Jalakumbhi in Hindi Motivational Stories by Mahesh Dewedy books and stories PDF | जलकुम्भी - National Story Competition- Jany 2018

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जलकुम्भी - National Story Competition- Jany 2018

जलकुम्भी

महेश द्रिवेदी

मेरे गांव की तलैय्या पानी से भरी है, परंतु पानी कहीं-कहीं ही दिखाई देता है. जलकुम्भी ने सम्पूर्ण तल को आच्छादित कर रखा है – तल पर हरे रंग के सर्पों जैसे फन उठाये जलकुम्भी के पत्तों का एकछत्र राज्य है. मेरी भैंस उन फनों के बीच फंसी हुई है. वह बाहर निकलने को जितनी छटपटाती है, उतनी और गहरे में धंसती जाती है. अपनी कातर आँखों से हम सबको देख रही है. गांव वाले उसे निकालने को आतुर तो हैं परंतु कोई पानी में घुसने का साहस नहीं कर रहा है. भैंस ने अंतिम क्षण तक जीवन की आस नहीं छोड़ी, परंतु अपनी कातर आंखों से अपने को बचाने की याचना करते हुए धीरे धीरे जल में समा गई है. मैँ उन आंखोँ को कभी भूल नहीं सकी हूं. जब भी मेरे समक्ष किसी निरीह प्राणी पर कोई दुखदायी घटना घटती है, मुझे सहायता की भीख मांगती भैंस की वे कातर आंखें याद आ जातीं हैं- चाहे चचा कमरुद्दीन द्वारा मुर्गी की गर्दन पकड़कर ज़िबह करने हेतु पत्थर पर रखने पर मुर्गी की बाहर निकली जीभ और फटी-फटी सी आंखें हों या रामकली बुआ द्वारा मंदबुद्धि भतीजी श्यामा को कोठरी मेँ बंद करने हेतु दौड़ाने पर उसकी भयभीत आंखें हों.

भगवान बुद्ध द्वारा मृत व्यक्ति को श्मशान ले जाते हुए देख लेने पर उन्हें समस्त संसार दुखमय लगने लगा था और उनका राजसी ठाठ वाला जीवन दुखीजनो के संग बीता था. आज मुझे लगता है कि मेरा भाग्य भी कुछ ऐसा ही है. भैंस की तलैया मेँ डूबने की घटना देखने के पश्चात मेरे जीवन से भी संताप चिपक से गये है‌‌. यह बात अलग है कि मैँ बुद्ध बनकर परसेवा में जीवन अर्पित करने के बजाय बस कुढ़ कुढ़ कर जीती रही हूं. उस घटना के पश्चात लम्बा समय बीत चुका है और मै दो वर्ष पूर्व विवाहोपरांत अपनी ससुराल मेँ आ गई हूं. यह उतना छोटा गांव नहीं है, जैसा मेरा माइका था. यहाँ मेरे गांव की तरह छत पर मोर नहीँ नाचती है, रात मेँ अलाव नहीँ जलते हैँ और अधिकांश लोग 'काला अक्षर, भैंस बराबर' नहीं हैं. यहां अधिकांश घरों में वैसी विपन्नता का सम्राज्य भी नहीं है, जैसा मेरे गांव में था. प्रशासन की उपस्थिति घोषित करता यहां डाकखना, उच्च-प्राथमिक विद्यालय, एवँ पुलिस चौकी भी है. यहां आकर मुझे लगा था कि यहां संकीर्णता से कुछ तो मुक्ति मिलेगी, पर आज बाज़ार से लौटकर जब मैंने अपने ऊपर बीती घटना अपनी सास को सुनाना प्रारम्भ किया तो वह सन्नाटे मेँ आ गईं थीं और मेरी बांह रुक्षता से पकड़कर मुझे कमरे में अंदर खींच ले गईं थीं और क्रोध से आँखें तरेरकर बोलीं,

“चुपचाप यहां बैठो. देख नहीं रही हो कि बाई अभी किचन में है.”

मैँ अवाक हो रही हूँ परंतु वह मुझे हेय दृष्टि से देखते हुए कमरे से चली गईँ और जाते-जाते दरवाज़ा बाहर से बंद कर दिया. अपने शरीर, मन एवँ अपनी अस्मिता पर लगी चोट से मैँ पहले ही बाघ द्वारा भंभोड़ी मृगी जैसी हो रही थी. उस पर सास द्वारा इस प्रकार अवहेलित होने से मुझे लगने लगा है कि आज मैँ तिरस्कार एवँ ग्लानि की इतनी घनी जलकुम्भी से घिर चुकीँ हूँ कि डूब जाने के अतिरिक्त अब कोई रास्ता मेरे लिये बचा ही नहीं है. आज के पहले भी मैं अनेक बार अवसाद रूपी जलकुम्भी से भरी तलैया में प्रवेश कर चुकी हूं, क्योंकि हमारी सामाजिक व्यवस्था ही ऐसी है जो हम लड़कियों को बारम्बार उसमेँ ढकेलती रहती है. परंतु प्रकृति ने हमें जिजीविषा इतनी दी है कि अभेद्य दलदल में फंसते-फंसते हम हाथ-पैर मारकर बाहर निकल आती हैं. परंतु अब मैं इतनी क्लांत हो चुकी हूँ कि बाहर निकलने की इच्छा निःशेष हो चुकी है. मन पर गहरा आघात करने वाली आज की घटनाओं ने मेरे मन को ऐसे अवसाद में डुबा दिया है कि अब किसी के द्वारा उबार लिये जाने की न तो आशा बची है और न अभिलाषा. जब से मैं इस निर्णय पर पहुंची हूँ कि अपने जीवन के अंत से ही अब मैं अपने इस अमिट कलंक एवं अटल अवसाद से छुटकारा पा सकती हूं, तब से मेरे मानस का चक्रवात थम सा गया है? मन में एक सहजता एवं शांति व्याप्त हो गई है. मुझे अपने जीवन की अवसाद की जलकुम्भी में ढकेलने वाली अनेक घटनायें इतनी स्पष्टता से याद आ रहीं हैं- जैसे कोहरा छंट जाने के पश्चात आकाश निर्मलता से प्रकट हो रहा हो.

‘मैं चार साल की हूं, और किसी बात से किसी की मुखाकृति पर उभरने वाली प्रतिक्रियाओँ का गूढ़ार्थ समझने का प्रयत्न करने लगी हूं. मुझे दादी ने बता रखा है कि हमारे घर मेँ एक छोटा मेहमान आने वाला है. घर भर में सब प्रसन्न हैं. मैं भी प्रसन्न हूँ. तभी मैं सुनती हूं. “अब की बेटा भओ है, सो हम नई साड़ी लिययैं. श्यामा के भये की तरह धोती सै काम नाईं चलययै.”- छंगी काकी जिसने छोटू के पैदा होने पर दाई का काम किया है, नई साड़ी लेने पर अड़ी हुई हैं. दादी, जो छोटी-छोटी चीज़ों को किसी को देने मेँ हाथ सिकोड़ लेती हैं, अपनी टीन की बकसिया से एक लकलकाती हुई लाल रंग की साड़ी ले आयी हैं और उन्होंने मुस्कराते हुए छंगी काकी के हाथ में रख दी है. काकी की यह ज़िद कि लड़का होने के कारण अब की बार नई साड़ी ही लेगी, मेरी समझ में नहीं आ रही है, परंतु मेरे मन को कचोट रही है. मैं सोच रही हूं कि रात में दादी से इसका कारण पूछूंगी, परंतु उसके पहले ही मैंने उनको पिता जी से यह कहते सुन लिया है, ”लला, भगवान की बड़ी कृपा है, जो लड़का भओ है. नाईं तौ अगर दुइ-दुइ मोड़ीं हुइ जातीं तौ जिंदगी बीसन के सामने सिर झुकइबे में और लाखन रुपया को इंतज़ाम करबे मैं बीत जाती.” दादी की बात सुनकर मेरी समझ में यह बात आ गई है कि लड़कियोँ के विवाह के लिये पिता को अनेक घरों में जाकर सिर झुकाना पड़ता है और बहुत धन व्यय करना पड़ता है. फिर मैं उस रात्रि दादी से कुछ नहीं पूछती हूं, परंतु छोटू की तुलना में अपनी स्थिति निम्न होने की भावना से ग्रस्त होकर देर तक जागती रहती हूं.

छोटू की छठी का दिन है. ढोलक की थाप पर महिलायें आंगन में चक्कर ले ले कर नाच रहीं हैं. चारों ओर हंसी-खुशी बिखर रही है. पूजा-पाठ के पश्चात पंडितजी मेरे पिता जी से बड़ी संतुष्टि के भाव से कह रहे हैं, “चलौ तुम्हाओ मुखाग्नि दीबो बालो आय गओ.” मैं मुखाग्नि का अर्थ तो नहीँ समझी, परंतु यह समझ गई हूँ कि पंडित जी किसी ऐसे कार्य की बात कर रहे हैं जिसे मैं नहीं कर सकती हूं और छोटू कर सकता है. मेरी यह रात भी इसी उद्विग्नता में कटी कि ऐसा क्यों है कि कोई काम इतना छोटा सा छोटू तो कर सकता है, पर मैं नहीं कर सकती. ना चाहते हुए भी मेरे मन में अपनी हीनता का अहसास उत्पन्न हो रहा है और छोटू से ईर्ष्या हो रही है.

मेरा दूसरी कक्षा का परिणाम निकला है. मैँ प्रथम आई हूं. मुझे मां माथा चूमकर आशिष दे रहीँ हैँ और पिता जी, जो प्रायः गम्भीर मुद्रा में रहते हैं, आज मुझे देखकर मुस्कराये हैं. मैं बड़ी प्रसन्न हूं क्योंकि होली निकट होने के कारण फूफा जी और दूसरे महमान भी आये हुए हैँ. हमेशा की भांति फूफा जी मुझे दोनो हाथों में लेकर उछाल रहे हैं. दिन भर हंसी-खुशी में बीता है. घर में चारपाइयाँ कम होने के कारण रात में मुझे फूफा जी की चारपाई पर लिटाया गया है. मै गहरी नींद में हूं जब मुझे लगता है कि कोई अपने हाथ से मेरी पीठ सहला रहा है. घबराकर मेरी आंख खुल जाती है. फूफा जी को देखकर मैं आश्वस्त हो जाती हूं और फिर आंखें मूंद लेती हूं, पर यह हाथ धीरे धीरे सामने मेरी छाती पर आ जाता है. मुझे अजीब सा लगता है, पर मेरी समझ में नहीं आता है कि क्या करूं. मैं अपने को दूर खिसकाने का प्रयत्न करती हूं, तो वह मुझे और पास खींचकर अपना हाथ नीचे ले जाने लगते हैं. भय के मारे मेरे गले से चीख निकलने को होती है. तब वह मुझे छोड़ देते हैं. मैं भागकर मां के पास जाकर उनसे चिपक जाती हूं. मैं बदहवास हूं और मां निंदासी. मां मेरे भाग आने का कारण पूछती हैं. मैं कुछ बोल नहीं पाती हूं- बस भयभीत हो उनसे चिपकी रहती हूं. वह मुझे चिपकाकर चुप रहतीं हैं- मुझे संदेह है कि वह सब कुछ समझ कर चुप रहतीं हैं. उस रात्रि का भय मेरे मन मानस में जम गया है – अब मैं फूफा जी से ही नहीं वरन सभी पुरुषों से भयभीत रहने लगी हूं.

मैं इंटर कालिज की नवीं कक्षा में पढ़ने आज पहले दिन आई हूं. घर से चली थी तब आकाश में मेघ घिर रहे थे, और कालिज पहुंचने से पहले ही वर्षा होने लगी है. मेरा बदन भीग गया है और मैं उसके उभारों को छिपाते-छिपाते लज्जा में गड़ी जा रही हूँ. कालिज के गेट के अंदर घुसते ही एक जगह गप्प लड़ाते खड़े चार लड़के मुझे घूरने लगते हैं. मेरे आगे बढ़ते ही पीछे से एक लड़का सीटी मारते हुए कहता है ‘क्या माल है?’ मै क्षोभ से रुँआसी सी होकर पीछे देखती हूँ, तो वे लड़के ठहाका मारकर हंस देते हैं. मैं गिरते-पड़ते अपनी कक्षा में पहुंचतीं हूं. यह तो मेरी अस्मिता पर कुठाराघात का प्रथम दिवस था क्योंकि उनमे से एक लड़का, जिसने मुझ पर अश्लील टिप्पणी की थी, मेरा कक्षा का सहपाठी निकला. वह प्रतिदिन मेरे पीछे बैठकर भांति भांति से मुझे चिढ़ाने लगा है- कभी अश्लील गाने, कभी अवांछनीय टिप्पणियां. उसकी अभद्रता का प्रतिकार करने का मुझमें न तो साहस है और न सामर्थ्य. इस कारण मै आत्मग्लानि एवँ अवसाद की जलकुम्भी के जंगल में फंसी जा रही हूँ. एक दिन मेरे आत्मावरोध की सीमा पार हो गई जब मेरे पीछे मुझे कुछ गड़ने जैसा आभास हुआ. मैंने कठिनाई से अपने आंसू रोकते हुए अध्यापक से शिकायत कर दी. तमाम लड़के हंस दिये और अध्यापक ने विद्यालय के प्रबंधक के उस लड़के से कुछ विशेष न कह कर मुझे उससे अलग बैठने को कह दिया. मुझे ऐसा लगा कि मैं तलैया में फंसी बेबस भैंस की भांति अपने को जलकुम्भी वन से निकालने की याचना कर रही हूं, परंतु वहां सभी मेरी खिल्ली उड़ाते हुए मुझे और अंदर ढकेल रहे हैं. भाग्यवश अगले वर्ष मुझे उस लड़के के सेक्शन से भिन्न सेक्शन में रखा गया, और मैं जलकुम्भी वन में समाने से बच गई.

मुझे अच्छे कालिज मेँ प्रवेश मिल गया है. सहपाठियों एवँ प्रोफेसरोँ की घूरती लोलुप निगाहोँ एवँ पीठ पीछे बोले गये वाक्य-वाणों को झेलते-झेलते भी मैं पढ़ाई में अच्छी चल रही हूँ और प्रोफेसर बनना चाहती हूं. मेरी स्नातक की शिक्षा का अंतिम वर्ष है. मम्मी पापा से मेरे लिये लड़का देखने और उन्हीं गर्मियों में मेरा विवाह कर देने पर अड़ी हुई हैं. उनके यह कहने पर कि ‘नहीं, अब विवाह में और देरी नहीं. लड़की है- कहीं ऊंच-नीच हो जाय?’ पापा चुप हो जाते हैं. मम्मी की यह बात मेरे हृदय मेँ शूल सी चुभ जाती है क्योंकि मुझे लगता है कि उन्हेँ मुझ पर विश्वास नहीँ है, परंतु फिर मुझे इस बात का संतोष भी होता है कि विवाह के पश्चात कोई सीटी मारकर अथवा फब्तियां कसकर मेरी अस्मिता को धूलधूसरित नहीं कर सकेगा. पर मुझे क्या पता था कि हमारे समाज मेँ नारियों – चाहे अविवाहित हों अथवा विवाहित- को कहीं भी जलकुम्भी से मुक्ति नहीं है. मेरा विवाह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उस कस्बे में हुआ, जहां महाभारत काल से स्त्री एक भोग्या रही है और आज भी नारी कोई मानवी न होकर मात्र एक वस्तु समझी जाती है. मेरे साथ आज सायं बाज़ार से लौटते हुए वही हुआ, जो इस भूमि का धर्म रहा है. जब मै उपयोग के उपरांत सड़क के किनारे फेंक दी गई थी. तो एक दयावान टेम्पो वाले ने मुझे पुलिस चौकी पहुंचा दिया था. पुलिस वालोँ ने रस ले ले कर मेरी कहानी सुनी परंतु यह कहकर मेरी रिपोर्ट नहीं लिखी,

‘जाओ, पहले अपने घरवालों से तो पूछ लो. फिर किसी घरवाले को साथ लेकर आओ.’

मैँ गिरते-पड़ते किसी भांति घर पहुंच अपनी सास के कंधे का सहारा लेकर सिसकती हुई आपबीती बताने लगी थी, तभी सास ने मुझे खींचकर इस कमरे मेँ बंद कर दिया.’

मैँ अपने दुपट्टे को पंखे में फंसाकर उसमें लटकने का प्रयास कर रही थी, तभी कमरे का दरवाज़ा खुला और मेरे पति अंदर आ गये. उन्हेँ देखकर अपनी उस निपट निरीहता की स्थिति में भी मेरे मन में एक आशा का उदय होता है. पर यह क्या? वह मुझसे बिदक कर ऐसे दूर खड़े हो गये, जैसे मै कोई घृणित जोंक हूं. फिर भी मैंने रोते हुए उनसे थाने मेँ रिपोर्ट लिखाने हेतु चलने को कहा. वह कुछ देर मुझे घूरकर देखते रहे, फिर बमक पड़े,

‘अपनी इज़्ज़त तो लुटा ही आई है. अब घर भर की इज़्ज़त भी लुटानी है?’

उनकी बात सुनकर मुझे ऐसा आघात लगता है जो अन्यायपूर्ण व्यवस्था के प्रति मेरी विद्रोह की भावना को झकझोर कर खड़ा कर देता है. मैं पति की ओर हेय दृष्टि से देखती हुई अनायास चिल्ला पड़ी, “भाड़ मेँ जाय तुम्हारे घर की इज़्ज़त और भाड़ में जाओ तुम”.

यह कहते हुए मैं घर से बाहर निकल आई और अपने साथ हुए अपराध एवं पुलिस द्वारा रिपोर्ट न लिखने की शिकायत पुलिस अधीक्षक से करने हेतु बस स्टेंड की ओर चल पड़ी.

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