हम सब भी रट्टू तोता
अरविन्द कुमार
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हम सब भी रट्टू तोता
बहुत समय पहले की बात है। दुनिया का काफी बड़ा हिस्सा तब सिर्फ प्राकृतिक जंगलों, पहाड़ों, नदियों और ताल—तलैयों से भरा हुआ था। हालांकि धरती पर इंसान नामक प्रजाति का प्रादुर्भाव हो चुका था। और उसके अन्दर मोह, माया, झूठ, लोभ, घृणा और छल—कपट भी अंकुरित होने लगा था। पर आज के मनुष्यों की तरह वह इतना झूठा, मक्कार, फरेबी, कपटी और कामी नहीं हो पाया था। तब न तो आज की तरह जंगलों की अवैध कटाई होती थी। न ही बालू माफिया, खनन माफिया, भू माफिया, सट्टेबाजों, दलालों और इनके जनक एवं पालक राजनीतिक प्रजातियों का दूर—दूर तक कहीं कोई नाम—ओ—निशान था। दुनिया तब बहुत ही हरी—भरी और खुशहाल थी। नदियों, कुओं और झरनों का पानी मीठा और प्रदूषण रहित था। और ओजोन की पर्त में भी तब तक कोई छेद नहीं हुआ था।
ऐसे ही सुन्दर, खुशहाल और शांत समय में कुछ दुष्ट और लोभी बहेलियों ने अचानक ही जंगल में अमन—चौन और आजादी से रहने वाले पक्षियों को पकड़ना, खाना और बेचना शुरू कर दिया। वे चुपके से जंगल में आते। दाना बिखेर कर चिड़ियों को लालच देते। और जब भोली—भाली चिड़िया दाना चुगने आतीं, तो धोखे से उन्हें जाल में फंसा लेते। कुछ को वे पका कर खा जाते। और बाकी को हाट में ले जाकर बेच देते। इस तरह शिकारी बहेलियों की गंदी करतूतों से चिड़ियों की संख्या दिन पर दिन कम होने लगी। तेजी से घटती हुयी चिड़ियों की आबादी को लेकर सिर्फ पक्षीगण ही नहीं समूचा जंगल भी बहुत ही दुखी और चिंतित हो गया। आखिरकार जंगल भी एक समाज, एक देश की तरह होता है। उसमें मौजूद पेड़—पौधों, झाड़—झाड़ियों, चिड़ियों के कलरव, जानवरों की धीमी—तेज आवाजों और बहते सोतों की कल—कल ठीक मिली जुली संस्कृति की तरह होती है। अगर यह संतुलन जरा भी बिगड़ता है, तो समुचा जंगल ही उजड़ कर वीरान हो जाता है।
इसलिये सबने मिल कर फौरन एक सभा की। इस आपदा से बचने के विभिन्न उपायों पर गहन चिंतन—मनन किया। सर्वसम्मत्ति से कुछ फैसले लिए गए। और तय किये गए सभी उपायों को एक—एक करके अजमाया गया। लेकिन जब सारे जुगत बहेलियों की चतुराई के आगे फेल हो गये, तो उन्होंने जंगल में तपस्या कर रहे साधुओं से अपनी रक्षा की गुहार लगाई। साधुओं को भी उन पर दया आ गयी। और उन्होंने उनकी रक्षा करने का बीड़ा उठा लिया। लेकिन साधु लोग उनकी रक्षा आखिर कब तक करते? साधु तो आज यहाँ हैं, पर कल न जाने कहाँ होंगे? और जब वे यहाँ नहीं होंगे, तो फिर रक्षा कौन करेगा? इसलिए उन्होंने उनको आत्मरक्षा में पारंगत करना भी उचित और आवश्यक समझा। चिड़ियों को समझाया गया कि बिना शिक्षित प्रशिक्षित हुये रक्षा या प्रतिरोध का कोई भी कार्यक्रम कभी भी सफल नहीं होता है। इसलिए पहले शिक्षित होना बहुत जरूरी है।
लिहाजा इस सर्वशिक्षा अभियान के तहत साधुओं ने कुछ लीडर टाईप तोतों को यह पढ़ा—रटा कर शिक्षित करना शुरू कर दिया कि ‘बहेलिया आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, पर लालच में तुम कभी भी इसमें फंसना मत'। कुछ ही दिनों की मेहनत के बाद पक्षियों का एक अगुआ समूह इस सूत्र को रट—रट कर खूब पारंगत हो गया। अब इन ट्रेंड चिड़ियों का काम था कि वे भी इस मंत्र को अन्य चिड़ियों के बीच ले जायें और उनको भी इसी तरह से भली—भाँति ट्रेनिंग दें। इस तरह से क्रमवार जंगल के हर पक्षी को इस मंत्र से समझदार, शिक्षित और प्रशिक्षित कर दिया जाये। इसी में भलाई है। और इसी में मुकम्मिल बचाव है।
फिर क्या था? कुछ ही दिनों में ‘हर जोर—जुल्म की टक्कर में, संघर्ष हमारा नारा है' की तर्ज पर जंगल के सारे पक्षी दीक्षित—प्रशिक्षित हो गये। पर ताज्जुब। एक दिन जब कुछ गुरू साधु किसी हाट से गुजर रहे थे, तो उन्होंने देखा कि कुछ बहेलिये ढेर सारी चिड़ियों को पिंजरे में बंद कर के उन्हें आराम से बेच रहे हैं। और वे सारी चिड़ियाँ एक स्वर से रट्टा मार रही हैं कि ‘बहेलिया आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, पर लालच में तुम कभी भी इसमें फंसना मत'।
अरविन्द कुमार