Apna Gharonda in Hindi Short Stories by Jahnavi Suman books and stories PDF | अपना घरोंदा

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अपना घरोंदा

अपना घरौंदा

सुमन शर्मा

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अपना घरौंदा

देवकी के घर का वातावरण इस शनिवार को कुछ भिन्न सा था । आज घर को किसी भी हालत में खाली करना ही था। नए मकान मालिक के सामान से लदा हुआ ट्रक किसी भी समय बेंगलुरु से दिल्ली पहुँचने ही वाला था । घर का अधिकाँश सामान तो बेचा जा चुका था, बस कुछ ऐसा सामान बाकि रह गया था, जो देवकी के ह्रदय को अति प्रिय था और वह उन्हें किसी भी कीमत पर बेचना नहीं चाहती थी । घर से उस सामान को निकाल कर बेटे दुष्यंत की गाडी में रखना था और दुष्यंत का ड्रॉइवर यह काम बडी तत्परता से कर रहा था ।

देवकी तब तक हर सामान को टकटकी लगाए देखती रहती थी, जब तक ड्राइवर उन्हे कार में नहीं रख देता था । हर सामान के साथ न जाने कितनी यादें जुडी थीं, जिन्हें देवकी की आँखों से टपकते आँसू और अधिक उज्जवल कर रहे थे।

सारा सामान बाहर निकल गया तब देवकी को लगा जैसे किसी ने उसके शरीर से सारी शक्ति ही खींच ली हो । उसने आखिरी बार अपने घर को जी भर कर देख लेने की इच्छा से आँखों से अश्रु पोंछे और धीमें कदमों से घर का चक्कर लगाया।

कितने यत्न से बनवाया था, यह घर उसने । घर की एक—एक ईंट गवाहथी, उसकी लग्न की, उसकी मेहनत की । सर्दी गर्मी या हो बारिश डट कर खडी रहती थी, सामने वाली सडक पर मजदूरों के आने से पहले आ जाती थी और उनके काम समाप्त करने के बाद ही बैठ कर, चौन साँस लेती थी । आज से यह घर किसी और का हो जायेगा ? अपना शयन कक्ष, अपनी रसोई, अपना पूजा का छोटा सा कमरा और प्यारी सी बालकनी, कल तक जो उसका था आज कैसे पल भर में पराया हो गया । उसके अपने हाथों से पाल पोस कर बडे किये गए पेड— पोधे, न जाने कल से इनका क्या होगा कोई उनकी देखभाल करेगा भी या नहीँ । यह सब सोच कर तो उसे रुलाई ही आ गई ।

जिस घर के साथ पैंतीस वषोर्ं की यादें जुडी हों, उसे यूँ छोड कर चले जाना क्या कोई आसान काम था ।

नए मालिक मकान आ चुके थे। दुष्यंत ने घर की चाबियाँ उन्हें सौंप दी , देवकी बेबस खडी ये दृश्य देख रही थी। काश उसके पति की असमय मृत्यु न होती, दुष्यंत के पिताजी जिंदा होते तो क्या दुष्यंत इस मकान को बेचने का दुःसाहस कर सकता था । नहीं, कभी नहीं । अकेली रह गई हूँ इसलिए बेटे बहु हावी हो गए हैं मुझ पर ।

देवकी, अपने बेटे दुष्यंत, बहु श्मालती व पोते पृथु के साथ जाकर कार में बैठ गईं । कार के पीछे वाली सीट पर दुष्यंत, मालती व देवकी बैठे थे। पोता पृथु ड्राइवर के बगल की सीट पर बैठा था। दिल्ली की काली लम्बी सडक पर कार दौडती जा रही थी ।

आज दिल्ली की सडकों पर चहल पहल होते हुए भी उसे अजीब सा सन्नाटा लग रहा था । आज से पहले उसे दिल्ली शहर इतना अजनबी नहीं लगा था । चालीस वर्ष पहले जब बिजनौर से उसकी डोली दिल्ली आई थी, तब तो उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो पूरा दिल्ली शहर उसकी आरती उतार रहा हो । अडोस —पडोस सबसे इतना लगाव था कि मायके की याद भी नहीं सताती थी ।

ईंट और पत्थरों की इमारतें बनवाते—बनवाते लगता है, यहाँ के लोगों के दिल भी भाव शून्य हो गए हैं । नई पीढी का तो कहना ही क्या ? पैसा कमाने की होड में अँधा—धुंध दौडते जा रहे हैं । माँ—बाप तो अन्नाज में लगने वाले घुन जैसे हैं, जो घर में पडे—पडे सारी की सारी दौलत नष्ट कर जाते हैं, यही सोचते होगे निगोडे ।

देवकी विचारों के ताने बानों में उलझी हुई थी, तभी पृथु का अति कोमल स्वर सुनाई दिया ष्हम कहाँ जा रहे हैं ? देवकी ने उत्तर दिया, जहाँ समय ले जा रहा है । इस पर मालती तुनक कर बोली, मम्मी अभी तो यह मासूम है इससे ऐसी बातें क्यों कर रही हो? देवकी ने आँखे तरेर कर मालती को देखा और बोली, मैंने कौन सा उसे तोप दागने के लिए कह दिया। मालती ने शिकायत भरी निगाहों से दुष्यंत की ओर देखा। दुष्यंत के माथे पर भी तियोरी चढी थी ।

सूर्य पश्चिम की ओर छुप रहा था। सूर्य और देवकी का मौन संवाद शुरू हो गया । वह मानो देवकी से कह रहा हो, हर दिवस का अंत होता है, देवकी! आज अँधकार दे कर जा रहा हूँ,कल नई सुबह लेकर फिर लौटूँगा। देवकी निराश होकर मन ही मन बुदबुदाती है, जिस की आँखों से ज्योति ही छीन जाये उसके लिए प्रकाश क्या और रौशनी क्या?

देवकी के अंतर्मन में विचारों की लहरें निरंतर टकरा रहीं थीं । इसी बीच दिल्ली की सीमा समाप्त हो गई। एन सी आर गुडगाँव के टोल गेट पर कार रुक गई । पृथु ने फिर सवाल किया, हम कहाँ जा रहे हैं, कोई बता क्यों नहीं रहा । देवकी कांपती हुई आवाज में बोली, ये तुम्हें क्या बताएगें, बेटा ! मैं बताती हूँ । एक क्षण के लिए देवकी का गला रूंध गया । वह खुद को सँभालते हुए बोली, तेरी दादी बूढों के बोडिर्ंग स्कूल में जा रही है। पृथु के लिए यह जवाब भी एक सवाल ही बन गया । उसने भोले पन से फिर पूछा, बूढो के बोर्डिन स्कूल? देवकी बोली, हाँ बेटा तूने ठीक सुना है, मैं बूढो के स्कूल ही जा रही हूँ । मालती ने फिर मूँह बिगाड कर दुष्यंत को देखा ।

देवकी अभी तक अपने बेटे—बहु का बहुत आदर करती थी, लेकिन आज उसे परवाह नहीं थी कि उसके आचरण और उसके शब्दों का उसकी सास — प्रतिष्ठा पर क्या प्रतिकूल प्रभाव पडेगा। वह बोली, एक अकेली माँ दस बच्चों को पाल सकती है, लेकिन दस बच्चे एक माँ को नहीं पाल सकते। अब तक चुप बैठा दुष्यंत बोला, मम्मा आप पृथु की जिज्ञासा मिटा रही हैं, उसके प्रश्नों का उत्तर दें रहीं हैं या हमें ताना मार रही हैं । मालती भी पति के सुर में लय मिलाकर बोली, सात लाख रूपया खर्च किया है, मम्मीजी हमनें केवल आप के लिए । देवकी बोली, ये हिसाब—किताब नई पीढी को ही करना आता है । हमने तो न कभी सीखा न ही कभी आँका कि घर के किस व्यक्ति पर कितना खर्च हो रहा है। शायद पागल ही थे हम लोग, जो बस भावनाओं में बहते रहे । डायरी पर हमें खर्च ही लिखना चाहिए था आज फलाँ व्यक्ति पर कितना रुपया खर्च किया । हिसाब किताब लिखने की जगह हम ये क्या लिखा करते थे,.... आज दुष्यंत ने पहली बार किलकारी मारी । आज उसने पहला कदम जमीन पर रखा, आज माँ बोलना सीखा । अपनी बात पूरी करे बिना ही वह सुबकने लगी । दुष्यंत देवकी की और देखकर बोला, मम्मा! इस तरह भावुक होने भला क्या लाभ ?

कार एक बडी सी ईमारत के आगे आकर रुक गई । ईमारत पर एक बोर्ड लगा था, जो रंग बिरंगी बल्ब की रौशनी से जगमगा रहा था । उस पर सुन्दर अक्षरों में अंकित था, आपका अपना निवास

ड्राईवर ने कार से नीचे ऊतर कर कार के दरवाजे खोले। दुष्यंत ने देवकी को सहारा देने के लिए हाथ आगे बढाया । देवकी का मन तो कर रहा था, उसका हाथ एक ओर झटक दे और कहे कि, जब माँ को बेसहारा छोडकर ही जा रहे हो, तो कुछ पल का सहारा देने के लिए हाथ क्यों बढा रहे हो, लेकिन मजबूर थी अपने सहारे उतर भी नहीं सकती थी । दूसरी ओर से मालती ने आकर थैला पकड लिया । देवकी का मन तडप गया । वह बोली, रहने दे बहु यह नाटक ।

तीनों ईमारत के भीतर प्रवेश करते हैं । रिसेप्शन में बिछे सोफे पर पृथु और मालती को बैठा कर, दुष्यंत, देवकी को केबिन में ले गया । उसने क्रेडिट कार्ड से कुछ भुगतान किया, फॉर्म पर हस्ताक्षर किए और इन औपचारिकताओं के पश्चात देवकी आपका अपना निवास को सोंप दी गई । देवकी चारो ओर निगाह दौडा रही थी । उसे नाम के अनुरूप इस आश्रम में अपने घर जैसा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था । एक केयर टेकर जिसका नाम सुकन्या था देवकी को कमरे तक ले पहुँचाने के लिए आ गई थी । अब समय आ गया था, देवकी का अपने परिवार से विदा लेने का। मालती ने सिर पर पल्लू ढक कर अपनी सास के पॉंव छुए । बेटा माँ से गले लग कर बोला, अपना ध्यान रखना मम्मा । देवकी ने कहा, यहाँ मेरा है ही कौन, जिसे अपने से अधिक समय दूँगी। पृथु के चेहरे पर कई सवाल उभर आए । देवकी चाह कर भी उनका उत्तर नहीं दे सकती थी । देवकी अपलक देखती रही अपने परिवार को स्वयं से दूर होते ।

देवकी की भीगी पलकों में अतीत के न जाने कितने बीते लम्हे उभर आए । सुकन्या, देवकी को लिफ्ट से चौथी मंजिल के कमरा नंबर चार सौ सात में लेकर पहुँची । कमरे में दस बिस्तर बिछे हुए थे । दस अलमारी रखी थी । एक बडी मेज के इर्द—गिर्द दस कुर्सियां बिछी थी । सब पर नंबर गुदे थे। देवकी को चौंतीस नंबर की वस्तुएँ मिली । सुकन्या ने जब चौंतीस नम्बर की चाबियाँ देवकी के हवाले कीं तो देवकी बोली, हम क्या अपराधी हैं जो हर वस्तु पर नम्बर गुदा है । इस पर तीस नम्बर वाली विमला बोली, छोटी —छोटी बातों को क्यों दिल पर ले रही हो बहनजी ! अपनों ने जो दुःख दिया है, वह क्या कम है । सताईस नम्बर वाली कुमुद ने भी विमला को समर्थन दिया ।

अब चौंतीस नम्बर का बिस्तर ही देवकी का ठिकाना था । उसका अपना घर और उसकी उपनी इच्छा से सजी—संवरी रसोई, उसका अपना कमरा व कमरे से सटी बालकनी, सब गुजरे जमाने की यादें बन कर रह गए थे ।

देवकी का मोबाईल चहक उठा । देवकी ने फोन उठाने के लिए जैसे ही हाथ बढाया, सुकन्या ने टोकते हुए कहा, आंटी ! आप केवल चार से पाँच बजे के बीच ही फोन प्रयोग कर सकती हैं, शेष समय आप को मोबाईल का स्विच अॉफ करना होगा । देवकी ने लगभग गिडगिडाते हुए सुकन्या से कहा, मेरे बेटे का फोन है। मुझे बात करने दो । सुकन्या ने कहा, आज आप का पहला दिन है। कल से बंद रखियेगा । देवकी ने कान से फोन सटाया। दूसरी और से दुष्यंत की आवाज आई, हेलो मम्मा । देवकी का रोम—रोम ऐसे खिल गया, जैसे वह अपने परिवार जन के बीच पहुँच गई हो । दुष्यंत ने आगे बोलना शुरू किया, फ्लाईट टाइम पर है । देवकी ने सहर्ष कहा, बहुत अच्छा बेटा। रूस में पृथु का बहुत ध्यान रखना । वहाँ ठण्ड बहुत होती है । उसे शहद में मिलाकर अदरक का रस देते रहना। दुष्यंत ने कहा, हाँ माँ आप चिंता न करें । देवकी बेटे को बताना चाहती थी कि यहाँ चार से पाँच बजे तक ही फोन पर बात करने की अनुमति है, लकिन उसे फोन पर मालती की आवाज सुनाई पडी, आप फोन काट दो जी, बुढिया का तो लेक्च्चर बंद नहीं होगा । यह सुन देवकी के हाथ काँप गए, कान सुन्न पड गए। फोन फिसलकर फर्श पर लुढक गया । कुछ देर हेलो ,हेलो सुनाई दिया और फिर फोन खामोश हो गया । देवकी अपने बिस्तर पर बैठ कर फूट —फूट कर रोने लगी । लेकिन यहाँ की दीवारें तो न जाने कितनी देवकियों की सिसकियाँ सुनते —सुनते कठोर हो चुकी थीं।

आश्रम में रात के खाने की तैयारी चल रही थी । सुकन्या ने विमला से कह दिया था, कि वह देवकी को हॉल में ले आए । विमला ने देवकी को लाख मनाया लेकिन देवकी खाने के लिए तैयार नहीं हुई । विमला थक हार कर बोली मैं तो जा रही हूँ, मैंने तो इंसुलीन का इंजेक्शन लगा लिया है ।

कमरा खाली हो गया था। सब खाने के लिए हॉल में एकत्र हो गए थे । बिस्तर पर बैठे—बैठे देवकी की झपकी लग गई । देवकी वर्तमान से धीरे—धीरे अपना दामन छुडा, स्वप्न लोक में खो गई । पोता पृथु चश्मा लेकर भाग रहा है । वह उसके पीछे—पीछे भाग रही है । पृथु खिलखिला कर हँस रहा है । मेरा चश्मा , मेरा चश्मा वह बुदबुदा रही थी । तभी सुकन्या कमरे में आती है । वह देवकी के कंधे को झिंझोड कर कहती है, चश्मा तो आपकी आँखों पर है आंटी । देवकी का रंगीन सपना टूट जाता है, वह यथार्थ के धरातल पर आ जाती है । सुकन्या कहती है, आंटी खाना खाने चलिए । देवकी उदास स्वर में कहती है, नहीं, आज मैं अपने परिवार से बिछुड गई हूँ । आज मेरी खाने की बिलकुल इच्छा नहीं है। सुकन्या देवकी का हाथ पकडकर कहती है, आंटी आप मेरे साथ नीचे चल कर तो देखिए सब लोग कितने खुश हैं । यहाँ हर व्यक्ति अपने परिवार से बिछुडा है । देवकी बोली, सब आडम्बर कर रहे हैं । अंदर ह्रदय में सब सन्नाटा समेटे बैठे हैं । सुकन्या ने कहा आप के न आने से मैनेजर मुझ से नाराज हो जायेगा । देवकी ने कहा, श्ऐसी बात है तो मै चलती हूँ । दोनों खाने के हॉल की ओर चल देती हैं ।

एक बडा सा हॉल, लगभग चार सौ बुजुगोर्ं से भरा हुआ था । देवकी तो सहमी सी एक ओर खडी रह गई । देवकी को अचानक पीछे से आकर किसी ने कहा, अरे, मिसिज चोपडा ! आप भी यहाँ ? देवकी ने पीछे मुडकर देखा, दस साल पहले उनके पडोस में रहने वाले कर्नल रणजीत सिंह खडे थे । देवकी ने आश्चर्य से कहा, कर्नल साहिब ! आप यहाँ कैसे ? रणजीत ने हँसते हुए कहा, जैसे आप यहाँ, वैसे हम भी यहाँ । सब एक ही कश्ती पर सवार हैं । देवकी ने पूछा, बहिनजी कहाँ हैं ? रणजीत चेहरे पर आई उदासी को छुपाने के लिए मुस्कुराने लगा। वह बोला, सुधा, जीवन भर कदम से कदम मिलकर चलती रही। दो साल पहले उसके कदम लडखडा गए । शायद मेरी हे गलती थी । हर मोड पर लेडीज फर्स्‌ट कह कर उसे आगे करता रहा । ईश्वर को लगा, मेरी ऐसी ही भावना है । देवकी की आँखे भर आई थीं । रणजीत ने कहा, चलो खाना खाते हैं। चपाती ठंडी हो जाएगी तो चबाना कठिन हो जायेगा ।

उधर विमला कब से अपने पास रखी खाली कुर्सी पर बैठने के लिए देवकी को बुला रही थी । देवकी, विमला के पास जाकर बैठ गई । उसने अनमने मन से थोडा सा भोजन ले लिया । रविवार होने के कारण, भोजन के बाद दो घंटे, संगीत का कार्यक्रम भी चला ।

सभी अपने कमरों में लौट आए । बिस्तर पर लेटे, कुछ बतियाने लगे, कुछ खर्राटे भरने लगे और कुछ रात की काली स्याही में रौशनी ढूढने लगे । सूक्ष्म से सूक्ष्म प्रकाश बिंदु, भले ही उसे जुगनू अपने साथ लाया हो । देवकी की, रणजीत सिंह से हुई दो मिनिट की भेंट, उसके विचारों को दस साल पीछे ले गई। कितना मेल मिलाप था, दोनों परिवारों के बीच । यादों की गलियों में विचरते—विचरते उसे नींद आ गई ।

दो घंटे बीते होगें कि किसी की सिसकियों से उसकी नींद खुल गई । उसने पास रखी मेज से अपना चश्मा उठाया । अपने बिस्तर पर बैठ कर वह इधर उधर देखने लगी । ऊँघती हुई विमला बडबडाई, सो जाओ बहनजी । कुमुद हर रात को ऐसे ही सिसकती है । इस बिचारी के साथ बहुत बुरा हुआ । कल तुम्हें बताऊँगी ।

आश्रम में देवकी की पहली सुबह अपना घर होता तो रसोई में जाकर एक कडक चाय का प्याला बनाती और सूरज की सुनहरी किरणों को बालकनी में बैठ कर निहारती। गमले में लगे तुलसी के पौधे से पीले पत्ते अलग करती । समाचार पत्र की प्रतीक्षा करती । लेकिन यहाँ तो सुना है, आठ बजे चाय मिलेगी । योग करना होगा । नहा—धोकर हॉल में ही जाना होगा । यहाँ की दिनचर्या के सभी आदि हो चुके हैं। इसमें इच्छा कम बेबसी अधिक नजर आती है ।

नाश्ते के बाद, कुछ देर, एक दूसरे को जानने का, बाते करने का अवसर दिया जाता है । देवकी और विमला दूर, एक कोने में बैठ गई । विमला ने ठंडी आह भरकर कुमुद की दर्दभरी कहानी सुनानी शुरू की... एक लडका है कुमुद का। छोटी ही उम्र में पति का साथ छूट गया था । जैसे तैसे बेटे को पढाया—लिखाया । इस काबिल कर दिया कि अच्छी नौकरी मिल जाये । उसे विदेश में अच्छी नौकरी भी मिल गई । जल्दी ही लडके की शादी हो गई । एक दिन वह कुमुद से बोला, यहाँ का मकान बेचकर विदेश चलते हैं । कुमुद ने स्वीकृति दे दी । मकान बिक गया और विदश जाने का दिन तय हो गया । दिल्ली के अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर कुमुद का परिवार पहुँच गया । लडके ने माँ से बाहर ठहरने के लिए कहा । पत्नी को साथ लेकर वह हवाई अड्डे के भीतर चला गया । घंटे बीत गए जब वह लौटकर नहीं आया, कुमुद ने घबराकर पूछताछ शुरू कर दी । पुलिस ने बेटे व बहु के नाम से पडताल की तो पाया दोनों अमेरिका की उडान भर चुके हैं । कुमुद को विश्वास ही नहीं ही रहा था । वह गृहमंत्रालय तक पहुँच गई । पुलिस ने सी सी टी वी से लिए गए चित्र दिखाए तब बेचारी को ऐसा सदमा लगा की पूछो मत । देवकी ने विमला से पूछा, कुमुद इस आश्रम में कैसे आई? यह तो प्राइवेट है। यहाँ तो सात लाख की रकम देनी पडती है । विमला ने धीरे से कहा, कर्नल साहिब ने अख्बार में खबर पढी । उन्होंने ही रुपया दिया है । यह बात कुमुद को मत बताना ।

कमरे में वापिस जाने का आदेश मिल चुका था । देवकी को यहाँ आए अभी चौबीस घंटे भी नहीं हुए थे, इन चौबीस घंटों में शायद ही कोई पल आया हो जब देवकी को ओना घर न याद अत हो।

स्त्री इतनी बेबस क्यों हो जाती है ? जब पिता के घर होती है, तब पिता की इच्छा के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठा सकती । पति के घर आती है तो, उसकी इच्छा के विपरीत नहीं जा सकती । बेटा बडा होते ही, माँ को निर्देष देने लग जाता है। नारी सब प्रकार से सक्षम होते हुए अक्षम क्यों बन जाती है? यह उसकी शारीरिक दुर्बलता है, मानसिक विफलता है या त्याग की भावना । समय भी कहाँ से कहाँ ले जाता है व्यक्ति को।

देवकी विचारों में खोई हुई थी। कि, विमला धम्म से आ कर उसके पलंग पर बैठ गई । वह देवकी से बोली , ष्अपने घर के विषय में क्यों सोचती रहती हो ? देवकी की निगाहें खिडकी से बहार चली जाती हैं, जैसे वह दूर मकानों के बीच अपना घर तलाश रही हो । वह विमला से कहती है, ष्अपना घर आखिर अपना ही होता है । विमला कहती है, देखना में एक दिन तुम से कहलवा कर रहूँगी, ये आश्रम घर से ज्यादा अच्छा है । देवकी बस मुस्कुरा दी ।

चार महीने इसी तरह बीत गए । देवकी और विमला की दोस्ती गहराती रही। देवकी अपने घर की यादों से बाहर नहीं निकल सकी और विमल अपने कथन पर अडिग रही कि हम अपने घर से अधिक यहाँ प्रसन्न हैं। देवकी ने अक्सर विमला को एक कागज के टुकडे को निहारते देखा था । कोई समीप आता था, तो विमला झट से उस कागज को मोडकर पल्लू में बांध लेती थी । वह पल्लू के कोने को मुठ्‌ठी में दबाकर सोती थी। देवकी कभी—कभी विमला से मजाक में कहती थी, किसका प्रेम पत्र छुपा रही हो ? विमला तुरंत कोई दूसरी बात छेड देती थी।

एकादशी का दिन था, कुछ महिलाओं ने व्रत रखा था । सुकन्या ने आकर बताया कि प्रताप क्लब की ओर से फल बांटे जा रहे है। सुनते ही सब नीचे जाने की तैयरी करने लगे । देवकी बिस्तर पर लेटी थी । विमला ने कहा नीचे नहीं चलोगी?

विमला ने कहा, नहीं, पूरी जिंदगी तो दानपुन्य करती रही, अब औरों के आगे हाथ फैलाना क्या अच्छा लगेगा ? विमला बोली, शाम तक भूखी बैठी रहना, यहाँ व्रत वालों को खाने के लिए कुछ नहीं मिलेगा ।

कुछ देर बाद विमला चार केले लेकर लौटी । उसका मुँह फीका पड गया था। उसने दो केले देवकी को देते हुए कहा, न जाने कैसे—कैसे लोगों को भेज देते है ,क्लब वाले । अपने दो केले लेने के बाद ,मैंने तुम्हारे लिए भी दो केले मांग लिए । जानती हो बहनजी, मुझे उस लडके ने क्या कहा? देवकी ने पूछा, क्या कहा ? विमला पल्लू से आँखें पोंछती हुई बोली, बहनजी, उसने कहा, बुढिया! शर्म नहीं आती ? कब्र में पैर लटक रहे हैं, अभी तक लालच नहीं छोडा । यह सुनकर देवकी को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन वह बोली, जाने दो, उसने अपनी जबान गन्दी की है ।

विमला अपने बिस्तर पर जा कर लेट गई । शाम की चाय का समय हुआ । देवकी विमला के पलंग के पास गई । पलंग पर सटी मेज पर केले अभी भी रखे थे । देवकी ने विमला का कन्धा हिलाया और बोली, मुझे तो केले खिला दिए, तुम्हारे तो केले अभी तक ज्यों के त्यों रखे हैं । देवकी को जब अपने किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं मिला तो वह धक्‌ सी रह गई। उसकी सबसे प्रिय सखी विमला चिर निद्रा में सो चुकी थी । विमला जिस कागज को पल्लू में बाँध कर रखती थी, आज उसने वह कागज सीने से लगा रखा था । देवकी ने धीरे से उस कागज को निकाला। कागज के टुकडे को देखकर देवकी की आँखें डबडबा गई । उस कागज के टुकडे पर विमला के घर की तस्वीर खींची थी, जिस की नेम प्लेट पर बडे काले अक्षरोँ में साफ—साफ लिखा दिख रहां था

— अपना घरौंदा

— सुमन शर्मा

jahnavi-suman7@gmail-com