Badappan in Hindi Short Stories by Manoj kumar shukla books and stories PDF | बड़प्पन - National Competition

Featured Books
Categories
Share

बड़प्पन - National Competition

बड़प्पन

मनोज कुमार शुक्ल

सपन की नींद अचानक खुल गयी। घड़ी की ओर देखा तो सुबह के चार बजने वाले थे। सामने पलंग पर उसकी पत्नी सरोज गहरी निद्रा में लीन थी। उसका आठवां महीना चल रहा था। बगल में सोये छः वर्षीय नन्हें आसु ने करवट बदली और अपनी आदत के मुताबिक अपने एक हाथ को अपनी माँ के सीने में रखकर ममत्व की मीठी नींद में पुनः सो गया। उसके इस कृत्य से सरोज की नींद में काई खलल नहीं पड़ी। जिसे देख सपन ने संतोष की सांस ली। नींद पूरी न होंने से उसके सारे शरीर में एक अजीब सा दर्द, वह महसूस कर रहा था। दोंनो रात गए काफी देर से सोये थे। उसके इस घर-संसार में कुल तीन प्राणी थे। चोथे का इंतजार था।

इस खुशी के मौके पर भी कुछ दिनों से वह अपने आपको चिंताओं और समस्याओं से गिरा हुआ पा रहा था। उनकी घर गृहस्थी में दैनिक क्रिया कलापों की नाव डगमगाती नजर आ रही थी। सपन अपने उलझे बालों को और माथे पर उभरी सलवटों को बार- बार सहलाए जा रहा था। इससे उसको कुछ समय के लिये राहत अवश्य मिल जाती किन्तु फिर वही ...

समस्या कोई बड़ी नहीं थी। छोटी सी ही थी। सरोज ऐसे वक्त अपनी माँ को बुलाना चाहती थी ताकि उसकी व उसके घर की देखभाल सही ढंग से हो सके। या शायद उसे अपनी माँ पर ज्यादा भरोसा नजर आ रहा था। किन्तु सपन अपनी बड़ी भाभी को बुलाने के पक्ष में था। वह सासू जी की उम्र को देखते हुए उन्हें तकलीफ नहीं देना चाहता था। किन्तु सरोज को अपनी जिठानी का तानाशाही रवैया शुरू से ही वर्दास्त नही था। अपना हुक्म चलाने और सदा अपना बड़प्पन झाड़ने की वजह से सरोज का उनसे कई बार मतभेद हो चुका था। वह उनसे तंग आ चुकी थी। ऐसे मौकों पर सपन सदा अपनी बड़ी भाभी का ही पक्ष लेता।

वह सरोज को समझाता रहता कि हमारे घर की दयनीय आर्थिक परिस्थितियों में बड़ी-भाभी दुल्हन बन कर आयीं थीं। उनके ऊपर अत्यधिक जिम्मेदारियों व आर्थिक अभावों ने उन्हें कुछ ज्यादा ही गंभीर बना दिया था। कर्मठता और संघर्षशीलता की भट्टी में तपकर निकली हुई बड़ी-भाभी का स्वभाव ऊपरी तौर पर देखने में कुछ कठोर अवश्य नजर आता था किन्तु अंदर से बिल्कुल नरम। उनके अंदर कुछ ज्यादा ही उत्सर्ग की भावना मचलती रहती थी। त्याग, बलिदान, संघर्ष की प्रतिमूर्ति बड़ी-भाभी के अंदर धड़कते कोमल दिल का साक्षात्कार सरोज कभी नहीं कर पायी थी।

दोनों की देर रात तक बहस होती रही। सरोज पुराने जख्मों को कुरेद-कुरेद कर हरा-भरा करने में लगी रही, तो सपन उन पर मरहम लगाता रहा। घर से अलग रहने की जिद् पर अड़ी सरोज को सपन ने कभी हरी झंडी नहीं दिखाई। किन्तु सपन की सर्विस के तबादले ने मानों सरोज की मनचाही मुराद ऊपर वाले ने पूरी कर दी थी। उस दिन सरोज मन ही मन बड़ी खुश हुई थी। किन्तु आज फिर वर्षों बाद दोनों में वही बहस का मुद्दा बन गया था।

इन विरोधाभासों के बावजूद दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते थे। दोनांे एक दूसरे की आस्था व विचारों से भली भांति परिचित थे। अंततः सपन ने भी सोचा कि सरोज की ऐसी अवस्था में इच्छाओं के प्रतिकूल कोई कदम उठाना सही नहीं है। उसने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया। इस अकस्मात परिवर्तन से सरोज को लगा कि उसने सपन का दिल दुखा कर अच्छा नहीं किया। उसने भी तुरंत अपने हथियार डाल दिए और बड़ी भाभी को बुलाने की जिद् करने लगी। अंततः दोनों में निर्णायक फैसला हुआ कि बड़ी भाभी और सरोज की माँ दोनों को पत्र लिखकर बुलवा लिया जाए। प्रभात की पहली किरण घर की खुली खिड़की से प्रवेश करती हुयी, कमरे में फैल चुकी थी। जिससे सम्पूर्ण घर में उजियारा बढ़ता जा रहा था।

सुबह के छः बज गए थे। सपन ने तुरंत आसु को धीरे से उठाया। उसे नहलाकर स्कूल के लिये तैयार करने लगा। सरोज की नींद जब खुली तब तक आसु तैयार हो गया था। दीवार पर टंगी घड़ी के दौड़ते कांटों की भांति सभी अपने-अपने दैनिक कार्यों में जुट गए थे। कब घड़ी ने दस बजाए पता ही नहीं चला। नन्हें आसु को स्कूल रिक्शा में बिठाकर सपन ने बिदा किया और स्वयं स्कूटर पर बैठकर आफिस के लिये निकल पड़ा।

एक दिन सरोज घर की बालकनी में टहल रही थी। सामने देखा कि एक रिक्शा में अकेले ही बड़ी भाभी बैठी चली आ रहीं थीं। रिक्शा में एक टीन की पेटी रखी हुई थी और एक बड़ा झोला हाथ में थाम रखा था। सरोज तुरंत नीचे पहुँच द्वार खोलकर बड़ी भाभी के चरण स्पर्श को झुकी ही थी कि बड़ी भाभी ने इशारे से मना कर दिया। अपनी पेटी को कमरे के एक किनारे में रखकर सरोज से कुशल मंगल पँूछी। पश्चात् झोले में रखी पोटलियों को खोलना शुरू कर दिया। अपने घर से बनाकर लाए पकवानों को निकाल कर सरोज को खिलाने में जुट गई। चेहरे पर बनावटी मुस्कान का मेकअप कर सरोज बड़ी-भाभी को प्रभावित करने का असफल प्रयास कर रही थी। आतिथ्य सत्कार के दायित्व का निर्वाहन कर सरोज बड़ी भाभी को आराम करने की सलाह देकर स्वयं सोने को चली गयी।

शाम को आफिस से आते ही सपन ने गृह प्रवेश किया था कि बड़ी-भाभी को अचानक आया देख चांैक गया। मुस्कराकर बड़ी-भाभी के चरण स्पर्श किए। बदले में ढेर सारा आशीर्वाद पाकर अभी कुछ बोलना ही चाहता था कि बड़ी-भाभी बोल पड़ीं -

‘‘जबसे तुम लोगों की चिट्ठी मिली। तबसे मुझे तुम दोनों की चिन्ता खाए जा रही थी। तूने मुझे अगले महीने आने को लिखा था, किन्तु मेरा मन नहीं माना - यहाँ की चिन्ता सताए जा रही थी, तेरे बड़े भईया को स्कूल से छुट्टी मिलना मुश्किल था चँकि परीक्षाएँ शुरू हाने वाली जो हैं सो मैंने उनसे कह दिया, मैं अकेले ही चली जाऊँगी। तुम मुझे बस में बिठाल देना। सो देख में अकेले ही चली आई। अब चिन्ता मत कर ...’’

बड़ी भाभी ने एक दिन में ही पूरे घर का अध्ययन कर जुम्मेदारी सम्हाल ली और सरोज को बिस्तर

से न उठने की सख्त हिदायत भी दे दी। गाँव के परिवेश में पली, शहर की संस्कृति में रही -बड़ी भाभी के लिये तो सारा कार्य चुटकियों का था। शेष समय काटना इस अनजान शहर में बड़ा मुश्किल कार्य था। कभी सरोज के पास बैठकर उसके बालों को सुलझाती, चोटी बनाती तो कभी घरेलू विषयों का ताना-बाना बुनकर बातों की स्वयं पहल करती। किन्तु सरोज सदा पुरानी बातें याद करके गंभीर हो जाती और दर्द का बहाना करती या सोने का अभिनय। तब बड़ी-भाभी उसका हाथ पकड़ कर पलंग पर लिटा देती। फिर घर का शेष काम करने के पश्चात अपनी सहज मुस्कान बिखेरती, आस-पड़ोस के घरों में उठ बैठ आती। परिचय बढ़ाती। रोज बड़ी-भाभी की यही दिन चर्या रहती।

बड़ी-भाभी के आने के एक माह बाद सरोज की माँ भी आ गयीं थीं। सरोज की खुशी का ठिकाना न था। चेहरे से स्पष्ट झलकने लगा था कि अब वह निश्चिंत और बेफिक्र हो गयी है। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि एक दिन अचानक बाथरूम में सरोज की माँ का पैर फिसल गया। ऐड़ी में जोरों की मोच आ गयी। चलना फिरना भी असंभव हो गया था। डाक्टर को दिखाया गया। डाक्टर की सलाह मुताबिक बड़ी-भाभी ने उन्हें भी बिस्तर में आराम करने की सलाह दी। सरोज को नौंवा महीना खत्म होने वाला था। बड़ी-भाभी पर कार्य का बोझ बढ़ता गया।, पर चेहरे पर जरा भी शिकन न दिखती।

एक दिन सुबह सरोज के पेट में दर्द उठा। सपन उसे तुरंत नर्सिंग होम ले गया। भरती करने के पश्चात् जब वह घर आया। तब तक बड़ी-भाभी का खाना तैयार हो गया था। बड़ी-भाभी को सरोज की हर पल चिन्ता सता रही थी। सरोज की माँ ने उन्हें खाना खाकर जाने का आग्रह किया तो अभी बिल्कुल भूख नहीं है, कह कर टाल दिया और सपन के साथ स्कूटर में नर्सिंग होम पहुँच गयीं। वहाँ बिस्तर पर सरोज का न देखकर सपन और बड़ी-भाभी चिंतित हो उठे। तभी नर्स ने आकर बतलाया कि सरोज को डिलेवरी रूम में ले गये हैं। आप लोग यहीं बैठकर इंतजार कीजिएगा। सपन ने देखा बड़ी-भाभी के चेहरे पर चिंताएँ झलक रहीं थी। परेशान बड़ी-भाभी कभी डलेवरी रूम की ओर ताकतीं तो कभी सपन की ओर। सपन ने उनकी आँखों में तैरते सरोज के दर्द को देखा। उन्हें धीरज बंधाते हुए कहा -

‘‘बड़ी-भाभी आप नाहक परेशान होती हैं। यह शहर का अच्छा नर्सिंग होम है। अच्छी देख- देख होती है। आप तो इस स्टूल में आराम से बैठिए।’’

सुनकर बड़ी-भाभी ने उसे एक डाँट लगायी -‘‘ चल बड़ा आया है मुझे समझाने। तू क्या जाने औरत का दर्द को ? सरोज किस हाल में होगी। बेचारी दर्द से तड़प रही होगी। ऊपर से तू मुझे आराम से बैठने को कहता है ?’’

बड़ी-भाभी की इस आकुलता, व्याकुलता और आत्मीयता को देखसपन मनही मन खुश हो रहा था। सोच रहा था, काश सरोज भी देखती तो अवश्य उसकी धारणा बदल जाती। वह बड़ी-भाभी के आने से निश्चिंत हो गया था। उठा और बाहर चाय-पान की तलाश करने लगा। लगभग आधा घंटे बाद जब लौट कर आया तो बड़ी-भाभी की डाँट उसके कानों में गूंजने लगी -

‘‘ कहाँ चला गया था ? कबसे राह देख रही हूँ। क्या तुझे सरोज की बिल्कुल चिंता नहीं है। देख पीड़ा से पीली हो गयी है। कबसे आँसू पर आँसू बहाए जा रही है ’’

बड़ी-भाभी की डाँट सुनकर पलंग की ओर लपका देखा सरोज की आँखों से आँसू निकलकर तकिए को गीला कर रहे थे। सपन को देखकर उसके चेहरे में दर्द मिश्रित मुस्कान मचल उठी। सरोज ने चादर के अंदर ढके नवजात शिशु की ओर इशारा किया। दोनों की आँखों में खुशी के आँसू तैर गए। तभी बड़ी- भाभी की आवाज गँजी -

‘‘अरे पगले तू फिर लड़के का बाप बन गया है। अरे तू अब यहीं खड़े रहेगा कि बाजार से दवाईयाँ भी लाएगा। ’’ - कहकर डाक्टर की चिट सपन के हाथों में थमा दी।

नर्सिंग होम से घर और घर से नर्सिंग होम, बड़ी-भाभी ने रात दिन एक कर दिया। सरोज को उठने बैठने के लिए भी आज्ञा लेनी पड़ती थी। सरोज के पास बैठकर उसके सिर माथे पर हाथ फेरती। रात को जब सरोज सो जाती तो वहीं पलंग के पास फर्श पर दरी बिछाकर लेट जातीं। बीच -बीच में उठकर चादर की सिकुड़न को ठीक करतीं। उबले पानी और समय-समय पर दवाईयों को खिलाने-पिलाने का विशेष ध्यान रखती। घर पर आकर घर का काम काज और सरोज की माँ की देखभाल करना। उन्होंने सात दिनों तक दोनों मोर्चों को बखूबी सम्हाला। सरोज की माँ का तो दिल जीत लिया था। वह बड़ी-भाभी की प्रशंसा करते नहीं अघातीं थीं।

घर आकर बड़ी-भाभी पड़ोस के लड़कों से रोज नीम की पत्तियों को मंगवाती। फिर उसे पानी में उबालकर सरोज को नहलातीं। सुबह शाम नवजात शिशु की तेल मालिश करतीं। लोई लगातीं ...घुटी पिलातीं ...नहलाती-धुलातीं ...। कभी-कभी जब सरोज की माँ लंगड़ाती- कराहती किचिन में घुसने का प्रयास करतीं तो बड़ी-भाभी उनका हाथ पकड़कर बिस्तर पर बैठा देतीं। दोपहर में जब सभी विश्राम करते तब वह दाल, चांवल, गेंहँू की सफाई-बिनाई का काम करतीं या फिर घर के ढेर सारे कपड़ों की धुलाई में जुट जातीं। सरोज की तेल मालिस करने आ रही, नवाइन को बुखार आ गया - तो बड़ी-भाभी सरोज के लाख मना करने के बावजूद भी चार दिनों तक स्वयं तेल मालिस करती रहीं।

घर में बच्चे का जन्म हो और गम्मत का स्वर न गूँजे। यह बात बड़ी-भाभी को बिल्कुल नागवार लग रही थी। एक दिन सपन के हाथों में समान का चिट्ठा थमा दिया। दूसरे दिन गुड़, मेवा, घी के लड्डू बनने शुरू हो गए। तीसरे दिन मोहल्ले के सारे घरों में बुलऊआ भिजवा दिया। घर में ढोलक की थाप संग जन्म दिन के बधाई गीत गँजने लगे। घर का कोना-कोना हर्षोल्लास में डूब गया। बड़ी-भाभी नवजात बच्चे को गोदी में लेकर खूब नाचीं। सपन-सरोज के घर की खुशी सारे मोहल्ले की खुशी बन गई थी। लड्डू, बतासे बंटे और बदले में ढेर सारी बधाइयाँ मिलीं। सारा घर खुशी से झूम उठा।

इस खुशी के अवसर पर घर से बड़े भईया अपने बच्चों सहित आ गए थे। चार दिन बात उन्होंने बड़ी भाभी से कहा कि - ‘‘अब घर चलो कि यहीं रहने का इरादा है।’’

‘‘आप भी कैसी बात करते हो, अभी मेरी यहाँ जरूरत है और तुम चलने को कह रहे हो ? अभी मैं यहीं रहूँगी। एक माह बाद आऊँगी ’’बड़ी-भाभी की बात बड़े भईया को उचित लगी और वे अपने बच्चों को लेकर घर चले गये। बड़ी-भाभी अपने परिवार को जैसे भूल गयीं थीं, इस दुनियाँ मे ही पूरी तरह खो गईं थीं। नवजात शिशु कब दो माह का हो गया, इस हँसी खुशी भरे माहौल में समय का पता ही नहीं चला। सरोज भी पूरी तरह स्वस्थ हो गयी थी।

अचानक एक दिन बड़े भइया का पत्र आया कि तुम्हारी बड़ी-भाभी को लेने आ रहा हूँ। यहाँ काम काज में बड़ी मुश्किल हो रही है, स्कूल भी खुलने वाले हैं। पत्र पढ़कर बड़ी-भाभी को अपने घर की चिन्ता सताने लगी। पत्र के एक सप्ताह बाद बड़े भईया आ गये। इन दिनों में बड़ी-भाभी अक्सर सरोज को खाने ेपीने की बराबर हिदायत देती रहतीं। घर में अनाज को छानबीन और धो कर कनस्तरों में भर दिया ताकि सरोज को एक माह और परेशानी न हो।

प्रस्थान के लिए बड़े भईया रिक्शे में बैठ गए थे।

सपन ने देखा सरोज और बड़ी-भाभी की आँखों में विछोह का दर्द आंसुओं से बह रहा था। इस बहती अश्रु धारा में सरोज का अतीत गहराई में डूबकर कहीं दफन हो गया था। बड़ी-भाभी की निस्पृह सेवा को कृतज्ञता ज्ञापित करने सरोज का सिर शीघ्र ही बड़ी-भाभी के चरण रज लेने झुक गया था। बड़ी-भाभी ने सरोज को उठाया। सीने से लगा उसके बहते आँसुआ को पोंछा।

अपने स्वभाव के अनुकूल सरोज को फिर सख्त हिदायत दी कि बच्चे की सही देखभाल करना। रोज तेल मालिस करके तथा लोई लगाना, नहलाना-धुलाना और घुट्टी पिलाना ... भूलना नहीं ? समझीं... कहकर रिक्शे में बैठ गयीं।

रिक्शा चल पड़ा था। बड़ी-भाभी आँखों से आँसू बहाती बार- बार पलट कर बिदाई के लिये अपने हाथों को हिलाती सरोज की आँखों से ओझल होतीं जा रहीं थीं किन्तु वही बड़ी-भाभी अब सरोज के दिल में पूरी तरह से रच-बस गयीं थीं।

***