navjivan in Hindi Love Stories by Rajan Dwivedi books and stories PDF | नवजीवन

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नवजीवन

नवजीवन

लखनऊ के पास ही बड़ा होने के लिए तड़पता हुआ एक शहर. तड़पता हुआ इसलिए क्योकि राजधानी से मात्र १ घंटे की दूरी... जिन्हें लखनऊ में जगह न मिलती वो इधर बस जाते. अब तक यहाँ ऊंची-ऊंची इमारतें भी दिखने लगी थीं. सड़क और रेलवे की बेहतर कनेक्टिविटी के साथ ही न सिर्फ लोग इधर-उधर होते बल्कि उनकी चाहतें और ख्वाहिशें भी... राजधानी की तमाम खूबियाँ और खामियां अब इस शहर के तानेबाने में बस चुकी थी. शहर बढ़ते-बढ़ते लखनऊ को छू लेना चाहता था.

इसी शहर में बड़ा बनने की तड़प लिए ठाकुर साहब अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहते थे.. ठाकुर साहब का पूरा नाम महेंद्र प्रताप सिंह है पर वो ठाकुर साहब ही कहा जाना पसंद करते थे. ऊंची कद-काठी और अच्छी पर्सनालिटी वाले ठाकुर साहब स्थानीय कलेक्ट्रेट में ऊंचे ओहदे पर थे, जहाँ उनकी ऊंची आमदनी थी... पर वो कलेक्टर नहीं थे ये टीस उनके दिल में आज भी थी. ठाकुर साहब पास के ही किसी गाँव के कमजोर परिवार से आते थे पर अब उनमे लखनऊ से आने वाली फैशन और नवाबी शानोशौकत गहरे तक घुस चुकी थी...सो बढ़िया कमाने वाले ठाकुर साहब अपने यार-दोस्तों में शाहखर्ची के लिए जाने जाते थे. इम्पोर्टेड परफ्यूम, बढ़िया ब्रांडेड कपडे और जूते.. आँखों पर चढ़ा रेबन का चश्मा... चमचमाती लम्बी गाड़ी उनकी हैसियत का बयान करने के लिए काफी थे. यारों का यार थे ठाकुर साहब. अपने शौक और दोस्तों पर खर्चे के समय वो पैसे को पैसा नहीं समझते थे... बचपन की आर्थिक तंगी की सारी कसर सूद समेत वसूल रहे थे. पद की कमी को वो पैसों से पूरा कर देना चाहते थे. दिन भर ऑफिस में रोब-दाब से उगाही करने के बाद देर शाम तक दोस्तों की महफ़िल... उनकी दिनचर्या का हिस्सा थे. ऐसे में पत्नी व बच्चों को अपेक्षित समय नहीं दे पाते थे... सच तो ये है कि वो देना ही नहीं चाहते थे.

लगभग 8 साल पहले उन्होंने रूपा से प्रेम विवाह किया था... जब वो लखनऊ में प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी कर रहे थे. रूपा एक संपन्न व्यवसायी परिवार की लड़की थी जो अपने नामानुरुप असाधारण रूपवती थी. ठाकुर साहब लगभग शहर के बाहर सीतापुर रोड पर ५०० मासिक किराये वाले कमरे में साझे में रहते थे... अपना खर्च एकाध टयूशन से निकल लेते थे और टांग तोड़ कर पढाई करते थे. तैयारी में सहायता के लिए अपने एक मित्र, जो एक नामी कोचिंग का छात्र था से मिलने या उसके नोट्स आदि टीपने की जुगत में उसकी कोचिंग जाते रहते थे. वहीँ उनकी रूपा से मुलाकात हुई थी और उन्ही के शब्दों में वे ‘उसके रूप से चुंधिया गए थे’. रूपा ठाकुर साहब के बौध्दिक क्षमता से प्रभावित थी. दोनों में दोस्ती हो गई. शीघ्र ही दोस्ती जवान हो गयी. नजदीकयां बढीं तो उसने इनका मोबाइल नंबर माँगा जो ठाकुर साहब के पास था ही नहीं तो पडोसी का नंबर दे दिया. फिर मोबाइल के ज़माने में भी ट्रंक काल होने लगी, ’भैया!... प्लीज! महेंद्र जी से बात करवा दीजिये... मै ४ बजे फिर फोन करूंगी... आदि’. खैर जहाँ चाह वहां राह... बात होने लगी और खूब बात होने लगी. कस्बाई मानसिकता वाला गंवाई युवक अपने गिर्द डोलती रूपसी को भला कब तक और कैसे नज़रंदाज़ कर पाता और धीरे-धीरे दोनों में प्यार हो गया... भविष्य के सपने बुने गए... कलेक्टरी, बंगला, गाड़ी, विदेश की सैर और बुढ़ापे तक का प्यार. जीवन में कभी भी साथ न छोड़ने की कसमें भी हुई. रूपा उन्हे प्यार से माही बुलाती. दोनों माही के चयन को लेकर निश्चिन्त थे... हो भी क्यों न माही लगातार साक्षात्कार जो दे रहा था. लगभग साल भर बाद रूपा के परिजनों को इसकी भनक लगी. उन्होंने रूपा को समझाया कि नौकरी में आदमी नौकर होकर रह जाता है... व्यापार में लक्ष्मी का वास है. देश-विदेश के बड़े-बड़े उद्यमियों के नाम भी गिनाये... कहा कि वे बड़े इसलिए बन सके क्योंकि नौकरी की लालच में नहीं फंसे. पर रूपा टस से मस न हुई. तब उसके पिता ने साफ़ कहा की उन्हें ये साथ पसंद नहीं. वो अपनी बेटी राह चलते किसी आदमी को नहीं दे सकते वो उसका विवाह किसी बड़े व्यापारी घराने में करना चाहते थे. रूपा ने माही से सारी बात बताई और और चुपचाप शादी योजना बनाने लगी. लेकिन आशंकित माही ने उसको कई संभावित समस्याएँ गिनाईं जो शादी के बाद सामने आने वाली थी पर रूपा ने कहा की वह उनके प्यार के लिए दुनिया की सब तकलीफें सहने को तैयार है. जब रूपा पर दबाव अधिक बढ़ गया तो उसने कहा की वह उन्हें खोना नहीं चाहती उसके आग्रह पर दोनों ने कोर्ट मैरिज कर लिया. परिवार के मर्जी के खिलाफ विवाह का परिणाम ये हुआ कि रूपा के परिजनों ने उससे सारे रिश्ते तोड़ लिए. दोनों के सामने जीवन-निर्वाह की समस्या खड़ी हो गयी... माही की आर्थिक स्थिति पहले से ही कमजोर थी और अब नई नवेली पत्नी की जिम्मेदारी ने उसे स्थानीय कोचिंग सेंटर्स में काम तलाशने को विवश कर दिया... जिसका सीधा असर उसकी पढाई पर पड़ा. दुर्भाग्य से माही चयन हेतु आवश्यक अंक जुटाने में असफल रहा और इधर एक पुत्री का पिता बन गया. रूपा ने दिलासा दिया कि इस बार नही तो अगली बार वह अवश्य चुना जायेगा. इधर जिम्मेदारियां बढती जा रही थी... तो उधर कोचिंग में माही का समय भी. बढ़ती बच्ची के खर्चे अलग और खर्च करने वाले माँ के हाथ कोई अंकुश जानते ही न थे.... उन हाथों ने बचपन से ही खर्चना सीखा था बचाना नहीं. बढती हुई आर्थिक समस्याएं प्रेम को निगलने को बेताब थी. रूपा टूटने लगी.... उस एक कमरे में उसे अब घुटन होने लगी... उसने ताना देना शुरू कर दिया... महेंद्र भी खीझे-खीझे रहते थे. चयन उन्हें बार-बार निराश कर रहा था... उम्र भी हाथ से फिसलती जा रही थी. इसी बीच रूपा एक बार फिर गर्भवती हुई और महेंद्र के न चाहते हुए भी बच्चे को जन्म दिया. आपसी तू-तू मैं-मैं बढ़ रही थी ...इससे पहले कि आपसी तकरार कोई भयावह रूप धरती महेंद्र ने कलेक्ट्रेट में एक नौकरी जुगाड़ ली और अनमने मन से काम पर जाने लगे. बीतते समय के साथ धीरे-धीरे वो उसमे रम गये नौकरी के सारे दाँव-पेंच सीख लिए और जमकर पैसा बनाने लगे. कसक थी तो इस बात की कि जिस कलेक्टरी का सपना उन्होंने देखा था वह उनके सामने किसी और के गले में बाहें डाले मुस्कुरा रही थी और उनके कलेजे को चाक कर रही थी.

धीरे-धीरे ठाकुर साहब ने अपना सारा ध्यान पैसा बनाने पर लगा दिया... घर में चार पैसे आये तो रोज-रोज की किचकिच तो थमी पर रूपा का ताना न रुका. उसके लिए पैसा कोई नई चीज न था उसने अपने घर में खूब देखा और खर्च किया था उसका आकर्षण तो प्रशासनिक पद में निहित था जिसका सपना उसने संजोया था. वह कलेक्टर की बीवी होना चाहती थी किसी बाबू की नही और इसे वह किसी न किसी बहाने जताने से नही चूकती थी. रोजमर्रा के तानो से दोनों के रिश्ते बिगड़ते जा रहे थे. दूसरे लोगो की तरह ही अब रूपा ने भी उन्हें ठाकुर साहब कहना शुरू कर दिया था... उनके बीच का माही शायद मर चुका था. साड़ी-कपडे, जेवर-गहने, मकान-कार उनके बीच की खाई को पाटने में नाकाम रहे. ठाकुर साहब की सारी कोशिशे नाकाम हो गयी. उनका रिश्ता अपनी उष्णता खो रहा था… थक-हार कर वो रूपा के सामने पड़ने से कतराने लगे और अधिकतर समय दोस्तों के साथ बिताने लगे. पैसा यार-दोस्तों को साथ ले आता है सो ठाकुर साहब के दोस्तों की संख्या भी बढ़ती गयी. हर शाम को महफ़िल जमने लगी जो देर रात तक चलती. पहले ये महफ़िल उनके घर पर ही लगती थी पर एक दिन रूपा ने आकर रंग में भंग डाल दिया सबको खूब खरी-खोटी सुनाई. ठाकुर साहब ने उसे शांत करने की कोशिश की पर वो कहाँ सुनने वाली थी गुस्से में चिल्लाई, ’ये मेरा घर है कोई सराय या धरमशाला नहीं जहाँ हर ऐरा-गैरा किसी भी समय मुंह उठाए चला आये.’ ठाकुर साहब अपने मित्रों का अपमान नहीं होने देना चाहते थे उन्होंने ने पुनः हिम्मत की पर अपना आपा खो चुकी रूपा ने साफ शब्दों में बता दिया की वह अपने घर को इन मुफ्तखोर लफंगों का अड्डा न बनने देगी... ठाकुर साहब की मिन्नत के बावजूद उसने सभी को दफा कर दिया. तेज आवाज सुनकर बच्चे भी सहम कर बैठक के दरवाजे से आ चिपके थे जिन्हें लगभग घसीटती हुई रूपा यह कहते अंदर ले गयी कि तुम सब यहाँ क्या लेने आये हो या फिर तुमे भी लफंगा बनना है. तुम्हारे बाप को तो कोई चिंता है नहीं इनका बस चले तो इसे पान की दूकान बना दें. दोस्तों के सामने हुए अपमान से हताश ठाकुर साहब वहीँ सोफे में गिर गए और देर तक वैसे ही पड़े रहे... भीतर से रूपा के चीखने की आवाजें आती रहीं, ’इस आदमी के लिए मैंने अपनी पूरी जिन्दगी तबाह कर दी... पर इसे कोई लाज-शर्म हो तब न... मजाल क्या की एक भी ढंग का आदमी इसका दोस्त हो... सारे के सारे लुच्चे है एक नम्बर के... अपने बच्चों के लिए एक मिनिट नहीं और पूरी शाम इन लफंगों के नाम’ और भी जाने क्या-क्या वह लगातार बोलती रही. इस घटना से उन्हें बहुत गहरी चोट लगी... उनके अंदर कहीं बहुत गहरे कुछ टूट सा गया था. अगले दो-तीन दिन वह घर से बाहर भी नहीं निकले... अपने कमरे में ही पड़े रहे शायद सोचते थे की किस मुंह से सामना करूंगा दोस्तों का... अब तक तो ऑफिस में भी बात फ़ैल गयी होगी... ऐसी बातें छुपती कहाँ है... लोग चटखारे ले रहे होंगे... सारी इज्जत चली गयी... अब क्या मुंह लेके जाऊं ऑफिस. इस बीच उनकी रूपा से कोई बात नहीं हुई... बच्चों से बात कर जी हल्का करने का प्रयास किया पर रूपा ने उन्हें भी बुला लिया... दोनों के बीच जमीं बर्फ और सख्त हो गयी.

दो–तीन दिन बाद जब ठाकुर साहब फिर से ऑफिस पहुंचे तो वह कुछ बुझे-बुझे से थे उनका चेहरा मुर्झाया था. वह दोस्तों से नजरें नहीं मिला रहे थे. चुपचाप बड़े अन्यमनस्क भाव से कार्यालय का काम निपटा रहे थे. भोजनावकाश में दोस्तों ने खुद ही पहल की... उन्हें दिलासा दिया. दोस्तों ने कहा क्यों न आज शाम को किसी और के घर महफ़िल जमे... ठाकुर साहब भी घर जाने से कतरा रहे थे सो उन्होंने अधिक ना-नुकुर किये बिना प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. ऑफिस के बाद सब शर्मा जी के घर जुटे... लोग अब भी ठाकुर साहब को समझा रहे थे कि मन छोटा न करें. घर गृहस्थी में ख़ट-पट चलती रहती है. तभी एक ने कहा कि बुरा मत मानियेगा पर घरवाली को इतना सर पे चढ़ाना ही नहीं चाहिए. शर्मा जी बोले, ‘मजाल क्या कि हम लोगो के बीच कभी मेरी पत्नी आ जाये... टांगे न तोड़ दू उसकी... पर ठाकुर साहब की बात दूसरी है... भई लव मैरिज जो की है.’ दूसरा बोला, ‘भाई ... इतने बड़े बाप की बेटी है... सो नखरे तो होंगे ही.’ तीसरे मित्र ने भी सुर में सुर मिलाया, ‘मुझे अपने लिए तो नहीं पर आपके लिए बहुत बुरा लग रहा है... आपका तो कुछ लिहाज़ रखना ही चाहिए था भाभी जी को... खैर जाने दीजिये... जो बीत गयी वो बात गयी... लीजिये चाय भी आ गयी... चाय पीते है.’ ठाकुर साहब को रूपा की बुराई अच्छी नहीं लग रही थी पर वे चुप थे सोच रहे थे कि एक घटना से कैसे सब के मुंह में आज गज भर की जुबान आ गयी है. मेजबान शर्मा जी चाय सर्व करने लगे कि अचानक ठाकुर साहब कुर्सी में ही लुढ़क गए. अफरा-तफरी मच गयी. दोस्तों ने उन्हें हिलाया... झकझोरा... आवाज़ दी पर कोई फायदा नहीं... फिर पानी के छींटे मारकर उन्हें होश में लाया गया. थोड़ी देर बाद उनके कुछ सामान्य होने पर सब ने फिर समझाने वाले लहजे में कहा इतना मत सोचिये... जो हुआ सो हुआ... भूल जाइये... सब ठीक हो जायेगा. महफ़िल तो ख़तम ही हो गयी थी सबने जल्दी से चाय निपटायी. शर्मा जी ने कहा, ‘चलिए आपको घर तक छोड़ देता हूँ.’ ‘नहीं... मैं ठीक हूँ... चला जाऊंगा’, ठाकुर साहब ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया और चले गए. इस घटना के दो दिन बाद ही ऑफिस में जब एक बार फिर ठाकुर साहब बेहोश होकर गिर गए तो लोगों ने उन्हें डॉक्टर को दिखाने की सलाह दी. थोड़ी चिंता ठाकुर साहब को भी हुई... वो शाम को डॉक्टर से मिले. थोड़ी देर जाँच के बाद डॉक्टर बोला, ‘अभी के लिए कुछ दवाएं दे रहा हूँ... पर आप किसी बड़े अस्पताल में इसकी जांच करवा लीजिये... लापरवाही मत कीजिये.’ ठाकुर साहब ने चिंतित स्वर में पूँछा, ‘कोई गंभीर बात है क्या... डॉक् साब’? ‘अभी कुछ भी कहना मुश्किल है ... हो भी सकती है इसलिए एक बार चेकअप जरूर करा लीजिये’, डॉक्टर ने जवाब दिया. अब उन्होंने लखनऊ में जांच कराने का निश्चय किया. अगले दिन सुबह रूपा के पास जाकर बोले, ’ऑफिस के काम से बाहर जा रहा हूँ... दो दिन के लिए... बच्चों का ख्याल रखना’. रूपा ने सुना पर कोई जवाब नहीं दिया. लखनऊ में कई प्रकार की जांच के बाद जब डॉक्टर ने उनकी बार-बार बेहोशी का कारण बताया तो उनके पावों के नीचे से जमीन खिसक गयी. उन्हें ब्रेन टयूमर था. डॉक्टर ने उन्हें जल्द ऑपरेशन कराने की सलाह दी. यह सुनकर उनकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया उन्हें कुछ होश ही न रहा. इस बीच डॉक्टर ने उन्हें तसल्ली देने के लिए काफी कुछ कहा पर शायद वो कुछ सुन नहीं सके. थोड़ी देर बाद मुश्किल से बोले,’कितना समय है मेरे पास’. ‘शायद तीन या चार महीने...... पर हौसला रखिये .. समय पर ऑपरेशन से कितने ही लोग ठीक हो जाते है’, डॉक्टर ने ढाढस बंधाते हुए कहा.

उन्होंने इसकी कल्पना भी नहीं की थी ... सारा संसार उनकी आँखों के आगे घूम गया... पत्नी, बच्चे, दोस्त-यार सब... लगा सब उनसे दूर चले गए है... वो किसी निर्जन स्थान में अकेले रह गए है जहाँ चारो ओर खतरनाक जानवर उनका शिकार करना चाहते है... और बचने का कोई मार्ग नहीं... कितने असहाय और निर्बल है वो... उनका दम घुटने लगा... लगा की वो जीवित ही नहीं है. इसी निराशा में होटल पहुंचे उनके कान में डॉक्टर के शब्द अभी भी गूँज रहे थे. वो उससे बचना चाहते थे... अचानक बीता समय उन्हें याद आने लगा. बचपन की निर्धनता, युवावस्था का संघर्ष, और रूपा का साथ... प्यारे बच्चे... पर ये साथ तो अब छूटने ही वाला था. रूपा का स्मरण होते ही उसके साथ बिताया सारा समय चलचित्र की भाँति उनके मस्तिष्क में घूमने लगा... सोचने लगे कि किस तरह उसने समाज के खिलाफ जाकर उनसे विवाह किया... कितना प्यार था दोनों में... प्यार तो अब भी है बस विपरीत परिस्थिति ने उसे चिड़चिडा बना दिया है... हो भी क्यूँ न... जीवन में कितना कुछ सहा है उसने... अगर उसे पता चला ?... कितना दुःख होगा... वो तो जीते जी ही मर जायेगी. उन्होंने ने खुद से कहा, ‘नहीं... उसे इस बात का पता नहीं चलना चाहिए... मेरे दुर्भाग्य की काली छाया उसपर क्यों पड़े.’ उन्होंने निश्चय किया कि वो रूपा को कुछ भी नहीं बताएँगे... स्वयम को सामान्य बनाये रहेंगे. बहुत दुखी होने से परिस्थिति तो बदलने वाली थी नहीं इसलिए निश्चय किया कि उनके पास जो भी समय शेष है उसमे वो उसे और बच्चों को सारी खुशियां देने का प्रयास करेंगे. इसके लिए कुछ अधूरे कामों की लिस्ट तैयार की जिसमे भविष्य की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बड़ी रकम का बीमा... बच्चों की पढाई व् बेटी के विवाह के लिए धन की व्यवस्था आदि को प्राथमिकता दी. घर वापस आने पर उन्होंने अधिक से अधिक समय परिवार के साथ बिताना प्रारंभ किया... अक्सर ऑफिस से छुट्टी लेकर बच्चों को घुमाने ले जाते... उनकी हर छोटी-बड़ी जरूरत का ख्याल रखते.... चाहते थे की रूपा भी साथ आये पर डर था कि कहीं रूपा को भनक न लग जाए. रूपा भी उनकी बदली दिनचर्या से अचंभित थी... जिस आदमी के पैर घर में टिकते ही न थे वो घर में कैसे ? रूपा इसका समाधान न पा रही थी. एक दिन ठाकुर साहब की अनुपस्थिति में उनका कमरा साफ़ करते समय रूपा के हाथ डॉक्टर का पर्चा लग गया जिससे सारा राज खुल गया. उसे गहरा सदमा लगा .. कि उन्होंने इतनी बड़ी बात क्यों छिपाई... क्या उनकी निगाह में अब उसकी कोई अहमियत नहीं... क्या अब वह उनकी पीड़ा बांटने के योग्य भी नहीं... देर तक रोती ही रही. फिर उसने फैसला किया कि जो भी हो वह उनकी पत्नी है... जिसने हर सुख दुःख में साथ निभाने का वचन दिया है... अभी यह सोचने का समय नहीं की उन्होंने इस दुःख की घड़ी में उसे क्यों शामिल नहीं किया बल्कि वह उनके इस दुःख को कैसे कम कर सकती है... उनके शेष जीवन में खुशियाँ कैसे ला सकती है.

वह महेंद्र का ध्यान रखने लगी... दोनों में थोड़ी-बहुत बातें भी होने लगीं तो रिश्तों में जमी बर्फ पिघलने लगी. दोनों एक-दूसरे का ख्याल रख रहे थे पर एक एहतियात भी बरत रहे थे. महेंद्र को चिंता थी कि रूपा को बीमारी का पता न चले वहीँ रूपा फिक्रमंद थी कि उसका बदला व्यवहार कहीं महेंद्र के मन में कोई शंका न उत्पन्न कर दे... इसलिए उसने न चाहते हुए भी एक फासला कायम कर रखा था. महेंद्र भी ऑफिस के बहाने कुछ देर घर से निकल जाता था. इस बीच महेंद्र तो डॉक्टर के संपर्क में थे ही रूपा भी चुपचाप डॉक्टर से दिशा निर्देश प्राप्त कर कार्य कर रही थी. दोनों के बीच का सम्बन्ध निरंतर सुधार की ओर अग्रसर था. एक दिन रूपा ने कहा कभी अपने दोस्तों से भी मिल आइये... वो तो अब इधर आते नहीं... मुझे उनसे बुरा व्यवहार नहीं करना चाहिए था. महेंद्र ने रूपा से कहा कि इसमें उसका दोष नहीं था वे ही घर में समय नहीं दे पाते थे. समय हंसी-ख़ुशी गुजर रहा था पर दोनों को पता था यह सब अधिक समय चलने वाला नहीं. डॉक्टर ने ऑपरेशन की डेट फिक्स कर दी थी. एक ओर तो महेंद्र सारी खुशियाँ दोनों हाथो बटोर लेना चाहता था तो दूसरी ओर उसने ऑपरेशन कराने की गुपचुप तैयारी प्रारंभ कर दी. घर छोड़ने के पहले उसने रूपा के नाम पत्र लिखा,

‘प्रिय रूपा

प्यार

संभव है जब यह पत्र तुम पढ़ रही होगी तो मै तुमसे और इस दुनिया से बहुत दूर जा चुका हूँगा. हाँ.. मुझे मस्तिष्क की गंभीर बीमारी है जिसे डाक्टरी भाषा में ‘ब्रेन टयूमर’ कहते है... मेरा जीवन इस ऑपरेशन की सफलता पर निर्भर करता है. मुझे दुःख है कि मैंने तुमसे यह बात छुपाई क्योंकि मैं अपने आखिरी समय में तुम्हे दुखी नहीं देख सकता था... वैसे भी जीवन में तुम्हे कोई सुख नहीं दे पाया हूँ... लगता है कि अब तुम्हारा साथ भी नहीं निभा पाऊंगा... आशा है मेरी त्रुटियों के लिए मुझे क्षमा करोगी... मैंने भविष्य की आर्थिक जरूरतों की पूर्ति हेतु कुछ व्यवस्था की है जिसकी पूरी जानकारी तुम्हे मेरी डायरी से मिल जायेगी. अपना और बच्चों का ख्याल रखना. जीवन में मेरा साथ निभाने के लिए आभार. सबको प्यार.

महेंद्र.

पत्र को मेज की दराज के हवाले कर ऑफिस के काम के बहाने भरे मन से रूपा और बच्चों से विदा ली. रूपा ने बड़ी कठिनाई से अपनी भावनाओं पर नियंत्रण किया. रूपा को उनके घर से जाने का कारण पता था... शीघ्र ही उसने वह पत्र भी प्राप्त कर लिया... जैसे–जैसे पत्र पढ़ा उसे लगा कि उनके बीच की सारी दूरियां दिखावा थी.. कितना ख्याल था उन्हें उसका. वह सब ठीक कर देना चाहती थी... पहले जैसा... पर होनी पर उसका वश कहाँ... वह रो पड़ी. ऑपरेशन दो दिन बाद का था. रूपा भी उनके पीछे चुपचाप अस्पताल आ गयी. जब माही ऑपरेशन थिएटर में ले जाया जा रहा था उसे लगा की उसने रूपा को देखा है जो उसे पुकार रही थी. उसने इसे भ्रम समझा तभी रूपा ने बढकर उसका हाथ थाम लिया और बोली, ’इतना नाराज हो मुझसे... कि मुझे बिना बताये ही चले आये... पर मै तुम्हारा पीछा छोड़ने वाली नहीं... तुम्हे कहीं नहीं जाने दूँगी... तुम्हे कुछ नही होगा माही!.’

ऑपरेशन नियत समय पर शुरू हुआ.. रूपा बेचैन थी पर उसने धीरज नहीं खोया था... उसके मन के भीतर तूफ़ान उमड़ रहा था... भावना का ज्वार उफान पर था. सोच रही थी की क्यों मिथ्या अभिमान और पद के लोभवश उसने अपने रिश्ते को दांव पर लगा दिया. जिस माही को वह सबसे अधिक प्रेम करती थी उसमें उसे सिर्फ खोट नज़र आने लगे. उसे अब अपनी गलती पर घोर पछतावा हो रहा था. वह माही से क्षमा माँगना चाहती थी... प्रायश्चित करना चाहती थी... पर माही था कहाँ वह तो ऑपरेशन टेबल पर जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहा था. वह ईश्वर से उसकी कुशलता की प्रार्थना करते हुए अधीरता से ऑपरेशन के खत्म होने की प्रतीक्षा करने लगी कि तभी डॉक्टर ने उसे ऑपरेशन के सफल होने की सूचना दी. रूपा की ख़ुशी की कोई सीमा न थी.. उसके सब्र का बाँध टूट गया. पिछले तीन महीनों से आँखों में कैद आंसुओ ने सारे बंधन तोड़ डाले. उसके मन का सारा मैल धुल गया और उसे माही का पुराना रूप नज़र आने लगा. वह फूट-फूट कर रो पड़ी... उसने एक और मौका देने के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया. वह दौडकर अपने माही के पास जाना चाहती थी पर वह अभी बेहोश था. वह नवजीवन की आशा ह्रदय में सहेजे लगन से उसकी सेवा में जुट गयी.

राजन द्विवेदी