जाने वाले ज़रा होशियार
डा. मुसाफिर बैठा
राजधानी के एक (कु)ख्यात छात्रावास का उसके ‘कैचमेंट एरिया’ में ख़ास तांडवकारी प्रभाव था. इस प्राइवेट छात्रावास में एक ही जाति के छात्रों एवं निकट में पूर्व हुए छात्रों का वास था. जात की छात्र राजनीति का ख़ास अड्डा था यह सो, भूतपूर्व छात्रों का भी राज-मक्का था यह! प्रदेश का शासन चाहे जिस भी जात-प्रेमी दल का हो, जात को प्रश्रय देने वाले दल का हो, इस छात्रावास के छात्रों का जलवा कम न होता था. सभी दल के वे नेता जो इस जात से आते थे, इस ख़ास जात के छात्र अड्डे को महत्व और मान देने को मजबूर थे. वस्तुतः जात-नेताओं की जननी था यह छात्रावास. छात्र राजनीति करते कितने ही नेता जो देश और प्रदेश के राजनीतिक पटल पर छाये, स्वर्ग तक में जा समाये, इस पुरातन छात्रावास में रह चुके थे. और, जब प्रदेश का मुखिया ही इस छात्रावास से निकला छात्र बना तब इस हॉस्टल के भाव बढ़ने, आसमान चढ़ने के क्या कहने!
किस्सा-कोताह यह कि हर साल की तरह इस बार भी मौका सरस्वती पूजा का था। ख़ास बात यह थी कि इस बार चूँकि प्रदेश का मुखिया ही जात-नाते का था, इस छात्रावास से गुजरकर राज्य के सर्वश्रेष्ठ ओहदे तक पहुंचा था, इसलिए मौका सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का – को जीने का भी भरपूर था. इस समय तक करणी सेना का तांडव भी प्रदेश देख चुका था, सेना का शासन-प्रशासन कुछ न बिगाड़ पाया था. बल्कि बिगाड़ने से अन्यमनस्क रहा था! जब आन जात की, ऊंची जात की जात-सेना भी पिछड़ी जात के मुखिया वाले शासन में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को धता बता कर राजधानी में पद्मावत फिल्म न चलने देने में सफल रही थी तो अपने मुखिया से ऊंच-नीच ढा कर भी सुरक्षाकवच पाने की उम्मीद क्यों नहीं की जा सकती थी!
होस्टल के इलाके में स्थानीय बाशिंदों एवं दुकानदारों द्वारा तक इस हॉस्टल के अन्तेवासी छात्रों से पंगा लेना आसान न था. थर्राता था सकल आसपास का इलाका इस छात्रावास के प्रताप को भांपकर! खासकर, पूजा-त्योहारों के मौकों पर दुकानदारों पर मनमाना चंदा थोपा जाता था और जबरन वसूली की जाती थी. जिस दूकानदार ने चंदा देने में आनाकानी की अथवा रौब दाब दिखाया, वह हॉस्टल के निशाने पर आ जाता था. उससे देर सबेर बदला लिया जाना तय था. बदला लेने के लिए पर्व-त्यौहार एवं देवी देवता के त्यौहार वाले मौके मुफीद माने जाते थे. हर बड़ा पूजा-त्यौहार को मनाना इस होस्टल का नैतिक दायित्व था जैसे! जब मनाने से कई कई हित बड़ी आसानी से मजे में साधते हैं तो ऐसी निष्ठाएं लाभुक व्यापार की तरह वरेण्य हो जाती हैं! नित नित नये देवी-देवता, भक्त और पुजारी यूँ नहीं उग रहे हैं! माया-मोह छोड़े बाबा लोग यूं ही जींस-व्यापारी नहीं हुए जा रहे हैं!
खुराफाती सुनामी लाने के छोटे बड़े कई कई इतिहास रच चुके इस छात्रवास के सैकड़ों छात्र इस बार सरस्वती की मूर्ति को गंगा में विसर्जित करने जब सड़कों पर उतरे तो भव्य और भयावह नजारा था. करीब दो सौ छात्र जुलूस में शिरकत कर रहे थे और उतनी ही संख्या में पुलिस दल संभावित उत्पात और गड़बड़ी को नियंत्रित करने हेतु तैनात हुआ साथ साथ लगा चल रहा था. शहर के करीब आधा दर्जन मशहूर बैंड बाजा पार्टी खिदमत में लगाए गए थे. अलग बैंड पार्टी के लोगों की अलग वेशभूषा, सौ से कम की संख्या में न रहे होंगे. नयनाभिराम दृश्य! मगर जहाँ-जहाँ से जुलूस गुजर रहा है, सड़क किनारे बने दुकानों एवं घरों के दरवाजे-शटर धड़ाधड़ बंद हो रहे हैं. आ बैल मुझे मार- कौन न्योते! जो दूकानदार कमाने के लोभ में दूकान खुली रख गया उसकी कोई न कोई हानि हुई समझो, सामत आई समझो. हुआ भी, एक चाय दूकानदार के चूल्हे एवं केतली को जुलूस के एक मतवाले छात्रवेशी गुंडे ने उलट दिया, जिससे खौलती चाय दूकानदार के खुले पैर पर गिर गया और वह दर्द से बिलबिला उठा. जबकि घटना को अंजाम देने वाला सरस्वती भक्ति की वर्दी वाला वह छात्र-गुंडा खिलखिला उठा और वापिस जुलूस में समा गया. इस तोड़फोड़ के प्रभाव में हत्भागी दूकानदार का एक डब्बे में रखा करीब पांच किलो दूध मन्दिर में बहते दूध की गति प्राप्त कर गया था सो अलग. एक किताब दूकान खुली मिली जिसने चंदा देने से मना कर दिया था वह भी जुलूस का शिकार बना. सरस्वती पुत्रों ने उसकी किताबें रैक और अलमारी से नीचे बिखेर दीं और अलमारी के शीशे तोड़ डाले. दुकान के आगे सड़क किनारे खड़ी एक मोटरसाइकिल के एक टायर की हवा निकाल दी और कार के शीशे पर हॉकी स्टिक दे मारा. झन की आवाज के साथ शीशे जमीन पर बिखर गये. राजनीतिक पार्टियों द्वारा जो बंद और हड़ताल का आह्वान होता है वह इसी तरीके से सफल बनाया जाता है. यहाँ देवी भक्त गुंडे हुए, वहां राजनीतिक कार्यकर्ता को यह रोल निभाना पड़ता है. हाँ, ऐसे भक्त छात्र राजनीतिक कार्यकर्ता में तब्दील हुए देखे जाते हैं.
जुलूस की गाथा को आगे बढ़ाते हैं तो हम पाते हैं कि इसके आगे-पीछे सैकड़ों मजबूर देखनहार भी हैं. वे होशियार हैं, सो उनका बहुत बिगड़ा नहीं है! बिगड़ा इतना भर है कि जबतक जुलूस मुख्य मार्ग को छोड़ गंगा नदी के भसान स्थल यानी गंतव्य को जाने वाली शाखा सड़क की ओर मुड़ नहीं जाती, उन्हें पीछे पीछे भक्त की तरह चलना है. इस वक्त कण कण में बसे छत्तीस कोटि देवता अथवा कोई ईश्वर उनकी मदद को आगे नहीं आ सकता, उन्हें जुलूस को लंघवा कर उससे आगे नहीं बढ़ा सकता. कोई रोगी राहगीर रिक्शा-ऑटो-रिक्शा पर है मगर अस्पताल पहुँचने की जल्दी में, तो कोई साईकिल-मोटरसाईकिल पर सवार जल्द ही अपनी मंजिल पर पहुंचना चाहता है, तो कोई कार में और सिटी बस में सवार होकर भी चैन में नहीं है, जुलूस से पिंड छुड़ाने की फ़िराक में है मगर सबके सब हैं अवश. कुल जमा स्थिति यह है कि कछुआ चाल से आगे बढ़ती जुलूस के पीछे पीछे अपने अपने जरूरी काम पर निकले लोग लाचार, अटके और किंचित भय में हुए चल रहे हैं. मकानों की छत पर भी दर्शक बड़ी संख्या में हैं, सच पूछिए तो वे ही सबसे सुरक्षित और सहज दूर-दर्शन-सुख पा रहे हैं!
बदगुमान से नाचते-गाते-डगमगाते आस्था को अपनी अश्लीलता एवं बदमाशी की हद से नापते ये छात्र और छात्रनुमा युवक बाक़ी दुनिया से बेपरवाह हैं. गुंडा और छात्र की स्पष्ट दूरी को इन्होने इस समय साफ़ पाट रखा है! वे निर्द्वंद्व एवं स्वच्छंद मस्ती के आलम में हैं. प्रदेश में शराब-दारू बैन है, मगर सरस्वती का मूक वरदहस्त पने ऊपर मान आज के अवसर के लिए इन्होने सामान जुटा लिया है! कोई युवती या युवा लड़की सड़क किनारे अथवा छत पर दिखती है तो ये सरस्वती-भक्त फ़्लाइंग-किस भी उड़ा रहे हैं.
जुलूस से एक राही के रूप में जिस मोड़ पर मेरा सबका होता है, जुलूस में शामिल एक बैंड बाजा से 1964 में बनी 'राजकुमार' फिल्म का बज रहा एक गाना मेरे कानों से बेसाख्ता टकरा रहा है- ‘जाने वाले ज़रा होशियार, यहाँ के हम हैं राजकुमार. ओय होय, आगे पीछे हमारी सरकार, यहाँ के हम हैं राजकुमार!’
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