लॉटरी
प्रेमचंद
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लॉटरी
जल्दी से मालदार हो जाने की हवस कसे नहीं होती ? उन दनों जब लॉटरी के टकटआये तो मेरे दोस्त वक्रम के पता और चाचा और अम्माँ और भाई सभी नेएक-एक टकटखरीद लया। कौन जाने कसकी तकदीर जोर करे। कसी के नाम आये, रूपया रहेगा तोघर में ही !
मगर वक्रम को सब्र न हुआ । औरों के नाम रूपये आयेंगे, फर उसे कौन पूछता है।
बहुत होगा, दस-पाँच हजार उसे दे देंगे। इतने रूपयों में उसका क्या होगा ? उसकेजन्दगी में बड़े-बड़े मंसूबे थे। पहले तो उसे संपूर्ण जगत की यात्रा करनी थी,एक-एक कोनेकी। पेरू और ब्राजील और टम्बकटू और होनोलूलू, यह सब उसके प्रोग्राम में थे। वह आँधीकी तरह महीने दो महीने उड़कर लौटकर आने वालों में न था। वह क-क स्थान में कई-कई दन ठहर कर वहाँ के रहन-सहन, रीत-रवाज आद का अध्ययन करना और संसारयात्रा का क बृहद ग्रन्थ लखना चाहता था । फर भी उसे क बहुत बड़ा पुस्तकालयबनवाना था, जसमें दुनया भर की उत्तम रचनां जमा की जायँ। पुस्तकालय के ल वह दोलाख खर्च करने को तैयार था, और बँगला और कार और फर्नीचर तोमामूली बातें थीं। पता या चाचा के नाम रूपये आये तो पाँच हजार से ज्यादा का डोलनहीं, अम्माँ के नाम आये, तो बीस हजार मल जायँगे, लेकन भाई साहब के नाम आ गये,तो उसके हाथ धेलाभी न लगेगा। वह आत्माभमानी था। घरवालों से भी खैरात या पुरस्कार के रूप में कुछलेने की बात उसे अपमान-सी लगती थी। कहा करता था- भाई, कसी के सामने हाथफैलाने से तो कसी गड्ढ़े में डूब मरना अच्छा है। जब आदमी अपने लये संसार में कोईस्थान न नकाल सके, तो यहाँ सेप्रस्थान कर जाय।
वह खुद बेकार था। घर में लॉटरी-टकट के ल उसे कौन रूपया देगा, और वह माँगे भीतो कैसे ? उसने बहुत सोच-वचार कर कहा-क्यों न हम तुम साझे में टकट ले लें।
तजबीज मुझे भी पसन्द आयी। मैं उन दनों स्कूल मास्टर था। बीस रूपये मलते थे।
उसमें बड़ी मुिकल से गुजर होती थी। दस रूपये का टकट खरीदना मेंरे ल हाथीखरीदना था । हाँ क महीना दूध ,घी, जलपान और ऊपर के ’चार हजार महीना कहो। मैंसमझता हूँ, दो हजार में तुम बड़े आराम से रह सकते हो।’
वक्रम ने गर्म होकर कहा - मैं ाान से रहना चाहता हूँ, भखारयों की तरह नहीं।
’दो हजार में तुम ाान से रह सकते हो।’
’जब तक आप अपने हस्से में से दो लाख मुझे न देंगे, पुस्तकालय न बन सकेगा।’
’कोई जरूरी नहीं क तुम्हारा पुस्तकालय ाहर में बेजोड़ हो।’
’मैं तो बेजोड़ बनवाऊँगा।’
’इसका तुम्हें अख्तियार है ; लेकन मेरे रूपये में से तुम्हें कुछ न मल सकेगा। मेरीजरूरतें देखों। तुम्हारे घर में काफी जायदाद है। तुम्हारे सर कोई बोझ नहीं, मेरे सर तोसारी गृहस्थी का बोझ है। दो बहनों का ववाह है, दो भाइयों की ाक्षा है, नया मकानबनवाना है। मैंने तो नचय कर लया है क सब रुपयें सीधे बैंक में जमा कर दूँगा। उनकेसूद से काम चलाऊँगा। कुछ ेसी ार्ते लगा दूँगा क मेरे बाद भी कोई रकम को हाथ नलगा सके।’
वक्रम ने सहानुभूत के भाव से कहा-हाँ, ऐसी दाा में तुमसे कुछ माँगना अन्याय है। खैर,मैंही तकलीफ उठा लूँगा, लेकन बैंक के सूद का दर तो बहुत गर गया है।
हमने कई बैंकों के सूद का दर देखा, स्थायी कोष का भी, सेविंग बैंक का भी। बेाक दरबहुत कम था। दो ढाई रुपये सैकड़ा ब्याज पर जमा करना व्यर्थ है। क्यों न लेन-देन काकारोबार ाुरू कया जाय । वक्रम भी यात्रा पर न जायगा। दोनों के साझे में कोठी चलेगी,जब कुछ धन जमा हो जागा तब वह यात्रा करेगा। लेन-देन में सूद भी अच्छा मलेगा औरअपना रोब-दाब भी रहेगा। हाँ जब तक अच्छी जमानत न हो कसी को रूपया न देनाचाह, चाहे आसामी कतना ही मातबर क्यों न हो। और जमानत पर रूपया दे ही क्यों ?
जायदाद रेहन लख कर रूपये देंगें। फर तो कोई खटका न रहेगा।
वह मंजल भी तय हुई। अब यह प्रन उठा क टकट पर कसका नाम रहे। वक्रम नेअपना नाम रखने केलएबड़ा आग्रह कया। अगर उसका नाम न रहा, तो वह टकट ही न लेगा। मैंनें कोईउपाय न देख कर मंजूर कर लया और बना कसी लखा-पढ़ी के जससे आगे चल करमुझे बड़ी परेाानी हुई।
क-क करके इन्तजार के दन कटने लगे। भोर होते ही हमारी आँखें कैलेंडर पर जाती।
मेरा मकान वक्रम के मकान से मला हुआ था। स्कूल जाने सारे खर्चे तोड़कर पाँच रूपयेकी गुंजाइा नकल सकती थी। फर भी डरता था, कहीं से कोई बालाई रकम मल जाय,तो कुछ हम्मत बढ़े।
वक्रम ने कहा- कहो तो अपनी अँगूठी बेच डालूँ ? कह दूँगा, ऊँगली से फसल पड़ी।
अँगूठी दस रूपये से कम की न थी। उसमें पूरा टकट आ सकता था। अगर कुछ खर्चकबना ही टकट में आधा साझा हुआ जाता है, तो क्या बुरा है ?
सहसा वक्रम फर बोला- लेकन भाई, तुम्हें नकद देने पड़ेगे, मैं पाँच रूपये नकद लएबगैर साझा न करूँगा।
अब मुझे औचत्य का ध्यान आ गया। बोला - नहीं, यह बुरी बात है, चोरी खुल जायगीतो ार्मिन्दा होना पड़ेगा, और तुम्हारे साथ मुझ पर भी डाँट पड़ेगी।
आखर यह तय हुआ क पुरानी कताबें कसी सेकंड हैंड कताबों की दुकान पर बेचडालीजायँ और उस रूपये से टकट लया जाय। कताबों से ज्यादा बे जरूरत हमारे पास कोईचीज नथी। हम दोनों साथ ही मैट्रक पास हु थे और यह देख कर क जन्होंने डग्रयाँ लीं औरआँखें फोड़ी, और घर के रूपये बरबाद क वह भी जूतयाँ चटका रहे हैं, हमनें वहीं हाल्टकर दया।
मैंस्कूल मास्टर हो गया और वक्रम मटरगती करने लगा। हमारी पुरानी पुस्तकें अब दीमकोंके सवा हमारे कसी काम की न थीं। हमसे जतना चाटते बना चाटा, उनका सत नकाललया, अब चूहे चाटें या दीमक, हमें परवाह न थी। आज हम दोनों ने उन्हें कूड़ें खाने सेनकाला और झाड़-पोंछ कर क बड़ा सा गट्ठर बाँधा। मास्टर था,कसी बुकसेलर कीदुकान पर कताब बेचते हु झेंपता था । मुझे सभी पहचानते थे इसल यह खदमत वक्रमके सुपुर्द हुई और वह आध घंटे में दस रूपये का क नोट ल उछलता-कूदता आ पहुँचा।
मैंने उसे इतना प्रसन्न कभी न देखा था। कताबें चालीस रूपये से कम की न थी, पर यहदस रूपये उस वक्त हमें जैसे पड़े हु मले। अब टकट में आधा साझा होगा। दस लाख कीरकम मलेगी। पाँच लाख मेरे हस्से में आयेंगे, पाँच वक्रम के । हम अपने इसी वचार मेंमगन थे।
मैंने संतोष का भाव दखा कर कहा- पाँच लाख कुछ कम नहीं होते जी।
वक्रम इतना संतोषी न था । बोला-पाँच लाख क्या, हमारे ल तो इस वक्त तो पाँच सौभी बहुत हैं, भाई, मगर जन्दगी का प्रोग्राम बदलना पड़ गया। मेरी यात्रावाली स्कीम तोटल नहीं सकती। हाँ, पुस्तकालय गायब हो गया।
मैंने आपत्त की - आखर यात्रा में तुम दो लाख से ज्यादा तो न खर्च करोगे ?
’जी नहीं, उसका बजट है साढ़े तीन लाख का । सात वर्ष का प्रोग्राम है। पचास हजाररूपयेसाल ही तो हु ?’ के पहले और स्कूल से आने के बाद हम दोनों साथ बैठ कर अपने-अपने मंसूबे बाँधा करते और इस तरह सायँ-सायँ क कोई सुन न ले। हम अपने टकटखरीदने का रहस्य छपा रखना चाहते थे। यह रहस्य जब सत्य का रूप धारण कर लेगा,उस वक्त लोगों को कतना वस्मय होगा ! उस दृय नाटकीय आनन्द हम नहीं छोड़नाचाहते थे।
क दन बातों-बातों में ववाह का जक्र आ गया। वक्रम ने दारनक गंम्भीरता से कहा-भाई, ाादी-वादी का जंजाल तो मैं नहीं पालना चहता। व्यर्थ की चन्ता और हाय-हाय ।
पत्नी की नाजबरजारी में ही बहुत-से रूपये उड़ जायेंगे।
मैंने इसका वरोध कया- हाँ, यह ठीक तो है, लेकन जब तक जीवन के सुख-दुख कोईसाथी न हो,जीवन का आनन्द ही क्या ? मैं तो ववाहत जीवन से इतना वरक्त नहीं हूँ।
हाँ, साथी ेसा चाहता हूँ जो अन्त तक साथ रहे और ेसा साथी पत्नी के सवा दूसरा नहीं होसकता ।
वक्रम जरूरत से ज्यादा तुनुकमजाजी से बोला- खैर, अपना-अपना दृष्टिकोंण है।
आपको बीवी मुबारक और कुत्तों की तरह उसके पीछे-पीछे चलना और बच्चों को संसारकी सबसे बड़ी वभूत और ईार की सबसे बड़ी दया समझना मुबारक। बन्दा तो आजाद रहेगा,अपने मजे से जहाँ चाहा गएऔर जब चाहा उड़ गये और जब चाहा घर आ ग। यह नहीं क हर वक्तएक चौकीदारआपके सर पर सवार हो। जरा-सी देर हुई घर आने में और फौरन जवाब तलब हुआ, कहाँथे अब तलक ? आप कहीं बाहर नकले और फौरन सवाल हुआ, कहाँ जाते हो ? औरअगर कहीं दुर्भाग्य से पत्नी जी भी साथ हो गयीं तब तो डूब मरने के सवा आपके लएकोईमार्ग ही नहीं रहजाता। भैया, मुझे आपसे जरा भी सहानुभूत नहीं। बच्चे को जरा जुकाम हुआ और आपबेतहााा दौड़े जा रहे हैं होमयोपैथक डॉक्टर के पास। जरा उा खसकी और लौंडे मनानेलगे क अब आप प्रस्थान करें और वह गुलछर्रे उड़ायें। मौका मला तो आपको जहर खलादया और माहूर कया आपको कॉलरा हो गया था ।
मैं इस जंजाल में नहीं पड़ता।
कुन्ती आ गयी। वक्रम की छोटी बहन थी, कोई ग्यारह साल की । छठे में पढती थीऔरबराबर फेल होती थी। बड़ी चबल्ली, बड़ी ाोख। इतने धमाके से द्वार खोले क हम दोनोंचौंक कर उठ खड़े हुए।
वक्रम ने बगड़ कर कहा- तू बड़ी ौतान है कुन्ती, कसने तुझे बुलाया यहाँ ।
कुन्ती ने खुफया पुलस की तरह कमरे में नजर दौड़ा कर कहा-तुम लोग हर दम यहाँकवाड़ बन्द कये क्या बातें कया करते हो ? जब देखो, यहीं बैठे हो। न कहीं घूमने जातेहो, न तमााा देखने, कोई जादू-मन्तर जगाते होगे।
वक्रम ने उसकी गर्दन पकड़ कर हलाते हु कहा-हाँ, क मन्तर जगा रहे हैं, जसमें तुझेएक दूल्हा मले जो रोज गनकर पाँच हंटर जमाये सड़ासड़।
कुन्ती उसकी पीठ पर बैठकर बोली- मैं ेसे दूल्हे से ब्याह करूँगी जो मेरे सामने खड़ा पूँछहलाता रहेगा।। मैं मठाई के दाने फेंक दूंगी। और वह चाटेगा। जरा भी चीं-चपड़ करेगातो कान गर्म कर दूँगी। अम्माँ के लॉटरी के रूपयें मलेंगे तो पचास हजार मुझे दे देंगी।
बस, चैन करूँगी। मैं दोनोंवक्त ठाकुर जी से अम्माँ के ल प्रार्थना करती हूँ। अम्माँ कहती हैं, क्वाँरी लड़कयों कीदुआ कभी नष्फल नहीं होती ।मेरा मन तो कहता है, अम्माँ को जरूर रूपये मलेंगे।
मुझे याद आया क बार मैं अपने ननहाल देहात में गया, तो सूखा पड़ा हुआ था। भादोंका महीना आ गया था, मगर पानी की बूंद नहीं। तब लोगों ने चन्दा करके गाँव की सबक्वाँरी लड़कयों की दावत की थी । और उसके तीसरे ही दन मूसलाधार वर्षा हुई थी।
अवय ही क्वाँरी की दुआ में असर होता है।
मैंने वक्रम को अर्थपूर्ण आँखों से देखा, वक्रम ने मुझे। आँखों ही में हमने सलाह कर लीऔर नचय भी कर लया। वक्रम ने कुन्ती से कहा-अच्छा तुझसे क बात कहें, कसी सेकहेगी तो नहीं? नहीं, तू तो बड़ी अच्छी लड़की है, कसी से न कहेगी। मैं अबकी तुझेखूब पढ़ाऊँगा और पास करादूँगा। बात यह है क हम दोनों ने भी लॉटरी का टकट लया है। हम लोगों के ल भीईार से प्रार्थना कया कर ; अगर हमें रूपये मले तो तेरे ल अच्छे-अच्छे गहना बनवादेंगे। सच !
कुन्ती को वाास न आया । हमने कसमें खायीं । वह नखरे करने लगी। जब हमनें उसेसर से पाँव तक सोने और हीरे से मढ़ देने की प्रतज्ञा की,तब हमारे ल दुआ पर राजीहुई।
लेकन, उसके, पेट में मनों मठास पच सकती थी वह जरा-सी बातें न पचीं। सीधे अन्दरभागी और क क्षण में सारे घर में खबर फैल गयी । अब जसे देख वक्रमं को डाँट रहा है,अम्माँ भी, चाची भी, पता भी, केवल वक्रम की ाुभ-कामना से या और कसी बात से,कौन जाने-बैठे-बैठे तुम्हें हमाकत ही सूझती है। रूपये लेकर पानी में फेंक द। घर में इतनेआदमयों ने तो टकट लया ही था, तुम्हें लेने की क्या जरूरत थी ? तुम्हें उसमें कुछ नमलते ? और तुम भी मास्टर साहब, बल्कुल घोंघा हो। लड़के को अच्छी बातें क्यासखाओंगे, और उसे चौपट क डालते हो।’
वक्रम तो लाड़ला बेटा था। उसे और क्या कहते। कहीं रूठ कर क-दो जून खाना नखाये तो आफत ही आ जाय। मुझ पर सारा गुस्सा उतरा । इसकी सोहबत में लड़का बगड़जाता है।
’पर उपदेा कुाल बहुतेरे’ वाली कहावत मेरी आँखों के सामने थीं। मुझे बचपन की एकघटना याद आयी । होली का दन था। ाराब की क बोतल मँगवायी गयी। मेरे मामू साहबउन दनों आये हु थे। मैंने चुपके से कोठरी में जाकर ग्लास में क घूँट ाराब डाली और पीगया। अभी गला जल ही रहा था और आँखें लाल ही थीं क मामू साहबकोठरी में आ ग और मुझे मानों सेंध मेंगरफ्तार कर लया और इतना बगड़े, इतना बगड़े क मेरा कलेजा सूख कर छुहारा हो
गया ; अम्माँ ने भी डाँटा, पता जी ने भी डाँटा । मुझे आँसुओं से उनकी क्रोधाग्नि ाान्तकरनी पड़ी ; और दोपहर ही को मामू साहब नो में पागल होकर गाने लगे। फर रोये,फर अम्माँ को गालयाँ दीं, दादा को मना करने पर भी मारने दौड़े और आखर में कैकरके जमीन पर बेसुध पड़े नजर आ।
वक्रम के पता बड़े ठाकुर साहब, और चाचा छोटे ठाकुर साहब दोनों जड़वादी थे, पूजा-पाठ की हँसी उड़ाने वाले, पूरे नास्तिक। मगर अब दोनों बड़े नष्ठावान और ईार भक्त होगएथे। बड़े ठाकुर साहब तो प्रात:काल गंगा स्नान करने जाते और मन्दिरों में चक्करलगाते हुए दोपहर को सारी देह में चंदन लपेटे घर लौटते। छोटे ठाकुर घर में गर्म पानी सेस्नान करते गठया से ग्रस्त होने पर भी राम नाम लखना ाुरू कर देते। धूप नकल आनेपर पार्क की ओर नकल जाते औरचींटयों को आटा खलाते। ााम होते ही दोनों भाई अपने ठाकुर द्वारे में जा बैठते औरआधी रात तक भागवत की कथा तन्मय होकर सुनते। वक्रम के बड़े भाई प्रकाा को साधु-महात्माओं पर अधक वाास था। वह मठों और साधुओं के अखाड़ों और कुटयों कीखाक छानते, और माताजी को भोर से आधी रात स्नान, पूजा और व्रत के सवा दूसरा कामही नहीं था । उस उा में भी उन्हें सिंगार का ाौक था; पर आजकल पूरी तपस्विनी बनीहुई थीं। लोग नाहक लालसा को बुरा कहते हैं। मैं तो समझता हूँ, हममें जो यह भक्त औरनष्ठा और धर्म-प्रेम है, वह केवल हमारी लालसा, हमारी हवस के कारण । हमारा धर्महमारे स्वार्थ के बल पर टका हुआ है। हवस मनुष्य के मन और बुद्ध का इतना संस्कारकर सकती है, यह मेरे ल बल्कुल नया अनुभव था। हम दोनों ज्योतषयों और पंडतों सेप्रन करके अपने को दुखी कर लया करते थे।
ज्यों-ज्यों लॉटरी का दन समीप आता जाता था, हमारे चत्त की ाान्ति उड़ती जाती थी।
हमेाा उसी ओर मन टँगा रहता। मुझे आप ही आप अकारण संदेह होने लगा क कहींवक्रम मुझे हस्सा देने से इनकार कर दे तो मैं क्या करूँगा। साफ इनकार कर जाय कतुमने टकट में साझा कया ही नहीं। न कोई तहरीर है, न कोई दूसरा सबूत । सब कुछवक्रम की नीयत पर है। उसकी नीयत जरा भी डाँवाडोल हुई और मेरा काम तमाम। कहींफरयाद नहीं कर सकता, मुँह तक नहीं खोल सकता अब अगर कुछ कहूँ भी तो कोई लाभनहीं। अगर उसकी नीयत में फतूर आ गया है तब तो वह अभी से इनकार कर देगा। अगरनहीं आया है, तो इस संदेह से उसे मर्मान्तक वेदना होगी।
आदमी ेसा तो नहीं है ; मगर भई, दौलत पाकर ईमान सलामत रखना कठन है। अभी तोरूपये नहींमले । इस वक्त ईमानदार बनने में क्या खर्च होता है ? परीक्षा का समय तो तब आयेगा,जब दस लाख रूपये हाथ में होंगे। मैंने अपने अन्त:करण को टटोला-अगर टकट मेरे नामहोता और मुझे दस लाख मल जाते, तो क्या मैं आधे रूपये बना कान-पूँछ हलाये वक्रमके हवाले कर देता। कहता-तुमने पाँच रूपये उधार द थे। उसके दस ले लो, सौ ले लो,और क्या करोगे। मगर नहीं, मुझसे इतनी बद-दयानती न होती।
दूसरे दन हम दोनों अखबार देख रहे थे क सहसा वक्रम ने कहा-कहीं हमारा टकटनकल आ, तो मुझे अफसोस होगा क नाहक तुमसे साझा कया।
वह सरल भाव से मुस्कराया, मगर यह थी उसकी आत्मा की झलक, जसे वह वनोद कीआड़ में छपाना चाहता था।
मैंने चौंक कर कहा-सच !लेकन इसी तरह मुझे भी तो अफसोस हो सकता है ?
’लेकन टकट तो मेरे नाम का है ?’
’इससे क्या ?’
’अच्छा मान लो, मैं तुम्हारे साझे से इनकार कर जाऊँ ?’
मेरा खून सर्द हो गया । आँखों के सामने अँधेरा छा गया ।
’मैं तुम्हें बदनीयत नहीं समझता ।’
’मगर है बहुत संभव । पाँच लाख। सोचो !दमाग चकरा जाता है !’
’तो भई, अभी कुाल है, लखा-पढ़ी कर लो। यह सांय रहे ही क्यों ?’
वक्रम ने हँसकर कहा- तुम बड़े ाक्की हो यार ! मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। भला, ऐसाकहीं हो सकता है। पाँच लाख क्या, पाँच करोड़ हों, तब भी ईार चाहेगा, तो नीयत मेंखलल न आने दूँगा।
कन्तु मुझे उसके इन आाासनों पर बलकुल वाास न आया। मन में क सांय पैठगया।
मैंने कहा-यह तो मैं जानता हूँ क तुम्हारी नीयत कभी वचलत नहीं हो सकती, लेकनलखा-पढ़ी कर लेने में क्या हरज है ?
’फजूल !’
’फजूल ही सही।’
तो पक्के कागज पर लखना पड़ेगा। दस लाख की कोर्ट की फीस ही साढ़े साथ हजारहो जायगी। कस भ्रमं में हैं आप?’
मैंने सोचा, बला से सादी लखा-पढ़ी के बल पर कोई कानूनी कारवाई न कर सकूँगा। परइन्हें लज्जित करने का, इन्हें जलील करने का, इन्हें सबके सामने बेईमान सद्ध करने काअवसर तो मेरे हाथ आगा। और दुनया में बदनामी का भय न हो तो आदमी न जाने क्याकरे। अपमान का भय कानून के भय से कसी तरह कम क्रयााील नहीं होता; बोला-मुझेसादे कागज पर ही वाास आ जायेगा।
वक्रम ने लापरवाही से कहा- जस कागज का कोई कानूनी महत्व नहीं उसे लख करक्यों
समय नष्ट करें ?
मुझे नचय हो गया क वक्रम की नीयत में अभी से फतूर आ गया। नहीं तो सादाकागज लखने में क्या बाधा हो सकती है। बगड़ कर कहा-तुम्हारी नीयत को अभी सेखराब हो गयी है।
उसने नर्लज्जता से कहा- तो क्या तुम यह साबत करना चाहते हो क ेसी दाा मेंतुम्हारी नीयत न बदलती ?
’मेरी नीयत इतनी कमजोर नहीं है।’
’रहने भी दो। बड़ी नीयत वाले ! अच्छे-अच्छों को देखा है।’
’तुम्हें इसी वक्त लेख-बद्ध होना पड़ेगा। तुम्हारे ऊपर वाास नहीं रहा।’
’अगर तुम्हें मेरे ऊपर वाास नहीं है, तो मैं भी नहीं लखता।’
’तो क्या तुम समझते हो मेरे रूप हजम कर जाओगे ?’
’कसके रूपये और कैसे रूपये ?’
’मैं कहे देता हूँ वक्रम, हमारी दोस्ती का ही अन्त हो जायगा, बल्कि इससे कहीं भयंकरपरणाम होगा।’
हिंसा की क ज्वाला-सी मेरे अन्दर दहक उठी।
सहसा दीवान खाने में झड़प की आवाज सुनकर मेरा ध्यान उधर चला गया। जहाँ दोनोंठाकुर बैठा करते थे। उनमें ेसी मैत्री थी जो आदर भाइयों में ही हो सकती है। राम औरलक्ष्मण में भी इतनी ही रही होगी। झड़प की तो बात ही क्या, मैंने उनमें कभी ववाद होतेभी न सुना था। बड़े ठाकुर जो कह दें, वह छोटे ठाकुर के ल कानून था और छोटे ठाकुरकी इच्छा देखकर ही बड़े ठाकुर कोई बात कहते थे। हम दोनों को आचर्य हुआ ।
दीवानखाने के द्वार पर जाकर खड़े हो गए।
दोनों भाई अपनी-अपनी कुर्सियों से उठ खड़े हो ग थे, क-क कदम आगे बढ़ आ थे, आँखेंलाल, मुख वकृत, त्यौरयाँ चढी हुई, मुटि्ठयाँ बँधी हुई। मालूम होता था, बस हाथापाईहुआ ही चाहती है।
छोटे ठाकुर ने वक्रम को देखकर पीछे हटते हुए कहा - सम्मिलत परवार में जो कुछ भीऔर कहीं से भी और कसी के नाम भी आ, वह सबका नाम भी आ, वह सबका है,बराबर।
बड़े ठाकुर ने वक्रम को देखकर कदम और आगे बढ़ाया- हरगज नहीं; अगर मैं कोईजुर्म करूँ तो मैं पकड़ा जाऊँगा, सम्मिलत परवार नहीं। मुझे सजा मलेगी, सम्मिलतपरवार को नहीं। यह वैयक्तक प्रन है।
इसका फैसला अदालत से होगा।
ाौक से अदालत जाइ, अगर मेरे लड़के, मेरी बीबी या मेरे नाम लॉटरी मली तो आपकाउससे कोईसम्बन्ध न होगा, उसी तरह जैसे आपके नाम लॉटरी नकले तो मुझसे, मेरी बीबी से यामेरे लड़के से, उससे कोई सम्बन्ध न होगा।
अगर मैं जानता आपकी ेसी नीयत है, तो मैं भी बीवी -बच्चों के नाम टकट ले सकताथा।’
’यह आपकी गलती है।’
इसील क मुझे वाास था, आप भाई हैं।’
’यह जुआ है, आपको समझ लेना चाह था । जुए की हार-जीत का खानदान पर कोईअसर नहीं पड़ सकता। अगर आप कल को दस पाँच हजार रेस में हार आयें तो खानदानउसका जम्मेदार न होगा।’
’मगर भाई का हक दबाकर आप सुखी नहीं रह सकते।’
’आप न ब्रम्हा हैं न कोई महात्मा।’
वक्रम की माता ने सुना क दोनों भाइयों में ठनी हुई है और मल्ल-युद्ध हुआ चाहता है,तो दौड़ी हुई बाहर आयी और दोनों को समझाने लगी।
छोटे ठाकुर ने बगड़कर कहा-आप मुझे क्या समझाती हैं, उन्हें समझाइ, जो चार-चारटकट लएबैठे हैं। मेरे पास क्या है,एक टकट। उसका क्या भरोसा। मेरी अपेक्षा जन्हेंरूपये मलने का चौगुना चांस है, उनकी नीयत बगड़ जाय, तो लज्जा और दुख की बातहै।
ठकुराइन ने देवर को दलासा देते हुए कहा- अच्छा, मेरे रूपये में से आधे तुम्हारे। अब तोखुा हो ?
बड़े ठाकुर ने बीवी की जबान पक़ड़ी-क्यों आधे लेंगे? मैं एक धेला भी न दूँगा। हममुरौवत और सहृदयता से काम लें, फर भी इन्हें पाँचवें हस्से से ज्यादा कसी तरह नमलेगा। आधे का दावा कस नयम से हो सकता है? न बौद्धक, न धार्मिक, न नैतक।
छोटे ठाकुर ने खसयाकर कहा- सारी दुनया का कानून आप ही तो जानते हैं।
’जानते ही हैं, तीस साल तक वकालत नहीं की है।’
’यह वकालत नकल जायगी, जब सामने कलकत्ते का बैरस्टर खड़ा कर दूँगा।’
’बैरस्टर की ेसी-तैसी, चाहे वह कलकत्ते का हो या लंदन का !’
’मैं आधा लूँगा, उसी तरह जैसे घर की जायदाद में मेरा आधा है।’
इतने में वक्रम के बड़े भाई साहब सर और हाथ में पट्टी बाँधे, लगड़ाते हु कपड़ो परताजे खून के दाग लगा, प्रसन्न मुख आकर क आराम कुर्सी पर गर पड़े। बड़े ठाकुर नेघबरा कर पूछा-यह तुम्हारी क्या हालत है जी ! ऐं यह चोट कैसे लगी ? कसी से मार-पीट तो नहीं हो गयी ?
प्रकाा ने कुरसी पर लेट कर क बार कराहा, फर मुस्करा कर बोले - जी, कोई बातनहीं , ेसी कुछ बहुत चोट नहीं लगी।
’कैसे कहते हो चोट नहीं लगी। साराहाथ और सर सूज गया है। कपड़े खून से तर ।
यह मुआमला क्या है ? कोई मोटर-दुर्घटना तो नहीं हो गयी ?’
’बहुत मामूली चोट है साहब, दो-चार दन में अच्छी हो जायगी। घबराने की कोई बातनहीं।,
प्रकाा के मुख पर आाापूर्ण ाान्त मुस्कान थी। क्रोध, लज्जा या प्रताोध की भावना कानाम भी न था।
बड़े ठाकुर ने और व्यग्र होकर कहा- लेकन हुआ क्या, यह क्यों नहीं बतलाते ? कसीसे मार-पीट हुई हो तो थाने में रपट करवा दूँ।
प्रकाा ने हलके मन से कहा- मार-पीट कसी से नहीं हुई साहब। बात यह है क मैं जराझक्कड़ बाबा के पास चला गया था। आप तो जानते हैं, वह आदमयों की सूरत से भागतेहैं और पत्थर लेकर मारने दौड़ते हैं। जो डर कर भागा वह गया। जो पत्थर की चोटें भीखाकर उनके पीछे लगा रहा वह पारस हो गया। वह यही परीक्षा लेते हैं। आज मैं भी वहाँपहुँचा तो क पचास आदमी जमा थे, कोई मठाई ल कोई बहुमूल्य भेंट ल, कोई कपड़ों केथान ल। झक्कड़ बाबा ध्यानावस्था में बैठे थे। काक आँखें खोलीं और यह जनसमूह देखातो कई पत्थर चुनकर उनके पीछे दौड़े। फर क्या था भगदड़ मच गयी। लोग गरते-पड़तेभागे। हुर्र हो गए। कभी न टका।
अकेला मैं घंटाघर की तरह डटा रहा। बस उन्होंने पत्थर चला ही तो दया ! पहलानााना सर में लगा। उनका नााना अचूक पड़ता है। खोपड़ी भन्ना गयी । खून की धाराबह चली । लेकन मैं हला नहीं। फर बाबा जी ने दूसरा पत्थर फेंका। वह हाथ में लगा।
मैं गर पड़ा और बेहोा हो गया। जब होा आया, तो वहाँ सन्नाटा था। बाबा जी भी गायबहो ग। अन्तर्धान हो जाया करते हैं। कसे पुकारूँ, कससे सवारी लाने को कहूँ ? मारे दर्दके हाथ कटा पड़ता था और सर से अभी तक खून जारी था। कसी तरह उठा और सीधाडॉक्टर के पास गया उन्होंने देखकर कहा - हड्डी टूट गयी है, और पट्टी बाँध दी। गर्मपानी से सेंकने को कहा है। ााम को फर आवेंगे। मगर चोट लगी तो लगी, अब लॉटरीमेरे नाम आयी धरी है। यह नचय है। ेसा कभी हुआ नहीं क झक्कड़ बाबा की मारखाकर कोई नामुराद रह गया हो। मैं तो सबसे पहले बाबा की कुटी बनवा दूँगा।
बड़े ठाकुर साहब के मुख पर संतोष की झलक दखाई दी। फौरन पलंग बछ गया।
प्रकाा उस पर लेटे। ठकुराइन पंखा झलने लगीं, उनका मुख भी प्रसन्न था। इतनी चोटखाकर दस लाख पा जाना कोई बुरा सौदा न था।
छोटे ठाकुर साहब के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। ज्यों ही बड़े ठाकुर भोजन करने गये, औरठकुराइन भी प्रकाा के ल भोजन का प्रबन्ध करने गयी, त्यों ही छोटे ठाकुर ने प्रकाा सेपूछा- क्या बहुत जोर से पत्थर मारते हैं ? जोर से क्या मारते होंगे ?
प्रकाा ने उनका आाय समझकर कहा- अरे साहब पत्थर नहीं मारते, बम गोले मारते हैं।
देव-सा डील-डौल है, और बलवान इतने है क क घूँसे में ोर का काम तमाम करे देतेहैं।ऐसा-वैसाआदमी हो तो क पत्थर में टें हो जाय। कतने ही तो मर गये, मगर आज तक झक्कड़बाबा पर मुकदमा नहीं चला। और दो-चार पत्थर मार कर ही नहीं रह जाते, जब तक आपगर न पड़ें और बेहोा न हो जायेंगे वह मारते जायेंगे, मगर रहस्य यही है क आप जतनीज्यादा चोट खायेंगे, उतने ही अपने उद्देय के नकट पहुँचेंगे।
प्रकाा ने ऐसा रोंँ खड़ा कर देनेवालाचत्र खींचा क छोटे ठाकुर साहब थर्रा उठे। पत्थरखाने की हम्मत न पड़ी।
आखर भाग्य के नपटारे का दन आया-जुलाई की बीसवीं तारीख। कत्ल की रात । हमप्रात:काल उठे तो जैसे क नाा चढ़ा हुआ था, आाा और भय के द्वन्द्व का। दोनों ठाकुरों नेघड़ीरात रहे गंगा स्नान कया था और मन्दिर में बैठे पूजन कर रहे थे। आज मेरे मन में श्रद्धाजागी। मन्दिर जाकर मन ही मन ठाकुर जी की स्तुत करने लगा-अनाथों के नाथ, तुम्हारीकृपा-दृष्टि क्या हमारे ऊपर न होगी ? तुम्हें क्या मालूम नहीं, हमनें कतनी मुिकल सेटकट खरीदे हैं। तुम अन्तर्यामी हो। संसार में हमसे ज्यादा तुम्हारी दया कौन ’डजर्व’करता है ? वक्रम सूट-बूट पहने मन्दिर के द्वार पर आया, मुझे इाारे से बुला कर इतनाकहा- ’मैं डाकखाने जाता हूँ’ और हवा हो गया। जरा देर में प्रकाा मठाई के थाल ल हुएघर में से नकले और मन्दिर के द्वार पर खड़े होकर कंगालों को बाँटने लगे ; जनकीभीड़ जमा हो गई थी। और दोनों ठाकुर भगवान केचरणों में लव लगाये बैठे थे, सर झुकाये, आँखें बन्द, अनुराग में डूबे हुए।
बड़े ठाकुर ने सर उठाकर पुजारी की ओर देखा और बोले-भगवान बड़े भक्त-वत्सल हैं,क्यों पुजारी जी ?
पुजारी जी ने समर्थन कया- हाँ सरकार, भक्तों की रक्षा के ल तो भगवान क्षीर सागर सेदौड़े और गज को ग्राह के मुँह से बचाया।
क क्षण के बाद छोटे ठाकुर ने सर उठाया और पुजारी जी बोले- क्यों पुजारी जी,भगवान तो सर्वाक्तमान है, अन्तर्यामी सबके दल का हाल जानते हैं ?
पुजारी जी ने समर्थन कया- हाँ सरकार, अन्तर्यामी न होते तो सबके मन की बात कैसेजान जाते ? ाबरी का प्रेम देख कर स्वयं उसकी मनोकामना पूरी की ।
पूजन समाप्त हुआ। आरती हुई दोनों भाइयों ने आज ऊँचे स्वर से आरती गाई और बड़ेठाकुर ने दो रूपये थाल में डाले। छोटे ठाकुर ने चार रूपये डाले। बड़े ठाकुर नेएक बारकोप-दृष्टि से देखा और मुँह फेर लया।
सहसा बड़े ठाकुर ने पुजारी जी से पूछा-तुम्हारा मन क्या कहता है पुजारी जी ?
पुजारी बोला -सरकार की फते है।
छोटे ठाकुर ने पूछा- और मेरी ?
पुजारी ने उसी मुस्तैदी से कहा- अपकी भी फते है !
बड़े ठाकुर श्रद्धा में डूबे भजन गाते हु मन्दिर से नकले-’प्रभुजी, मैं तो आया सरन तहारे, हाँ, प्रभुजी....
एक मनट में छोटे ठाकुर साहब मन्दिर से गाते हुए नकले--
’अब पत राखो मोरे दया नध, तोरी गत लख न परे...’
मैं भी पीछे नकला और मठाई बाँटने में प्रकाा बाबू की मदद करनी चाही, पर उन्होनेंथाल हटा कर कहा - आप रहने दीजए, मैं अभी बाँटे डालता हूँ। अब रह ही कतनी गयी है?
मैं खसया कर डाकखाने की तरफ चला क वक्रम मुस्कराता हुआ साइकल पर आपहुँचा। उसे देखते ही सभी जैसे पागल हो गए। दोनों ठाकुर सामने खड़े थे। दोनों बाज कीतरह झपटे। प्रकाा की थाल में थोड़ी सी मठाई बच रही थी।उसने थाल जमीन पर पटकाऔर दौड़ा। और मैंने तो उस उन्माद में वक्रंम को गोद में उठा लया , मगर कोई उससेकुछ पूछता ही नहीं, सभी जय- जयकार की हाँक लगा रहे हैं।
बड़े ठाकुर ने आकाा की ओर देखा- बोलो, राजा रामचन्द्र की जय !
छोटे ठाकुर ने छलाँग मारी - बोलो, हनुमान जी की जय !
प्रकाा तालयाँ बजाता हुआ चीखा- दुहाई झक्कड़ बाबा की !
वक्रम ने और जोर से कहकहा मारा ; फर अलग खड़ा होकर बोला- जसका नाम आयाहै,उससे क लाख लूँगा। बोलो, है मंजूर ?
बड़े ठाकुर ने उसका हाथ पकड़ा - पहले बता तो।
’ना ! यों नहीं बताता।’
छोटे ठाकुर बगड़े- महज बताने के ल क लाख ? ााबाा !
प्रकाा ने भी त्यौरी चढ़ायी- क्या डाकखाना हमनें देखा नहीं है ?
’अच्छा तो अपना नाम सुनने के ल तैयार हो जाओ।’
सभी फौजी अटेांन की दाा में नचल खड़े हो ग।
’होा-हवास ठीक रखना !’
’सभी पूर्ण सचेत हो गये।’
’अच्छा, तो सुन कान खोल कर, इस ाहर का सफाया है। इस ाहर का ही नहीं,सम्पूर्णभारत का सफाया है। अमेरका के क हबी का नाम आ गया ।
बड़े ठाकुर झल्लाये - झूठ, झूठ बलकुल झूठ।
छोटे ठाकुर ने पैंतरा बदला- कभी नहीं। तीन महीने की तपस्या यों ही रही वाह !
प्रकाा ने छाती ठोंक कर कहा- यहाँ सर फुड़वाये और हाथ तुड़वाये बैठे है, दल्लगी है।
इतने में और पचीसों आदमी उधर से रोनी सूरत ल नकले। वे बेचारे भी डाकखाने सेअपनी कस्मत को रोते चल आ रहे थे। मार ले गया अमेरका का हबी ! अभागा !
पााच ! दुष्ट !
अब कैसे कसी को वाास न आता। बड़े ठाकुर झल्लाये हुए मन्दिर में गये और पुजारीको डसमस कर दया-इसीलएतुम्हें इतने दनों से पाल रखा है ! हराम का माल खाते होऔर चैन करते हो !
छोटे ठाकुर साहब की तो जैसे कमर टूट गयी । दो-तीन बार सर पीटा और वहीं बैठगये। मगर प्रकाा के क्रोध का पारावार न था। उसने अपना मोटा सोंटा लया और झक्कड़बाबा की मरम्मत करने चला।
माताजी ने केवल इतना कहा- सबों ने बेईमानी की है। मैं कभी मानने को नहीं। हमारेदेवता क्या करें। कसी के हाथ से थोड़े छीन लायेंगे।
रात को कसी ने खाना नहीं खाया मैं भी उदास बैठा हुआ था क वक्रम आकर बोला-चलों, होटल से कुछ खा आयें। घर में तो चूल्हा नहीं जला।
मैंने पूछा-तुम डाकखाने से आये, तो बहुत प्रसन्न क्यों थे ?
उसने कहा-जब मैंने डाकखाने के सामने हजारों की भीड़ देखी तो मुझे अपने लोगों केगधे पन पर हँसी आयी। क ाहर में जब इतने आदमी हैं तो सारे हन्दुस्तान में इसकेहजार गुने से कम न होंगे और दुनया में तो लाख गुने से भी ज्यादा हो जायेंगे। और मैंनेआाा का क पर्वत-सा खड़ा कर रखा था, वह जैसे कबारगी इतना छोटा हुआ क राई बनगया, और मुझे हँसी आयी। जैसे कोई दानी छँटाक भर अन्न हाथ में लेकर क लाखआदमयों को नेवता दे बैठे - और यहाँ हमारे घर काएक-एक आदमी समझ रहा है क...
मैं भी हँसा-हाँ, बात तो यथार्थ में वही है, और हम दोनों लखा-पढ़ी के लए लड़े मरतेथे। मगर सच बताना तुम्हारी नीयत खराब हुई थी क नहीं ?
वक्रम मुस्करा कर बोला- अब क्या करोगे पूछ कर। परदा ढका रहने दो।