पूर्वग्रह
महबूब सोनालिया
दरवाजा टूट जाए इतनी ज़ोर से खटखटाने की आवाज सुन कर विजयगीरी हक्के बक्के रह गए। सहमे सहमे दरवाज़े की और बढ़ते हुए कदम, काँपते हुए हाथ, विजयगिरीजी के ललाट पर उज्जवल दिख रही पसीने की दो तीन बुँदे, ख़ौफ़ज़दा चेहरा लेकर काफी जदोजहद के बाद हिम्मत जूटा के दरवाजा खोल पाये । देहलीज़ पे बिलकुल उसी अवस्था में अनिकेत खड़ा था। विजयगीरी अपने बेटे को देखते ही रह गये । पसीने से भीगा हुआ अनिकेत विचारोके भंवर में गूम खड़ा था।
"क्या हुआ बेटा ...? इस तरह क्यों ...? इस वक़्त...?" विजयगीरी के मुख से सवालो की बरसात हो गयी।
डरे- डरे से चहेरे पे बिखरे हुए बाल, लाल- लाल आँखे, जैसे अभी टूट के बिखर जायेगा ऐसा थका हुआ शरीर, व्याकुल मन, गुलाबी चेहरे पे जमी धुल सफर की कठिनाई के वर्णन कर रही थी। जवानीका जोश कहीं गुम सा हो गया था। पच्चीस साल का अनिकेत मानो जैसे अभी बोलना ही सिख रहा हो ऐसे हिचक रहा था। बाहर खड़ी कार का इंजन चालू था और कार की रौशनी से बूढ़े विजयगिरी को देखने में जरा दिक्कत हो रही थी।
"पापा आपका सामान पैक कर लीजिये, चलीये जल्दी कीजिए हमारे पास जियादा समय नहीं। हमे यहाँ से जल्द से जल्द निकलना है हमे अब यहाँ नहीं रहना। " वो किसी पूर्वभूमिका के बगैर बोलता गया।
"पर हुआ क्या बेटा?" विजयगीरी सब कुछ जानने के बावजूद औपचारिक यूँ ही पूछने लगे ।
"क्या आपने पिछले कुछ दिन से अख़बार नहीं पढ़ा? बाहर क्या चल रहा है उसकी आपको खबर ही नहीं?" वो अब भी बोलते वक़्त डर की वजह से कांप रहा था।
"तू पहले शांत हो जा, थोड़ा आराम करले बेटा। इतना परेशान न हो" विजयगीरी ने बात को टालने की नाकाम कोशिश की।
"किस तरह आराम करूँ। इन लोगों ने सबका आराम हराम कर दिया है " अनिकेत के मुंह से गुस्से और नफरत के शब्द निकलने लगे
"किसने आराम हराम कर दिया है बेटा?" विजयगिरी ने बेटे की नफरत का पता लगाने की कोशिश की
"इन टोपीवालोने, इन नमाज़वालोने ये जो मज़हब मज़हब चिल्लाते है उन्होंने। " अपने मस्तिष्क पर से बाल को ऊपर करते हयेअनिकेत बोला
" अच्छा ऐसा है ? तो कहाँ जायेंगे तुम्ही बताओ? हर जगह यही आलम है, सभी जगह नफरत की आग है" विजयगीरी खुद विचारमग्न हो कर आह भरने लगे।
"ये सब मुझ पर छोड़ दो, अहमदाबाद में एक जगह ऐसी है जहाँ हम महफूज़ रहेंगे। कोई हमारा बल भी बांका नहीं कर पाएगा। वैसे भी अपने लोगो के साथ रहना ही हितावह है। आप प्लीज़ जल्दी करें अपना सामान समेट लीजिए। " वो एक ही सांस में पूरा वाक्य बोला।
" बेटा, पहले मेरी बात समझ, अपने गाँव को अभी तक तो ये ज़हरीली हवा नहीं लगी। अहमदाबाद से ज्यादा हम यहाँ पर महफूज़ रहेंगे। " अनिकेत के कंधो पर हाथ रखते हुए विजयगीरी बोले।
"आप कैसी बात कर रहे हो, पूरा गाँव किसका है आपको खबर है ना? पूरे गांव में सिर्फ पांच दस घर शिव शिव करने वाले है। पूरा गांव मुसलमानोका है, फिर भी आपको ये गांव महफूज़ लग रहा है?" अनिकेत की आँखों में गुस्सा उभरता दिख रहा था।
"बेटा मेरा बचपन यहां गुज़रा है । तुम भी तो यहीं खेल कर बड़े हुए हो। इस गाँव के कण-कण में मेरी साँस बसती है। अब तुम्ही बताओ के साँसो के बिना कोई ज़िन्दा रह सकता है? मुझे मेरे गांव से जुदा न कर बेटा। वैसे भी अब नहीं मरूँगा तो किसी दूसरे दिन मरूँगा। मरना तो मेरा तय है। मुझे अपनी मिट्टी में मरना है। यहाँ मरूँगा तो कोई याद तो करेगा। पराये देश में कौन हमारे?" विजयगीरी के गाल की झुरियोँ पर बिन मौसम बरसात आ गई।
"ये वक़्त फिलॉसॉफी का नहीं, जरा ठंडे दिमागसे सोचिये, बाहर सब कुछ जल रहा है, लोगो के सर पर खून सवार है। मैं अहमदाबाद से यहां कैसे बचते बचाते आया हूँ वो सिर्फ मैं ही जानता हूँ। रास्ते में मैंने खौफ का तांडव देखा है। ऐसे भयानक मंज़र देखे है जिसे देखकर पथ्थर दिल इंसान की रूह भी काँप उठ्ठे। कहीं पर कटा सर, कहीं लहू से सना हुआ शरीर। इक जगह तो मरे हुए माँ-बाप के शव के पास रो रहा मासूम बच्चा अपने माँ बाप को जगा रहा था। किसी का घर जला दिया तो किसी की दुकान । किसी महोल्ले के बाहर लोग जलती मशाले लेकर खड़े थे। ये दंगे आपकी फिलोसोफी नहीं देखते
अभी मैं जैसा कहता हूँ ऐसा कीजिए। अगर आप वापीस आना चाहे तो कुछ समय बाद वापिस चले....। "
खटखट दरवाजे पे हुई दस्तक ने अनिकेत की बातपर पूर्णविराम लगा दिया
रात के इतने समय दरवाजे पर हुई दस्तक से दोनों के सर पर भय के बादल मंडराने लगे।
विजयगीरीने अपनी पूरी हिंमत जुटाकर कांपते हाथों से दरवाजा खोला।
बाहर हथियारों से लेस पन्द्रह बीस आदमी अपने मुखिया करीम खान के पीछे खड़े थे।
करीम खान के लम्बे और मजबूत हाथों में नंगी तलवार, बड़ी बड़ी आँखे, आँखे तो जैसे अंगारे, महाकाय शरीर, कफनी पर पान के दाग ओर सर पर टोपी दोनों का रंग खून जैसा लाल!
"भगत ये तलवार देख रहे हो ना? ये किसी की भी नहीं सुनती, क्यों की ये अपने और पराये का भेद नहीं समझती। इसकी धार तो हंमेशा खून की प्यासी रहती है। " खुली तलवार को हवा में नृत्य करवाता करीम खान बोला।
"अरे रे....ये क्या कह रहे हो करीम खान?" विजयगीरी ख़ौफ़ज़दा होकर इतना तो मुश्किल से बोल पाये ।
"सच ही कह रहा हूँ भगत, मेरी इन तलवारो पर तुम्हारा लिखवाकर लाया हूँ। "
"पठान ..." विजयगीरी डर के मारे बीच में ही बोल पड़े ।
" ये तलवारे तुम्हारे लिए है भगत" करीम खान अपनी तलवारके सामने देखकर बोला।
इधर विजयगिरी ओर अनिकेत दोनों के चहरे पे बारा बजने लगे।
"और" करीम खान अपने सख्त आवाज़ को जरा ठहराव देकर फिर बोला "ये मेरे लोग भी तुम्हारे लिए है। गांव के सभी शिव शिव करने वाले घर की ज़िम्मेदारी अब से मेरी । किसकी मज़ाल जो यहाँ कदम भी रख पाए। मेरा यकीन करो किसी का एक बाल भी बांका नहीं होने दूँगा। और अगर अगर ऐसी नौबत भी कभी आ गई तो तुम्हारे सब के आगे मैं खड़ा हूँ। करीम खान फिर से थोड़ी देर खामोश रहा
'ख़ुदा न खास्ता कभी इसकी जरूरत पड़ी तो भगत ये तलवार किसी की भी नहीं सुनती, क्यों की ये अपने और पराये का भेद नहीं समझती। इसकी धार तो हंमेशा खून की प्यासी रहती है। चलो तुम सब लोग शांति से सो जाओ, मैं जाग रहा हूँ। " कोई भी प्रत्युत्तर की आशा के बगैर पठान दरवाजा बन्द कर के बाहर खड़ा हो गया।
दरवाजा बंद करके विजयगिरी अनिकेत के पास लौटे। अनिकेत अपने पिता को जोरो से लिपट लाना चाहता था । मगर क्या करे क्या न करे उसे कुछ भी नहीं सूझा। वो बस ऐसे ही खामोश खड़ा रहा। विजयगीरी अपने बेटे को देखते ही रह गये । पसीने से भीगा हुआ अनिकेत विचारोके भंवर में ग़ुम खड़ा था।
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