Lakshmi, Charbi aur Tanav in Hindi Comedy stories by Arvind Kumar books and stories PDF | लक्ष्मी, चर्बी और तनाव

Featured Books
Categories
Share

लक्ष्मी, चर्बी और तनाव

लक्ष्मी, चर्बी और तनाव

अरविन्द कुमार

मोबाईल: 9997494066

ई—मेलः tkarvind@yahoo-com



© COPYRIGHTS

This book is copyrighted content of the concerned author as well as Matrubharti.
Matrubharti has exclusive digital publishing rights of this book.
Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.
Matrubharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.

लक्ष्मी, चर्बी और तनाव

पत्नी और डाक्टरों की सलाह मान कर अब वे ठहाका क्लब के मेंबर बन गए हैं। रोज सुबह पार्क में जाते हैं। हम उम्र मर्द और औरतों के साथ मिलकर आधा घंटा तक ठहाके लगाते हैं। हाँथ उठा—उठा कर अपने कब्ज्ग्रस्त चेहरे के साथ ठहाकों की ऐसी आवाजें निकालतें हैं कि दुनिया भर की तमाम हंसियों को भी जोर की हंसीं आ जाती है। पर उनके चेहरे पर छाया हुआ उदासी भरा रेत का टीला टस से मस नहीं होता है। वहां कोई स्वाभाविक हंसी तो क्या, कायदे की फिस्स प्रकार की मुस्कराहट भी नहीं उपजती।

हालांकि आजकल वे एक बड़के भारी वाले अधिकारी हैं। पर देखने में अधिकारी—वधिकरी नहीं, दुखों के पहाड़ के नीचे दबे हुए कोई शीश पगा न झगा तन में टाईप के एक बहुत ही हैरान—परेशान इंसान लगते हैं। उनके चहरे पर हमेशा बारह बजा रहता है। और सिर्फ चेहरे पर ही नहीं, शायद उनके दिमाग में भी। वे योगा करते हैं। सूर्य नमस्कार से लेकर कपालभाती तक और पद्‌मासन से लेकर वज्रासन तक रोज नियमित निष्ठा पूर्वक निपटाते हैं। लेकिन बहुत ही सतर्क हो कर, सावधानी पूर्वक। क्योंकि एक बार किसी कठिन आसन को करने के चक्कर में उनके हाँथ—पाँव आपस में उलझ कर ऐसे फटफटिया बन गए थे कि उनको उसी मुद्रा में उठा कर एक बड़े अस्पताल में भरती कराना पड़ा था। जहाँ शहर के कई डाक्टरों ने बड़ी मशक्कत के बाद जाकर उनको छुट्टा यानि कि फुटकर किया था।वे सुबह शाम मेडीटेशन करते हैं। लो कैलोरी वाला नाश्ता करते हैं। दफ्तर में बिना चीनी की चाय पीते हैं। लंच में सिर्फ एक गिलास इम्पोर्टेड मील रिप्लेसमेंट शेक लेते हैं। रात में कुछ हल्का—फुल्का खाकर डेढ़ घंटे तक सामने की लॉन में टहलते हैं। पर न तो उनकी डायबटीज कम हो रही है, न ही ब्लडप्रेशर। न तो क्लोरोस्टाल और ट्राईग्लिसराइड कम हो रहा है और न ही तनाव। डाक्टरों के अनुसार दिल और दिमाग तो अभी सही सलामत है। पर अगर बाकी सब वाईटल्स का यही हाल बना रहा, तो आगे कोई बड़ी मुसीबत खड़ी हो सकती है। क्या? वे पूछते हैं। और हार्ट अटैक और स्ट्रोक की कल्पना मात्र से ही उनके सिर से लेकर एंड़ियों तक पसीना चुहचुहा जाता है। बीपी उछल कर सातवें आसमान पर पहुँच जाता है। और वे अपने उस मनहूस घड़ी को कोसने लगते हैं कि जब उन्होंने पत्नी, बच्चों, रिश्तेदारों, दोस्तों और चमचों की सलाह मान कर हर कीमत पर प्यादा से फर्जी बनने का फैसला किया था।

हालांकि प्यादा से फर्जी बनने के बाद काफी दिनों तक उन्होंने बड़ी कोशिश की थी कि वे टेढ़े—टेढ़े न चलें। सबसे मिल मिला कर अपने आप को एक अच्छा अधिकारी साबित करें। पर घोड़ा अगर घास से ही दोस्ती कर लेगा, तो खायेगा क्या? लिहाजा पत्नी और बच्चों के लगातार कोंचने के कारण उन्होंने जल्दी ही खोल से अपनी गर्दन बाहर निकाल ली। और कुछ ही दिनों के भीतर टेढ़े—टेढ़े न चलने के अपने संकल्प को घर के पिछवाड़े फेंक कर इति श्री रेवा खंडे कर लिया। और खरगोश की तरह पूरे मोहकमे में फुदकने लगे। वैसे भी, प्यादा से फर्जी बनने के लिए जो कीमत उन्होंने चुकाई थी, वह कोई आमूली—मामूली रकम नहीं थी। वह खुद की काली—सफेद सारी जमा—पूंजी के अलावा रिशेदारों, दोस्तों और चमचों से लिए गए उधार से जाकर किसी तरह पूरी हुयी थी। उसे लौटाना था। दोस्तों—चमचों और अपनी खुद की लगाई हुयी पूंजी के इन्वेस्टमेंट को मय ब्याज वसूलना था। सो वे दोनों हांथों से धन उलीचने में जी—जान से जुट गए। ढेरों प्रोजेक्ट। ढेरों योजनायें। ढेरों ग्रांट। ढेरों कमीशन।

बस फिर क्या था? हर तरफ से लक्ष्मी बरसने लगी। और वे नरिया गए।

लक्ष्मी बरसी, तो चर्बी भी बरसी। चर्बी बरसी, तो वह खून की नलियों को भरती हुयी, आँखों और दिमाग पर जाकर जमने लगी। पर उन्होंने उस पर जरा भी गौर नहीं किया। और आगा—पीछा देखे बगैर खुल कर खुल्ला खेल फर्रुक्खाबादी खेलने लगे। ईट, ड्रिंक और बी हैप्पी। सरकारी एसी, घर की एसी। सरकारी चपरासी, घर का नौकर। सरकारी चौकीदार, घर का दरबान। सरकारी खानसामा, घर का खानसामा। सरकारी गाड़ी, घर की गाड़ी। सरकारी जमीन, अपनी जमीन। सरकारी पेड़, अपने पेड़। सरकारी आम, अपने आम। सरकारी कटहल, अपने कटहल। गरज यह कि राम—राम जपना और सरकारी माल हड़पना। अफसर तो अफसर, अफसराईन और बाबा—बॉबी भी बहती गंगा में कपड़े उतार—उतार कर डुबकी लगाने लगे।

लेकिन जैसा कि कहा जाता है, कभी गाड़ी नाव पर, तो कभी नाव गाड़ी पर। आजकल उन्हीं की जांघ के नीचे रहने वाले एक अदने से प्यादे ने सारे समीकरणों को उलट—पुलट कर के रख दिया है। सूत्रों के अनुसार अब वह खुद येन—केन—प्रकारेण फर्जी बन कर उनके सिर पर बैठना चाहता है। लेकिन उनकी समझ में यह बिलकुल नहीं आ रहा है कि वे अपनी कुर्सी और गर्दन बचाएं तो कैसे? उन्हें पता है कि अब फिर से अपने लिए नयी गोटियाँ फिट करने का मतलब है, फिर से नयी कीमत चुकाना। नया चढ़ावा चढ़ाना। और यह अब उतना आसान नहीं है। रिटायमेर्ंट करीब है। बूढ़े घोड़े पर कौन दांव लगाएगा? और अगर उन्होंने अपनी पूरी जमा—पूंजी झोंक भी दी, तो भी चढ़ावे की थैली भर नहीं पायेगी। वैसे भी, लोग—बाग उगते हुए सूरज को ही पूजते हैं। तो क्या, नंबर दो वाले प्यादे की शह और मात से वे फिर से अर्श से फर्श पर आ गिरेंगे? वे सोचते हैं। खूब सोचते हैं। और डर से काँप कर तनाव को कम करने की गरज से कुछ संभावित संकट मोचक आकाओं को अकबका कर फोन करने लगते हैं। पर तनाव है कि कम हो ही नहीं रहा।

अरविन्द कुमार