windows sheet in Hindi Short Stories by Anju Gupta books and stories PDF | विंडो सीट

Featured Books
Categories
Share

विंडो सीट

विंडो सीट

अंजु गुप्ता

गर्मियों की छुट्टियों के समय कन्फर्म सीट मिलना कोई आसान बात न थी । भतीजी की सगाई एकदम से तय हो गयी थी, सो जाना भी जरूरी था । विनय को ऑफिस से छुट्टी न मिल पायी थी। एक-दो दिन में आने का वायदा कर उसने सुरभि को जयपुर से चलने वाली जयपुर - चिन्नेई एक्सप्रेस में बिठाया और साथ ही हिदायतों का पिटारा भी खोल दिया – “ध्यान से जाना। रास्ते में किसी से अनावश्यक बात न करना । अपना ख्याल रखना। कोई भी दिक्कत हो तो फोन कर देना ! वगैरा -वगैरा… ।”

शादी के बाद सुरभि इससे पहले कभी भी अकेली नहीं गयी थी । जहाँ भी जाना होता था दोनों साथ ही जाते थे, इसलिए अपनी जगह विनय की चिंता भी जायज़ थी। ट्रेन चलने के समय तक वो सुरभि को हिदायतें देता रहा । उसका प्यार उसकी हिदायतों में पूरी तरह से झलक रहा था। गाड़ी चलने पर, सुरभि भी खिड़की में से बच्चों की तरह तब तक उसे देखती रही जब तक कि विनय आँखों से ओझल नहीं हो गया।

ट्रेन चलने के साथ ही सुरभि ने आसपास का जायका लिया। इक्का -दुक्का सीटों को छोड़, सारी सीटें भरी हुई थीं । उसके साथ वाली सीट अभी खाली थी । शायद वो सहयात्री अगले स्टेशन से चढ़ने वाला/ वाली थी ।

हमेशा की तरह, वो किताब खोल कर बैठ गयी । आसपास के बाकी के लोग भी अपने सामान लगाने, गप्पे मारने इत्यादि में व्यस्त हो गये थे। जल्दी ही अगला स्टेशन आ गया था । "दुर्गापुरा" में गाड़ी सिर्फ दो मिनट ही रुकती है । इसलिए ट्रेन पकड़ने की आपाधापी स्पष्ट रुप से दिखाई दे रही थी ।

"आप शायद मेरी सीट पर बैठी हैं " - इस आवाज़ और वाक्यांश को सुन कर उसका दिल धक से रह गया । घबराते हुए उसने नज़रें उठा कर देखा ... तो आश्चर्य का ठिकाना ही न रहा । सामने समीर था... वो समीर, जो कभी उसकी जिंदगी था, जिससे कभी उसने बेइंतहा प्यार किया था और फिर बेइंतहा नफ़रत भी, आज फिर उसके सामने था।

आज भी वही दिलकश आवाज़ और वैसा ही व्यक्तित्व । "तुम" सुरभि के मुँह से अनायास ही निकला गया । दिल लगभग दस वर्ष पीछे पहुँच गया । मानों कल की ही बात हो…

समीर से उसकी पहली मुलाकात ट्रेन में ही हुई थी । वह सहेली की शादी में शामिल होने चंडीगढ़ जा रही थी और समीर छुट्टियाँ काट कर वापिस अम्बाला अपनी ड्यूटी जॉइन करने ।

दिल्ली - चंडीगढ़ शताब्दी की विंडो सीट पर बैठ, किताब खोल कर बैठी ही थी कि इक बेहद आकर्षक आवाज़ सुनाई दी – “आप मेरी सीट पर बैठीं हैं । क्या आप …. “। नज़र मिलते ही देखा इक खूबसूरत सा नवयुवक सामने खड़ा था । आवाज़ के साथ-साथ उसका मोहक व्यक्तित्व और विंडो सीट का लालच … सुरभि को समझ ही नहीं आया कि क्या बोले । उसकी उलझन समझ वो हँस कर बोला “विंडो सीट पर बैठना है ? चलिए, मैं आपकी सीट पर बैठ जाता हूँ ।” उसके बाद उसने जो बोलना शुरू किया … अम्बाला तक का सफ़र कब कट गया, पता ही न चला । स्टेशन पर उतरने से पहले उसने उसे अपना नंबर दिया और बहुत ही आत्मविश्वास से “जल्दी ही मिलने आऊँगा” कह कर विदा ली। सुरभि ने भी हँस कर कहा – “बिन फोन नम्बर और अड्रेस के ढूँढ कर दिखाओ तो मान जायेंगे।”

समीर की बातें, उसका चेहरा, मोहक मुस्कान... सुरभि का दिल तो मानों उसके पास ही रह गया था । उस हसीन मुलाकात को याद कर, हर पल उसका मन करता था कि समीर को फोन करे, पर अपना ही दिया हुआ चेलेंज भी याद आ जाता था कि “बिन मेरे फोन नम्बर और अड्रेस के ढूँढ कर दिखाओ तो मान जायेंगे।"

टेक्नोलॉजी की इस दुनिया में कुछ भी नामुमकिन नहीं है और वो तो आर्मी का स्मार्ट ऑफीसर था। तीसरे ही दिन फेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट आयी हुई थी। जिसे देख, सुरभि के अधरों पर मुस्कान फैल गयी जैसे कि मन की मुराद पूरी हो गयी हो। फोन पर बातों का सिलसिला कब शुरू हुआ, पता ही न चला । जब भी मुमकिन होता, समीर उससे मिलने दिल्ली आ जाता था । बातों में पूरा दिन कब गुजर जाता था, पता ही न चलता था । बातों - मुलाकातों के साथ-साथ वादों का दौर भी शुरू हो चुका था। समीर के घर वाले थोड़े पुराने विचारों के थे और इस बात से सुरभि को थोड़ा डर भी लगता था । इस पर वो अक्सर कहता था – “अगर घर वाले न माने, तो भगा कर ले जाऊँगा ।” इस बात पर शरमा कर सुरभि हर बार यही बात कहती – “आऊँगी तो डोली में चढ़ कर ही” और इस बात पर वो दोनों हँस पड़ते थे। लगभग दो साल का वक़्त यूँ ही कट गया ।

समीर की अगली पोस्टिंग चेन्नई हो गई थी। वहाँ जा कर शुरू में तो उन दोनों में लगभग रोज ही बात होती थी । पर वक़्त के साथ... मुलाकातों का सफ़र तो रुक ही गया था, साथ ही साथ बातें भी कम होने लगीं थीं। रोजाना होने वालीं बातें, पहले हफ्तों में, फिर महीनों में बदल गयीं । बात होती भी थी तो सुरभि को लगता था कि कुछ तो है जो समीर छुपा रहा है। कॉल्स और मेसेज का जबाब न देना तो जैसे उसकी आदत बन गयी थी । हर बार यही कहता कि काम की अधिकता की वजह से वो परेशान है । मन में अजब सी बेचैनी रहती थी, दिमाग उसकी बातों पर यकीन न करने को कहता। पर दिल .... दिल के आगे तो दिमाग कमजोर पड़ ही जाता है। फिर काफी महीनों के अंतराल के बाद उसे समीर का एक मैसेज मिला, जिसने सुरभि की पूरी जिंदगी ही बदल दी । उसमें लिखा था - सुरभि, हो सके तो मुझे भूल जाना । तुम एक बहुत ही अच्छी लड़की हो । पर शायद हमारा सफ़र इतना ही था । मुझे फोन न करना। मैंने सुमन से शादी कर ली है । "

सुमन, समीर के कॉलेज की दोस्त थी जो उससे इकतरफा प्यार करती थी । उसे उन दोनों के रिश्ते के बारे में सबकुछ पता था और वो कई बार दोनों से मिली भी थी । सुरभि को यकीन ही न हुआ कि एक लड़की दूसरी लड़की के साथ ऐसा कैसे कर सकती है? पर वो सुमन को क्या दोष देती, उसने तो अपना प्यार पा लिया था। जिस इंसान से सुरभि ने प्यार किया था और जिससे वह लगभग तीन सालों से प्यार के बँधन में बंध चुकी थी, वो ऐसा कैसे कर सकता था । न कोई लड़ाई, न शिकवा, न शिकायत ….. बस इक फैसला सुना दिया गया और एक ऐसा फैसला जिसके खिलाफ कोई सुनवाई नहीं। समीर ने ऐसा क्यों किया, ये जानने की अब उसकी इच्छा भी न थी। चलो इतना तो था कि समीर ने उसे हकीकत बता दी थी, वरना न जाने कब तक इक झूठी उम्मीद का दामन थामे वो उसका इंतजार करती । शादी तो समीर ने भाग कर ही की थी । बस …. लड़की बदल गयी थी ।

सुरभि का दिल पूरी तरह से टूट चुका था । दिल के घाव भरने के लिए उसने सारा ध्यान पढ़ाई में लगा दिया । धीरे-धीरे समय के साथ समझौता भी कर लिया । जब विनय का रिश्ता आया तो उसे इनकार करने की कोई वजह न थी । धीरे -धीरे कब विनय के प्यार, घर की जिम्मेदारियों तले ये सब बातें भूल ही गयी, उसे खुद भी पता ही न चला।

आज वही समीर फिर आँखों के सामने था । सुरभि को समझ ही न आ रहा था कि क्या बोले, बात करे भी या न करे।

शुरुआत फिर समीर ने ही की -"लगता है तुम्हें आज भी विंडो सीट उतनी ही प्यारी है । यकीन ही नहीं हो रहा था कि इतने सालों बाद हम उसी तरह मिलें हैं " और हँस दिया ।

सुरभि की आँखों में अजनबीपन देख कर बोला - "अरे ... पहचाना नहीं । मैं वही... तुम्हारा समीर। दस सालों में सब भूल गयी क्या? वैसे मेरा व्यक्तित्व ऐसा नहीं कि कोई मुझे भूल सके। " उसकी गर्व मिश्रित, आत्ममुग्ध आवाज़ में, हावभाव में, किसी भी तरह का पछतावा नहीं था । इससे पहले कि सुरभि कुछ जबाब दे पाती, उसी समय मोबाइल पर विनय का फोन आ गया । विनय को शायद अभी भी सुरभि की फिक्र हो रही थी । उसे समझाते हुए और अपना आत्मविश्वास वापिस पाते हुए सुरभि बस इतना ही बोली - "जान, फिक्र न करो। ध्यान है मुझे, किसी भी अजनबी से बात नहीं करूँगी।" फिर कुछ इधर-उधर की बातें कर उसने फोन रख दिया ।

शायद अब शिकवे - शिकायत का वक़्त गुजर चुका था । इससे पहले समीर कुछ और कहता आवाज़ को संयत कर, उसने समीर से बस इतना ही कहा - "वो समीर मर गया जिससे मैं प्यार करती थी और अजनबियों से बात करना अब मैंने छोड़ दिया है।" इतना कह कर उसने समीर की सीट खाली कर दी ।

बाकी का सफ़र, साथ-साथ पर अजनबियों की तरह सफ़र कटा । कई बार लगा समीर कनखियों से उसकी तरफ देख रहा है, पर बात करने की हिम्मत न जुटा पाया ।

समीर को नागपुर उतरना था। स्टेशन पर उतर कर उसने इक बार फिर सुरभि की तरफ देखा तो सुरभि भी हल्के से मुस्कुरा दी।

ट्रेन ने फिर से गति पकड़ ली थी... खिड़की के शीशे से सुरभि समीर को जाते हुए देख रही थी... दिल ही दिल में उससे फिर कभी न मिलने की दुआ करते हुए ।

***