुना तो सिर पीट लिया। वह विकल होकर जनवासे की तरफ दौड़ी। चादर ओढ़ने की भी सुधि न रही। वह अपने पति के चरणों को माथे से लगाकर अपना जन्म सफल करना चाहती थी। घर की स्त्रियों ने रोका। माता भी रो—रोकर समझाने लगी। लेकिन बाबू जगदीशचन्द्र ने कहा—कोई हरज नहीं, जाने दो। पति का दर्शन तो कर ले। यह अभिलाषा क्यों रह जाय। उसी शोकान्वित दशा में तिलोत्तमा जनवासे में पहुँची, पर वहॉँ उसकी तस्कीन के लिए मरनेवाले की उल्टी सॉँसें थी। उन अधखुले नेत्रों में असह्य आत्मवेदना और दारुण नैराश्य।
इस अद्भुत घटना का सामाचार दूर—दूर तक फैल गया। जड़वादोगण चकित थे, यह क्या माजरा है। आत्मवाद के भक्त ज्ञातभाव से सिर हिलाते थे मानों वे चित्रकालदर्शी हैं। जगदीशचन्द्र ने नसीब ठोंक लिया। निश्चय हो गया कि कन्या के भाग्य में विधवा रहना ही लिखा है। नाग की पूजा साल में दो बार होने लगी। तिलोत्तमा के चरित्र में भी एक विशेष अंतर दीखने लगा। भोग और विहार के दिन भक्ति और देवाराधना में कटने लगे। निराश प्राणियों का यही अवलम्ब है।
तीन साल बीत थे कि ढाका विश्वविद्यालय के अध्यापक ने इस किस्से को फिर ताजा किया। वे पशु—शास्त्र के ज्ञाता थे। उन्होंने साँपों के आचार—व्यवहार का विशेष रीति से अध्ययन किया। वे इस रहस्य को खोलना चाहते थे। जगदीशचंद्र को विवाह का संदेश भेजा। उन्होंने टाल—मटोल किया। दयाराम ने और भी आग्रह किया। लिखा, मैने वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए यह निश्चय किया है। मैं इस विषधर नाग से लड़ना चाहता हूँ। वह अगर सौ दॉँत ले कर आये तो भी मुझे कोई हानि नहीं पहुँचा सकता, वह मुझे काट कर आप ही मर जायेगा। अगर वह मुझे काट भी ले तो मेरे पास ऐसे मंत्र और औषधियॉँ है कि मैं एक क्षण में उसके विष को उतार सकता हूँ। आप इस विषय में कुछ चिंता न किजिए। मैं विष के लिए अजेय हूँ। जगदशीचंद्र को अब कोई उज्र न सूझा। हॉँ, उन्होंने एक विशेष प्रयत्न यह किया कि ढाके में ही विवाह हो। अतएब वे अपने कुटुम्बियों को साथ ले कर विवाह के एक सप्ताह पहले गये। चलते समय अपने संदूक, बिस्तर आदि खूब देखभाल कर रखे कि सॉँप कहीं उनमें उनमें छिप कर न बैठा जाय। शुभ लगन में विवाह—संस्कार हो गया। तिलोत्तमा विकल हो रही थी। मुख पर एक रंग आता था, एक रंग जाता था, पर संस्कार में कोई विध्न—बाधा न पड़ी। तिलोत्तमा रो धो—कर ससुराल गयी। जगदीशचंद्र घर लौट आये, पर ऐसे चिंतित थे जैसे कोई आदमी सराय मे खुला हुआ संदूक छोड़ कर बाजार चला जाय।
तिलोत्तमा के स्वभाव में अब एक विचित्र रुपांतर हुआ। वह औरों से हँसती—बोलती आराम से खाती—पीती सैर करने जाती, थियेटरों और अन्य सामाजिक सम्मेलनों में शरीक होती। इन अवसरों पर प्रोफेसर दया राम से भी बड़े प्रेम का व्यवहार करती, उनके आराम का बहुत ध्यान रखती। कोई काम उनकी इच्छा के विरुद्ध न करती। कोई अजनबी आदमी उसे देखकर कह सकता था, गृहिणी हो तो ऐसी हो। दूसरों की दृष्टि में इस दम्पत्ति का जीवन आदर्श था, किन्तु आंतरिक दशा कुछ और ही थी। उनके साथ शयनागार में जाते ही उसका मुख वि त हो जाता, भौंहें तन जाती, माथे पर बल पड़ जाते, शरीर अग्नि की भॉँति जलने लगता, पलकें खुली रह जाती, नेत्रों से ज्वाला—सी निकलने लगती और उसमें से झुलसती हुई लपटें निकलती, मुख पर कालिमा छा जाती और यद्यपि स्वरुप में कोई विशेष अन्तर न दिखायी देखायी देताय पर न जाने क्यों भ्रम होने लगता, यह कोई नागिन है। कभी दृकभी वह फुँकारने भी लगतीं। इस स्थिति में दयाराम को उनके समीप जाने या उससे कुछ बोलने की हिम्मत न पड़ती। वे उसके रुप—लावण्य पर मुग्ध थे, किन्तु इस अवस्था में उन्हें उससे घृणा होती। उसे इसी उन्माद के आवेग में छोड़ कर बाहर निकल आते। डाक्टरों से सलाह ली, स्वयं इस विषय की कितनी ही किताबों का अध्ययन कियाय पर रहस्य कुछ समझ में न आया, उन्हें भौतिक विज्ञान में अपनी अल्पज्ञता स्वीकार करनी पड़ी।
उन्हें अब अपना जीवन असह्य जान पड़ता। अपने दुस्साहस पर पछताते। नाहक इस विपत्ति में अपनी जान फँसायी। उन्हें शंका होने लगी कि अवश्य कोई प्रेत—लीला है ! मिथ्यावादी न थे, पर जहॉँ बुद्धि और तर्क का कुछ वश नहीं चलता, वहॉँ मनुष्य विवश होकर मिथ्यावादी हो जाता है।
शनैरू—शनैरू उनकी यह हालत हो गयी कि सदैव तिलोत्तमा से सशंक रहते। उसका उन्माद, वि त मुखा ति उनके ध्यान से न उतरते। डर लगता कि कहीं यह मुझे मार न डाले। न जाने कब उन्माद का आवेग हो। यह चिन्ता ह्रदय को व्यथित किया करती। हिप्नाटिज्म, विद्युत्शक्ति और कई नये आरोग्यविधानों की परीक्षा की गयी । उन्हें हिप्नाटिज्म पर बहुत भरोसा थाय लेकिन जब यह योग भी निष्फल हो गया तो वे निराश हो गये।
एक दिन प्रोफेसर दयाराम किसी वैज्ञनिक सम्मेलन में गए हुए थे। लौटे तो बारह बज गये थे। वर्षा के दिन थे। नौकर—चाकर सो रहे थे। वे तिलोत्तमा के शयनगृह में यह पूछने गये कि मेरा भोजन कहॉँ रखा है। अन्दर कदम रखा ही था कि तिलोत्तमा के सिरंहाने की ओर उन्हें एक अतिभीमकाय काला सॉँप बैठा हुआ दिखायी दिया। प्रो. साहब चुपके से लौट आये। अपने कमरे में जा कर किसी औषधि की एक खुराक पी और पिस्तौल तथा साँगा ले कर फिर तिलोत्तमा के कमरे में पहुँचे। विश्वास हो गया कि यह वही मेरा पुराना शत्रु है। इतने दिनों में टोह लगाता हुआ यहॉँ आ पहुँचा। पर इसे तिलोत्तामा से क्यों इतना स्नेह है। उसके सिरहने यों बैठा हुआ है मानो कोई रस्सी का टुकड़ा है। यह क्या रहस्य है ! उन्होंने साँपों के विषय में बड़ी अदभूत कथाऍं पढ़ी और सुनी थी, पर ऐसी कुतूहलजनक घटना का उल्लेख कहीं न देखा था। वे इस भॉँति सशसत्र हो कर फिर कमरे में पहुँचे तो साँप का पात न था। हॉँ, तिलोत्तमा के सिर पर भूत सवार हो गया था। वह बैठी हुई आग्ये हुई नेत्रों के द्वारा की ओर ताक रही थी। उसके नयनों से ज्वाला निकल रही थी, जिसकी अॉंच दो गज तक लगती। इस समय उन्माद अतिशय प्रचंड था। दयाराम को देखते ही बिजली की तरह उन पर टूट पड़ी और हाथों से आघात करने के बदले उन्हें दॉँतों से काटने की चेष्टा करने लगी। इसके साथ ही अपने दोनों हाथ उनकी गरदन डाल दिये। दयाराम ने बहुतेरा चाहा, ऐड़ी—चोटी तक का जोर लगा कि अपना गला छुड़ा लें, लेकिन तिलोत्तमा का बाहुपाश प्रतिक्षण साँप की केड़ली की भॉँति कठोर एवं संकुचित होता जाता था। उधर यह संदेह था कि इसने मुझे काटा तो कदाचित् इसे जान से हाथ धोना पड़े। उन्होंने अभी जो औषधि पी थी, वह सर्प विष से अधिक घातक थी। इस दशा में उन्हें यह शोकमय विचार उत्पन्न हुआ। यह भी कोई जीवन है कि दम्पति का उत्तरदायित्व तो सब सिर पर सवार, उसका सुख नाम का नहीं, उलटे रात—दिन जान का खटका। यह क्या माया है। वह सॉँप कोई प्रेत तो नही है जो इसके सिर आकर यह दशा कर दिया करता है। कहते है कि ऐसी अवस्था में रोगी पर चोट की जाती है, वह प्रेत पर ही पड़ती हैं नीचे जातियों में इसके उदाहरण भी देखे हैं। वे इसी हैंसंबैस में पड़े हुए थे कि उनका दम घुटने लगा। तिलात्तमा के हाथ रस्सी के फंदे की भॉँति उनकी गरदन को कस रहे थें वे दीन असहाय भाव से इधर—उधर ताकने लगे। क्योंकर जान बचे, कोई उपाय न सूझ पड़ता था। साँस लेना। दुस्तर हो गया, देह शिथिल पड़ गयी, पैर थरथराने लगे। सहसा तिलोत्तमा ने उनके बाँहों की ओर मुँह बढ़ाया। दयाराम कॉँप उठे। मृत्यु अॉंखें के सामने नाचने लगी। मन में कहा यह इस समय मेरी स्त्री नहीं विषैली भयंकर नागिन हैरू इसके विष से जान बचानी मुश्किल है। अपनी औषधि पर जो भरोसा था, वह जाता रहा। चूहा उन्मत्त दशा में काट लेता है तो जान के लाले पड़ जाते है। भगवान् ? कितन विकराल स्वरुप है ? प्रत्यक्ष नागिन मालूम हो रही है। अब उलटी पड़े या सीधी इस दशा का अंत करना ही पड़ेगा। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि अब गिरा ही चाहता हूँ। तिलोत्तमा बार—बार सॉँप की भॉँति फुँकार मार कर जीभ निकालते हुए उनकी ओर झपटती थी। एकाएक वह बड़े कर्कश स्वर से बोली ‘मूर्ख ? तेरा इतना साहस कि तू इस सुदंरी से प्रेमलिंगन करे।' यह कहकर वह बड़े वेग से काटने को दौड़ी। दयाराम का धैर्य जाता रहा। उन्होंने दहिना हाथ सीधा किया और तिलोत्तमा की छाती पर पिस्तौल चला दिया। तिलोत्तमा पर कुछ असर न हुआ। बाहें और भी कड़ी हो गयीय अॉंखों से चिनगारियॉँ निकलने लगी। दयाराम ने दूसरी गोली दाग दी। यह चोट पूरी पड़ी। तिलोत्तमा का बाहु—बंधन ढीला पड़ गया। एक क्षण में उसके हाथ नीचे को लटक गये, सिर झ्रुक गया और वह भूमि पर गिर पड़ी।
तब वह दृश्य देखने में आया जिसका उदाहराण कदाचित् अलिफलैला चंद्रकांता में भी न मिले। वही फ्लँग के पास, जमीन पर एक काला दीर्घकाय सर्प पड़ा तड़प रहा था। उसकी छाती और मुँह से खून की धारा बह रही थी।
दयाराम को अपनी अॉंखों पर विश्वास न आता था। यह कैसी अदभुत प्रेत—लीला थी! समस्या क्या है किससे पूछूँ ? इस तिलस्म को तोड़ने का प्रयत्न करना मेरे जीवन का एक कर्त्तव्य हो गया। उन्होंने सॉँगे से सॉँप की देह मे एक कोचा मारा और फिर वे उसे लटकाये हुए अॉंगन में लाये। बिलकुल बेदम हो गया था। उन्होंने उसे अपने कमरे में ले जाकर एक खाली संदूक में बंदकर दिया। उसमें भुस भरवा कर बरामदे में लटकाना चाहते थे। इतना बड़ा गेहुँवन साँप किसी ने न देखा होगा।
तब वे तिलोत्तमा के पास गये। डर के मारे कमरे में कदम रखने की हिम्मत न पड़ती थी। हॉँ, इस विचार से कुछ तस्कीन होती थी कि सर्प प्रेत मर गया है तो उसकी जान बच गयी होगी। इस आशा और भय की दशा में वे अन्दर गये तो तिलोत्तमा आईने के सामने खड़ी केश सँवार रही थी।
दयाराम को मानो चारों पदार्थ मिल गये। तिलोत्तमा का मुख—कमल खिला हुआ था। उन्होंने कभी उसे इतना प्रफुल्लित न देखा था। उन्हें देखते ही वह उनकी ओर प्रेम से चली और बोली आज इतनी रात तक कहॉँ रहे ?
दयाराम प्रेमोन्नत हो कर बोले एक जलसे में चला गया था। तुम्हारी तबीयत कैसी हे ? कहीं दर्द नहीं है ?
तिलोत्तमा ने उनको आश्चर्य से देख कर पूछा तुम्हें कैसे मालूम हुआ ? मेरी छाती में ऐसा दर्द हो रहा है, जैस चिलक पड़ गयी हो।