Vasudha ki Diary in Hindi Short Stories by Sudarshan Vashishth books and stories PDF | वसुधा की डायरी

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वसुधा की डायरी

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कथा कहती कहानियां

सुदर्शन वशिष्ठ



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सुदर्शन वशिष्ठ

1ण्जन्मः 24 सितम्बर, 1949. पालमपुर हिमाचल प्रदेश (सरकारी रिकॉर्ड में 26 अगस्त 1949)। 125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन। नौ कहानी संग्रहः (अन्तरालों में घटता समय, सेमल के फूल, पिंजरा, हरे हरे पत्तों का घर, संता पुराण, कतरनें, वसीयत, नेत्र दान तथा लघु कथा संग्रह : पहाड़ पर कटहल)।

2ण्चुनींदा कहानियों के चार संग्रह : (गेट संस्कृति, विशिष्ट कहानियां, माणस गन्ध, इकतीस कहानियां)।

3ण्दो लघु उपन्यास : (आतंक, सुबह की नींद)। दो नाटक : ( अर्द्ध रात्रि का सूर्य, नदी और रेत)।

4ण्एक व्यंग्य संग्रह : संत होने से पहले।

5ण्चार काव्य संकलन : युग परिवर्तन, अनकहा, जो देख रहा हूं, सिंदूरी सांझ और खामोश आदमी।

6ण्संस्कृति शोध तथा यात्रा पुस्तकें : ब्राह्‌मणत्वःएक उपाधिःजाति नहीं, व्यास की धरा, कैलास पर चांदनी, पर्वत से पर्वत तक, रंग बदलते पर्वत, पर्वत मन्थन, पुराण गाथा, हिमाचल, हिमालय में देव संस्कृति, स्वाधीनता संग्राम और हिमाचल, कथा और कथा, हिमाचल की लोक कथाएं, हिमाचली लोक कथा, लाहौल स्पिति के मठ मंदिर, हिमाचल प्रदेश के दर्शनीय स्थल, पहाड़ी चित्रकला एवं वास्तुकला, हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक संपदा।

7ण्हिमाचल की संस्कृति पर छः खण्डों में ‘‘हिमालय गाथा‘‘ श्रृंखलाः देव परम्परा, पर्व उत्सव, जनजाति संस्कृति, समाज—संस्कृति, लोक वार्ता तथा इतिहास।

8ण्सम्पादनः दो काव्य संकलन : (विपाशा, समय के तेवर) ; पांच कहानी संग्रह : (खुलते अमलतास, घाटियों की गन्ध, दो उंगलियां और दुष्चक्र, काले हाथ और लपटें, पहाड़ गाथा)। हिमाचल अकादमी तथा भाषा संस्कृति विभाग हिमाचल प्रदेश में सेवा के दौरान लगभग सत्तर पुस्तकों का सम्पादन प्रकाशन। तीन सरकारी पत्रिकाओं का संपादन।

1ण्सम्मानः जम्मू अकादमी तथा हिमाचल अकादमी से ‘आतंक‘ उपन्यास पुरस्कृत; साहित्य कला परिषद्‌ दिल्ली से ‘नदी और रेत‘‘ नाटक पुरस्कृत। हाल ही में ‘‘जो देख रहा हूं'' काव्य संकलन हिमाल अकादमी से पुरस्कृत। कई स्वैच्छिक संस्थाओं से साहित्य सेवा के लिए सम्मानित।

1ण्देश की विगत तथा वर्तमान पत्र पत्रिकाओं : धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान से ले कर वागर्थ, हंस, साक्षात्कार, गगनांचल, संस्कृति, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य आदि से रचनाएं निरंतर प्रकाशित। राष्ट्रीय स्तर पर निकले कई कथा संकलनों में कहानियां संग्रहित। कई रचनाओं के भारतीय तथा विदेशी भाषाओं मेें अनुवाद। कहानी तथा समग्र साहित्य पर कई विश्वविद्‌यालयों से एम फिल तथा पीएचडी.।

1ण्पूर्व सचिव/उपाध्यक्ष हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी ; उपनिदेशक/निदेशक भाषा संस्कृति विभाग हिप्र।

2ण्पूर्व सदस्य : साहित्य अकादेमी दिल्ली, दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।

3ण्वर्तमान सदस्य : सलाहकार समिति आकाशवाणी; हिमाचल राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, विद्याश्री न्यास भोपाल।

4ण्पूर्व फैलो : राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्‌ भारत सरकार

5ण्सीनियर फैलो : संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार।

1ण्संपर्क : ‘‘अभिनंदन‘‘ कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला—171009 हि प्र

2ण्फोन : 094180—85595 (मो) 0177—2620858 (आ)

3ण्ई—मेल : अेंीपेीजीेंनकंतेींद/लींववण्बवउ

प्रकाशक की कलम से

हिन्दी कहानी आज अपने पुराने और वास्तविक स्वरूप में लौटती प्रतीत हो रही है। वास्तविक स्वरूप यानि कहानी, कहानी बनती जा रही है। कहानी में यदि कथा तत्व नहीं है तो वह संस्मरण, रिपोर्ताज, निबन्ध कुछ भी हो सकता है, कहानी नहीं हो सकती। कथा तत्व ही कहानी का मूल है।

पिछली सदी के अंतिम दशक तक कहानी से कथा दूर होने लगी और एक एब्स्ट्रेक्ट सी चीज़ सामने आई। जादूई यथार्थ के नाम पर कुछ कहानियां ऐसी भी आईं जिनमें न जादू था न यथार्थ। सरल और सीधी भाषा या शिल्प में कही जाने वाली कथा गायब होने लगी। ऐसी भी स्थ्िति आ गई कि कई पत्रिकाओं में उलझा सा संस्मरण, भाषण का मसौदा भी कहानी कह कर परोसा जाने लगा। लगभग ऐसा ही कविता के साथ भी हुआ। एक गद्य के पैरे को कविता कह कर छापा जाने लगा।

शिल्प की अत्यधिक कसरत; कथा से दूर उलझावदार, पेचदार कथानक ने एक बार तो पाठकों को चमकृत कर दिया किंतु जल्दी ही इससे मोहभंग होने लगा। स्वयं कहानीकार भी इसका निर्वाह देर तक नहीं कर पाए। उन्हें कथा की ओर लौटना ही पड़ा। इस सदी के पहले दशक के अंत तक कहानी, फिर कहानी की ओर लौटी है। आज पत्रिकाओं में फिर से कहानी दिखलाई पड़ती है।

सारिका और धर्मयुग ने सशक्त कहानियां देने के साथ एक कहानी आन्दोलन भी खड़ा किया। सारिका ने प्रतियोगिताओं के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप से तो धर्मयुग ने अप्रत्यक्ष तौर कहानी का एक आन्दोलन चलाया। इसी तरह की कहानी प्र्रतियोगिताएं साप्ताहिक हिन्दुस्तान ने भी कराईं।

धर्मयुग के माध्यम से कहानी का जो भीतर ही भीतर एक आन्दोलन चला उसने कई कहानीकार दिए। यहां पुराने और स्थापित कहानीकाराें के बराबर में नये कहानीकार भी आए। जैसाकि होता रहा है, शिवानी जैसे कुछ ऐसे भी कहानीकार थे जिनकी तरफ आलोचकों ने ध्यान नहीं दिया। बहुत से सम्भावनाशील कथाकार न जाने कहां लुप्त हो गए। अस्सी के उस दौर में से0रा0 यात्री, राकेश वत्स, स्वदेश दीपक, पानू खोलिया, देवेन्द्र इस्सर, चन्द्रमोहन प्रधान, सुदर्शन नारंग, डा0 सुशीलकुमार फुल्ल, संजीव, शिवमूर्ति, मनीषराय, सुदर्शन वशिष्ठ, रूपसिंह चंदेल, केशव, बलराम, चित्रा मुद्‌गल, राजकुमार गौतम, मालचंद तिवारी, प्रभुनाथ सिंह आज़मी आदि कितने ही कहानीकारों ने ध्यान आकर्षित किया। यह भी सत्य है कि इन में कुछ तो जम कर स्थापित हुए, कुछ का स्मरण कभी कभार किया जाने लगा और कुछ का किसी ने नाम नहीं लिया। किंतु उस युग में धर्मयुग में छपने का अर्थ था एकाएक लाखों पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होना।

यूं तो सुदर्शन वशिष्ठ की पहली कहानी 1969 में छपी और पहला कहानी संग्रह 1979 में आया किंतु आठवें दशक में भौगोलिक सीमाओं को तोड़ते हुए वशिष्ठ ने राष्ट्रीय मंच में दस्तक दी और तमाम शीर्षस्थ राष्ट्रीय पत्रिकाओं मे यह नाम एकाएक उभर कर सामने आया। सारिका की ‘‘ऋण का धंधा'' हो या धर्मयुग की ‘‘सेमल के फूल‘‘, ‘‘पिंजरा'', ‘‘घर बोला'', ‘‘सेहरा नहीं देखते'' या साप्ताहिक हिन्दुस्तान की ‘‘माणस गन्ध'', योजना की ‘‘सरकारी पैसा''; एकाएक सभी पत्रिकाओं में यह नाम देखा जाने लगा।

धर्मयुग में पहली कहानी ‘‘सेमल के फूल'' 22—29 जून 1980 के अंक में प्रकाशित हुई जिसके बाद लगातार कहानियां लगभग हर वर्ष धर्मयुग के बंद होने तक आती रहीं। साप्ताहिक हिन्दुस्तान में ‘‘माणस गन्ध'' का प्रकाशन 31 मार्च—6 अप्रैल 1991 अंक में हुआ।

गत पैंतालीस बरसों से लगातार कहानी लेखन में सक्रीय वशिष्ठ ने एक लम्बा सफर तय किया है। अतिसंवेदनशील मानवीय मूल्यों की कोमल छुअन, घर और गांव का मोहपाश, शहर और गांव के बीच आकर्षण और बढ़ता हुआ विकर्षण, घर परिवार से दफतर तक का संसार, निर्मम सरकारी तन्त्र, राजनीति की विभिषिका, सब इनकी कहानियों में देखने को मिलता है। सम्बन्धों की रेशमी डोरियों से ले कर गहन और जटिल मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों तक कथाकार ने एक यथार्थवादी किंतु अद्‌भुत और रोमांचक संसार का निर्माण किया है।

वरिष्ठ कथाकार वशिष्ठ का कथा संसार उनके लेखन की तरह बहुआयामी विविधताओं से भरा हुआ है। यह किसी सीमित दायरे में बन्ध कर नहीं रहता। वे कहानी, उपन्यास, कविता, च्यंग्य, निबन्ध, सांस्कृतिक लेख आदि कई विधाओं में एक साथ लिखते हैं। इसी तरह उनकी कहानियों की भावभूमि और ज़मीन अलग अलग रही है। वशिष्ठ की कहानियां बोलती है, कहानीकार नहीं। कहानी में कहानीकार होते हुए भी नहीं होता। परिवेश और परिस्थितियों के अनुरूप संवेदना, कोमलता, सादगी के साथ ताज़गी, धारदार व्यंग्य के साथ एक तीख़ापन इनकी कहानियों में दिखलाई पड़ता है।

अव्यक्त को व्यक्त करना और व्यक्त को अव्यक्त करना, पात्रों को चरम तक उभार कर रहस्यमयी परिस्थितियों में छोड़ देना इन की कला है। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक और बड़ी से बड़ी बात करना, प्रतीकात्मक ढंग से इशारे में कहना, कथ्य के अनुरूप वातावरण तैयार करना और काव्यमयी भाषा का निर्माण इन की कहानी कला में आता है। कहानियों के अंत प्रायः खुले छोड़ दिए जाते हैं जो पाठक को देर तक सोचने पर विवश करते हैं।

गुलेरी सा शिल्प का नयापन, यशपाल का लेखन का विस्तार, मोहन राकेश सी कसावट, निर्मल वर्मा सी कोमलता और दक्षता इनकी कहानियों में देखने को मिलती है।

शब्दों की मितव्ययता और कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक बात कहने की क्षमता, निरर्थक संदर्भों के बखान से परहेज, अनावश्यक विस्तार से बचाव इनकी कहानियों की विशेषता रही है। पात्रों को परिस्थ्ििात के अनुरूप रिएक्ट करने के लिए खुला छोड़ना, कहानी में उपस्थित हो कर भी अनुपस्थित रहना, कहानियों की एक ओर विशेषता कही जा सकती है।

विषयों की विविधता के साथ बाल मनोविज्ञान, वृद्धों की मानसिकता, नारी मन की कोमल भावनाएं, मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग की ऊहापोह; इन सब का विवेचन बदलते हुए मूल्यों और परिस्थितियों के साथ कहानियाें में नये नये आयामों के साथ परिलक्षित होता है।

सारिका, धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी पत्रिकाओं का एक एक कर बंद होना साहित्य में एक दुखांत घटना थी। इस दुर्घटना के बाद साहित्य जगत में अन्धेरा सा छाया रहा। उस युग के बाद आउटलुक, कहानीकार, पश्यन्ति, पल प्रतिपल, विपाशा, साहित्य अमृत, हरिगन्धा, हिमप्रस्थ, मधुमति, साक्षात्कार, से ले कर सण्डे ऑब्जर्बर, जनसत्ता, अमर उजाला, नवभारत टाईम्ज, हिन्दुस्तान, दैनिक ट्रिब्यून, नई दुनिया जैसे पत्रों तक इनकी कहानियां छपती रहीं।

वशिष्ठ की कथायात्रा अब भी निरंतर जारी है। समकालीन भारतीय साहित्य हो या हंस, कथादेश या नवनीत, कादम्बिनी हो या वागर्थ इनकी कहानियां निरंतर देखी जा सकती हैं।

एक लम्बे समय और स्पेस में निरंतर लेखन के कारण इनकी कहानियों में पुरातन और नवीन का सामंजस्य स्थापित हुआ। समय और समाज के परिवर्तन के साथ आए भौतिक और मनावैज्ञानिक बदलाव इन कहानियों में सौ वर्ष से अधिक के कालखण्ड को अपने में समोए हुए है। इस दृष्टि से यह कथायात्रा, जो अभी भी जारी है, एक दस्तावेज के रूप में सामने आती है।

कहानी को किसी खांचे में कस कर खरीदे हुए धागों से बुनना कथाकार का अभीष्ट नहीं रहा। इन का धागा भी अपना है, रंग भी अपना है, खड्‌डी भी अपनी है और बुनावट का डिजायन भी अपना है। इन की ऊन में सिंथेटिक की मिलावट नहीं है कि ओढ़ते ही चिंगारियां निकलने लगें या किसी रंगरेज़ ने नकली और कच्चे रंग से रंगा भी नहीं कि एक बार धो पहन कर रंग फीेके पड़ जाएं । इन में असल ऊनी धागा है, असली और पक्के रंग है। कोई भी पाठक इसे सहजता से ओढ़ बिछा सकता है। इससे स्वाभाविक गर्माहट मिलेगी जो देर तक धीमे धीमे असर करती रहेगी।

यहां कहानीकार की नारी संवेदना को ले कर कुछ विशिष्ट कहानियां दी जा रही हैं जो अपने कथ्य और काव्यमयी भाषा के कारण विशेष ध्यान आकर्षित करती हैं। सभी कहानियों में समाज में नारी के प्रति संस्कार, संबंन्धों की जटिलता, का बड़ी सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है।

वसुधा की डायरी

पतझड़ और पीले पत्ते

......पता नहीं झाड़ने पोंछने का काम हमारे ही जिम्मे क्यों है!

पहले मां गांव के घर में आंगन बुहारती थीं। मरद दिन चढ़े तक सोए रहते घर के भीतरी कमरों में खुर्राटे मारते। और आंगन में पड़े होते बासी पीले नामरद पत्ते। जिन्हें हिलाने और जगाने के लिए औरतें आंगन बुहारतीं। मरदों के सोये भीतर बुहारना अपशकुन है, इसलिए पहले आंगन बुहारती हैं। मां ही नहीं, गांव की सभी औरतें मुंह अन्धेरे आंगन बुहारतीं।.... ऐसा न हो सुबह सबेरे आने वाले अभ्यागत यह बोलें कि औरत के रहते साफ नहीं हो पाया आंगन। सर्दियों में तड़के ही नंगे पांव आंगन बुहारने बुहारते उनके पांवों में बिबाईयां फटने को आतीं, हाथ चितकबरे हो जाते।.... कभी कभी तो आंगन बहुत लम्बा हो जाता। नई नवेली बहु को तो घूंघट काढ़े चार चार घराें का आंगन बुहारना पड़ता और मजाल है कहीं कचरे का एक कण भी रह जाए! चाहे कच्चा हो चाहे पक्का चाहे मुश्तरका; बहु को तो बुहारना ही है, चाहे सारी पृथ्वी हो जाए आंगन......।

आंगन, मंच है

घर नेपथ्य,

जिसमें सारी तैयारी चलती है। शहरों में आंगन नहीं होता, इसलिए अब बैठक ही मंच है। कमरों में होती कानाफूसी, लिहाफ फुसफुसाते, रचे जाते षड्‌यन्त्र। योजनाएं बनतीं, बिगड़तीं, फिर तैयार होते पात्र। सीरियल के सीन की तरह, अलग अलग दरवाजों से, सीढ़ियों से एक एक कर एकदम आ जाते बैठक में।

अब यहीं, बैठक में, सब कुछ करना है हमें। झाड़ना, बुहारना, छानना, फटाकना। और पकाना, खिलाना तो नियति है हमारी;

......पता नहीं कैसे हर जगह फैंक देते हैं चीजें। भई, जहां से चीज़ उठाई है, वहां रखो। पर नहीं। पापा की ऐनक नीचे गिरी है। यदि किसी का पांव आ गया तो गई। अम्मी की सिलाईयां सोफे पर ऊन के गोले के बीच खड़ी रखी हुई हैं। कोई ऊपर बैठ गया तो...। सीना पिरोना तो अब होता नहीं। फिर भी नन्हेें पोते के लिए , जो अभी देखा तक नहीं, स्वेटर बुन रही हैं। पता नहीं क्यों लगी रहती हैं इस उम्र में और किन के लिए।....आग अपना सेंक छोड़ सकती है, हवा अपनी ठण्डक, मां ममता नहीं छोड़ सकती। भईया यह ‘‘मां‘‘ शब्द ही बुरा है, आदमी के जन्म से मरण तक मुंह से यही निकलता है।

........अम्मी कहती हैं ... जब मेरा जन्म हुआ, मेरी आंखें भेंगी थीं। और रंग... काल्ला सुरमे जैसा। इस ओर सुलाओ तो दूसरी आंख की पुतली घूम जाती, उस ओर सुलाओ तो इधर की। अम्मी ने मुझे कभी इस करवट, कभी उस करवट सुला सुला कर आंखें ठीक कीं। चोरी से बादाम रोगन की मालिश कर कर के मेरा रंग काले से सांवला कर दिया।... कैसे न करती, अच्छा वर तो तभी मिलना था।

....... और पापा! पापा कहते हैं,जब मेरा जन्म हुआ, सभी के चेहरे एकदम फक्‌क। सब उदास हो गए थे। हां, डाक्टरनी ने जरूर सांत्वना दी थी...क्या पहला इश्यू है!.....डोट वरी। बाहर खड़े उदास रिश्तेदारों ने पापा को दिलासा दिया, कोई बात नहीं, प्रारब्ध में जो है, वही मिलेगा।

और उसके बाद प्रारब्ध ने साथ दिया और दो दो बेटे दिए...... तू बड़े भाग्य वाली आई री.... दो दो भाई दिए....।

कांच में चेहरा

भेड़ों के रेवड़ की तरह सिर झुकाए स्कूल जाती लड़कियों में मैं भी शामिल हो गई। सिर पर सपनों का फूल लगाए। सभी ऐसे भागतीं जैसे कोई गडरिया लाठी लिए भगा रहा हो। नजरें, बस एक तरफ, नीची और सीधी सामने। न इधर न उधर। स्कूल का काम घर के काम में बदल जाता। भाई स्कूल जाने काबिल हुए तो उन्हें भी स्कूल छोड़ा।

अरे! भाई कोई बोझा थोड़े ही होता है। दोनों भाई छोटे थे, इसलिए लड़की होते हुए भी लड़का बनी। छोटा तो बहुत बार स्कूल में ही पकड़े गंदे कर देता था तो टीचर मुझे बुला कर साफ करवाती।

घर का सारा काम, सारी साफ सफाई करते हुए भी मिडिल से ही बजीफा मिला। मेट्रिक के बाद दो साल घर बैठी रही। तीसरे साल छोटा भाई कॉलेज गया तो उसने साथ दिया और कॉलेज जाने लगी। वहां भी बी0ए0 तक वजीफा मिला। उसके बाद भाई बाहर पढ़े, नौकरियों में लगे और मैं.......।

...... अरे मैं क्या लिखने बैठ गई सुबह ही। रखो इसे, परे करो। अभी समय नहीं है।

कितना निष्ठुर है यह कांच का टुकड़ा। जरा लिहाज नहीं करता। जो है, वही दिखाता जाता है। जितना इसे साफ करो, उतना ही बेरहम होता जाता है....जितना दुलार करो, शरारती बच्चे का उतना ही मनचला हो जाता है....।

.......मेरे आगे के बाल... कितने सफेद होने लगे। जितना रंगती हूं, उतने ही सफेद हुए जाते हेैं। कितनी बार रंगू। कई बार सोचा एक बार काट कर देखूं, कोई स्टाइल बनाऊं, तो अम्मी नहीं मानती। कहती हैें : अभी मत काट बेटा, अभी दूसरे घर जाना है।

.... कहां है मेरा घर.....यह घर मेरा नहीं जहां मैं अपने मां बाप के साथ रह रही हूं....इस घर में दो कमरों में तो बड़े भाई ने ताला मार रखा है। छोटा हालांकि अमेरिका में है, बाकी के दो कमरों पर अपना अधिकार जताना नहीं छोड़ता।

.....कभी लगता है मैं सूखे पत्ते सी उड़ रही हूं, पता नहीं कहां पहुंचूंगी। कहीं पहुंचूंगी भी या ऐसे ही हवा में उड़ती रहूंगी और आखिर चूर चूर हो धूल में मिल जाऊंगी। क्या कभी कोई झंझावत मुझे कहीं दूर ले जा फेंकेगा.... जहां दूसरी दुनिया होगी.... जहां मेरे सपनाें का राजकुमार लम्बी गाड़ी पर सवार धूल उड़ाता आएगा.........घूं..घूं..घूं........।

मां कहती है..... पता नहीं कैसी अल्हड़ है ये लड़की। दिन रात दौड़ी हुई है।... पापा कमजोर हो रहे हैं... मां को नींद नहीं आती... । आज च्यवनप्रास ले आएगी, अगले दिन कोई विटामिन की शीशी ले आएगी.... सिर में लगाने का कोई तेल ले आएगी।

कितनी बार कहा विजय से शादी कर ले। कितनी भला लड़का है। यहां आता है तो कितनी शराफत से बैठा रहता है। क्या मजाल कभी ऊंची नजर इधर उधर डाले...तू ऐसी है कि न हां करती है, न खुल कर मना करती है... इसकी तो ये ही जाने....। हम कब तक बैठे रहेंगे...फिर भाई कहां पूछेंगे... वे तो पहले ही अपने अपने हैं....।

विजय शायद अच्छा लड़का है। क्या हुआ जो छोड़ी हुई पत्नी के दो बच्चे है.... उन सब से तो अच्छा ही है। उस टोपी वाले आदमी से जो तिलक लगता है तो खलनायक की तरह लगता है। या उस गंजे आदमी से जो बची हुई लटाओं को पूरे सिर पर फैला देता है। या उस बौने आदमी से जो जितना जमीन के ऊपर है उतना ही नीेचे है। या वह जिसकी पेंट का आसन घुटनों तक है और लगता है पंखा ज्यादा तेज चलाया तो उसकी पेंट नीचे गिर जाएगी।

सहेली नसीहत देती है : अपना ख्याल रख... कमजोर हो गई है। हफ्‌ते में कम से कम एक बार ब्यूटी पार्लर जा कर चेहरे की मैसाज करवाया कर।

पस्त होते पापा

..........पता नहीं कैसा बुखार है ये, उतरने का नाम ही नहीं ले रहा। सारा शरीर जैसे निचोड़ कर रख दिया पापा का। पूरे शरीर में दर्द.... जकड़न सी रहती है।

मैं बार बार कहती हूं : पापा! दवाई तो आप पूरी खा रहे हैं न! आप पूरी दवाई नहीं खाते हैं, ये आप की पुरानी आदत है। डॉक्टर ने जितनी दवाई बताई है, उसका पूरा कोर्स करना होता है, तभी असर होता है।

पापा कहते : बेटा! इतनी मंहगी दवाई। ये अंगे्रजी दवाईयां तो वैसे भी ढेर सारी लिख देते हैं।

मैं कहती : महंगी हुईं तो क्या। सारे पैसे रिएंबर्स हो जाएंगे। मैंने ऑफिस में डिपेंडेंट में आपका और अम्मी का नाम ही तो दिया है। पैसे तो देर सबेर मिल ही जाएंगे।

पापा बार बार पछताते : खा रहा हूं बेटा! पर इन दवाईयों से खुश्की हो जाती है। भूख मर जाती है। पता नहीं ये बुखार उतर क्यों नहीं रहा।...... मेरे ऊपर तुम्हारा बहुत भार और उपकार रह गया.... कुछ नहीं कर पाया मैं तुम्हारे लिए..... ये तोे तुम्हारी अपनी हिम्मत थी तो कॉलेज तक पढ़ गई।

मैं कहती : आप बार बार ऐसा क्यों कहते हैं पापा। आप अपनी शक्ति और समय के अनुसार जितना कर सकते थे, आपने किया। तभी मैं आज नौकरी लगी हूं। मेरी पी0ए0 की नौकरी के लिए आपने क्या कुछ नहीं किया। किस किस के पास नहीं गये। कितनी दोैड़ धूप की आपने। वरना आज ऐसी अर्ध सरकारी संस्था में भी नौकरी कहां मिलती है!

भैया का फोन था : पापा के लंग्ज इंफेक्शन की बात सुनता है। वह नहीं आएगा। मुझे पता था। और वह छोटा धीरेन्द्र, वह तो सात समुद्र पार अमेरिका में है। वह तो मजबूर है, इतनी दूर से कैसे आ सकता है।

पापा कहते हैं : अपनी हिम्मत से बहुत आगे बढ़ कर मैंने ऊंची से ऊंची शिक्षा दी इनको।... शायद संस्कार नहीं दे पाया। या अब संस्कार ही ऐसे हो गए हैं। बड़ा कभी इस ओर आता है तो उसे बताना पड़ता है कि घर हो के जाना।.....कैसा उल्टा जमाना आ गया है आज! पहले लड़कियाें को विदा करते थे, हम ने पढ़ा लिख कर लड़कों को विदा किया।.... कंपनियों से विवाह कर दिया। एक एक करके दोनाें ऐसे गए कि लौट कर नहीं आए........कभी लगता है ,वे लड़के नहीं, लड़कियां ही थे। ... मां की ठण्डी छांव, बाबुल का बेहड़ा, पहले बड़े ने छोड़ा, फिर छोटे ने। तभी इनके पहली बार घर से बाहर जाने पर तुम्हारी मां बहुत रोयी थी। मैंने उसे डांटा भी कि ऐसे क्यों रो रही है। इस तरह जोर जोर से रोना भी अपशकुन होता है। मैंने उसके रोने का राज उस वक्त नहीें जाना। आज सोचता हूं, सच ही वह विदाई की घड़ी थी।

रोती हुई माैंं : मां रोती है...... मां का काम बस रोना है। सब औरतों का काम रोना है। बात बात में औरतें रोती हैं। गांव में तो सभी औरतें एक साथ बाकायदा सस्वर रोती थीं। कोई भी मरे, रोने की रस्म तो औरतों के ही जिम्मे थी।

वे रो देती थीं अचानक। और रोते रोते हंस देती थीं अचानक। कभी अपने मेंं ही रोती रहतीं, कभी अपने में ही हंस देती। ऐसा केवल औरतें ही कर सकती हैं, आदमी नहीं।

पुराना समय छोड़ दीजिए, गांव भी छोड़ दीजिए... शहर में भी औरतें ही रोती हैं।

कहते हैं औरत के पेट में कोई बात नहीं पचती। बिल्कुल गलत है ये बात......।

आज भी वे छिपाए रखतीं हैं प्यार ताउम्र। और आप कहते हैं कि कोई बात नहीं पचती!

कभी ऐसे ही कोई अकेला मरद देखा आपने रोता हुआ.... या तीन चार मरद झुंड में इकट्‌ठे बैठ रोते देखे.... नहीं न। बस यही फर्क है। पता है, औरतों की एक जात को किसी बड़े आदमी के मरने पर रोने के लिए बुलाया जाता है। इन्हें बेड़नी कहा जाता है। मरने पर ये रोने की रस्म पूरी करती हैं। रोती हैं ऐसे आदमी के लिए जो इनका अपना नहीं।

औरतें अब इतनी अनजान भी नहीं है, फिर भी।

उन्हें मालूम है उनके लिए अब आरक्षित है सीटें, सभाओं, विधानसभाओं में। वे बन सकतीं हैं विश्वसुंदरी। वे बन सकतीं हैं मन्त्री, प्रधान मन्त्री।

फिर भी वे दहलीज से बाहर नहीं जातीं। मां करती बेटे का इंतजार, बहन भाई का, पत्नी पति का। मां को ही ले लो। दहलीज तब लांघी, जब पापा की अस्थियां हरिद्वार ले जानी थीं।

छोटे भाई ने मां के नाम डॉलर भेजे, जो पापा की मृत्यु के तीन दिन बाद मिले। बड़े भाई ने इन्हें खुले मन से क्रिया कर्म पर खर्च किया और यश कमाया।

मां किसी तरह घिसट रही है। वह तेजी से चलती है, जोर जोर से बोलती है, सब काम करती है। पहले से ज्यादा एक्टिव हो गई है। शायद ऐसा जतलाना चाहती है कि कुछ हुआ ही नहीं।... या मां पर और जिम्मेबारी आन पड़ी है..या मुझे दिलासा देना चाहती है... वह अब भी कहती है... बेटा! सम्भल के। तूझे पराये घर जाना है।

कहां है मेरा घर और कहां है वह पराया घर, जो मेरा होगा। लोग कहने लगे है, मैंने जानबूझ कर अपना घर नहीं बसाया.. या मेरी अम्मी नहीं चाहती... या मेरे पापा नहीं चाहते थे। यह कहां तक सच है! सच कौन सा है! सब के अपने अपने सच हैं।

सच का अर्थ भी तो समझ नहीं आता। जैसे केवल मां जानती है बच्चे का जन्मस्थान, समय, बच्चे का पिता और जनने की पीड़ा। वैसे आप ही अपना सच जानते हैं। आपका सच कोई दूसरा नहीं जान सकता।

......जैसे अपना सच और समय मैं ही जानती हूं, मैं अब भी बाल रंगती हूं, यह मैं ही जानती हूं .... मैं हर हफ्‌ते ब्यूटी पार्लर जाती हूं......डिक्टेशन देती बार मेरा बॉस मुझ में क्या क्या देखता है... बस में या बाहर लोग मुझमें क्या क्या देखते हेैं...पीछे से क्या क्या फब्तियां कसते हैं....या फिर मेरा सच मेरी मां जानती है, क्योंकि वह भी मेरी तरह एक औरत है।

मेरी मां, जिसने पूरी उम्र बिता दी रसोई घर में। उसके लिए रसोई का एक कमरा ही घर है। वहीं बैठे रहना, सुस्ताना, निढाल होना। मैंने मां को कभी बाहर जाते नहीं देखा। हां, वह एक बार गई अपने पति के फूल ले कर हरिद्वार अपने कमाऊ बेटे के साथ।

पापा का संस्कार

कोई भाई नहीं पहुंचा पापा के संस्कार के समय। हालांकि हमारे औरतें संस्कार के स्थान पर नहीं जातीं। .... मैं सब के मना करने पर भी गई.... मेरे पापा अनाथ नहीं है... मैं हूं न उनका बेटा।

....... मैंने जब मुखाग्नि दी तो जो भय मेरे भीतर शेष था, वह भी जाता रहा। सिरफ मैं वह संस्कार नहीं निभा पाई जिसमें मुखाग्नि देने के बाद चिता पर लेटे सम्बन्धी की ओर देखते हुए अपने सिर पर हाथ रख कर जोर से एक करूण स्वर चिल्लाया जाता है।

.......मृत्यु मेरे सामने सामने आई। पापा ने मुझे देखा... उन की आंखें डूबी डूबी थीं। वे बहुत निरीह लगे। देखा और ख़्ाामोश हो गए... सारी मोह ममता से परे, उस एक ही क्षण में। प्रेम का धागा धीमे से टूटा, दोनों तरफ झूला और लटक गया। ठीक ही कहा है किसी ने.... पल में पराई हो जाती है।

........अब कुछ नहीं बचा.....मां ने सिसकते हुए उनकी आंखें बंद कर दीं, जो अब भी एकटक मुझे निहार रहीं थीं।

और मृत्यु... जो मेरे सामने सामने आई थी, शायद वापिस नहीं गई। आसपास मंडराती रही।.... वह छिपी बैठी है आज भी बिल्ली की तरह मां की पुरानी अलमारी में।

मगर, उसी क्षण मैं भय मुक्त हो गई। मेरे हाथ में पापा का हाथ बहुत देर तक गर्म रहा... बहुत देर तक पापा, मेरे लिए पापा ही थे। लोगों ने मिट्‌टी कह कर मुझे उu ls vyx dj fn;kA