मन ही राखो गोय
सांवली सी लड़की दु:खी थी। इतनी दु:खी थी कि बस डिप्रेशन में चली गई थी। उसके माता-पिता, अरे! उसके माता-पिता तो बस दु:ख से पागल हुए जा रहे थे क्योंकि उसके सांवलेपन के कारण सभी लड़के वाले उसे रिजेक्ट कर देते थे और उसकी शादी नहीं हो पा रही थी। वो तीनों बस मरने ही जा रहे थे कि उस शानदार, चमत्कारी, अदभुत क्रीम के प्रयोग से वह परियों जैसी ख़ूबसूरत हो गई। और वे मरने से बच गए।
फिर अगले ही सीन में उसके माता-पिता गर्व से लड़के वालों के सामने उसकी नुमाइश करते हैं और अब लड़की उन्हें रिजेक्ट कर देती है क्योंकि वह कॅरियर में उन लड़कों से बेहतर बनना चाहती है। और यही नहीं उसके कॅरियर में आगे बढ़ने के लिए भी वह क्रीम उसकी मदद करेगी। और इसीलिए विज्ञापन देख रहे सभी दर्शकों को यह क्रीम अवश्य ख़रीदनी चाहिए नहीं तो वे आगे बढ़ती इस दुनिया में पीछे छूट जाएंगे। इसके साथ विज्ञापन ख़तम हुआ और विज्ञापन ख़तम होते ही बेल बज उठी।
नैना दरवाज़ा खोलकर स्तब्ध खड़ी रही। अविनाश को बोलना पड़ा कि ‘अंदर नहीं बुलाओगी?’
नैना करती भी क्या? छ: साल के लम्बे अन्तराल पर अविनाश को देख रही थी। पहली नज़र में तो पहचाना ही नहीं गया। दिमाग़ में पहला सवाल तो यही गूंजा था कि ‘ये भाई साहब कौन हैं?’
मगर नहीं, नज़रें टकराईं तो नैना के दिलोदिमाग़ भी कौंध गए कि ‘ये तो वही आँखें हैं, जिन्हें मैं दिन-रात अपने ऊपर महसूस करती हूँ।’
मगर फिर नैना को लगा कि 'नहीं ऐसा नहीं हो सकता कि मैं दिन-रात जिसके सपने देखती हूँ वह अचानक मुझे मेरी आँखों के सामने मिल जाए। ज़रूर यह कोई भ्रम, कोई छलावा, कोई मृगतृष्णा है। या तो मैं सपना देख रही हूँ या किसी अजनबी को देख रही हूँ या फिर ऐसा भी हो सकता है कि मैं डिप्रेशन में चली गई हूँ और डिप्रेशन की इतनी गंभीर मरीज़ हो गई हूँ कि सोचा हुआ सामने दिखने लग जाए। वो क्या कहते हैं? साइकोसिस।'
मगर नहीं जब अविनाश की आवाज़ भी आँखों से मेल खाने लगी तो नैना को कोई तपस्या सफल होती हुई सी लगी।
इधरअविनाश की हालत दरवाज़े पर खड़े किसी भिखारी जैसी हो रखी थी, जिसे न दान मिल रहा था, न दुत्कार कर भगाया ही जा रहा था। बस आशा-प्रत्याशा में चुपचाप खड़ा रखा जा रहा था।
अविनाश ने तो इस दृश्य की कई बार कल्पना की थी। उसे अपनी कल्पनाओं में सजाया-सँवारा था और अपने मस्तिष्क में ऐसा दृश्य बनाया था कि बेल बजेगी और दरवाज़ा खुलते ही नैना उसे गले से लगा लेगी। मगर यह क्या? नैना के नैन तो पहचानने तक से इनकार कर रहे हैं। इससे पहले कि कहीं सच में अजनबी समझकर भगा न दे, अविनाश ने फिर पूछ ही लिया ‘क्या दरवाज़े पर ही ख़ातिरदारी होगी?’
नैना माथा झटकते हुए बोली -‘अरे नहीं, नहीं, मैं... वो... अरे अंदर आओ न।’
अविनाश ने सोफे पर धंसते हुए एकटक निहारती नैना से पूछा ‘क्या हुआ?’
‘तुम काफ़ी बदल गए हो। पहचान में नहीं आ रहे।’
‘बदल तो तुम भी गई हो।’
‘नहीं मैं तो वैसी ही हूँ।’
‘कहाँ? दुबली हो गई हो।’
‘नहीं तो। आज भी चौंसठ किलो की ही हूँ। सालों बाद देख रहे हो न शायद इसलिए लग रहा होगा। लेकिन तुम ज़रूर मोटे लग रहे हो।’
‘नहीं मोटा तो नहीं, बूढ़ा ज़रूर लग रहा होऊंगा।’
‘वो तो तुम बीस साल की उम्र से ही अपने आप को बता रहे हो.. ह.. हा।’
अविनाश नैना की वही उन्मुक्त हँसी देखता रह गया जो कॉलेज के दिनों में देख मंत्रमुग्ध हो जाया करता था और आश्चर्य करने लगा कि ‘आज भी कैसे हँस लेती है ऐसे? समय की कोई जंग नहीं लगी इस हँसी पर। जबकि मेरी हँसी को तो मिटा ही डाला है... समय ने। जब भी हँसने की कोशिश तक करता हूँ तो हँसी की जगह रुलाई छूट जाती है। मुस्कुराना तक भूल गया हूँ। आज तुम्हें देखा तो मुस्कुरा पाया हूँ।’
मगर अविनाश बोला कुछ नहीं। अक्सर जीवन में यही होता है। जो बोलना होता है वह हम बोलते नहीं और जो नहीं बोलना होता है उसे ज़रूर बोल जाते हैं। मगर बोलें तो बोलें भी कैसे? अगर हम जानते भी हैं कि यही बोलना सही है, तो भी बोला कैसे जाए? आख़िर अविनाश यह सब बातें बोले तो बोले कैसे? वो क्या जाने नैना क्या सोचती है, क्या चाहती है और बोलने पर क्या सोचेगी, क्या समझेगी, क्योंकि यह ज़रूरी तो नहीं कि जो हमें बोलना चाहिए वही बोलने पर सामनेवाला वही समझे जो हम बोलना चाहते हैं। इसलिए मन की बात नहीं कहना गलत होकर भी सही ही है। कम से कम व्यावहारिक तो यही लगता है।
उधर नैना ने भी कई बार अविनाश से मिलने की कल्पना की थी। उसने यह दिवा स्वप्न रात-दिन,कई-कई बार देखा था। और अविनाश तो आया ही था यहाँ कि सालों से देख रहे इस सपने को सच कर सके। एक दूसरे को निहारना छोड़ दोनों अब इधर-उधर देखने लगे। सालों बाद मिलने की आतुरता अब धीरे-धीरे ठंडी पड़ रही थी। दोनों अब सपनों के आकाश से हक़ीक़त के धरातल पर आने लगे थे। सहज-सामान्य होने लगे थे। अविनाश ने दीवार पर लगी नैना और राहुल की फोटो देखी।
‘कहाँ हैं राहुल आजकल?’
‘भोपाल में पोस्टेड हैं?’
‘किस पद पर हैं अभी वे?’
नैना मुस्कुराती हुई बोली ‘एस.डी.एम हैं, अभी तो।’
‘ओह। वाव।’
अविनाश अब दीवार की खाली जगह पर नज़रें गड़ाकर अपने विचार केन्द्रित कर रहा था। देखते ही देखते वह अपने विचारों में खो गया कि 'कितनी ख़ुश हो रही हो बता-बताकर कि एस.डी.एम की पत्नी हो गई हूँ। और एक मैं हूँ। कमबख़्त ज़िंदगी तबाह कर के बैठा हूँ, तुम्हारी याद में। शादी नहीं निभा पाया। तलाक लेने का नोटिस लिए घूम रहा हूँ।'
अविनाश कहीं न कहीं मन की गहराइयों में इस उम्मीद के साथ यहाँ आया था कि उसे टूटी हुई, हारी हुई, अकेलेपन से जूझती नैना मिलेगी और उसे पाकर ख़ुशी से झूम जाएगी और झूमकर उसे गले से लगा लेगी। और फिर कभी ख़ुद से अलग नहीं करेगी। कभी नहीं। मगर उसे पता नहीं था कि ऐसा होता नहीं है। और ऐसा कुछ हुआ भी नहीं।
ऐसा कुछ न होता हुआ देखकर वह मन की अतल गहराइयों में डूबता चला जा रहा था। ख़ुद को टूटा हुआ, हारा हुआ, अकेलेपन से जूझता महसूस कर रहा था।
नैना भी अपने सामने पड़े ख़ाली टी-टेबल के शीशे को निहार रही थी। वह उसके भीतर लगी प्लास्टिक की घास देख रही थी और देख रही थी उनके बीच रखे ख़ूबसूरत, चमचमाते कंचे, खोई हुई सी। बड़े जतन से लाई थी, वो इन कंचों को।
तभी सामने टी.वी. पर खांसी की दवा का एड आने लगा। उस एड को देख नैना को पिछले हफ़्ते की बातें याद आ गईं। उसे कितना बुख़ार था? अकेले कितना तड़प रही थी? तड़प-तड़पकर उसी को तो याद करती थी और सोचती थी कि कहीं ऐसे ही न मर जाए? बिना उसे कभी देखे, कभी मिले। लेकिन अविनाश आज मिला और मिला भी तो दवा की जगह दर्द की तरह।
टी.वी. देख रहे अविनाश की ओर देखकर वह सोच रही थी 'खाली मेरी ज़िंदगी के बारे में खोद रहा है, हमेशा की तरह। अपने बारे में हमेशा की तरह चुप है। मगर ऐसे नहीं चलेगा।’ उसने भी अविनाश पर सवालों की बौछार की।
‘कैसे हैं, सब, घर पर?’
‘सब बढ़ियाँ हैं।’
नैना ने सोचा 'देखा फिर कुछ नहीं बताया। खाली दो टूक जवाब देकर सुलटा दिया मुझे। अब हाथ आए हो बच्चू तो और कुछ हासिल हो न हो (मसलन तुम ख़ुद तो मुझे हासिल न होगे, कभी) तुम्हें चुपचाप कैसे निकल जाने दूँ।'
‘माया कैसी है?’
‘अच्छी है।’
‘और बच्चे?’
‘अभी नहीं हैं।’
‘शादी के इतने साल हो गए, और बच्चे नहीं?’
नैना ने सोचा 'अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे। देखें क्या कहते हैं जनाब और कैसे दो टूक जवाब देकर निकल पाते हैं?'
अविनाश थोड़ा रुककर, तोल-मोलकर, आँखों में आँखें डालकर बोला - ‘इस साल प्लान कर रहे हैं?’
वह सोचने लगा 'क्या समझती है ये? ख़ुद ख़ुश है तो क्या दूसरे इसके लिए मर रहे हैं? मैं क्यूँ दिखाऊँ कि मैं अकेला और हारा-सा हूँ। कम से कम इस चहारदीवारी के भीतर तो ख़ुशी का मुखौटा ओढ़ कर दिखा ही सकता हूँ। भले ही इसकी देहरी से निकलते ही टूट जाऊँ और इतना कि बस टूटकर बिखर जाऊँ।
उधर अविनाश का जवाब पाकर नैना के चेहरे का रंग उड़ गया और आंखों में पानी उतर आया जिसे छिपाने के लिए उसने अपने सामने की वॉल माउंटेड टी.वी. की ओर मुंह घुमा लिया।
टी.वी. पर चायपत्ती का एड आ रहा था। उसे ख़्याल आया कि चाय के लिए तो उसने पूछा ही नहीं। मुस्कुराते हुए और चहककर उसने पूछा- ‘अब भी चाय की चुस्की में स्वर्ग का सुख लेते हो या आदतें भी बदल दीं।’
अविनाश ने यह नहीं पूछा कि 'भी' का क्या मतलब, और क्या-क्या बदल दिया मैंने, जो बदला तुम्हीं ने, मैंने क्या बदला? मगर वह भी चहकते हुए बोला -‘अरे नहीं नहीं, चाय भी नहीं छूटी।’
बदले में नैना ने भी यह नहीं कहा कि 'भी' का क्या मतलब, और क्या-क्या नहीं छूटा, सब कुछ तो छूट गया। फिर यह 'भी' किसके लिए? सब कुछ छोड़ दिया तो फिर सिर्फ़ चाय क्यों रहने दी? मगर उसने भी चहकते हुए कहा ‘अभी लाई।’
वह इतनी तेज़ी से किचन में गई जैसे किसी को उल्टी आने पर वह वाशबेसिन की ओर तेज़ी से भागता है।
किचन में पहुँचकर उसने अपने आँसुओं की बाढ़ को नहीं छुपाया। बस बहने दिया। छुपाती भी किससे? इस घर से? इस किचन से? यह घर, यह किचन तो उसे सालों से अपनी यादों के साथ तड़प-तड़पकर सिसकते हुए देखते आए हैं। वह फूट-फूटकर रो रही थी। उसने किचन के उस स्लैब को कसकर हाथों में भींच रखा था जिस पर कभी वह पैर फैलाकर ऐसे बैठती थी कि उसके पैरों के बीच खड़ा अविनाश उसे देर तक चूम सके। और वो चूमता था, चूमता जाता था, चूमता ही चला जाता था।
उधर ड्राइंग रूम में बैठा अविनाश रूम की साज-सज्जा पर भरपूर निगाह डाल रहा था। उसे वो पल याद आ रहा था जब वह पहली बार नैना के घर आया था। उस दिन उसका घर देख एक मीठा सा ख़याल उसके दिमाग़ में घर कर गया था कि नैना के साथ घर बसाएगा तो उसका अस्त-व्यस्त कमरा भी इतना ही ख़ूबसूरत हो जाएगा न।
जहाज के पंछी की तरह उसकी निगाहें घूम-फिरकर टी.वी. पर आ टिकीं। फर्स्ट क्लास एच.डी. टी.वी के आगे बीन बैग रखा था। उसका दिल किया कि उस बीन बैग पर बैठकर टी.वी. के मजे ले। मगर फिर अपने इस ख़याल पर ख़ुद ही हंस पड़ा। यह उसका घर थोड़े ही है जो कहीं भी, कैसे भी बैठ जाए और मजे ले।
मटमैली सी चाय खौलती जा रही थी। मगर नैना खोई हुई थी। वह खोई हुई थी पीतल की बित्ते भर की ओखली में, अदरक कूचते हुए। वो अदरक को ऐसे कूच रही थी जैसे बादशाहों के हुक्म से कोई हाथी किसी का सिर कूच रहा हो। शायद अविनाश का सिर।
तो वो अदरक कूचती जा रही थी और बड़बड़ाती जा रही थी - ‘बच्चे.... बच्चे पैदा कर रहे हैं जनाब। मन से तुम्हारे साथ जीते हुई तन से किसी और के साथ नहीं जी पाई। मैं यहाँ डिवोर्स दे रही हूँ। और तुम.... तुम.... नालायक़... बच्चे प्लान कर रहे हो। तुम्हें तो अदरक की नहीं छिपकली की चाय पिलानी चाहिए। तभी देखोगे स्वर्ग का सुख।’
टी.वी. पर एक शूटिंग एन शर्टिंग का एड आ रहा था। एड के बैकग्राउंड में मधुर राजस्थानी लोक संगीत बज रहा था। उस संगीत की धुन पर जो बोल बिठाए गए थे वे अविनाश के कानों में झनक उठे- ‘अपनी छवि बनाई के...।' अविनाश गाना सुनकर ऐसे चौंका जैसे चोरी पकड़ी गई हो। उसे गाना अपने ऊपर एकदम फिट लगा और वह इतना घबरा गया कि सामने रखे पानी के जग से जल्दी-जल्दी पानी पी गया, ऐसे जैसे पेट की सोनोग्राफी से पहले पी जाते हैं। फिर अपने फोल्डर की ज़िप खोलकर रूमाल खोजा और पसीना पोंछा।
इतने में चाय आ गई। चाय लेकर आती नैना की मुस्कुराहट और चाय की ख़ुशबू से उसे कुछ राहत मिली है, तो वह पूछ बैठा।
‘तुमने अब तक बच्चे प्लान क्यों नहीं किए?’
‘हम्म... वो.. बस... हम इंतज़ार कर रहे हैं कि दोनों एक जगह ट्रांस्फर पा जाएं। अबकी बार देखो शायद बात बन जाए।’
अविनाश के भीतर हूक सी उठी और उसने चेहरा घुमाकर टी.वी. की तरफ कर लिया।
नैना ने चाय की प्याली उसकी ओर बढ़ा दी तो चाय लेते-लेते उसने पूछा- ‘तुम्हारी टी.वी. में क्या सिर्फ़ एड ही आते हैं, और कुछ नहीं।’
‘ह हा हा...हाँ बिल्कुल सही। एड ही आते हैं और बीच-बीच में फिल्म भी आ जाती है।’
‘क्या?’
‘अरे पिछले महीने वो रणदीप हुड्डा की नई फिल्म रिलीज़ हुई थी न, वो दिखा रहे हैं। अब नई फिल्म दिखाएंगे तो फिल्म तो दिखाएंगे नहीं, एड ही दिखाएंगे।’
‘ओह! अच्छा, इसीलिए जब से आया हूँ एड ही दिखा रहे हैं। फिल्म आ नहीं रही।’
‘आ गई लो। बस एक एड के बाद। देखो कॉर्नर में 10 सैकेंड बता रहा है।’
दोनों ध्यान से टी.वी. का एड देखने लगे। टी.वी में एक बच्चे के लिए ब'डे पार्टी की तैयारी चल रही थी, मगर तैयारी में मच्छर बहुत परेशान कर रहे थे। इत्तफ़ाक़ से नैना और अविनाश को एक साथ एक ब'डे पार्टी याद आ गई, कई साल पहले की।
फिल्म शुरू हो गई थी। मगर इन दोनों के दिमाग़ में किसी और ही फिल्म की रील चल रही थी।
इनके दिमाग़ की फिल्म में हीरो का ब'डे था और हॉस्टेल के उसके दोस्तों ने आधी रात में उसे सरप्राइज़ करने का प्लान बनाया था। सरप्राइज़ के रूप में एक बड़ा सा बंद डिब्बा था जो विशाल और रोहण के कमरे में था।
आधी रात को सारे दोस्त हीरो के कमरे में गए और शोर-गुल, गालियों और ब'डे बम्स के साथ उसे ढेर सारी शुभकामनाएं दीं। मगर ब'डे का सरप्राइज़ तो बाक़ी था, जो विशाल और रोहण के कमरे में था।
एक बड़ा सा बंद डिब्बा। हीरो ने जैसे ही उसे खोला, हिरोइन उछलकर बाहर आई और चहकते हुई बोली- ‘हैप्पी ब'डे टू यू, हैप्पी ब'डे सत्यानाश, हैप्पी ब'डे टू यू।’
हॉस्टेल में लड़की कैसे आई? किसी को पता नहीं चला। वह तो डिब्बे में बंद हो कर आई थी।
‘अरे नैना! तुम, तुम यहां... किसी को पता चलेगा तो कॉलेज से रस्टिकेट....’
हीरोइन ने उसके होंठों पर हाथ रखकर मुँह बंद कर दिया और बाएं हाथ की तर्जनी अपने होंठो पर रख ली।
‘शीईईई… किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। बस तुम चुप रहो।’
दोस्तों ने ताली बजाकर अपने होने का एहसास कराया तो दोनों असहज हो गए। फ्रेंड्स तो आख़िर फ्रेंड्स होते हैं। उन्होंने भी समझा कि इन्हें अकेला छोड़ना चाहिए। विशाल ने कहा ‘एंजॉय योर बर्थ डे गिफ्ट यार’ और सबको हाँकते हुए ले गया।
कमरे में दोनों अकेले थे। हीरो ने हिरोइन को बाहों में भरकर पूछा- ‘मेरा बर्थ डे गिफ्ट कहाँ है?’
‘अरे साढ़े पाँच फीट का बर्थ डे गिफ्ट दिखाई नहीं देता। अंधे हो क्या सत्यानाश?’
‘मगर तुम आई कहाँ....’
इस बार फिर हीरोइन ने हीरो के होंठ बंद कर दिए। मगर हाथों से नहीं बल्कि....।
फिल्म की रील टूट गई और दोनों एकदम से सिहर कर अतीत से बाहर आए। अविनाश तो कुछ ऐसा सिहरा की चाय की प्याली काँप गई। उसने नैना को देख आँखों ही आँखों में सवाल किया 'भला अपना दिया हुआ गिफ्ट कोई वापस लेता है क्या?'
नैना को अविनाश का सवाल नहीं सुनाई दिया और न अविनाश को ही नैना का सवाल सुनाई दिया जो उसकी आँखों में उमड़ रहा था 'भला कोई अपनी चीज़ किसी और को ऐसे कैसे ले जाने दे सकता है, बिना अपना हक़ जताए, जैसे उसकी थी ही नहीं, कभी नहीं। तुम्हारी बाइक, जो तुम्हारे पापा ने गिफ्ट की थी, उसको तो कोई हाथ भी लगाता था तो तुम भड़क जाते थे, ले जाना तो दूर की बात है। मैं क्या तुम्हारी बाइक से भी गई गुज़री थी...'
आँखों ही आँखों में पूछे जाने वाले मूक सवालों के इस सिलसिले को तोड़ते हुए अविनाश घड़ी देखने लगा और नैना कालीन। पहले तो नैना समझी कि वह घड़ी की ख़ूबसूरती निहार रहा है। मगर बार-बार देखने पर पूछ उठी ‘कहीं जाना है क्या? आई मीन...कहीं के लिए देर हो रही है क्या?’
‘हाँ कोर्ट जा रहा था। तुम्हारे घर के पास ही है न। तो....’
‘अच्छा! मैं समझी मुझसे मिलने आए थे।’
‘नहीं, मैं तो इस टेबल, सोफे, कालीन और टी.वी. और इस कप की प्याली से मिलने आया था। तुमसे थोड़े न।’
नैना खिलखिला पड़ी। अब तक दोनों को असहज महसूस हो रहा था। मगर इस हंसी ने फिर सब कुछ सहज कर दिया। मगर अब तो अविनाश जाने को है और नैना को लग रहा है कि काश वह समय से कुछ क्षण अपने लिए और चुरा पाती। इसी कोशिश में उसने बातें आगे बढ़ाईं। जैसे बातों में उलझाकर उसे और रोक पाएगी।
‘कुछ ख़ास काम था कोर्ट में?’
‘एक दोस्त का डिवोर्स नोटिस देने जाना है। वैसे तो ये काम वकील का है, पर वो वकील आ नहीं पा रहा है।’
नैना ने मन ही मन उसे गरियाते हुए कहा ‘दूसरों का ही डिवोर्स कराओगे या अपना भी कुछ करोगे।'
डिवोर्स शब्द सुनकर नैना के चेहरे पर आए अचम्भे को देख अविनाश को थोड़ा अच्छा लगा। मगर अब उसे सच में समय के भागने का एहसास होने लगा। उसने रूमाल फोल्डर में ठूँसा और जिप बंद कर दी।
‘मुझे चलना चाहिए नहीं तो उनका ऑफिस बंद हो जाएगा।’
‘हम्म’
नैना अविनाश को जाते हुए देखती रही। उसने एक बार भी मुड़कर नहीं देखा। देखता भी कैसे, आँखों की नमी पकड़ी न जाती।
हम अपने मन की बात आख़िर कह क्यों नहीं देते? क्या होगा कह देने से ज्यादा से ज्यादा सामने वाला गलत समझेगा। समझ ले गलत। कब तक गलत समझेगा? थोड़ी देर ही। फिर तो सही समझेगा ही। बस मन की बात कहने में देर न हो जाए।
यहाँ तो देर हो गई। असल ज़िंदगी में देर हो जाए तो किस्सा ख़तम हो जाता है। मगर यह असल ज़िदगी नहीं है। यह तो किस्सा है, नैना और अविनाश का किस्सा और इसलिए ख़तम नहीं हुआ।
अविनाश कोर्ट की सीढ़ियों पर भागते हुए, हाँफता-हाँफता ऑफिस में दाख़िल हुआ। वह एक पान खाए हुए लाल होंठ वाले आदमी से मिला और उसके सामने बैठ गया। उसने चारों तरफ देखा तो ऑफिस खाली-खाली लगा। उसे याद है कि पिछली बार जब आया था तो यह कमरा खचाखच भरा हुआ था। यहाँ तक की उसको बात करने में भी बहुत तकलीफ़ हुई थी। बात तक करने के लिए उसका नंबर बहुत बाद में आया था।
‘क्या बात है, आज काफ़ी लोग छुट्टी पर लग रहे हैं?’ अविनाश ने अपनी शंका मिटाने के उद्देश्य से पूछा।
‘हाँ हो। ऊका है न कि शहर में टैक्सी वालों ने स्ट्राइक कर रखी है। जाने अब किराया बढ़ाकर क्या आसमान पर ले जाएंगे? करेंगे क्या किराया बढ़ाकर, जब उन्हें कहीं ले जाना ही नहीं होता है। कहीं के लिए भी जाने को पूछो तो कहते हैं हम उधर नहीं जाएंगे। स्साले जाएंगे कहाँ, यह भी नहीं बताते। हुंह, कुछ समझ नहीं आता। भई हमारा सारा स्टाफ तो टैक्सी से ही आता है और रोज़ इनके किस्से सुनता हूँ। भगवान मेहरबान है कि हमरे पास एकठो बाइक आ गई है ....तो हम तो आज आफिस चले आए... बाकियन का हाल तो आप देखी रहे हैं।’
अविनाश ने पूरी बात समझते हुए सहानुभूति में सिर हिलाया और अपना फोल्डर चेक करने लगा कि कुछ सुनकर एकदम रुक गया।
वो पान खाए जनाब अपने जूनियर पर भड़ककर बोल रहे थे-‘अरे कब से माँग रहे हैं वो नैना वाजपेयी और राहुल वाजपेयी वाला केस इधर लाकर दो, तो सुनते काहें नहीं हो। हमीं को उठाओगे का?’
जूनियर सकपकाकर फाइलों की आलमारी की ओर लपक लिया। मगर अविनाश की सिट्टी-पिट्टी गुम थी। उससे रहा नहीं गया और पूछ बैठा-‘यह नैना वाजपेयी वही हैं क्या, जो यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हैं?’
‘हां..हां.. वही तो हैं। बड़ी दुष्ट औरत है।’
‘क्यों क्या हुआ?’
‘अरे भला डिवोर्स नहीं हुआ, दुकान से ख़रीदी चीज़ हो गई है जो पसंद न आए तो लौटा दो। भला ऐसे बिना बात कोई डिवोर्स देता है क्या? न दहेज का मामला है, न मार-पीट का और तो और कोई और चक्कर भी नहीं है। उनके पति तो देवता आदमी हैं। सुना है एस.डी.एम हो गए हैं। अब आप हीं बताएं कि एस.डी.एम जैसे आदमी की पत्नियां बिना बात डिवोर्स लेने लगेंगी तो हमारे जैसे लम्पट आदमियों की औरतों पर क्या असर पड़ेगा? सारी विवाह की व्यवस्था ही ध्वस्त हो जाएगी। हम जैसे लोग, जो कभी-कभार एक-आध हाथ छोड़ देते हैं, तो बीवियां कुछ नहीं कहती। वो सब जान जाएंगी कि ऐसा भी होता है, तो हम जैसे पारिवारिक लोगों का जीवन तबाह नहीं हो जाएगा?’
इतने में उनका जूनियर वह फाइल ले आया। फाइल देखकर वह जनाब फिर भड़क उठे -‘अबे इ फाइल नहीं है। हरियर रंग की फाइल है ऊ....तोता रंग की। ढंग से काम किया करो।’
उन्होंने फाइल वापस जूनियर को पकड़ा दी और अविनाश से मुख़ातिब होकर फिर शुरू हो गए - ‘इसीलिए कहता हूँ कि औरतों को ज्यादा पढ़ा-लिखा होना ठीक नहीं है। अब देखिए हम तो बारह के बाद ही अपनी बेटी ब्याह देंगे। देखना। अरे हम तो अभी से ढूँढ रहा हूँ। दो-चार साल में तो अच्छा लड़का मिल ही जाएगा। अब ज्यादा पढ़-लिख जाएगी तो ऐसे ही नैना मैडम की तरह मनमानी करेगी। नहीं तो पति के क़ाबू में तो रहेगी। आप तो समझदार आदमी लगते हैं। नैना मैडम को जानते हैं, तो थोड़ा उन्हें समझाइए। ख़ैर....’
वह फिर अपने जूनियर पर भड़का ‘अबे का हुआ फाइलवा का...’
‘ढूँढ़ रहा हूँ सर....’
अविनाश की ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं था। उसके सीने ने उस दुष्ट औरत के लिए फिर से धड़कना शुरू कर दिया था और वह उस दुष्ट औरत पर गर्व महसूस कर रहा था। इस बीच वह अपना काम भूल गया। मगर पान खाते हुए जनाब नहीं भूले और उन्होंने जुगाली करते होठों के बीच से याद दिला ही दिया-‘आपका क्या काम था?’
‘अरे हाँ! मेरे डिवोर्स का नोटिस था। एडवोकेट सांडियाल ने भेजा है। वो आ नहीं पाए और...’
कहकर वह अपने फोल्डर में नोटिस का पेपर ढूँढ़ने लगा।
उधर जनाब रुक-रुक कर हो रही बारिश की तरह फिर शुरू हो गए।
‘अब आदमी करे, तो क्या करे? औरतें जीना ऐसा मुहाल करती हैं कि डिवोर्स लेना ही पड़ता है। कभी-कभी तो हम भी सोचता हूँ कि दूसरों का डिवोर्स फाइल करते-करते एक दिन अपना भी कर ही दूँ। मगर बच्चों का मुंह देख के रुक जाता हूँ। उन बेचारों का क्या क़सूर? फिर आपकी बीवी तो पढ़ी-लिखी होगी, तो फिर तो औरों से चंट होय बे करेगी....’ अविनाश अपना पेपर ढूँढ़ने में गुम था। मगर पेपर ही गुम था, तो कहाँ से मिले?
अविनाश ने दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डाला कि पेपर कहाँ होगा। उसने याद करना शुरू किया। पेपर तो वह घर से लेकर चला था। उसे यह अच्छी तरह से याद है क्योंकि बड़े एहतियात से उसे फोल्डर में रखकर, ज़िप को पूरा बंद किया था।
कहीं गाड़ी में भी नहीं खोला था। ड्राइव करते वक़्त खोलता भी कैसे? और क्यूँ? ज़िप भी बंद थी, शुरू से आख़िर तक। फिर उसने याद करने की कोशिश की कि आख़िरी बार ज़िप कहाँ खोली थी?
ओह नो! नैना के घर पर। उफ़।
‘मैं दस-पंद्रह मिनट में आता हूँ।’ कहकर अविनाश कोर्ट की सीढ़ियों पर जितनी तेज़ी से चढ़कर गया था, उससे कहीं तेज़ी से उतर रहा था।
घर के अंदर टी.वी. पर फिल्म ख़तम हो चुकी थी और बस साइन आउट साँग बज रहा था। मगर घर के बाहर, गेट के पास, हाथ में वही पेपर लिए नैना टहल रही थी। अविनाश की कार अंदर आई और कार से उतरकर अविनाश मुस्कुराते हुए उसकी ओर बढ़ गया। उसकी मुस्कुराहट देखकर नैना कट गई और रोल किए हुए पेपर को हवा में ठोंकते हुए गुस्से से पूछा ‘तो यह तुम्हारा चाइल्ड अडोप्शन पेपर है। है न सत्यानाश।’
अविनाश उसकी आँखों मे आँखें डालकर और तेज़ मुस्कुराया। नैना की आँखें बरसने को हो आई। वह गुस्से से फटने को हुई।
‘आख़िर तुम अपने आप को...’
इस बार अविनाश ने उसे बाहों में भरकर उसके होंठ बंद कर दिए। मगर हाथों से नहीं।
***