यशपाल
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यशपाल
यशपाल का जन्म 3 दिसम्बर, 1903 ई. में फिरोजपुर छावनी में हुआ था। इनके पूर्वज कांगड़ा जिले के निवासी थे और इनके पिता हीरालाल को विरासत के रूप में दो—चार सौ गज तथा एक कच्चे मकान के अतिरिक्त और कुछ नहीं प्राप्त हुआ था। आरंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूल में और उच्च शिक्षा लाहौर में पाई।
इनकी माँ प्रेमदेवी ने उन्हें आर्य समाज का तेजस्वी प्रचारक बनाने की दृष्टि से शिक्षार्थ गुरुकुल कांगड़ी भेज दिया। गुरुकुल के वातावरण में बालक यशपाल के मन में विदेशी शासन के प्रति विरोध की भावना भर गयी।
यशपाल विद्यार्थी काल से ही क्रांतिकारी गतिविधियों में जुट गए थे। अमर शहीद भगतसिंह आदि के साथ मिलकर इन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया।
यशपाल की प्रमुख कृतियाँरू देशद्रोही, पार्टी कामरेड, दादा कामरेड, झूठा सच तथा मेरी, तेरी, उसकी बात (सभी उपन्यास), ज्ञानदान, तर्क का तूफान, पिंजड़े की उड़ान, फूलो का कुर्ता, उत्तराधिकारी (सभी कहानी संग्रह) और सिंहावलोकन (आत्मकथा)। मेरी, तेरी, उसकी बातश् पर यशपाल को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
यशपाल की कहानियों में सर्वदा कथा रस मिलता है। वर्ग—संघर्ष, मनोविश्लेषण और तीखा व्यंग्य इनकी कहानियों की विशेषताएँ हैं।
करवा का व्रत
कन्हैयालाल अपने दफ्तर के हमजोलियों और मित्रों से दो तीन बरस बड़ा ही था, परन्तु ब्याह उसका उन लोगों के बाद हुआ। उसके बहुत अनुरोध करने पर भी साहब ने उसे ब्याह के लिए सप्ताह—भर से अधिक छुट्टी न दी थी। लौटा तो उसके अन्तरंग मित्रों ने भी उससे वही प्रश्न पूछे जो प्रायः ऐसे अवसर पर दूसरों से पूछे जाते हैं और फिर वही परामर्श उसे दिये गये जो अनुभवी लोग नवविवाहितों को दिया करते हैं।
हेमराज को कन्हैयालाल समझदार मानता था। हेमराज ने समझाया—बहू को प्यार तो करना ही चाहिए, पर प्यार से उसे बिगाड़ देना या सिर चढ़ा लेना भी ठीक नहीं। औरत सरकश हो जाती है, तो आदमी को उम्रभर जोरू का गुलाम ही बना रहना पड़ता है। उसकी जरूरतें पूरी करो, पर रखो अपने काबू में। मार—पीट बुरी बात है, पर यह भी नहीं कि औरत को मर्द का डर ही न रहे। डर उसे जरूर रहना चाहिए... मारे नहीं तो कम—से—कम गुर्रा तो जरूर दे। तीन बात उसकी मानो तो एक में ना भी कर दो। यह न समझ ले कि जो चाहे कर या करा सकती है। उसे तुम्हारी खुशी—नाराजगी की परवाह रहे। हमारे साहब जैसा हाल न हो जाये। ...मैं तो देखकर हैरान हो गया। एम्पोरियम से कुछ चीजें लेने के लिये जा रहे थे तो घरवाली को पुकारकर पैसे लिये। बीवी ने कह दिया—श् कालीन इस महीने रहने दो। अगले महीने सहीश्, तो भीगी बिल्ली की तरह बोले श् अच्छा!श् मर्द को रुपया—पैसा तो अपने पास में रखना चाहिये। मालिक तो मर्द है।
कन्हैया के विवाह के समय नक्षत्रों का योग ऐसा था कि ससुराल वाले लड़की की विदाई कराने के लिये किसी तरह तैयार नहीं हुये। अधिक छुट्टी नहीं थी इसलिये गौने की बात श् फिरश् पर ही टल गई थी। एक तरह से अच्छा ही हुआ। हेमराज ने कन्हैया को लिखा—पढ़ा दिया कि पहले तुम ऐसा मत करना कि वह समझे कि तुम उसके बिना रह नहीं सकते, या बहुत खुशामद करने लगो।...अपनी मर्जी रखना, समझे। औरत और बिल्ली की जात एक। पहले दिन के व्यवहार का असर उस पर सदा रहता है। तभी तो कहते हैं कि श् गुर्बारा वररोजे अव्वल कुश्तनश्— बिल्ली के आते ही पहले दिन हाथ लगा दे तो फिर रास्ता नहीं पकड़ती। ...तुम कहते हो, पढ़ी—लिखी है, तो तुम्हें और भी चौकस रहना चाहिये। पढ़ी—लिखी यों भी मिजाज दिखाती है।
निःश्वार्थ—भाव से हेमराज की दी हुई सीख कन्हैया ने पल्ले बाँध ली थी। सोचा— मुझे बाजार—होटल में खाना पड़े या खुद चौका—बर्तन करना पड़े, तो शादी का लाभ क्या? इसलिए वह लाजो को दिल्ली ले आया था। दिल्ली में सबसे बड़ी दिक्कत मकान की होती है। रेलवे में काम करने वाले, कन्हैया के जिले के बाबू ने उसे अपने क्वार्टर का एक कमरा और रसोई की जगह सस्ते किराये पर दे दी थी। सो सवा साल से मजे में चल रहा था।
लाजवन्ती अलीगढ़ में आठवीं जमात तक पढी थी। बहुत—सी चीजों के शौक थे। कई ऐसी चीजों के भी जिन्हें दूसरे घरों की लड़कियों को या नयी ब्याही बहुओं को करते देख मन मारकर रह जाना पड़ता था। उसके पिता और बड़े भाई पुराने ख्याल के थे। सोचती थी, ब्याह के बाद सही। उन चीजों के लिये कन्हैया से कहती। लाजो के कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि कन्हैया का दिल इनकार करने को न करता, पर इस ख्याल से कि वह बहुत सरकश न हो जाये, दो बात मानकर तीसरी पर इनकार भी कर देता। लाजो मुँह फुला लेती। लाजो मुँह फुलाती तो सोचती कि मनायेंगे तो मान जाऊँगी, आखिर तो मनायेंगे ही। पर कन्हैया मनाने की अपेक्षा डाँट ही देता। एक—आध बार उसने थप्पड़ भी चला दिया। मनौती की प्रतीक्षा में जब थप्पड़ पड़ जाता तो दिल कटकर रह जाता और लाजो अकेले में फूट—फूटकर रोती। फिर उसने सोच लिया— श् चलो, किस्मत में यही है तो क्या हो सकता है?श् वह हार मानकर खुद ही बोल पड़ती।
कन्हैया का हाथ पहली दो बार तो क्रोध की बेबसी में ही चला था, जब चल गया तो उसे अपने अधिकार और शक्ति का अनुभव होने लगा। अपनी शक्ति अनुभव करने के नशे से बड़ा नशा दूसरा कौन होगा ? इस नशे में राजा देश—पर—देश समेटते जाते थे, जमींदार गाँव—पर—गाँव और सेठ मिल और बैंक खरीदते चले जाते हैं। इस नशे की सीमा नहीं। यह चस्का पड़ा तो कन्हैया के हाथ उतना क्रोध आने की प्रतीक्षा किये बिना भी चल जाते।
मार से लाजो को शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी, पर उससे अधिक होती थी अपमान की पीड़ा। ऐसा होने पर वह कई दिनों के लिये उदास हो जाती। घर का सब काम करती। बुलाने पर उत्तर भी दे देती। इच्छा न होने पर भी कन्हैया की इच्छा का विरोध न करती, पर मन—ही—मन सोचती रहती, इससे तो अच्छा है मर जाऊँ। और फिर समय पीड़ा को कम कर देता। जीवन था तो हँसने और खुश होने की इच्छा भी फूट ही पड़ती और लाजो हँसने लगती। सोच यह लिया था, श् मेरा पति है, जैसा भी है मेरे लिये तो यही सब कुछ है। जैसे यह चाहता है, वैसे ही मैं चलूँ।श् लाजो के सब तरह अधीन हो जाने पर भी कन्हैया की तेजी बढ़ती ही जा रही थी। वह जितनी अधिक बेपरवाही और स्वच्छन्दता लाजो के प्रति दिखा सकता, अपने मन में उसे उतना ही अधिक अपनी समझने और प्यार का संतोष पाता।
क्वार के अन्त में पड़ोस की स्त्रियाँ करवा चौथ के व्रत की बात करने लगीं। एक—दूसरे को बता रही थीं कि उनके मायके से करवे में क्या आया। पहले बरस लाजो का भाई आकर करवा दे गया था। इस बरस भी वह प्रतीक्षा में थी। जिनके मायके शहर से दूर थे, उनके यहाँ मायके से रुपये आ गए थे। कन्हैया अपनी चिठ्ठी—पत्री दफ्तर के पते से ही मँगाता था। दफ्तर से आकर उसने बताया, श् तुम्हारे भाई ने करवे के दो रुपये भेजे हैं।श्
करवे के रुपये आ जाने से ही लाजो को संतोष हो गया। सोचा, भैया इतनी दूर कैसे आते? कन्हैया दफ्तर जा रहा था तो उसने अभिमान से गर्दन कन्धे पर टेढ़ी कर और लाड़ के स्वर में याद दिलाया— श् हमारे लिए सरघी में क्या—क्या लाओगे...?श्
और लाजो ने ऐसे अवसर पर लाई जाने वाली चीजें याद दिला दीं। लाजो पड़ोस में कह आई कि उसने भी सरघी का सामान मँगाया है। करवा चौथ का व्रत भला कौन हिन्दू स्त्री नहीं करती? जनम—जनम यही पति मिले, इसलिए दूसरे व्रतों की परवाह न करने वाली पढ़ी—लिखी स्त्रियां भी इस व्रत की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।
अवसर की बात, उस दिन कन्हैया लंच की छुट्टी में साथियों के साथ कुछ ऐसे काबू में आ गया कि सवा तीन रुपये खर्च हो गये। वह लाजो का बताया सरघी का सामान घर नहीं ला सका। कन्हैया खाली हाथ घर लौटा तो लाजो का मन बुझ गया। उसने गम खाना सीखकर रूठना छोड़ दिया था, परन्तु उस साँझ मुँह लटक ही गया। आँसू पोंछ लिए और बिना बोले चौके—बर्तन के काम में लग गयी। रात के भोजन के समय कन्हैया ने देखा कि लाजो मुँह सुजाये है, बोल नहीं रही है, तो अपनी भूल कबूल कर उसे मनाने या कोई और प्रबंध करने का आश्वासन देने के बजाय उसने उसे डाँट दिया।
लाजो का मन और भी बिंध गया। कुछ ऐसा खयाल आने लगा—इन्ही के लिए तो व्रत कर रही हूँ और यही ऐसी रुखाई दिखा रहे हैं। ... मैं व्रत कर रही हूँ कि अगले जनम में भी श्इनश् से ही ब्याह हो और मैं सुहा ही नहीं रही हूँ...। अपनी उपेक्षा और निरादर से भी रोना आ गया। कुछ खाते न बना। ऐसे ही सो गयी।
तड़के पड़ोस में रोज की अपेक्षा जल्दी ही बर्तन भांडे खटकने की आवाज आने लगी। लाजो को याद आने लगा—शान्ति बता रही थी कि उसके बाबू सरघी के लिये फेनियाँ लाये हैं, तार वाले बाबू की घरवाली ने बताया था कि खोए की मिठाई लाये हैं। लाजो ने सोचा, उन मदोर्ं को खयाल है न कि हमारी बहू हमारे लिये व्रत कर रही हैय इन्हें जरा भी खयाल नहीं।
लाजो का मन इतना खिन्न हो गया कि सरघी में उसने कुछ भी न खाया। न खाने पर भी पति के नाम का व्रत कैसे न रखती। सुबह—सुबह पड़ोस की स्त्रियों के साथ उसने भी करवे का व्रत करने वाली रानी और करवे का व्रत करने वाली राजा की प्रेयसी दासी की कथा सुनने और व्रत के दूसरे उपचार निबाहे। खाना बनाकर कन्हैयालाल को दफ्तर जाने के समय खिला दिया। कन्हैया ने दफ्तर जाते समय देखा कि लाजो मुँह सुजाए है। उसने फिर डांटा— श् मालूम होता है कि दो—चार खाये बिना तुम सीधी नहीं होगी।श्
लाजो को और भी रुलाई आ गयी। कन्हैया दफ्तर चला गया तो वह अकेली बैठी कुछ देर रोती रही। क्या जुल्म है। इन्ही के लिये व्रत कर रही हूँ और इन्हें गुस्सा ही आ रहा है। ...जनम—जनम ये ही मिलें इसीलिये मैं भूखी मर रही हूँ। ...बड़ा सुख मिल रहा है न!...अगले जनम में और बड़ा सुख देंगे!...ये ही जनम निबाहना मुश्किल हे रहा है। ...इस जनम में तो इस मुसीबत से मर जाना अच्छा लगता है, दूसरे जनम के लिये वही मुसीबत पक्की कर रही हूँ...।
लाजो पिछली रात भूखी थी, बल्कि पिछली दोपहर के पहले का ही खाया हुआ था। भूख के मारे कुड़मुड़ा रही थी और उसपर पति का निर्दयी व्यवहार। जनम—जनम, कितने जनम तक उसे ऐसा ही व्यवहार सहना पड़ेगा! सोचकर लाजो का मन डूबने लगा। सिर में दर्द होने लगा तो वह धोती के आँचल सिर बाँधकर खाट पर लेटने लगी तो झिझक गई—करवे के दिन बान पर नहीं लेटा या बैठा जाता। वह दीवार के साथ फर्श पर ही लेट रही।
लाजो को पड़ोसिनों की पुकार सुनाई दी। वे उसे बुलाने आई थीं। करवा—चौथ का व्रत होने के कारण सभी स्त्रियाँ उपवास करके भी प्रसन्न थीं। आज करवे के कारण नित्य की तरह दोपहर के समय सीने—पिरोने, काढ़ने—बुनने का काम किया नहीं जा सकता थाय करवे के दिन सुई, सलाई, और चरखा छुआ नहीं जाता। काज से छुट्टी थी और विनोद के लिए ताश या जुए की बैठक जमाने का उपक्रम हो रहा था। वे लाजो को भी उसी के लिये बुलाने आयी थीं। सिर—दर्द और मन के दुःख के करण लाजो जा नहीं सकी। सिर—दर्द और बदन टूटने की बात कहकर वह टाल गयी और फिर सोचने लगी—ये सब तो सुबह सरघी खाये हुये हैं। जान तो मेरी ही निकव रही है।...फिर अपने दुःखी जीवन के कारण मर जाने का खयाल आयाऔर कल्पना करने लगी कि करवा—चौथ के दिन उपवास किये—किये मर जाये, तो इस पुण्य से जरूर ही यही पति अगले जन्म में मिले...।
लाजो की कल्पना बावली हो उठी। वह सोचने लगी—मैं मर जाऊँ तो इनका क्या है, और ब्याह कर लेंगे। जो आएगी वह भी करवाचौथ का व्रत करेगी। अगले जनम में दोनों का इन्हीं से ब्याह होगा, हम सौतें बनेंगी। सौत का खयाल उसे और भी बुरा लगा। फिर अपने—आप समाधान हो गया—नहीं, पहले मुझसे ब्याह होगा, मैं मर जाऊँगी तो दूसरी से होगा। अपने उपवास के इतने भयंकर परिणाम की चिंता से मन अधीर हो उठा। भूख अलग व्याकुल किये थी। उसने सोचा—क्यों मैं अपना अगला जनम भी बरबाद करूँ? भूख के कारण शरीर निढाल होने पर भी खाने को मन नहीं हो रहा था, परन्तु उपवास के परिणाम की कल्पना से मन मन क्रोध से जल उठाय वह उठ खड़ी हुई।
कन्हैयालाल के लिये उसने सुबह जो खाना बनाया था उसमें से बची दो रोटियाँ कटोरदान में पड़ी थीं। लाजो उठी और उपवास के फल से बचने के लिये उसने मन को वश में कर एक रोटी रूखी ही खा ली और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। मन बहुत खिन्न था। कभी सोचती—ठीक ही तो किया, अपना अगला जनम क्यों बरबाद करूँ? ऐसे पड़े—पड़े झपकी आ गई।
कमरे के किवाड़ पर धम—धम सुनकर लाजो ने देखा, रोशनदान से प्रकाश की जगह अन्धकार भीतर आ रहा था। समझ गई, दफ्तर से लौटे हैं। उसने किवाड़ खोले और चुपचाप एक ओर हट गई।
कन्हैयालाल ने क्रोध से उसकी तरफ देखा—श् अभी तक पारा नहीं उतरा! मालूम होता है झाड़े बिना नहीं उतरेगा !श्
लाजो के दुखे हुये दिल पर और चोट पड़ी और पीड़ा क्रोध में बदल गई। कुछ उत्तर न दे वह घूमकर फिर दीवार के सहारे फर्श पर बैठ गई।
कन्हैयालाल का गुस्सा भी उबल पड़ा— श् यह अकड़ है! ...आज तुझे ठीक कर ही दूँ।श् उसने कहा और लाजो को बाँह से पकड़, खींचकर गिराते हुये दो थप्पड़ पूरे हाथ के जोर से ताबड़तोड़ जड़ दिये और हाँफते हुये लात उटाकर कहा, श् और मिजाज दिखा?... खड़ी हो सीधी।श्
लाजो का क्रोध भी सीमा पार कर चुका था। खींची जाने पर भी फर्श से उठी नहीं। और मार खाने के लिये तैयार हो उसने चिल्लाकर कहा,श् मार ले, मार ले! जान से मार डाल! पीछा छूटे! आज ही तो मारेगा! मैने कौन व्रत रखा है तेरे लिये जो जनम—जनम मार खाऊंगी। मार, मार डाल...!श्
कन्हैयालाल का लात मारने के लिये उठा पाँव अधर में ही रुक गया। लाजो का हाथ उसके हाथ से छूट गया। वह स्तब्ध रह गया। मुँह में आई गाली भी मुँह में ही रह गई। ऐसे जान पड़ा कि अँधेरे में कुत्ते के धोखे जिस जानवर को मार बैठा था उसकी गुर्राहट से जाना कि वह शेर थाय या लाजो को डाँट और मार सकने का अधिकार एक भ्रम ही था। कुछ क्षण वह हाँफता हुआ खड़ा सोचता रहा और फिर खाट पर बैठकर चिन्ता में डूब गया। लाजो फर्श पर पड़ी रो रही थी। उस ओर देखने का साहस कन्हैयालाल को न हो रहा था। वह उठा और बाहर चला गया।
लाजो पर्श पर पड़ी फूट—फूटकर रोती रही। जब घंटे—भर रो चुकी तो उठी। चूल्हा जलाकर कम—से—कम कन्हैया के लिए खाना तो बनाना ही था। बड़े बेमन उसने खाना बनाया। बना चुकी तब भी कन्हैयालाल लौटा नहीं था। लाजो ने खाना ढँक दिया और कमरे के किवाड़ उड़काकर फिर फर्श पर लेट गई। यही सोच रही थी, क्या मुसीबत है जिन्दगी। यही झेलना था तो पैदा ही क्यों हुई थी?...मैने क्या किया था जो मारने लगे।
किवाड़ों के खुलने का शब्द सुनाई दिया। वह उठने के लिये आँसुओं से भीगे चेहरे को आँचल से पोंछने लगी। कन्हैयालाल ने आते ही एक नजर उसकी ओर डाली। उसे पुकारे बिना ही वह दीवार के साथ बिछी चटाई पर चुपचाप बैट गया।
कन्हैयालाल का ऐसे चुप बैठ जाना नई बात थी, पर लाजो गुस्से में कुछ न बोल रसोई में चली गई। आसन डाल थाली—कटोरी रख खाना परोस दिया और लोटे में पानी लेकर हाथ धुलाने के लिए खड़ी थी। जब पाँच मिनट हो गये और कन्हैयालाल नहीं आया तो उसे पुकारना ही पड़ा, श् खाना परस दिया है।श्
कन्हैयालाल आया तो हाथ नल से धोकर झाड़ते हुये भीतर आया। अबतक हाथ धुलाने के लिए लाजो ही उठकर पानी देती थी। कन्हैयालाल दो ही रोटी खाकर उठ गया। लाजो और देने लगी तो उसने कह दिया श् और नहीं चाहिये।श् कन्हैयालाल खाकर उठा तो रोज की तरह हाथ धुलाने के लिये न कहकर नल की ओर चला गया।
लाजो मन मारकर स्वयं खाने बैठी तो देखा कि कद्दू की तरकारी बिलकुल कड़वी हो रही थी। मन की अवस्था ठीक न होने से हल्दी—नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी लज्जा अनुभव हुई, श् हाय, इन्होंने कुछ कहा भी नहीं। यह तो जरा कम—ज्यादा हो जाने पर डाँट देते थे।श्
लाजो से दुःख में खाया नहीं गया। यों ही कुल्ला कर, हाथ धोकर इधर आई कि बिस्तर ठीक कर दे, चौका फिर समेट देगी। देखा तो कन्हैयालाल स्वयं ही बिस्तर झाड़कर बिछा रहा था। लाजो जिस दिन से इस घर में आई थी ऐसा कभी नहीं हुआ था।
लाजो ने शरमाकर कहा, श् मैं आ गई, रहने दो। किये देती हूँ।श् और पति के हाथ से दरी चादर पकड़ ली। लाजो बिस्तर ठीक करने लगी तो कन्हैयालाल दूसरी ओर से मदद करता रहा। फिर लाजो को सम्बोधित किया, श् तुमने कुछ खाया नहीं। कद्दू में नमक ज्यादा हो गया है। सुबह और पिछली रात भी तुमने कुछ नहीं खाया था। ठहरो, मैं तुम्हारे लिये दूध ले आता हूँ।श्
लाजो के प्रति इतनी चिन्ता कन्हैयालाल ने कभी नहीं दिखाई थी। जरूरत भी नहीं समझी थी। लाजो को उसने श्चीजश् समझा था। आज वह ऐसे बात कर रहा था जैसे लाजो भी इन्सान होय उसका भी खयाल किया जाना चाहिये। लाजो को शर्म तो आ ही रही थी पर अच्छा भी लग रहा था। उसी रात से कन्हैयालाल के व्यवहार में एक नरमी—सी आ गई। कड़े बोल की तो बात क्या, बल्कि एक झिझक—सी हर बात मेंय जैसे लाजो के किसी बात के बुरा मान जाने की या नाराज हो जाने की आशंका हो। कोई काम अधूरा देखता तो स्वयं करने लगता। लाजो को मलेरिया बुखार आ गया तो उसने उसे चौके के समीप नहीं जाने दिया। बर्तन भी खुद साफ कर लिये। कई दिन तो लाजो को बड़ी उलझन और शर्म महसूस हुई, पर फिर पति पर और अधिक प्यार आने लगा। जहाँ तक बन पड़ता घर का काम उसे नहीं करने देती, श्यह काम करते मर्द अच्छे नहीं लगते...।श्
उन लोगों का जीवन कुछ दूसरी ही तरह का हो गया। लाजो खाने के लिये पुकारती तो कन्हैया जिद करता, श् तुम सब बना लो, फिर एक साथ बैठकर खायेंगे।श् कन्हैया पहले कोई पत्रिका या पुष्तक लाता था तो अकेला मन—ही—मन पढ़ा करता था। अब लाजो को सुनाकर पढ़ता या खुद सुन लेता। यह भी पूछ लेता, श् तुम्हे नींद तो नहीं आ रही ? श्
साल बीतते मालूम न हुआ। फिर करवाचौथ का व्रत आ गया। जाने क्यों लाजो के भाई का मनीआर्डर करवे के लिये न पहुँचा था। करवाचौथ के पहले दिन कन्हैयालाल दफ्तर जा रहा था। लाजो ने खिन्नता और लज्जा से कहा, श् भैया करवा भेजना शायद भूल गये।श्
कन्हैयालाल ने सांत्वना के स्वर में कहा,श् तो क्या हुआ? उन्होंने जरूर भेजा होगा। डाकखाने वालों का हाल आजकल बुरा है। शायद आज आ जाये या और दो दिन बाद आये। डाकखाने वाले आजकल मनीआर्डर के पन्द्रह—पन्द्रह दिन लगा देते हैं। तुम व्रत—उपवास के झगड़े में मत पड़ना। तबियत खराब हो जाती है। यों कुछ मंगाना ही है तो बता दो, लेते आयेंगे, पर व्रत—उपवास से होता क्या है ? श् सब ढकोसले हैं।श्
श्वाह, यह कैसे हो सकता है! हम तो जरूर रखेंगे व्रत। भैया ने करवा नहीं भेजा न सही। बात तो व्रत की है, करवे की थोड़े ही।श् लाजो ने बेपरवाही से कहा।
सन्ध्या—समय कन्हैयालाल आया तो रूमाल में बँधी छोटी गाँठ लाजो को थमाकर बोला, श् लो, फेनी तो मैं ले आया हूँ, पर ब्रत—व्रत के झगड़े में नहीं पड़ना।श् लाजो ने मुस्कुराकर रूमाल लेकर आलमारी में रख दिया।
अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार कर कन्हैया को रसोई से पुकारा, श् आओ, खाना परस दिया है।श् कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी के लिये परोसा था— श् और तुम?श् उसने लाजो की ओर देखा।
श् वाह, मेरा तो व्रत है! सुबह सरघी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।श् लाजो ने मुस्कराकर प्यार से बताया।
श् यह बात...! तो हमारा भी ब्रत रहा।श् आसन से उठते हुये कन्हैयालाल ने कहा।
लाजो ने पति का हाथ पकड़कर रोकते हुये समझाया, श् क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवाचौथ का व्रत रखते हैं!...तुमने सरघी कहाँ खाई?श्
श्नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता है ।श् कन्हैया नहीं माना,श् तुम्हें अगले जनम में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!श्
लाजो पति की ओर कातर आँखों से देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था।
दुःख का अधिकार
मनुष्यों की पोशाकें उन्हें विभिन्न श्रेणियों में बाँट देती हैं। प्रायः पोशाक ही समाज में मनुष्य का अधिकार और उसका दर्जा निश्चित करती है। वह हमारे लिए अनेक बंद दरवाजे खोल देती है, परंतु कभी ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि हम जरा नीचे झुककर समाज की निचली श्रेणियों की अनुभूति को समझना चाहते हैं। उस समय यह पोशाक ही बंधन और अड़चन बन जाती है। जैसे वायु की लहरें कटी हुई पतंग को सहसा भूमि पर नहीं गिर जाने देतीं, उसी तरह खास परिस्थितियों में हमारी पोशाक हमें झुक सकने से रोके रहती है।
बाजार में, फुटपाथ पर कुछ ख़रबूजे डलिया में और कुछ जमीन पर बिक्री के लिए रखे जान पड़ते थे। ख़रबूजों के समीप एक अधेड़ उम्र की औरत बैठी रो रही थी। ख़रबूजे बिक्री के लिए थे, परंतु उन्हें खरीदने के लिए कोई कैसे आगे बढ़ता? ख़रबूजों को बेचनेवाली तो कपड़े से मुँह छिपाए सिर को घुटनों पर रखे फफक—फफककर रो रही थी।
पड़ोस की दुकानों के तख़्तों पर बैठे या बाजार में खड़े लोग घृणा से उसी स्त्री के संबंध में बात कर रहे थे। उस स्त्री का रोना देखकर मन में एक व्यथा—सी उठी, पर उसके रोने का कारण जानने का उपाय क्या था? फुटपाथ पर उसके समीप बैठ सकने में मेरी पोशाक ही व्यवधान बन खड़ी हो गई।
एक आदमी ने घृणा से एक तरफ थूकते हुए कहा, श्क्या जमाना है! जवान लड़के को मरे पूरा दिन नहीं बीता और यह बेहया दुकान लगा के बैठी है।श्
दूसरे साहब अपनी दाढ़ी खुजाते हुए कह रहे थे, श्अरे जैसी नीयत होती है अल्ला भी वैसी ही बरकत देता है।श्
सामने के फुटपाथ पर खड़े एक आदमी ने दियासलाई की तीली से कान खुजाते हुए कहा, श्अरे, इन लोगों का क्या है? ये कमीने लोग रोटी के टुकड़े पर जान देते हैं। इनके लिए बेटा—बेटी, ख़सम—लुगाई, धर्म —ईमान सब रोटी का टुकड़ा है।श्
परचून की दुकान पर बैठे लाला जी ने कहा, श्अरे भाई, उनके लिए मरे—जिए का कोई मतलब न हो, पर दूसरे के धर्म—ईमान का तो खयाल करना चाहिए! जवान बेटे के मरने पर तेरह दिन का सूतक होता है और वह यहाँ सड़क पर बाजार में आकर ख़रबूजे बेचने बैठ गई है। हजार आदमी आते—जाते हैं। कोई क्या जानता है कि इसके घर में सूतक है। कोई इसके ख़रबूजे खा ले तो उसका ईमान— धर्म कैसे रहेगा? क्या अँधेर है!श्
पास—पड़ोस की दुकानों से पूछने पर पता लगा—उसका तेईस बरस का जवान लड़का था। घर में उसकी बहू और पोता—पोती हैं। लड़का शहर के पास डेढ़ बीघा भर जमीन में कछियारी करके परिवार का निर्वाह करता था। ख़रबूजों की डलिया बाजार में पहुँचाकर कभी लड़का स्वयं सौदे के पास बैठ जाता, कभी माँ बैठ जाती।
लड़का परसों सुबह मुँह— अँधेरे बेलों में से पके ख़रबूजे चुन रहा था। गीली मेड़ की तरावट में विश्राम करते हुए एक साँप पर लड़के का पैर पड़ गया। साँप ने लड़के को डस लिया।
लड़के की बुढ़िया माँ बावली होकर ओझा को बुला लाई। झाड़ना—फूँकना हुआ। नागदेव की पूजा हुई। पूजा के लिए दान—दक्षिणा चाहिए। घर में जो कुछ आटा और अनाज था, दान—दक्षिणा में उठ गया। माँ, बहू और बच्चे श्भगवानाश् से लिपट—लिपटकर रोए, पर भगवाना जो एक दफे चुप हुआ तो फिर न बोला। सर्प के विष से उसका सब बदन काला पड़ गया था।
जिंदा आदमी नंगा भी रह सकता है, परंतु मुर्दे को नंगा कैसे विदा किया जाए? उसके लिए तो बजाज की दुकान से नया कपड़ा लाना ही होगा, चाहे उसके लिए माँ के हाथों के छन्नी—ककना ही क्यों न बिक जाएं ।
भगवाना परलोक चला गया। घर में जो कुछ चूनी—भूसी थी सो उसे विदा करने में चली गई। बाप नहीं रहा तो क्या, लड़के सुबह उठते ही भूख से बिलबिलाने लगे। दादी ने उन्हें खाने के लिए ख़रबूजे दे दिए लेकिन बहू को क्या देती? बहू का बदन बुख़ार से तवे की तरह तप रहा था। अब बेटे के बिना बुढ़िया को दुअन्नी—चवन्नी भी कौन उधार देता।
बुढ़िया रोते—रोते और आँखें पोंछते—पोंछते भगवाना के बटोरे हुए ख़रबूजे डलिया में समेटकर बाजार की ओर चली—और चारा भी क्या था?
बुढ़िया ख़रबूजे बेचने का साहस करके आई थी, परंतु सिर पर चादर लपेटे, सिर को घुटनों पर टिकाए हुए फफक—फफककर रो रही थी।
कल जिसका बेटा चल बसा, आज वह बाजार में सौदा बेचने चली है, हाय रे पत्थर—दिल!
उस पुत्र—वियोगिनी के दुःख का अंदाजा लगाने के लिए पिछले साल अपने पड़ोस में पुत्र की मृत्यु से दुःखी माता की बात सोचने लगा। वह संभ्रांत महिला पुत्र की मृत्यु के बाद अढ़ाई मास तक पलंग से उठ न सकी थी। उन्हें पंद्रह—पंद्रह मिनट बाद पुत्र—वियोग से मूर्छा आ जाती थी और मूर्छा न आने की अवस्था में आँखों से आँसू न रुक सकते थे। दो—दो डॉक्टर हरदम सिरहाने बैठे रहते थे। हरदम सिर पर बर्फ रखी जाती थी। शहर भर के लोगों के मन उस पुत्र—शोक से द्रवित हो उठे थे।
जब मन को सूझ का रास्ता नहीं मिलता तो बेचौनी से कदम तेज हो जाते हैं। उसी हालत में नाक ऊपर उठाए, राह चलतों से ठोकरें खाता मैं चला जा रहा था। सोच रहा था— शोक करने, गम मनाने के लिए भी सहूलियत चाहिए और दुःखी होने का भी एक अधिकार होता है।
होली का मजाक
बीबी जी, आप आवेंगी कि हम चाय बना दें! किलसिया ने ऊपर की मंजिल की रसोई से पुकारा।
नहीं, तू पानी तैयार कर— तीनों सेट मेज पर लगा दे, मैं आ रही हूँ। बाज आए तेरी बनाई चाय से। सुबह तीन—तीन बार पानी डाला तो भी इनकी काली और जहर की तरह कड़वी. . .। तुम्हारे हाथ डिब्बा लग जाए तो पत्ती तीन दिन नहीं चलती। सात रुपए में डिब्बा आ रहा है। मरी चाय को भी आग लग गई है। मालकिन ने किलसिया को उत्तर दिया। आलस्य अभी टूटा नहीं था। जरा और लेट लेने के लिए बोलती गईं, बेटा मंटू, तू जरा चली जा ऊपर। तीनों पॉट बनवा दे। बेटा, जरा देखकर पत्ती डालना, मैं अभी आ रही हूँ।
अम्मा जी, जरा तुम आ जाओ! हमारी समझ में नहीं आता। बर्तन सब लगा दिए हैं। सत्रह वर्ष की मंटू ने ऊपर से उत्तर दिया।
ठीक ही कह रही है लड़की, मालकिन ने सोचा। घर मेहमानों से भरा था, जैसे शादी—ब्याह के समय का जमाव हो। चीफ इंजीनियर खोसला साहब के रिटायर होने में चार महीने ही शेष थे। तीन वर्ष की एक्सटेंशन भी समाप्त हो रही थी। पिछले वर्ष बड़े लड़के और लड़की के ब्याह कर दिए थे। रिटायर होकर तो पेंशन पर ही निर्वाह करना था। जो काम अब हजार में हो जाता, रिटायर होने पर उस पर तीन हजार लगते। रिटायर होकर इतनी बड़ी, तेरह कमरे की हवेली भी नहीं रख सकते थे।
पहली होली पर लड़की जमाई के साथ आई थी। बड़ा लड़का आनंद सात दिन की छुट्टी लेकर आया था इसलिए बहू को भी बुला लिया था। आनंद की छोटी साली भी बहन के साथ लखनऊ की सैर के लिए आ गई थी। इंजीनियर साहब के छोटे भाई गोंडा जिले में किसी शुगर मिल में इंजीनियर थे। मई में उनकी लड़की का ब्याह था। वे पत्नी, साली और लड़की के साथ दहेज ख़रीदने के लिए लखनऊ आए हुए थे। खूब जमाव था।
मालकिन ऊपर पहुँची। प्लेटों में अंदाज से नमकीन और मिठाई रखी। जमाई ज्ञान बाबू के लिए बिस्कुट और संतरे रखे। साहब इस समय कुछ नहीं खाते थे। उनके लिए थोड़ी किशमिश रखी। किलसिया और सित्तो के हाथ नीचे भेजने के लिए ट्रे में चाय लगाने लगीं।
अम्मा जी, यह क्या? मंटू माँ के बायें हाथ की ओर संकेत कर झल्ला उठी, फिर वही डंडे जैसी खाली कलाइयाँ! कड़ा फिर उतार दिया! तुम्हें तो सोना घिस जाने की चिंता खाए जाती है।
नहीं मंटू. . . माँ ने समझाना चाहा।
तुम जरा ख़याल नहीं करतीं, मंटू बोलती गई, इतने लोग घर में आए हुए हैं। त्योहार का दिन है। यही तो समय होता है कि कुछ पहनने का और तुम उतार कर रख देती हो. . .।
मंटू झुँझला ही रही थी कि उसकी चाची, मालकिन की देवरानी लीला नाश्ते में सहायता देने के लिए ऊपर आ गई। उसने भी मंटू का साथ दिया, हाँ भाभी जी, त्योहार का दिन है, घर में बहू आई है, जमाई आया है, ऐसे समय भी कुछ नहीं पहना! कलाई नंगी रहे तो असगुन लगता है। सुबह तो चूड़ियाँ भी थीं, कड़ा भी था।
मालकिन ने नाश्ता बाँटने से हाथ रोककर मंटू से कहा, जा नन्हीं, दौड़कर जा, बीचवाले गुसलखाने में देख! सिर धोने लगी थी तो बालों में उलझ रहा था, वहीं उतार कर रख दिया था। जहाँ मंजन—वंजन पड़ा रहता है, वहीं रखा था। लाकर पहना दे!
मंटू जी ने धड़धड़ाती हुई नीचे गई। गुसलखाने में देखकर उसने वहीं से पुकारा, अम्मा जी, यहाँ कुछ नहीं है।
मालकिन ने मंटू की बात सुनी तो चेहरे पर चिंता झलक आई। देवरानी से बोलीं, लीला, मेरे बाद तुम नहाई थी न। तुमने नहीं देखा! आलमारी में रख दिया था। और फिर वहीं बैठे—बैठे मंटू को उत्तर दिया, अच्छा बेटी, जरा अपने कमरे में तो देख ले! ड्रेसिंग टेबल की दराज में देख लेना, कपड़े वहीं पहने थे!
लीला की बहन कैलाश भी आ गई थी। उसने भी पूछ लिया, क्या है, क्या नहीं मिल रहा?
लीला को भाभी की बात अच्छी नहीं लगी। चेहरा गंभीर हो गया। उसने तुरंत अपनी बहन को संबोधन किया, काशो, हम दोनों तो नीचे के गुसलखाने में नहाने गई थीं. . .।
मालकिन ने देवरानी के बुरा मान जाने की आशंका में तुरंत बात बदली, मैं तो कह रही हूँ कि तू वहाँ नहाई होती तो उठाकर सँभाल लिया होता।
भाभी की बात से लीला को संतोष नहीं हुआ। उसने फिर कैलाश को याद दिलाया, काशो, मैं बीच के गुसलखाने में जा रही थी तो किलसिया ने नहीं कहा था कि बहू का साबुन—तौलिया और उसके लिए गरम पानी रख दिया है। आपके बाद तो कुसुम ही नहाई थी। सँभाल कर रखा होगा तो उसी के पास होगा।
बीच की मंजिल से फिर मंटू की पुकार सुनाई दी, अम्मा जी, यहाँ भी नहीं है, मैंने सब देख लिया है।
मालकिन ने कैलाश से कहा, काशो बहन, तू जा नीचे, मंटू से कह कि जरा कुसुम से पूछ ले। उसने सँभाल लिया होगा। मुझे तो यही याद है कि गुसलखाने की आलमारी में रखा था।
कैलाश नीचे जा रही थी तो लीला ने मालकिन को सुझाया, भाभी जी, आपके बाद. . .। किलसिया कमरे में आ गई थी। बोली, गोल कमरे में चाय दे दी है। बड़े साहब, जमाई बाबू और बड़े भैया तीनों वहीं पी रहें हैं। पकौड़ी लौटा दी है, कोई नहीं खाएगा। बहू जी, उनकी बहन और बड़ी बिटिया भी चाय नीचे मँगा रही हैं।
सित्तो क्या कर रही है? मालकिन ने किलसिया से पूछा।
नीचे के गुसलखाने में कपड़े धो रही है।
किलसिया बहू, उनकी बहन और बड़ी बिटिया के लिए चाय लेकर चली तो बोली, आपके बाद कुसुम से पहले किलसिया भी तो गुसलखाने में गई थी। उसी ने तो आपके कपड़े उठाकर कुसुम के लिए साबुन—तौलिया रखा था। लीला ने स्वर दबा कर कहा।
भाभी जी, मैंने आपसे कहा नहीं पर किलसिया की आदत अच्छी नहीं है। पहले भी देखा, इस बार भी दो बार पैसे उठ चुके हैं। परसों मैंने मेज की दराज में एक रुपया तेरह आना रख दिए थे, चार आने चले गए। श्इनकेश् कोट की जेब में रुपए—रुपए के सत्ताइस नोट थे, एक रुपया उड़ गया। कमरे किलसिया ही साफ करती है। मैंने सोचा, इतनी—सी बात के लिए मैं क्या कहूँ?
मालकिन ने समझाया, तू भी क्या कहती है लीला! आठ आने, रुपए की बात मैं मानती हूँ, मरी उठा लेती होगी पर पाँच तोले का कड़ा उठा ले, ऐसी हिम्मत कहाँ? मरी बेचने जाएगी तो पकड़ी नहीं जाएगी?
मंटू और कैलाश ने आकर बताया, कुसुम भाभी कहती हैं कि उन्होंने तो कड़ा देखा नहीं।
सित्तो ने कपड़े धोकर सामने की छत पर लगे तारों पर फैला दिए थे। उसने वहीं से मालकिन को पुकारा, बीबी जी, सब काम हो गया, अब हम जाएँ!
किलसिया फिर ऊपर आ गई थी। वह भी बोली, हमें भी छुट्टी दीजिए, त्योहार का दिन है, जरा घर की भी सुध लें।
जाना बाद में, मालकिन बोलीं, देखो, हमने सिर धोया था तो कड़ा उतार की गुसलखाने की अलमारी में रख दिया था। पहले ढूंढ़ कर लाओ, तब कोई घर जाएगा।
किलसिया ने तुरंत विरोध किया, हम क्या जाने, हमें तो जिसने जो कपड़ा दिया गुसलखाने में रख दिया। रंग से ख़राब कपड़े उठा कर धोबी वाली पिटारी में डाल दिए। हमने छुआ हो तो हमारे हाथ टूटें।
सित्तो ने दुहाई दी, हाय बीबी जी, हम तो बीच के गुसलखाने में गई ही नहीं। हम तो सुबह से महाराज के साथ बर्तन—भांडे में लगी रहीं और तब से नीचे कपड़े धो रही थीं।
ख़ामख़्वाह क्यों बकती हो! मालकिन ने दोनों को डाँट दिया, मैं किसी को कुछ कह रही हूँ? कड़ा गुस्लख़ाने में रखा था, पाँच तोले का है, कोई मजाक तो है नहीं! किसकी हिम्मत है जो पचा लेगा!
घर भर में चिंता फैल गई। सब ओर खुसुर—फुसुर होने लगी। बात मदोर्ं में भी पहुँच गई। जमाई ज्ञान बाबू ने पुकारा, क्यों मंटा बहन जी, क्या बात है? माँ जी, मंटा ने छिपा लिया है। कहती है पाँच चाकलेट दोगी तो ढूंढ देगी।
मंटा ने विरोध किया, हाय जीजा जी, कितना झूठ! मैंने कब कहा? मैं तो खुद सब जगह ढूँढ़ती फिर रही हूँ।
बड़ा लड़का आनंद भी बोल उठा, अम्मा जी, याद भी है कि कड़ा पहना था। कहीं स्टील वाली अलमारी में ही तो नहीं पड़ा है। तुम घर भर ढूँढ़वा रही हो। तुम भूल भी तो जाती हो। चाभियाँ रखती हो ड्रेसिंग टेबल की दराज में छिपाकर और ढूँढ़ती हो रसोई में।
मालकिन ने जीना उतरते हुए बेटे को उत्तर दिया, तुम भी क्या कह रहे हो? कल शाम लीला के साथ दाल धो रही तो बायें हाथ से घड़ी खोल कर रख दी थी। मंटू ने शोर मचाया,खाली कलाई अच्छी नहीं लगती। वही घड़ी नीचे रखकर कड़ा ले आई थी।
बड़ी लड़की ने माँ का समर्थन किया, क्या कह रहे हो भैया, सुबह भी कड़ा अम्मा जी के हाथ में था। हमने खुद देखा है।
कैलाश ने भी वीणा का समर्थन किया, सुबह मिश्रानी जी के यहाँ गई थीं, तब भी कड़ा हाथ में था। मिश्रानी जी ने नहीं कहा था कि बहुत दिनों बाद पहना है!
सित्तो ने दोनों गुसलखाने अच्छी तरह देखे। फिर महाराज के साथ रसोई में सब जगह देख रही थी। किलसिया सब कमरों में जा—जाकर ढूंढ़ रही थी। न देखने लायक जगह में भी देख रही थी और बड़बड़ाती जा रही थी, बीबी जी चीज—बस्त खुद रख कर भूल जाती हैं और हम पर बिगड़ा करती हैं।
बात घर में फैल गई थी। बड़े साहब और छोटे साहब ने भी सुन लिया था। दोनों ही इस विषय में जिज्ञासा कर चुके थे। छोटे साहब भाभी से अंग्रेजी में पूछ रहे थे, आपके नहाने के बाद नौकरों में से कोई घर के बाहर गया था या नहीं? सभी सहमे हुए थे। स्त्रियाँ, लड़कियाँ सब आँगन में इकट्ठी हो गई थीं। दबे—दबे स्वर में नौकरों के चोरी लगने के उदाहरण बता रही थीं। अब मालकिन भी घबरा गईं थीं। देवरानी ने उनके समीप आकर फिर कहा, देखा नहीं भाभी, किलसिया कसमें तो बहुत खा रही थी पर चेहरा उतर गया है।
यहाँ आकर तो देखिए! किलसिया ने बड़े साहब के कमरे से चिक उठाकर पुकारा।
क्यों, क्या है? मंटा और वीणा ने एक साथ पूछ लिया।
हम कह रहे हैं, यहाँ तो आइए! किलसिया ने कुछ झुँझलाहट दिखाई। वीणा और मंटा उधर चली गईं।
दोनों बहनें कमरे से बाहर निकलीं तो मुँह छिपाए दोहरी हुई जा रही थीं। हँसी रोकने के लिए दोनों ने मुँह पर आँचल दबा लिए थे।
किलसिया कमरे से निकली तो भवें चढ़ाकर ऊँचे स्वर में बोल उठीं, रात साहब के तकिये के नीचे छोड़ आईं। घर भर में ढुँढ़ाई करा रही हैं।
पापा के तकिये के नीचे। मंटा ने हँसी से बल खाते हुए कह ही दिया।
लीला, कुसुम, कैलाश, नीता सबके चेहरे लाज से लाल हो गए। सब मुँह छिपा कर फिस—फिस करती इधर से उधर भाग गईं।
मालकिन का चेहरा खिसियाहट से गंभीर हो गया। अवाक निश्चल रह गईं। वीणा से ज्ञान बाबू ने अर्थपूर्ण ढंग से खाँस कर कहा, कड़ा मिलने की तो डबल मिठाई मिलनी चाहिए।
छोटे बाबू से भी रहा नहीं गया, बोल उठे, भाभी, क्या है?
गोल कमरे से बड़े साहब की भी पुकार सुनाई दी, मिल गया, मंटू कहाँ से मिला है?
मंटू मुँह में आँचल ठूँसे थी, कैसे उत्तर देती?
छोटे साहब फिर बोले, भाभी, भैया क्या पूछ रहे हैं?
मालकिन खिसियाहट से बफरी हुई थीं, क्या बोलतीं?
लीला ने हँसी दबाकर भाभी के काम न में कहा, देखा चालाक को, कहाँ जाकर रख दिया। तभी ढूँढ़ती फिर रही थी।
जेवर चोरी की बात पड़ोसी मिश्रा जी के यहाँ भी पहुँच गई थी। मिश्राइन जी ने आकर पूछ लिया, मंटू की माँ, क्या बात है, क्या हुआ?
कुछ नहीं, कुछ नहीं। मालकिन को बोलना पड़ा, ख़ामख़्वाह शोर मचा दिया।
कुसुम से रहा नहीं गया। अपने कमरे से झाँक कर बोली, ताई जी, किलसिया ने अम्मा जी के साथ होली का मजाक किया है।
परदा
चौधरी पीरबख्श के दादा चुंगी के महकमे में दारोगा थे । आमदनी अच्छी थी । एक छोटा, पर पक्का मकान भी उन्होंने बनवा लिया । लड़कों को पूरी तालीम दी । दोनों लड़के एण्ट्रेन्स पास कर रेलवे में और डाकखाने में बाबू हो गये । चौधरी साहब की जिन्दगी में लडकों के ब्याह और बाल—बच्चे भी हुए, लेकिन ओहदे में खास तरक्की न हुईय वही तीस और चालीस रुपये माहवार का दर्जा ।
अपने जमाने की याद कर चौधरी साहब कहते—श्श्वो भी क्या वक्त थे ! लोग मिडिल पास कर डिप्टी—कलेक्टरी करते थे और आजकल की तालीम है कि एण्ट्रेन्स तक अंग्रेजी पढ़कर लड़के तीस—चालीस से आगे नहीं बढ पाते ।श्श् बेटों को ऊँचे ओहदों पर देखने का अरमान लिये ही उन्होंने आँखें मूंद लीं ।
इंशा अल्ला, चौधरी साहब के कुनबे में बरक्कत हुई । चौधरी फजल कुरबान रेलवे में काम करते थे । अल्लाह ने उन्हें चार बेटे और तीन—बेटियां दीं। चौधरी इलाही बख्श डाकखाने में थे । उन्हें भी अल्लाह ने चार बेटे और दो लड़कियाँ बख्शीं ।
चौधरी—खानदान अपने मकान को हवेली पुकारता था । नाम बड़ा देने पर जगह तंग ही रही । दारोगा साहब के जमाने में जनाना भीतर था और बाहर बैठक में वे मोढ़े पर बैठ नैचा गुड़गुड़ाया करते । जगह की तंगी की वजह से उनके बाद बैठक भी जनाने में शामिल हो गयी और घर की ड्योढ़ी पर परदा लटक गया। बैठक न रहने पर भी घर की इज्जत का ख्याल था, इसलिए पर्दा बोरी के टाट का नहीं, बढ़िया किस्म का रहता ।
जाहिर है, दोनों भाइयों के बाल—बच्चे एक ही मकान में रहने पर भी भीतर सब अलग—अलग था । डयोढ़ी का पर्दा कौन भाई लाये? इस समस्या का हल इस तरह हुआ कि दारोगा साहब के जमाने की पलंग की रंगीन दरियाँ एक के बाद एक डयोढ़ी में लटकाई जाने लगीं ।
तीसरी पीढ़ी के ब्याह—शादी होने लगे । आखिर चौधरी—खानदान की औलाद को हवेली छोड़ दूसरी जगहें तलाश करनी पड़ी । चौधरी इलाही बख्श के बड़े साहबजादे एण्ट्रेन्स पास कर डाकखाने में बीस रुपये की क्लर्की पा गये । दूसरे साहबजादे मिडिल पास कर अस्पताल में कम्पाउण्डर बन गये ।ज्यों—ज्यों जमाना गुजरता जाता, तालीम और नौकरी दोनों मुश्किल होती जातीं तीसरे बेटे होनहार थे । उन्होंने वजीफा पाया । जैसे—तैसे मिडिल कर स्कूल में मुदर्रिस हो देहात चले गये ।
चौथे लड़के पीरबख्श प्राइमरी से आगे न बढ़ सके । आजकल की तालीम माँ—बाप पर खर्च के बोझ के सिवा और है क्या? स्कूल की फीस हर महीने, और किताबों, कापियों और नक्शों के लिए रुपये—ही—रुपये!
चौधरी पीरबख्श का भी ब्याह हो गया मौला के करम से बीबी की गोद भी जल्दी ही भरी । पीरबख्श ने रौजगार के तौर पर खानदान की इज्जत के ख्याल से एक तेल की मिल में मुंशीगिरी कर लीं । तालीम ज्यादा नहीं तो क्या, सफेदपोश खानदान की इज्जत का पास तो था । मजदूरी और दस्तकारी उनके करने की चीजें न थीं । चौकी पर बैठते । कलम—दवात का काम था ।
बारह रुपया महीना अधिक नहीं होता । चौधरी पीरबख्श को मकान सितवा की कच्ची बस्ती में लेना पड़ा । मकान का किराया दो रुपया था । आसपास गरीब और कमीने लोगों की बस्ती थी । कच्ची गली के बीचों—बीच, गली के मुहाने पर लगे कमेटी के नल से टपकते पानी की काली धार बहती रहती, जिसके किनारे घास उग आयी थी । नाली पर मच्छरों और मक्खियों के बादल उमड़ते रहते । सामने रमजानी धोबी की भट्ठी थी, जिसमें से धुँआँ और सज्जी मिले उबलते कपड़ों की गंध उड़ती रहती । दायीं ओर बीकानेरी मोचियों के घर थे । बायीं ओर वर्कशाप में काम करने वाले कुली रहते ।
इस सारी बस्ती में चौधरी पीरबख्श ही पढ़े—लिखे सफेदपोश थे । सिर्फ उनके ही घर की डयोढ़ी पर पर्दा था । सब लोग उन्हें चौधरीजी, मुंशीजी कहकर सलाम करते । उनके घर की औरतों को कभी किसी ने गली में नहीं देखा । लड़कियाँ चार—पाँच बरस तक किसी काम—काज से बाहर निकलती और फिर घर की आबरू के ख्याल से उनका बाहर निकलना मुनासिब न था। पीर बख्श खुद ही मुस्कुराते हुए सुबह—शाम कमेटी के नल से घड़े भर लाते ।
चौधरी की तनख्वाह पद्रह बरस में बारह से अठारह हो गयी । खुदा की बरक्कत होती है, तो रुपये—पैसे की शक्ल में नहीं, आल—औलाद की शक्ल में होती है । पंद्रह बरस में पाँच बच्चे हुए । पहलै तीन लड़कियाँ और बाद में दो लड़के ।
दूसरी लड़की होने को थी तो पीरबख्श की वाल्दा मदद के लिए आयीं । वालिद साहब का इंतकाल हो चुका था । दूसरा कोई भाई वाल्दा की फिक्र करने आया नहींय वे छोटे लड़के के यहाँ ही रहने लगीं ।
जहाँ बाल—बच्चे और घर—बार होता है, सौ किस्म की झंझटें होती ही हैं । कभी बच्चे को तकलीफ है, तो कभी जच्चा को । ऐसे वक्त में कर्ज की जरूरत कैसे न हो ? घर—बार हो, तो कर्ज भी होगा ही ।
मिल की नौकरी का कायदा पक्का होता है । हर महीने की सात तारीख को गिनकर तनख्वाह मिल जाती है । पेशगी से मालिक को चिढ़ है । कभी बहुत जरूरत पर ही मेहरबानी करते । जरूरत पड़ने पर चौधरी घर की कोई छोटी—मोटी चीज गिरवी रख कर उधार ले आते । गिरवी रखने से रुपये के बारह आने ही मिलते । ब्याज मिलाकर सोलह अॉने हो जाते और फिर चीज के घर लौट आने की सम्भावना न रहती ।
मुहल्ले में चौधरी पीरबख्श की इज्जत थी । इज्जत का आधार था, घर के दरवाजे़ पर लटका पर्दा । भीतर जो हो, पर्दा सलामत रहता । कभी बच्चों की खींचखाँच या बेदर्द हवा के झोंकों से उसमें छेद हो जाते, तो परदे की आड़ से हाथ सुई—धागा ले उसकी मरम्मत कर देते ।
दिनों का खेल ! मकान की डयोढ़ी के किवाड़ गलते—गलते बिलकुल गल गये । कई दफे़ कसे जाने से पेच टूट गये और सुराख ढीले पड़ गये । मकान मालिक सुरजू पांडे को उसकी फिक्र न थी । चौधरी कभी जाकर कहते—सुनते तो उत्तर मिलता——श्श्कौन बड़ी रकम थमा देते हो ? दो रुपल्ली किराया और वह भी छः—छः महीने का बकाया । जानते हो लकड़ी का क्या भाव है । न हो मकान छोड़ जाओ ।श्श् आखिर किवाड़ गिर गये । रात में चौधरी उन्हें जैसे—तैसे चौखट से टिका देते । रात—भर दहशत रहती कि कहीं कोई चोर न आ जाये ।
मुहल्ले में सफे़दपोशी और इज्जत होने पर भी चोर के लिए घर में कुछ न था । शायद एक भी साबित कपड़ा या बरतन ले जाने के लिए चोर को न मिलताय पर चोर तो चोर है । छिनने के लिए कुछ न हो, तो भी चोर का डर तो होता ही है । वह चोर जो ठहरा !
चोर से ज्यादा फिक्र थी आबरू की । किवाड़ न रहने पर पर्दा ही आबरू का रखवारा था । वह परदा भी तार—तार होते—होते एक रात आँधी में किसी भी हालत में लटकने लायक न रह गया । दूसरे दिन घर की एकमात्र पुश्तैनी चीज दरी दरवाजे पर लटक गयी । मुहल्लेवालों ने देखा और चौधरी को सलाह दी—श्अरे चौधरी, इस जमाने में दरी यों—काहे खराब करोगे? बाजार से ला टाट का टुकडा न लटका दो! श् पीरबख्श टाट की कीमत भी आते—जाते कई दफे़ पूछ चुके थे । दो गज टाट आठ आने से कम में न मिल सकता था । हँसकर बोले—श्श्होने दो क्या है? हमारे यहाँ पक्की हवेली में भी ड्योढी पर दरी का ही पर्दा रहता था । श्श्
कपड़े की महँगाई के इस जमाने में घर की पाँचों औरतों के शरीर से कपड़े जीर्ण होकर यों गिर रहे थे, जैसे पेड़ अपनी छाल बदलते हैंय पर चौधरी साहब की आमदनी से दिन में एक दफे़ किसी तरह पेट भर सकने के लिए आटा के अलावा कपड़े की गुंजाइश कहाँ? खुद उन्हें नौकरी पर जाना होता । पायजा मे मे जब पैबन्द सँभालने की ताब न रही, मारकीन का एक कुर्ता—पायजामा जरूरी हो गया, पर लाचार थे ।
गिरवी रखने के लिए घर में जब कुछ भी न हो,गरीब का एक मात्र सहायक है पंजाबी खान । रहने की जगह—भर देखकर वह रुपया उधार दे सकता है । दस महीने पहले गोद के लड़के बर्कत के जन्म के समय पीरबख्श को रुपये की जरूर आ पड़ी । कहीं और कोई प्रबन्ध न हो सकने के कारण उन्होंने पंजाबी खान बबर
अलीखाँ से चार रुपये उधार ले लिये थे ।
बबर अलीखाँ का रोजगार सितवा के उस कच्चे मुहल्ले में अच्छा—खासा चलता था । बीकानेरी मोची, वर्कशाप के मजदूर और कभी—कभी रमजानी धोबी सभी बबर मियाँ से कर्ज लेते रहते । कई दफे़ चौधरी परिबख्श ने बबर अली को कर्ज और सूद की किश्त न मिलने पर अपने हाथ के डंडे से ऋणी का दरवाजा पीटते देखा था । उन्हें साहूकार और ऋणी में बीच—बचौवल भी करना पड़ा था ।
खान को वे शैतान समझते थे, लेकिन लाचार हो जाने पर उसी की शरण लेनी पड़ी । चार आना रुपया महीने पर चार रुपया कर्ज लिया । शरीफ खानदानी, मुसलमान भाई का ख्याल कर बबर अली ने एक रुपया माहवार की किश्त मान ली । आठ महीने में श्कर्ज अदा होना तय हुआ ।
खान की किश्त न दे सकने की हालत में अपने घर के दरवाजे़ पर फजीहत हो जाने की बात का ख्याल कर चौधरी के रोएँ खडे़ हो जाते । सात महीने फाका करके भी वे किसी तरह से किश्त देते चले गयेय लेकिन जब सावन में बरसात पिछड़ गयी और बाजरा भी रुपये का तीन सेर मिलने लगा,किश्त देना संभव न रहा । खान सात तारीख की शाम को ही आया। चौधरी परिबख्श ने खान की
दाढ़ी छू और अल्ला की कसम खा एक महीने की मुआफी चाही । अगले महीने एक का सवा देने का वायदा किया । खान टल गया ।
भादों में हालत और भी परेशानी की हो गयी । बच्चों की माँ की तबीयत रोज—रोज गिरती जा रही थी । खाया—पिया उसके पेट में न ठहरता । पथ्य के लिए उसको गेहूँ की रोटी देना जरूरी हो गया। गेहूँ मुश्किल से रुपये का सिर्फ ढाई सेर मिलता । बीमार का जी ठहरा, कभी प्याज के टुकड़े या धनिये की खुशबू के लिए ही मचल जाता। कमी पैसे की सौंफ, अजवायन, काले नमक की ही जरूरत हो, तो पैसे की कोई चीज मिलती ही नहीं । बाजार में ताँबे का नाम ही नहीं रह गया । नाहक इकन्नी निकल जाती है। चौधरी को दो रुपये महंगाई—भत्ते के मिलेय पर पेशगी लेते—लेते तनख्वाह के दिन केवल चार ही रुपये हिसाब में निकले ।
बच्चे पिछले हफ्ते लगभग फाके—से थे । चौधरी कभी गली से दो पैसे की चौराई खरीद लाते, कभी बाजरा उबाल सब लोग कटोरा—कटोरा—भर पी लेते । बड़ी कठिनता से मिले चार रुपयों में से सवा रुपया खान के हाथ में धर देने की हिम्मत चौधरी को न हुई ।
मिल से घर लौटते समय वे मंडी की ओर टहल गये। दो घंटे बाद जब समझा, खान टल गया होगा और अनाज की गठरी ले वे घर पहुंचे । खान के भय से दिल डूब रहा था, लेकिन दूसरी ओर चार भूखे बच्चों, उनकी माँ, दूध न उतर सकने के कारण सूखकर काँटा हो रहे गोद के बच्चे और चलने—फिरने से लाचार अपनी जईफ माँ की भूख से बिलबिलाती सूरतें आखों के सामने नाच जातीं । धड़कते हुए हृदय से वे कहते जाते—श्श्मौला सब देखता है, खैर करेगा ।श्श्
सात तारीख की शाम को असफल हो खान आठ की सुबह तड़के चौधरी के मिल चले जाने से पहले ही अपना डंडा हाथ में लिये दरवाजे पर मौजूद हुआ ।
रात—भर सोच—सोचकर चौधरी ने खान के लिए बयान तैयार किया। मिल के मालिक लालाजी चार रोज के लिए बाहर गये हैं। उनके दस्तखत के बिना किसी को भी तनख्वाह नहीं मिल सकी । तनख्वाह मिलते ही वह सवा रुपया हाजिर करेगा । माकूल वजह बताने पर भी खान बहुत देर तक गुर्राता रहा—श्श्अम वतन चोड़ के परदेस में पड़ा है—ऐसे रुपिया चोड़ देने के वास्ते अम यहाँ नहीं आया है, अमारा भी बाल—बच्चा है । चार रोज में रुपिया नई देगा, तो अब तुमारा.... कर देगा ।श्श्
पाँचवें दिन रुपया कहाँ से आ जाता ! तनख्वाह मिले अभी हफ्ता भी नहीं हुआ । मालिक ने पेशगी देने से साफ इनकार कर दिया । छठे दिन किस्मत से इतवार था । मिल में छुट्टी रहने पर भी चौधरी खान के डर से सुबह ही बाहर निकल गये । जान—पहचान के कई आदमियों के यहाँ गये । इधर—उधर की बातचीत कर
वे कहते——श्श्अरे भाई, हो तो बीस आने पैसे तो दो—एक रोज के लिए देना । ऐसे ही जरूरत आ पड़ी है । श्श्
उत्तर मिला—श्श्मियाँ, पैसे कहाँ इस जमाने में! पैसे का मोल कौड़ी नहीं रह गया । हाथ में आने से पहले ही उधार में उठ गया तमाम !श्श्
दोपहर हो गयी । खान आया भी होगा, तो इस वक्त तक बैठा नहीं रहेगा——— चौधरी ने सोचा, और घर की तरफ चल दिये । घर पहुँचने पर सुना खान आया था और घण्टे—भर तक डचोढी पर लटके दरी के परदे को डंडे से ठेल—ठेलकर गाली देता रहा है ! परदे की आड़ से बड़ी बीबी के बार—बार खुदा की कसम खा यकीन.दिलाने पर कि चौधरी बाहर गये हैं, रुपया लेने गये हैं, खान गाली देकर कहता—श्श्नई, बदजात चोर बीतर में चिपा है! अम चार घंटे में पिर आता है । रुपिया लेकर जायेगा ।रुपिया नई देगा, तो उसका खाल उतारकर बाजार में बेच देगा ।...हमारा रुपिया क्या अराम का है? श्श्
चार घंटे से पहले ही खान की पुकार सुनाई दी——श्श्चौदरी! श्श् पीरबख्शश् के शरीर में बिजली—सी दौड़ गयी और वे बिलकुल निस्सत्त्व हो गये, हाथ—पैर सुन्न और गला खुश्क ।
गाली दे परदे को ठेलकर खान के दुबारा पुकारने पर चौधरी का शरीर— निर्जीवप्राय होने पर भी निश्चेष्ट न रह सका । वे उठकर बाहर आ गये । खान आग—बबूला हो रहा था——श्श्पैसा नहीं देने का वास्ते चिपता है!... श्श्एक—से—एक बढ़ती हुई तीन गालियाँ एक—साथ खान के मुँह से पीरबख्श के पुरखों—पीरों के नाम निकल गयीं । इस भयंकर आघात से परिबख्श का खानदानी रक्त भड़क
उठने के बजाय और भी निर्जीव हो गया । खान के घुटने छू, अपनी मुसीबत बता वे मुआफी के लिए खुशामद करने लगे ।
खान की तेजी बढ़ गयी । उसके ऊँचे स्वर से पड़ोस के मोची और मजदूर चौधरी के दरवाजे़ के सामने इकट्ठे हो गये । खान क्रोध में डंडा फटकारकर कह रहा था——श्श्पैसा नहीं देना था, लिया क्यों ? तनख्वाह किदर में जाता ? अरामी अमारा पैसा मारेगा । अम तुमारा खाल खींच लेगा.। पैसा नई है, तो घर पर परदा लटका के शरीफजादा कैसे बनता ?.. .तुम अमको बीबी का गैना दो, बर्तन दो, कुछ तो भी दो, अम ऐसे नई जायेगा । श्श्
बिलकुल बेबस और लाचारी में दोनों हाथ उठा खुदा से खान के लिए दुआ माँग पीरबख्श ने कसम खायी, एक पैसा भी घर में नहीं, बर्तन भी नहीं, कपड़ा भी नहींय खान चाहे तो बेशक उसकी खाल उतारकर बेच ले ।
खान और आग हो गया—श्श्अम तुमारा दुआ क्या करेगा ? तुमारा खाल क्या करेगा ? उसका तो जूता भी नई बनेगा । तुमारा खाल से तो यह टाट अच्चा ।श्श् खान नेश् ड्योढी पर लटका दरी का पर्दा झटक लिया । ड्योढी से परदा हटने के साथ ही, जैसे चौधरी के जीवन की डोर टूट गयी । वह डगमगाकर जमीन पर गिर पड़े ।
इस दृश्य को देख सकने की ताब चौधरी में न थी, परन्तु द्वार पर खड़ी भीड़ ने देखा—घर की लड़कियाँ और औरतें परदे के दूसरी ओर घटती घटना के आतंक से आंगन के बीचों—बीच इकट्ठी हो खड़ी काँप रही थीं । सहसा परदा हट जाने से औरतें ऐसे सिकुड गयीं, जैसे उनके शरीर का वस्त्र खींच लिया गया हो । वह परदा ही तो घर—भर की औरतों के शरीर का वस्त्र था । उनके शरीर पर बचे चीथड़े उनके एक—तिहाई अंग ढंकने में भी असमर्थ थे !
जाहिल भीड़ ने घृणा और शरम से आँखें फेर लीं । उस नाग्नता की झलक से खान की कठोरता भी पिघल गयी । ग्लानि से थूक, परदे को आंगन में वापिस फेंक, क्रुद्ध निराशा में उसने श्श्लाहौल बिला...!श्श् कहा और असफल लौट गया ।
भय से चीखकर ओट में हो जाने केलिए भागती हुई औरतों पर दया कर भीड़ छँट गयी । चौधरी बेसुध पड़े थे । जब उन्हें होश आया, ड्योढ़ी का परदा आंगन में सामने पड़ा थाय परन्तु उसे उठाकर फिर से लटकादेने का सामर्थ्य उनमें शेष न था । शायद अब इसकी आवश्यकता भी न रही थी । परदा जिस भावना का अवलम्ब था, वह मर चुकी थी ।