समझौता
सोनु द्रिवेदी
आज मोहल्ले में बड़ी सनसनी थी। आस पास की दुकाने १२ बजे से ही बंद हो गई थीं। लोग दबी जुबान से सुबह की घटना का जिक्र कर रहे थे। सामने कहने की हिम्मत किसी में न थी। दर्जी का काम करने वाले रफीक ने ननकऊ को बताया कि छोटे को ठाकुर विजय सिंह के भांजे और भतीजे ने मिलकर बुरी तरह से पीटा है। इस तरह से मार रहे थे कि देखकर रुह कांप गई।
ठाकुर विजय सिंह एक जाना माना नाम था। शहर में उनका अच्छा प्रभाव था। राजनीति में भी उनकी बहुत धाक थी। खुद तीन बार विधायक भी रह चुके थे। अजय सिंह उनका भांजा है जो बदमाश किस्म का इंसान है और मारपीट करना उसकी आदत में शुमार था। आज सुबह ठाकुर अजय और अखण्ड ने ही मिलकर छोटे को जमकर पीटा था। कह रहे थे “साला घर में घुसता है…इसकी इतनी हिम्मत हो गई …सन्नो को बुलाने सीधे कमरे तक पहुंच गया ।“
सन्नो ठाकुर अजय के घर काम करती थी और उसकी सगाई ननकऊ के छोटे भाई "छोटे" के साथ हो चुकी थी। ननकऊ का गांव ठाकुर विजय सिंह के जंवार क्षेत्र में आता था। ठाकुर विजय सिंह ने ननकऊ को शहर में रहने के लिए एक कमरा दे रखा था।बदले में ननकऊ की पत्नी ठाकुर के घर कभी कभार छोटा मोटा काम कर दिया करती थी। ठाकुर साहब अपने लोगों का बड़ा खयाल रखते थे। इसी के चलते सन्नो को अजय के घर ननकऊ और छोटे ने काम दिलवा दिया था। सन्नो अजय के घर दिन भर रहती थी पर रात को सन्नो ननकऊ के घर आ जाती थी। सन्नो का खाना पीना अजय के घर पर ही होता था। सन्नो भी मन लगाकर अजय के परिवार की सेवा करती, घर के सब सदस्यों का भरपूर ध्यान रखती। ठकुराइन सन्नो के काम से बहुत खुश थी और उसे किसी बात की कोई तकलीफ नहीं होने देती थी।
सन्नो एक गरीब घर की लड़की थी। गांव में उसका बचपन फूस का कच्चा मकान डेढ़ बीघा जमीन और शराबी बाप रघुवा के सहारे गुजरा। उसकी माँ बचपन में ही इलाज के अभाव में गुजर गई थी। रघुवा जो कुछ भी कमा कर लाता था उसका आधे से अधिक शराब में उड़ा देता था। घर में कई कई दिन तो चूल्हा जलना भी नसीब नहीं होता था। सन्नो ने कई रात भूखे ही गुजारी थी। ऐसे मौकों पर पड़ोसियों ने सन्नो की मदद की थी। उसे वो दिन कभी नहीं भूलता है जब किसी गाड़ी ने उसके पिता को टक्कर मार कर घायल कर दिया था और रघुवा चार दिन घर तक नहीं लौटा था। घर का राशन तो दो दिन में ही खत्म हो गया और बाकी दो दिन फांके पर गुजरे थे,भूख के मारे बुरा हाल था ऐसे में रामू काका ने उसके लिए खाने का इंतजाम किया था। किस प्रकार उसने पड़ोसियों के घर काम करके अपने बाप का इलाज कराया और दो जून की रोटी का जुगाड़ किया था। उसके लिए बचपन के दिन एक दु:स्वप्न के समान थे।
छोटे के साथ सगाई के बाद उसे शहर आने का मौक़ा मिला। गांव में अभाव की जिंदगी गुजरने वाली सन्नो को चमक दमक से भरा शहर का माहौल बहुत रास आया। गांव में बाप पीकर पड़ा रहता था और खाने की भी तंगी थी सो सन्नो का मन शहर में रम गया । ननकऊ व छोटे सन्नो को बुलाने गाहे बगाहे ठाकुर अजय के घर जाया करते थे। मगर आज जो कुछ हुआ वह अविश्वसनीय था। दुखी सन्नो ठाकुर के घर से वापस आ गई । हालांकि ठाकुराइन ने सन्नो को रोकने की कोशिश की थी और समझाया “सन्नो इस मामले से तुम्हारा क्या लेना देना? जिसने गलती की उसे सजा मिली, तुम अपना काम जैसे करती थी करती रहो।“ मगर सन्नो ने उन्हें खरा सा जवाब दिया “मालकिन जिनकी वजह से हम आपके घर है जब उन्हें ही पीट दिया गया तो हम यहाँ कैसे रुक सकते हैं?” ठकुराइन ने पुनः कोशिश की “सन्नो एक बार फिर सोच लो …..।” मगर सन्नो तो जैसे मन बना चुकी थी, उसके होने वाले पति को बुरी तरह से पीटा गया था। वह भी बिना किसी कसूर के। वह दृढ़ स्वर में बोली “नहीं मालकिन अब फिर से इस घर में नहीं…।” यह चोट छोटे के शरीर से अधिक सन्नो के आत्मसम्मान पर थी।
दरअसल पिटाई की असली वजह कुछ और थी। ठाकुर विजय सिंह को इस बार सत्ताधारी पार्टी ने टिकट नहीं दिया तो उनके समर्थकों ने अपने क्षेत्र में रहने वाले लोगो से दूसरी पार्टी को वोट देने के लिए कहा था परन्तु सत्तापक्ष में लहर के चलते ननकऊ के गांव के लोगो ने इस बात की अवहेलना कर दी। यह बात ठाकुर अजय को बहुत बुरी लगी थी। यही खुन्नस आज छोटे पर निकली थी।
ननकऊ ने भी ठाकुर साहब का कमरा छोड़ दिया और किराये पर शहर में दूसरा कमरा ले लिया। छोटे की मरहम पट्टी करा कर कुछ दिनों के लिए आराम करने गांव भेज दिया।
सन्नो अब ननकऊ की पत्नी के काम में हाथ बंटाने लगी। ननकऊ की पत्नी सुनीता कुछ घरों में बरतन मांजने का काम करती थी। सुबह सुबह सन्नो सुनीता के साथ बर्तन मांजने निकल जाती दोपहर में खाना बनाती और शाम को फिर सुनीता के साथ काम पर जाती। दिन भर की व्यस्तता और थकान के साथ कच्चा पक्का खाकर भी सन्नो को कुछ परेशानी न थी उसकी सारी चिंता घर की आमदनी को लेकर थी। अब किराये पर कमरा लेने से घर का खर्चा बढ़ गया था और उसे मिलने वाली तनख़्वाह भी बंद हो चुकी थी इसलिए घर चलाने में खींच तान मचने लगी। सन्नो काम में हाथ तो बंटाती थी मगर इससे आमदनी नहीं बढ़ रही थी इसलिए वह फिर किसी ऐसे घर में काम की तलाश करने लगी जहाँ महीने की अच्छी तनख़्वाह मिले और अच्छा खाना भी खाने को मिल सके।
छोटे अब स्वस्थ होकर शहर वापस आ गया और काम की तलाश में हाथ पैर मारने लगा। पर अजय सिंह से अलग होकर उसी शहर में काम पाना आसान न था। एक दिन सन्नो ने छोटे से कहा “ऐसे कब तक चलेगा छोटे…. पैसे की तंगी तो बढ़ती ही जा रही है .. इतने दिन में हमको भी दूसरा काम नहीं मिल पाया है ऊपर से ये मंहगाई… । क्यों न तुम कहीं बाहर काम की तलाश कर लो .. मैने सुना है बड़े शहर में खूब पैसा है ...”। “मगर सन्नो तुम्हें छोड़ कर ….” छोटे ने बोलना चाहा। पर सन्नो ने बीच में ही छोटे की बात काटते हुए कहा “तुम एक बार कोशिश तो करो हमारे गांव में बहुत से लोग परदेस कमाने जाते थे …।“ होनी जैसी होती है बुद्धि भी उसी अनुरूप कार्य करने लगती है। सन्नो की जिद के आगे विवश होकर छोटे ने अनमने ढंग से प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और कमाने के लिए परदेस चला गया ।
इसबीच कई बार सन्नो के पास ठकुराइन के बुलावे का संदेशा आया मगर सन्नो ने कोई जवाब नहीं दिया । वक़्त बीतने के साथ सन्नो को एक घर में काम भी मिल गया। तनख़्वाह ज्यादा तो नहीं थी पर घर के खर्च में कुछ सहयोग हो जाता था। सन्नो अक्सर कहती थी “पैसा भले ही कम मिले पर सम्मान तो है।“
छोटा शहर हो तो बात छुपती नहीं । यह बात सबको पता थी कि सन्नो अब राशन की दुकान चलाने वाले राकेश के घर काम करती है। अजय सिंह भी इससे वाकिफ थे। इधर अजय की पत्नी फिर से गर्भवती हो गई तो देखभाल के लिए किसी की आवश्यकता फिर महसूस होने लगी।
परिस्थिति वश अजय सिंह ने राकेश से बात की “यार समय नजदीक है कुछ दिन के लिए सन्नो को भेज दे…डिलिवरी के बाद वापस आ जाएगी।“ राकेश अजय की बात टाल नहीं सकता था उसने कहा “यदि सन्नो चाहे तो चली जाए उसे कोई आपत्ति न होगी “।अब तक सन्नो चाय लेकर आ चुकी थी। अजय ने कहा "ठकुराइन तुम्हें याद कर रही हैं सन्नो... घर आकर मिल लो”।
सन्नो सोच में पड़ गई.... वक़्त के साथ साथ पुरानी बातों पर भी धूल जमने लगती है। राकेश के घर से मिलने वाले पैसे से उसकी जरुरतें पूरी नहीं पड़ रही थी... यहां खाने में मोटा अनाज था..चाय भी पूरे दिन में एक दो बार ही मिलती थी.. ऊपर से दिन भर अनाज की सफाई का काम ….कितना थक जाती है वह ।महीनों बीत चुका था छोटे से कुछ बात नहीं हुई थी। उसने सुना था कि परदेस में छोटे का कोई चक्कर है। उड़ती खबर यह भी थी कि उसने किसी को रख लिया है....जिसके कारण उसने ठाकुर साहब का घर छोड़ा वही अब उसके साथ नही है...कहीं ऐसा न हो जाए कि उसे वापस गांव जाना पड़े.... नहीं नहीं यह नहीं हो सकता... पुराना आक्रोश अब ठंडा पड़ने लगा था। वह सोचने लगी अजय सिंह दूसरों के लिए भले ही बुरा हो मगर उनके घर में उसे तो कोई परेशानी न थी। खाने पीने पर कोई रोक न थी पैसा भी वक़्त पर मिल जाता था। ठाकुरों का स्वभाव तो थोड़ा गर्म होता ही है, यह हम जैसे लोगों को समझना चाहिए । क्या जरुरत थी छोटे को उस दिन भीतर तक आने की? थोड़ा इन्तजार करना चाहिए था। आज ठकुराइन को मेरी जरूरत है…पूरे दिन का बच्चा है कैसे काम कर पाती होंगीं? आवश्यकता ने अपने पक्ष में तर्क गढ़ना प्रारम्भ कर दिया और कमजोर पड़ चुके मौन व एकाकी आत्मसम्मान को समझौते के लिए विवश कर दिया। सन्नो ठकुराइन से मिलने चल पड़ी।
समाप्त