Yog Nindra in Hindi Comedy stories by Sudarshan Vashishth books and stories PDF | Yog Nindra

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Yog Nindra

योग निद्रा

व्यंग्य

सुदर्शन वशिष्ठ

योगायोग की योगमाया अपरंपार है। यूं तो योग तन और मन में स्फूर्ति उत्पन्न करने वाला है, बहुत बार यह अवरोधक भी बन जाता है। अनेक योगिक क्रियाओं में एक योगनिद्रा भी है। यदि कोई योग करते करते योगनिद्रा में चला जाए तो बहुत घातक हो सकता है। भगवान्‌ विष्णु भी ऐन मौके पर योगनिद्रा में चले जाते थे। ऐसे समय जब देव और दानव उत्पात मचा रहे होते। ये लोग तभी शान्त होते यदि विष्णु स्वयं बोलें। विष्णु न बोलें तो किसी दूसरे में इतनी शक्ति नहीं कि इन्हें शान्त कर सके। विष्णु बोलेंं या न बोलें, यह तो उनकी मर्जी है। किसी में इतना साहस भी नहींं कि विष्णु को योगनिद्रा से जगाने और बोलने के लिए विवश करे। ऐसा समय संकटकाल कहलाता है।

और तो देवी माहात्म्यम्‌्‌ में देवी भगवती भी निद्रा में स्थित हो जाती हैं :

या देवी सर्वभूतेषू निद्रारूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ।। (23—25)

जगतपालिनी देवी भी निद्रा में स्थित हो जाएं तो संसार का क्या हाल हो सकता है, आप समझ सकते हैं।

योग की महिमा को समझते हुए अब एक नये दिवस ‘‘योग दिवस'' का प्रादूर्भाव हुआ है। यह दिवस किस महान्‌ योगी के जन्मदिवस से सम्बन्धित होगा, यह फिलहाल ज्ञात नहीं है। हां, इस दिन ‘फादरज़ डे' अवश्य मनाया जाता था।

लगता है दिवसों को मनाने के लिए अब दिवस कम पड़ जाएंगे। एक ही दिन में कई दिन मनाने पड़ेेंगे। अब देखिए ‘पिता दिवस' के ऐन साथ योग दिवस आन पड़ा। फादरर्ज—डे भी अन्तरराष्ट्रीय था तो योग दिवस भी अन्तरराष्ट्रीय। अब क्या करें! किसे मनाएं तो किसे छोड़ें!

पता करने पर पता चला कि ‘पिता दिवस', हमारे यहां के पितृृ दिवस से अलग है। नहीं तो अनर्थ हो जाता। हमारे यहां तो पितृृ दिवस ही नहीं पूरा पितृपर्व आता है। सोलह दिन तक पूरे पूर्वजों का स्मरण कर उनका श्राद्ध किया जाता है। हालांकि यह पर्व, उत्सव नहीं है, पितरों के स्मरण में शोक समारोह सा है जो लगातार सोलह दिन तक मनाया जाता है। ब्राह्‌मणों को श्राद्ध का अन्न खा खा कर उजीर्ण हो जाता है। ‘फादरर्ज—डे' तो, जहां तक हम समझे हैं जीवित पिताओं का दिन है। संतानें उन पिताओं को ‘विश' करती हैं, उपहार देती हैं, जो अभी भी जिंदा हैं। भारत में तो अब फेजबुक पर पिता की फोटो डाल लिख दिया जाता हैः ‘आई लव यू पापा!'। ग़नीमत है कि हार नहीं पहनाया जाता।

इस बार तो दिवसों की श्रृंखला मेें पिता दिवस के दिन ही योग दिवस आ टपका। पिता के लिए एक दिवस तो मनाने देते, पर नहीं। सुबह छः बजे ही उठा दिए योग करने। पिता के स्मरण का तो मौका ही नहीं छोड़ा। और तो और टीवी वाले भी टी शर्ट पहने ही टीवी के अंदर जमकर आ बैठे। उन्हें कम से कम दो दिन का मैटिरियल तो मिल ही गया।

वैसे दिवस मनाने की परंपरा भारत की नहीं है, विदेशी है। विदेशों में अनेक दिवसों को मनाए जाने के मूल या ओरिजन सम्बन्धी कथाएं भी प्रचलित हैं। पृथ्वी दिवस, आकाश दिवस से ले कर गीत दिवस, संगीत दिवस, बाल दिवस, वृद्ध दिवस, रंग दिवस, रंगमंच दिवस, माता दिवस, पुत्री दिवस, डॉक्टर दिवस, मरीज दिवस, दिल दिवस, दिमाग़ दिवस आदि आदि। हमारे यहां भी ‘महिला दिवस' इसी परंपरा की देन लगता है। पुरूष दिवस से परहेज किया जाता है। इसके बाद सन—डे (सूर्य और पुत्र दोनों अर्थो में), फ्राई—डे (यह भी दोनों अर्थों में) आदि आदि।

योग दिवस को ‘‘योगा—डे'' कहना ज्यादा तर्क संगत रहेगा और तभी यह अन्रराष्ट्रीय भी कहलाएगा। योगा डे ही इसे पूरे विश्व से जोड़ेगा। जैसे रामा, कृष्णा, शिवा कहने से भगवान पूरे विश्व के हो जाते हैं। बुद्ध को बुद्धा कहने से मुंह भर जाता है। अशोक को अशोका कहने से अशोका—द—ग्रेट हो जाता है।

योग को अब साधारण अर्थ में आरामदायक शारीरिक कसरत के रूप में ही लिया जाता है। कुछ लोग लम्बा सांस के साथ नाड़ी शोधन जैसे क्रियाक्लापों को मन से भी जोड़ देते हैं। आधुनिक योग गुरूओं ने यह भी भ्रान्ति फैला दी गई है कि योग से वीपी, शूगर और कैंसर जैसे रोग भी ठीक हो जाते हैं। यानि कई जानलेवा बीमारियों का ईलाज योग है। वे इतना नहीं बताते कि योग से शरीर को स्फूर्ति मिलती है, तन और मन प्रसन्न और तरोताज़ा हो जाते हैं।

योग का पहला अर्थ एक बृहत्तर शब्दकोष में ‘इंद्रिय निग्रह' दिया गया है। अर्थात्‌ जिसने इंन्द्रियों को अपने वश में कर लिया जो कि बहुत ही कठिन काम है। बड़े बड़े ऋषि मुनि और योगी तक यह नहीं कर पाए। इंद्रियनिग्रह, अपनी इंद्रियों और आकांक्षाओं का दमन करना है, अपनी इच्छाओं, काम वासना को संयमित करना है जो सांसाारिक मनुष्य के लिए बहुत कठिन है। एक अर्थ त्याग और भोग त्याग भी है। इन अर्थों के बाद इष्टयोग, उपयोग, कर्मफल, मूहूर्त आदि के साथ एक अन्य आश्चर्यजनक अर्थ ‘पिया मिलन' भी दिया है।

योगायोग का अर्थ संयोग दिया है। अतः एक ही दिन में पिता दिवस और योग दिवस के योगयोग का अद्‌भुत संयोग हुआ।

सामान्यतः हम तो स्कूल में योग का अर्थ जोड़जमा ही समझते आए। भाग गुणा और घटाने से योग के सवाल सब से आसान होते। बड़े हो कर भी जोड़जमा ही करनाा पड़ा।

जोड़जमा से योग का अर्थ सार्थक होता है। आज के युग में सम्भ्रांत या पूंजीपति ही योग कर पाते हैंं। जिनके पास अकूत धन सम्पत्ति है, करने को कुछ नहीं है, वे योग करने किसी महंगे आश्रम में चले जाते हैं। वहां पंचकर्मा के साथ साथ योग करने का भी लाभ उठाते हैं चाहे हाथों से पैरों की उंगलियां न छू पाएं। पद्‌मासन न सही, सुखासन में बैठ कर ही योग के सारे आन्नद ले लेना चाहते हैं। योगाचार्य भी अब महंगी फीस ले कर आश्रमों में प्रवेश देते हैं।

‘जिनके पेट पीठ हैं एक' या ‘चल रहा लकुटिया टेक, मुट्‌ठी भी दाने को भूख मिटाने को‘..... वे कहां योग करेंगे। वे चिंता में रहते हैं कि उन का और बच्चों का भी किसी तरह पेट बढ़े। कुछ चर्बी चढ़े। ऐसा हो नहीं पाता। जिन्हें दो जून की रोटी कमा कर खानी है, रोज कुआं खोदना है फिर पानी पीना है, वे कहां योग करेंगे।

योग क्योंकि जोड़जमा का प्रतीक है अतः योग के योग से कई शब्द बने हैं। एक शब्द है विनियोग जिसका अर्थ विनियोजन दिया है। विनियोजक का अर्थ पूंजीपति होता है। अतः पूंजीपति ही योग के करीब हो सकता है।

योग से ही आयोग, अभियोग, उपयोग, दुरूपयोग, संयोग, वियोग जैसे शब्दों का निर्माण हुआ है।

भारत में पहले से ही यूं तो अनेकाें आयोग बनते रहे हैं कितु सरकार बदलने पर तुरंत जांच आयोग बन जाते हैं। वर्षो तक बने रहने के बाद भी उन में से कुछ अर्थपूर्ण नहीं निकलता। इसी तरह किसी पर यदि अभियोग तो क्या महाअभियोग भी चल पड़े तो समझो सालों बीत जाने पर भी कुछ नहीं निकलेगा। आयोग और अभियोग सालों स्थापित रहते हैं, सार कुछ नहीं निकलता। अभियुक्त मर जाते हैं, फैसला नहीं आ पाता।

योगासन के भी कई प्रकार हैं। मुख्य प्रकार प्रशासन है। प्रशासन में भी सुशासन, कुशासन और दुःशासन तक। कुशासन भी दो तरह का है कुश का आसन और कु—शासन। ऐस ही पद्‌मासन, सुखासन और अंत में सिंहासन। सिंहासन मिलने पर सभी आसन और प्रशासन पर एकाधिकार। सारे प्रयास बस सिंहासन तक जाते हैं।

योगबल और योगमाया के चर्चे भी बहुत रहे हैं। राक्षस लोग योगमाया से संग्राम जीतते थे। योगी को साधारणजन जोगी भी पुकारते हैं। जोगी की माया भी अपरंपार है। कहने को तो जोगी या वैरागी परंतु होते परम रसिक। तभी योग के संयोग और वियोग; दो प्रबल पक्ष हैं। बिहारी से ले अनेक कवियों से प्रेम से संयोग और वियोग पक्ष पर बहुत लिखा है। कुछ अनुसंधानाकर्त्तायों ने यह भी खोज निकाला है कि योग से रतिशक्ति का संचार होता है। ओशो ने भी ‘‘समिाध से सम्भोग तक'' पुस्तक लिख डाली।

सम्पन्न जीवन में पहले योग फिर भोग और अंत में रोग। यदि योग दिवस है तो भोग दिवस भी मनाना चाहिए और राजनीतिज्ञों में लिए यह परमावश्यक है। सत्ता के साथ महंगी कुर्सी, लम्बी गाड़ी, लज़ीज खानपान, महंगा लिबास, हवा में यात्रा तो मिलती ही है। वैसे तो सत्ता में दिनरात भोग ही भोग है फिर भी साल में एक दिन प्रकट रूप से भोग दिवस भी मनाया जाना चाहिए।

(94180—85594)

सुदर्शन वशिष्ठ

जन्म : 24 सितम्बर, 1949. पालमपुर हिमाचल प्रदेश (सरकारी रिकॉर्ड में 26 अगस्त 1949)।

125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन।

नौ कहानी संग्रह : (अन्तरालों में घटता समय, सेमल के फूल, पिंजरा, हरे हरे पत्तों का घर, संता पुराण, कतरनें, वसीयत, नेत्र दान तथा लघु कथा संग्रह : पहाड़ पर कटहल)।

चुनींदा कहानियों के चार संग्रह : (गेट संस्कृति, विशिष्ट कहानियां, माणस गन्ध, इकतीस कहानियां)।

दो लघु उपन्यास : (आतंक, सुबह की नींद)। दो नाटक : ( अर्द्ध रात्रि का सूर्य, नदी और रेत)।

एक व्यंग्य संग्रह : संत होने से पहले।

चार काव्य संकलन : युग परिवर्तन, अनकहा, जो देख रहा हूं, सिंदूरी सांझ और खामोश आदमी।

संस्कृति शोध तथा यात्रा पुस्तकें : ब्राह्‌मणत्वःएक उपाधिःजाति नहीं, व्यास की धरा, कैलास पर चांदनी, पर्वत से पर्वत तक, रंग बदलते पर्वत, पर्वत मन्थन, पुराण गाथा, हिमाचल, हिमालय में देव संस्कृति, स्वाधीनता संग्राम और हिमाचल, कथा और कथा, हिमाचल की लोक कथाएं, हिमाचली लोक कथा, लाहौल स्पिति के मठ मंदिर, हिमाचल प्रदेश के दर्शनीय स्थल, पहाड़ी चित्रकला एवं वास्तुकला, हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक संपदा।

हिमाचल की संस्कृति पर छः खण्डों में ‘‘हिमालय गाथा‘‘ श्रृंखला :देव परम्परा, पर्व उत्सव, जनजाति संस्कृति, समाज—संस्कृति, लोक वार्ता तथा इतिहास।

सम्पादन : दो काव्य संकलन : (विपाशा, समय के तेवर) ; पांच कहानी संग्रह : (खुलते अमलतास, घाटियों की गन्ध, दो उंगलियां और दुष्चक्र, काले हाथ और लपटें, पहाड़ गाथा)।

हिमाचल अकादमी तथा भाषा संस्कृति विभाग हिमाचल प्रदेश में सेवा के दौरान लगभग सत्तर पुस्तकों का सम्पादन प्रकाशन। तीन सरकारी पत्रिकाओं का संपादन।

सम्मान : जम्मू अकादमी तथा हिमाचल अकादमी से ‘आतंक‘ उपन्यास पुरस्कृत;

साहित्य कला परिषद्‌ दिल्ली से ‘नदी और रेत‘‘ नाटक पुरस्कृत। हाल ही में ‘‘जो देख रहा हूं'' काव्य संकलन हिमाल अकादमी से पुरस्कृत। कई स्वैच्छिक संस्थाओं से साहित्य सेवा के लिए सम्मानित।

देश की विगत तथा वर्तमान पत्र पत्रिकाओं : धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान से ले कर वागर्थ, हंस, साक्षात्कार, गगनांचल, संस्कृति, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य आदि से रचनाएं निरंतर प्रकाशित। राष्ट्रीय स्तर पर निकले कई कथा संकलनों में कहानियां संग्रहित।

कई रचनाओं के भारतीय तथा विदेशी भाषाओं मेें अनुवाद। कहानी तथा समग्र साहित्य पर कई विश्वविद्‌यालयों से एम0फिल0 तथा पी0एचडी0.।

पूर्व सचिव/उपाध्यक्ष हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी ; उपनिदेशक/निदेशक भाषा संस्कृति विभाग हि0प्र0।

पूर्व सदस्य : साहित्य अकादेमी दिल्ली, दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।

वर्तमान सदस्य : सलाहकार समिति आकाशवाणी; हिमाचल राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, विद्याश्री न्यास भोपाल।

पूर्व फैलो : राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्‌ भारत सरकार

सीनियर फैलो : संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार।

संपर्क : ‘‘अभिनंदन‘‘ कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला—171009.हि0प्र0

फोन : 094180—85595 (मो0) 0177—2620858 (आ0)

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