पड़ोस
राजन द्विवेदी
कमरे में घुसते ही राकेश ने दरवाजे को जोर से बंद किया उसका चेहरा तमतमाया हुआ था .... वह बहुत गुस्से में था ...स्साले ! इन्हें जरा सा सहारा दे दो तो सर पे सवार हो जाते हैं.... नाली के कीड़े है साले .. पूरी सोसाइटी बर्बाद कर देना चाहते है .... मै तो कहता हूँ इन्हें सभ्य लोगो के बीच रहने ही नहीं देना चाहिए.... वह लगातार बडबडा रहा था ...तभी उसकी आवाज सुनकर पत्नी शीला भी आ गयी ....”क्या हुआ? क्यों भड़के हुए हो? किसी से कोई झगडा हुआ है क्या ?.... कुछ बोलोगे भी या यूँ ही बडबडाते रहोगे?”, शीला ने पूँछा. ‘अरे ... वही साला दीनू ... दिन-रात का चैन हराम किये हुए है ... इतना कमीना है कि क्या बताऊँ.... आज तो हद हो गयी.... हमारी गाडी पर ही उसने चूना फेंक दिया ..... और हमने पूँछा तो कैसा अनजान बनता है स्साला ... जैसे मुझे कुछ समझ ही नहीं.... हमने भी आज उसे कस के गरियाया.... कहा.. तुझे तेरी ढाबली समेत फेंक दूंगा .. अगर दुबारा ऐसी हरकत की .... हद है यार ... शरीफ आदमी का तो जीना मुश्किल है. दो टके का आदमी .... हमसे होशियारी करता है. ‘किसी दिन आ जायेगा लपेटे में ... बताये देता हूँ’, गुस्से में राकेश बोलता चला गया.
राकेश एक नौकरीपेशा युवक है. मोहल्ले में उसका अपना मकान है जहाँ वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ वर्षों से रहता रहा है. मोहल्ले के कई दूसरे लोगों के विपरीत वह अपने काम से काम रखना पसंद करता है. किसी पंचायत में उसकी कोई रूचि नहीं... न काहू से दोस्ती न काहू से बैर. कोई छः माह पहले उसके मकान से सटे तिवारी जी के बंद पड़े दूकान के सामने दीनू ने पान की ढाबली खोल ली.... शुरू में तो सब ठीक-ठाक रहा .... पर धीरे-धीरे समस्या शुरू हो गयी. अक्सर ढाबली पर पान-बीड़ी के शौक़ीन इकठ्ठा होने लगे.. जो वहीँ खड़े सिगरेट का धुवाँ उड़ाते और आते-जाते लोगों पर फब्तियां कसते. कुछ दिन बाद ढाबली पर गाना भी बजने लगा.. लफंगों का अड्डा बन गयी थी वह ढाबली. ये सब राकेश को फूटी आँख नहीं सुहाता था.. फूहड़ भोजपुरी गानों से उसका जीना हराम हो गया. राकेश ने दीनू को कई बार समझाया और धमकाया भी... पर कुछ दिन ठीक रहने के बाद फिर वही सब. थक-हार कर उसने मोहल्ले के दूसरे लोगों से बात की पर उन लोगों ने कहा, ’बेचारा गरीब आदमी है ... चार पैसे कमा रहा है... जाने दो.. क्यों गरीब के पेट पर लात मारना चाहते हो.’ जैसे अमीरी सौ ऐब छिपा लेती है वैसे ही फूहड़ता को गरीबी ने ढक लिया. वास्तव में वे दूसरे के फटे में टांग नहीं अडाना चाहते थे... उस समय राकेश मन मार कर रह गया. पर आज तो हद हो गयी... घर के बाहर खड़ी उसकी गाड़ी पर किसी ने पान थूक दिया था और ढेर सारा चूना भी था बोनट पर. राकेश की सहनशक्ति ने जवाब दे दिया. उसे यकीन था कि यह सब उस दीनू का ही किया-धरा था. उसने दीनू को जमकर खरी-खोटी सुनाई और उसे ढाबली सहित फेंक देने की धमकी भी दे डाली.... वह अभी भी गुस्से में बडबड़ा रहा था. देख लूँगा स्साले को. राकेश अधिक गुस्से में प्रायः ‘साला’ और ‘कमीना’ का प्रयोग सभी बातों में करता ही है. ‘’अच्छा जाने भी दो... गुस्सा थूक दो... मुंह-हाथ धो लो .... मैं चाय बनती हूँ’’, शीला ने राकेश को शांत करने की गरज से कहा ,’ऐसे नीच लोगों के मुंह क्या लगना’.
अगले दिन जब राकेश ऑफिस से घर आया तो उसने देखा कि ढाबली बंद थी. उसने मन ही मन सोचा .... अच्छा हुआ ... साले को अकल आ गयी एक बार गाली खा के.... ये काम बहुत पहले ही करना चाहिए था... इनपर दया दिखाना मूर्खता है. ढाबली रखने ही नहीं देना चाहिए था घर के ठीक बगल में. आज से ही जीना हरम है ... कल को बेटी बड़ी होगी .... बेटा क्या सीखेगा. खैर... जो हुआ अच्छा हुआ. पर दीनू की ढाबली जब अगले तीन-चार दिन नहीं खुली तो उसने पत्नी से पूँछा, ’’ये ढाबली बंद क्यों है‘’? “मुझे क्या पता”, लापरवाही से जवाब दिया शीला ने. लेकिन जब ढाबली एक हफ्ते तक नहीं खुली तो राकेश ने आस-पड़ोस के लोगों से पूंछतांछ की पर कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला. जिक्र आने पर शीला ने कहा, ’’गया होगा कहीं शादी-ब्याह में... ये तो सीजन ही है शादियों का. .... हो सकता है किसी रिश्तेदारी में गया हो.... भले ही इनके घर चूल्हा न जले पर रिश्तेदारी जरूर निभाएंगे. खैर .. हमें क्या?... जितने दिन ये ढाबली बंद है सुकून ही है.’’ धीरे-धीरे पंद्रह दिन निकल गए पर ढाबली अब भी बंद थी. राकेश को अब दीनू की चिंता होने लगी थी. एक दिन ऑफिस से घर आते समय उसने कई दूसरे ढाबलीवालों से दीनू के बारे में पूंछतांछ की और उसके घर का पता मालूम कर लिया. राकेश ने उसके घर जाने का निश्चय किया और अपनी बाइक शहर के दूसरी ओर दौड़ा दी जहाँ अधिकतर गरीबों की बस्ती थी. जल्दी ही वह शहर के उस हिस्से में पहुँच गया जहाँतक दुष्यंत कुमार के शब्दों में ‘आते आते सभी नदियाँ सूख जाती है’. उसके घर का रास्ता मुख्य सड़क से लगी गली से होकर जाता था जहाँ बाइक नहीं जा सकती थी इसलिए बाइक को सड़क के किनारे खड़ीकर जैसे ही उसने तंग गलियों में कदम रखा तो भयंकर बदबू के साथ बजबजाती हुई नालियों ने अपनी सीमा का अतिक्रमड करते हुए गली में आप्लावित होकर उसका मार्ग अवरुद्ध करने की भरपूर चेष्टा की. पल भर को राकेश भी सोच में पड़ गया पर उसने उन बच्चों का अनुसरण कर अदम्य साहस का परिचय दिया जो कुशल नट की भांति रास्ते में रखी ईंटो पर कूद-कूद कर आ-जा रहे थे या खेल रहे थे. कुत्तो और सुवरों की लोटन और भिनभिनाती हजारों मक्खियों ने माहौल को घिनौना बना दिया था ....उसका मन घृणा से भर उठा उसने जेब से रुमाल निकल कर अपनी नाक पर रख लिया.... वह सोचने लगा कि आज भी लोग ऐसी गन्दी जगहों पर रहने को विवश है. क्या इनके जीने-मरने से किसी का कोई सरोकार है? क्या प्रशासन की नज़र इधर नहीं पड़ती... नेता वोट मांगने तो इधर जरूर आते होंगे ... वो क्यों कुछ नहीं करते इनके लिए.... क्यों न फैले बीमारी यहाँ ....ऐसी जिन्दगी से तो मौत भली. किनारे थोड़ी सी ऊंची जगह में ताश खेलते युवकों से पूंछकर वह एक कमरे के जर्जर मकान के सामने पहुंचा यही दीनू का घर था. उसने दरवाजा खटखटाया और आवाज लगाई, ”दीनू-दीनू’’. भीतर से “कउन है” आवाज के साथ मैले-कुचैले कपड़ों में लिपटी एक महिला ने दरवाज़ा खोला. उसके साथ कोई 6-7 साल की बच्ची भी थी ... बिखरे हुए बाल और फटे कपड़ों में... जो शायद कई दिनों से नहाई भी नहीं थी मैल से उसका चेहरा अटा पड़ा था. सूखे हुए आंसुओ और बहती नाक ने उसे और भी गन्दा बना दिया था. वो अपने बालों को दोनों हाथों खुजला रही थी. उस पर से निगाह हटाकर राकेश ने कहा’ “दीनू है..... पिछले कई दिनों से उसने दूकान नहीं खोली?” “आप कउन.... साहिब”, महिला ने हिचकते हुए पूछा. “मैं .....दीनू का पडोसी हूँ”, अंतिम शब्द बोलने में थोडा अटक गया राकेश. खुद को संभाल कर पूछा, ”दीनू कहाँ है?” “साहिब! ऊ बहुत बीमार है.... उधर पड़े है खटिया पा”, कपड़ा सँभालते हुए उसने उत्तर दिया. राकेश तेजी से घर में घुस गया. सीलन भरी बदबू उसके नथुनों में भर गयी... उस पर ध्यान न देते हुए जल्दी से उसने एक नज़र पूरे कमरे में दौडाई .... घुवें से पीली पड़ी दीवारों वाली एक छोटी सी कोठरी जिसमे गली की ओर छोटी सी खिड़की से शाम का मद्धिम प्रकाश भीतर झांक रहा था. कमरे के दायें कोने में दो चार बर्तन ... कुछ खाली डिब्बे ... और एक स्टोव... बाल्टी.... बीच की अलगनी पर एकाध चिथड़ा जिनपर भिनभिनाती हुई असंख्य मक्खियाँ और दूसरे कोने में एकमात्र चारपाई में मैल से चीकट कथरी पर पड़ा दीनू. चारपाई और उसके आस-पास क्षेत्र में सैकड़ों मक्खियों ने कब्ज़ा जमा रखा था. उसे लगा जैसे वह पूरा कमरा ही बीमार है. राकेश ने उस ओर जाकर आवाज दी, ”कैसे हो दीनू”. उसके क़दमों की आहट से मक्खियाँ भिनभिना कर उड़ीं और फिर से वहीँ बैठ गयीं. दीनू ने भी जैसे-तैसे आँखें खोलीं.. राकेश को आश्चर्य से देख कर उठने की कोशिश भी की पर बीमार और भूखा जिस्म साथ न दे पाया और वह बिस्तर में ही गिर गया. पता नहीं उसने दोनों हाथ जोड़ लिए या वे आदतन खुदबखुद जुड़ गए. ”क्या हुआ है? ... किसी डॉक्टर को दिखाया ... कितने कमजोर हो गए हो?.... खाना नहीं खाया क्या?, बोलते हुए राकेश उसकी बीवी की ओर देखने लगा. घरघराती हुई सांस के अतिरिक्त दीनू के मुंह से कोई आवाज़ न आयी और उसकी बीवी ने भी कोई जवाब नहीं दिया बस अपने बहते हुए आंसुओं को आँचल से छुपाने की कोशिश करती रही. कोई उत्तर न पाकर राकेश ने प्रश्न दुहराया, ”डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाया?” “हम गरीबन कै सुनवाई कहाँ है साहिब.... एक भगवानय कै सहारा है ... पर वहू मुंह फेर लिहे है”, दीनू की पत्नी रो पड़ी. राकेश एक पल रुक कर बोला,”हिम्मत न हारो... मामूली सी बात है .... कल बड़े अस्पताल ले आना ... मैं दिखवा दूंगा डॉक्टर को.” और फिर कुछ जैसे याद करते हुए अपनी पर्स में रखे अकेले २००० के नोट को दीनू के हाथ में रखते हुए कहा, ”खाना खा लेना ... कब तक ऐसे ही पड़े रहोगे .... काम-धंधा नहीं करना है क्या ?”, बोलते हुए वह उठ खड़ा हुआ. दीनू के चेहरे से लाचारी टपक रही थी वह इनकार करने की स्थिति में नहीं था उसने रूपया अपनी बीवी की ओर बढ़ा दिया. रोती हुई बीवी के मुख पर एक चमक सी आ गयी... पता नहीं वह दीनू के इलाज की सम्भावना से उत्पन्न थी या बुझे चूल्हे के जलने की उम्मीद से. उसने बच्ची की ओर देखा जो एक खाली डिब्बे के पेंदे में जमे किसी चीज को अपनी ऊँगली से खुरचकर खाने की कोशिश कर रही थी और असफल होने पर मिमियाने लगी. दीनू कुछ कहना चाह रहा था .... पर सिर्फ होंठ ही हिल सके, कोई आवाज़ न निकली. हाँ उसकी आँखों से आंसुओं की धारा जरूर बहने लगी. राकेश ने देखा कि गोधूलि का धुंधलका कमरे में फ़ैल रहा था... दीनू की बीवी उठकर लैंप जलाने लगी. राकेश ने रोती हुई बच्ची के सर पर हाथ फेरा और तेज क़दमों से घर के बाहर निकल गया.. उफ्फ ... कितनी देर हो गयी ... शीला इन्तजार करती होगी. मोड़ पर पहुँच कर एक बार मुडकर दीनू के घर की ओर देखा, लैंप की रौशनी खिड़की से बाहर आ रही थी.
समाप्त