भरसक प्रयास
कंपनी की हालत बहुत खराब थी, लगता था कि आज बंद हुई या कल बंद हुई। कर्मचारियों का वेतन भी बैंक से कर्ज लेकर दिया जा रहा था, उधर कर्मचारी यूनियन की प्रतिदिन कोई न कोई नई मांग आ जाती थी, जिसके लिए लगातार धरना प्रदर्शन चल रहा था। प्रशासन भी कंपनी को बंद करने के मूड में नहीं था क्योंकि प्रशासनिक अधिकारी कंपनी के नहीं थे, सभी बाहरी थे अतः वे सब एक ही सूत्र पर काम कर रहे थे, “जब तक जियो, उधार लेकर घी पियो।” और अगर कंपनी डूब जाए तो अपने वास्तविक विभाग में पहुँच जाओ।
कर्मचारी एवं छोटे अधिकारी, जिनका सरोकार कंपनी से था वे कंपनी को बचाने का भरसक प्रयास कर रहे थे। इनमे से दो अधिकारी, नारद जी और नामी जी तो सुबह से लेकर साँय तक कंपनी बचाने के काम में ही लगे रहते थे।
नारद जी सुबह साढ़े दस, ग्यारह बजे तक अपने कार्यालय पहुँच जाते थे, क्या करें चार्टर्ड बस ही उनको उस समय पहुंचाती थी। कार्यालय का दरवाजा स्वयं ही खोलते और स्वयं ही सफाई करते क्योंकि तब तक सफाई कर्मचारी तो अपना काम खत्म करके जा चुका होता था। डस्टर झाड़ू नारद जी ने अपने कमरे में ही रख रखे थे। सफाई करने के बाद अपने हाथ मुंह एवं जूते जुराब निकाल कर घुटनों तक के पैर धोकर आते, अपने कार्यालय में विद्यमान सभी भगवान जी को एकत्रित करके उनको नहलाने ले जाते, नहला कर वापस लाते और मेज पर रख कर साफ कपड़े से पोंछते फिर उन्हे उनकी मान्यतानुसार स्थापित कर देते। धूप दान धोकर लाते और उसको पोंछ कर उसमें मोटी सी धूप जलाते। धूप का धुआँ सभी भगवनों को दिखा कर, उनके सामने हाथ जोड़ कर शीश नवाकर ज़ोर ज़ोर से प्रार्थना करते, “हे भगवान, हमारी कंपनी को डूबने से बचा लेना।”
पूरा कमरा धूप के धुंवे से भर जाता और उसमे बैठना भी मुश्किल हो जाता, फिर नारद जी सभी भगवानों को धुंवे मे घुटता छोडकर स्वयं कमरे से बाहर आ जाते। कमरा बंद करके नारदजी कार्यालय की पूरी इमारत की तीन परिक्रमा करते एवं मन ही मन बोलते रहते, “हे भगवान, हमारी कंपनी को बचा लेना।” नारद जी अपनी तीसरी परिक्रमा कैंटीन के पास आकर समाप्त करते एवं चाय पीने के लिए कैंटीन में घुस जाते। कैंटीन से चाय पीकर वापस अपने कार्यालय पहुँचते जहां पर तब तक धूपबत्ती का धुआँ कुछ कम हो जाता।
हल्का हल्का धूपबत्ती का धुआँ और साथ में महकी महकी सुगंध से मन भी प्रसन्न एवं भगवान जी भी प्रसन्न। अब बारी आती है उनकी मेज के बाएँ तरफ रखी हुई कुछ फाइलों की, नारद जी एक एक करके उन फाइलों को उठाते, खोल कर देखते, पन्ने पलटते लेकिन पढ़ते नहीं और न ही कुछ लिखते, बस बंद करके दाहिनी तरफ रख देते, इस तरह बायीं तरफ रखी हुई सभी फाइलें एक एक करके दायीं तरफ आ जाती।
तभी नारद जी की निगाह घड़ी पर पड़ती तो देखते कि लंच का समय हो गया है और नारद जी तुरंत ही कमरा बंद करके दही लेने दौड़ पड़ते, दही लाकर भोजन करते एवं भोजन करने के पश्चात नारद जी अपने सारे बर्तन धो पोंछ कर टिफिन में लगाते और टिफिन वापस बैग में रखते, कमरे का ताला लगा कर घूमने जाते और घूम फिर कर फिर तीन बजे वापस आते, वापस आकर फिर एक नजर सभी भगवानों पर डाल कर काम शुरू करते, लंच से पहले जो फाइलें बाईं तरफ से उठाकर दायीं तरफ रखी थीं, अब उनको उसी तरह उठाकर खोलते, पन्ने पलटते एवं बारी बारी से बाईं तरफ रख देते।
फाइलों को यथा स्थान रखने पर ही समय पंख लगा कर गुजर जाता और नारद जी को चाय की याद आ जाती। तब नारद जी कमरा बंद करके कैंटीन पहुँच कर चाय पीते और निकल कर कार्यालय की इमारत की बाकी बची चार और परिक्रमा करते एवं भगवान से प्रार्थना करते, "हे भगवान, हमारी कंपनी को बचा लेना।" चार परिक्रमा पूरी करके वापस कार्यालय के अपने कमरे में आते आते पाँच बज जाते, और नारद जी स्वयं से ही कहते, "आज तो काम करने की जरा फुर्सत नहीं मिली, कल देखते हैं कुछ समय बचा तो थोड़ा सा कंपनी का काम भी करूंगा।"
तभी नारद जी के पास बड़े साहब का बुलावा आता है, नारद जी दौड़ते हुए बड़े साहब के कमरे में जाते हैं, “यस सर!” बड़े साहब पूछते हैं, “नारद! वो सभी फाइलें निबटा दीं?” नारद जी, “नहीं सर! आज तो बिलकुल भी समय नहीं मिला।” बड़े साहब बोले, “अरे नारद! अगर काम नहीं करोगे तो कंपनी कैसे बचेगी?” नारद जी कहते हैं”, “सर! मैं कंपनी को बचाने का भरसक प्रयास कर रहा हूँ, बस सारा समय उसमे ही लग गया, काम करने का समय बचा ही नहीं, लेकिन मैं कर लूँगा, आप चिंता न करे, अब तो मेरी बस का समय हो गया है अगर आज्ञा दें तो मैं निकल जाता हूँ,” और नारद जी बैग उठाकर बस पकड़ने के लिए दौड़ पड़े।
ऐसे ही और दूसरे कर्मचारी एवं अधिकारी भी अपने अपने ढंग से कंपनी को बचाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं जैसे नामी साहब तो बड़े साहब हैं। सुबह ग्यारह बजे तक कार्यालय पहुँच जाते हैं और फिर तुरंत ही निकल जाते हैं कंपनी को बचाने का काम करने।
नामी साहब बाजरा, भुने चने, बिस्कुट व केले साथ लेकर आते हैं एवं पूरे कैम्पस में घूम घूम कर चिड़ियों को दाना चुगाते, उनके पानी के बर्तन धोकर उनमे पानी भरते, बंदरों को केले व बिस्कुट खिलाते, बिस्कुट का चूरा करके पेड़ की जड़ों में चींटीओ को डालते एवं एक पीपल के पेड़ के नीचे लगे शिवलिंग पर जल चढ़ा कर माल्यार्पण करते फिर दोनों हाथ जोड़ कर भगवान से प्रार्थना करते, “भगवान! हमारी कंपनी को डूबने से बचा लो।”
यह सब करते हुए भोजनवकाश का समय हो जाता तब वह तेज तेज कदमों से अपने कार्यालय की तरफ बढ़ जाते जहां पर उनका खाना रखा है जो वह घर से लेकर आए थे। बहादुर को आवाज लगाकर कहते”, “बहादुर! मेरा खाना लगा दो, बहुत भूख लगी है, मैं तो भागते भागते थक भी गया।” बहादुर उनके कार्यालय में चपरासी है, साहब का खाना लगता है, पानी रखता है। नामी जी खाना खाकर वहीं सोफ़े पर ढेर हो जाते हैं, आँख खुलती है तो देखते हैं साड़े तीन बज गए। अब नामी जी को सिगरेट और चाय की तलब लगती है तो पहुँच जाते है उस कियोस्क पर, जहां वह प्रतिदिन चाय और सिगटेट पीते हैं।
चाय पीकर फिर कार्यालय मे आ जाते हैं तो बहादुर सूचना देता है कि बड़े साहब ने अपने कमरे में बुलाया है। नामी जी बड़े साहब के पास जाते हैं, “यस सर!” बड़े साहब पूछते है, “अरे भाई नामी वो बजट की सैंक्शंस निकाली कि नहीं, सारा काम रुक गया है, काम नहीं करोगे तो कंपनी बैठ जाएगी, दिवालिया हो जाएगी।” नामी जी कहते, “सर! मैं सुबह से कंपनी को बचाने का भरसक प्रयास कर रहा हूँ और इस प्रयास में प्रतिदिन मेरे सौ पचास रुपए भी खर्च हो जाते हैं लेकिन मैं उसकी परवाह नहीं करता, मन में बस यही कामना रहती है कि हमारी कंपनी बच जाए और इसके लिए मैं भरसक प्रयास करता रहूँ। सर! जैसे ही समय मिलेगा मैं सारी सैंक्शंस निकाल दूंगा, क्या करूँ? समय ही नहीं मिलता काम करने के लिए।”
“सर! पाँच बज गए आप मुझे आज्ञा दें, नहीं तो मेरी बस निकल जाएगी।” इतना कह कर नामी जी अपना बैग उठाकर कार्यालय से तेज तेज कदमों से निकल कर बाहर सड़क पर आ जाते हैं एवं कियोस्क से सिगरेट लेकर उसका धुआँ उड़ाते हुए बस की प्रतीक्षा करने लगते हैं। ठीक सवा पाँच बजे बस आती है और नामी जी घर की तरफ रवाना हो जाते हैं।
और भी बहुत से कर्मचारी एवं अधिकारी कंपनी को बचाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं और पूरा दिन इसी प्रयास में निकल जाता है, काम करने का तो समय ही नहीं बचता। अब तो बस यह भगवान के ऊपर निर्भर करता है की वह इन लोगों की विनती सुन ले और हो सकता है कंपनी बच जाए।