Chitramala ka shirshak in Hindi Moral Stories by Manish Kumar Singh books and stories PDF | चित्रमाला का शीर्षक

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चित्रमाला का शीर्षक

चित्रमाला का शीर्षक

‘’प्रेम को आप पाणिनी की अष्‍टाध्‍यायी में नहीं, वात्‍स्‍यायन के कामसूत्र में ढॅूढि़ए।’’ मंगल आयोजन में ढ़ेर सारे एकत्रित मर्द-औरतों के बीच राजशेखर दर्प से बोले। बात प्रेम की हो रही थी लेकिन उनके हाव-भाव श्रृंगार की बजाए वीर रस की निष्‍पत्ति अधिक कर रहे थे। कुटुम्‍ब में इतना बड़ा आयोजन था। कई शहरों से अैर यहॉ तक कि विदेश में बसे नाते-रिश्‍तेदार भी हाजिर थे। जान-पहचान वाले तो खैर थे ही। अधेड़ वय वाले राजशेखर के किशोर पुत्र और पुत्री अपने समवय साथियों के साथ कल्‍लोलरत थे। गोल-मटोल शरीर वाली धर्मपत्‍नी मॅहगी साड़ी और ढ़ेर सारे गहने धारण किए अपनी मण्‍डली में रमी हुई थीं। पूजा-पाठ करवाने की जिम्‍मेवारी पंडितजी और परिवार के लोगों की थी।

पॉच-सात लोगों के साथ दालान में आराम कुर्सी पर विराजमान तनिक भारी शरीर के स्‍वामी राजशेखर बड़े आत्‍मविश्‍वास से बातें कर रहे थे। सर के बालों के मेंहदी के नियमित सेवन की वजह से लाल हो जाने से ऐसा लगता था कि जंगल में आग लगी हो।

आखिर उन्‍होंने तलब के आगे हार मान कर सिगरेट सुलगा ली। थोड़ी दूर पर पूजा हो रही थी। ऐसे में उनका यह कार्य बेहद दुस्‍साहसिक माना जाएगा क्‍योंकि कोई भी टोक सकता था। लेकिन अपने तीक्ष्‍ण तर्को और भौतिक वैभव पर उन्‍हें पूरा भरोसा था। ‘’समाज के नियम सोच-समझ कर बने हैं। प्‍यार-मुहब्‍बत का ज्‍वार देर तक नहीं टिकता।’’ एक साहब ने कहा। राजशेखर ने उन्‍हें हिकारत भरी नजर से देखा। ‘’छोडि़ए हजूर। राधा-कृष्‍ण, दुष्‍यन्‍त-शकुन्‍तला जैसे न मालूम कितने उदाहरण बिखरे पड़े हैं।’’ सिगरेट के कश से कई दिलकश छल्‍ले बनाने के बाद वे सहसा आवाज चढ़ाकर बोले। ‘’कोई पानी को भी नहीं पूछ रहा है। क्‍या आप लोग जलसंकट से जूझ रहे हैं?’’ यह सुनकर गृहस्‍वामिनी लज्जित होकर बोली। ‘’भाई साहब बस दो मिनट। पूजा खत्‍म होने वाली है।’’ वह जवाब में जैसे रियायत देते हुए मुस्‍कराए। एक दो कश लेकर उनहोंने सिगरेट का अवशेष एशट्रे के अभाव में फर्श पर गिराकर अपनी चोंचदार नोंक वाले जूते से कुचल दिया।

एक तनिक दुबली सी लड़की ट्रे में पानी का गिलास लेकर हाजिर हुई। उन्‍होंने गिलास पकड़ते हुए उसे अत्‍यन्‍त गौर से घूरा। उपस्थित लोगों से यह बात छिपी न रही। लड़की के जाने के बाद एक सज्‍जन ने पूछा। ‘’ऐसे क्‍या देख रहे हैं राजशेखर बाबू? यह छबीलदास जी की बेटी है। उनके गुजर जाने के बाद बेचारी बड़ी मेहनत से घर सॅभाल रही है।’’ लड़की उनकी किशोरी पुत्री से कुछेक साल ही बड़ी होगी।

‘’बिटिया बड़ी होशियार है।’’ राजशेखर की उम्र के ही एक सज्‍जन ने कहा। उनके मुख पर किसी कड़वी चीज को खाने के बाद वाले भाव आ गए। ‘’जनाब बिना सोचे-समझे किसी को बिटिया, बहनजी जैसे संबोधन मत कीजिए। लड़कियॉ बुरा मान जाती हैं।’’ बिना किसी की प्रतिक्रिया का इंतजार किए स्‍वयं ही अपने कथन पर जोरों से हॅसे लगे। अपने दिग्‍विजयी आत्‍मविश्‍वास की बदौलत उन्‍हें भरोसा था कि वे घी-तेल से भीगे वस्‍त्र धारण कर भी आग के बीच से निकल जाएगें। जरुरत पड़ने पर वे अकेले ही कईयों पर भारी हैं। उॅगलियों से आर्कस्‍ट्रा न बजा दॅू तो कहना।

‘’आप सब लोग चलिए आरती शुरु हो रही है।’’ वह लड़की दुबारा आयी। राजशेखर के आगे बढ़ जाने के बाद एक साहब ने अपने बगल वाले को मधुर कुहनी मारकर मन्‍द स्‍वर में कहा। ‘’सुनते हा कि राजशेखर बाबू का शादी से पहले कोई अफेयर रहा है।’’ दूसरे सज्‍जन ने मन्‍दतर ध्‍वनि में उत्‍तर दिया। ‘’इनका शादी के बाद भी ऐसे चक्‍कर खत्‍म कहॉ हुए हैं।’’

‘’अरे कमाल है....बीबी कुछ बोलती नहीं है?’’ पहले वाले ने जिज्ञासा प्रकट की।

‘’छोडि़ए श्रीमान उसे कंगन, झुमका दिलाकर छुट्टी की। ऐसी बीबियॉ बस साज-श्रृंगार तक मतलब रखती हैं। दुनिया में क्‍या हो रहा है इससे उनहें क्‍या....। अपनी सुख-सुविधा, पार्लर, गाड़ी, मार्केटिंग में कमी नहीं होनी चाहिए।’’ दूसरे सज्‍जन ने यथार्थ का दर्शन कराया।

‘’चाहे कुछ भी कहिए। जिस दिन वाइफ को पता लगेगा, समझिए ये जनाब काम से गए। वाइफ तो वाइफ होती है।’’ अन्‍त में सच्‍चाई का बोलबाला और झूठे का मॅुह काला जैसे आदर्शवादी अन्‍त पर बात आ गयी।

समारोह के बाद भीड़ छॅटने लगी। कुछेक खास लोग आत्‍मीय गप-शप के लिए रुक गए थे। बालकनी में लड़की कप लिए सामने दरख्‍तों की हरियाली देख रही थी। राजशेखर अनायास उसी तरफ बढ़ गए। ‘’साथ-साथ चाय पीने का मजा कुछ और है।’’ शुरुआत उन्‍होंने की। लड़की सौजन्‍यतावश मुस्‍करायी। ‘’मैं चाय नहीं ब्‍लैक कॉफी पी रही हॅू।’’ राजशेखर पल भर के लिए ठिठके फिर हॅसने लगे। ‘’बहुत खूब! इंटेलेक्‍चुअल यही पीते हैं। चाय-वाय तो आम लोगों की खातिर है। वैसे कौन सी बुक्‍स पढ़ती हो तुम?’’

‘’बुक्‍स....?’’ उसने कौतुहल से ऑखें फैलायी।

‘’हॉ भई किताबें पढ़नी जरुरी है। दिमाग की खुराक है। मैं रात में सोने से पहले रोज आधा घंटा पढ़ता हॅू।’’

‘’आप अपने नियम का पालन कीजिए। पर मैं किताबी कीड़ा हॅू। सोने से पहले घंटों पढ़ती हॅू। यह कहिए कि तब तक पढ़ती हॅू जब तक ऑख न लग जाए।’’ वह हॅसने लगी। राजशेखर अवाक रह गए।

‘’बाई दी वे मेरा नाम कविता है।’’ लड़की बात करने को राजी ही नहीं बलिक उत्‍सुक भी है यह देखकर वे अति प्रसन्‍न हुए। ब्‍लैक कॉफी का सेवन करने वाली, जवाब देने में बहादुर और पढ़ाकू टाइप है। देखने में भी सुन्‍दर, स्‍मार्ट....। राजशेखर मॅूछों ही मॅूछों में मुस्‍कराए। पुराने दिनों में मिस कॉलेज और मिस सिटी जैसों के सामने नर्वस नहीं हुआ तो अब इतना अनुभव हासिल करने के बाद क्‍या गच्‍चा खाऊगॉ। मछली की चर्बी से बने तेल से ही मछली फ्राई होती है।

‘’पेंटिंग मेरी हॉबी है।’’वह बिना पूछे बताने लगी। ‘’बल्कि यॅू कहिए कि पैशन है।’’

‘’बहुत खूब!’’ उन्‍होने ऐसे दाद दिया मानो कुछ फड़कता हुआ शेर सुन लिया। बस ताली बजाना शेष रहा। ‘’बिना किसी पैशन के जिन्‍दगी क्‍या है?.....पेंटिंग की एक्‍जीबिशन हुई?’’

‘’अभी तक तो नहीं।’’

‘’मेरे कुछ कांटैक्‍ट हैं। तुम मुझसे मिलना। तुम्‍हारी पेंटिंग की एक्‍जीबिशन करवाऊगॉ। इसी बहाने हम दुबारा मिलेंगे।’’

लड़की मिडिल क्‍लास की है। पढ़ाई में भी बेहद औसत है। पूछताछ करने पर एक साझे परिचित ने जानकारी दी। अन्‍त में तनिक विहॅस कर कहा। ‘’न जाने आप को उसमें क्‍या दिखा। बालों में तेल और हाथ के नाखून के मैल साफ न करने वाली पर दिल आ गया।’’

उनका उत्‍साह इस प्रतिकूल टिप्‍पणी के बावजूद अप्रभावित रहा। प्रथम द्दष्‍टया के आधार पर निकाला गया निष्‍कर्ष आधा-अधूरा हो सकता है। अन्‍दर जाकर संदर्भो को पकड़ना पड़ेगा। इसलिए इत्‍मीनान से बोले। ‘’जनाब मेरी पसंद के बारे में ऐसा-वैसा मत कहिए। मुझे इंटेलेक्‍चुअल टाइप के पसंद हैं। मेरे इरादे ऐसे-वैसे नहीं हैं।’’

‘’नहीं-नहीं मैंने कब कहा? इरादे तो आपके हमेशा महान होते हैं।’’ परिचित भी बात को परिहास के सिवा और किसी रुप में नहीं ले रहा था। इन भाईसाहब नुमा परिचितों की ठिठोली को गंभीरता से लेने की जरुरत बिल्‍कुल नहीं है। इनकी मुठ्ठी में गुलाल के साथ एकाध कंकड़ जरुर रहता है। लोग सोचते हैं कि यह दूसरी औरतों पर आसक्‍त है तो उनकी बुद्धि का विकार है। पत्‍नी के पास जरा देर के लिए बैठो तो उसके सास-पुराण में खराब गाड़ी की तरह इतना प्रदूषण निकलता है कि कान-नाक और फेफड़े काले धॅुए में निमग्‍न हो जाते हैं। वे उससे क्‍या बात करें। अगर कोई अन्‍य स्‍त्री मुस्‍कराकर बात करती है तो कौन खुश नहीं होता है। इच्‍छाऍ मन के अन्‍दर चूल्‍हे पर भोजन की तरह पकती हैं। उनकी खुशबू विभोर करती है। यदि चखने को मिल जाए तो कौन चूकेगा? दरअसल सब पाखण्‍ड़ी हैं। ऊपर से मुखौटा ओढ़े हुए हैं। आचार-संहिता को बात-बात में उद्धत करने वाले कुछ नादान भी कभी-कभार पीछे पड़ जाते हैं।

‘’मैंने तुम्‍हें बुलाया था पर तुम नहीं आयी।’’ कविता को कॉल करके वे तीव्र आवेग से उलाहना देते हुए पूछ रहे थे। उधर से पल भर की शांति को अवहेलना समझकर वे भर्त्‍सनापूर्वक बोले। ‘’लगता है कि पेंटिंग-वेंटिंग में तुम्‍हारी रुचि बस ऊपरी है।’’ वह थोड़ी देर चुप रही। जैसे समझ न पा रही हो कि क्‍या जवाब दे।

‘’ऐसी बात नहीं है एक दिन ऐसे ही आपके घर धमक जाऊगी।’’

‘’अरे नहीं।’’ वे हड़बड़ा गए। ‘’मेरे यहॉ आर्ट-वार्ट के लिए सही माहौल नहीं है। यू नो....।’’ वे पत्‍नी की मानसिकता और उसके विस्‍फोटक रुप को ध्‍यान में रखकर चट से बोले। ‘’तुम कोई ऐसी जगह बताओ जो तुम्‍हारे लिए ठीक हो। मैं हाजिर हो जाऊगॉ।’’ उनका दिल बल्लियों उछलने लगा।

‘’आप मेरे यहॉ अगले सनडे क्‍यों नहीं आ जाते हैं?’’ उसके प्रस्‍ताव को स्‍वीकार करने में राजशेखर को पल भर नहीं लगा। लेकिन मोबाइल पर कहा। ‘’जरा रुको। अपनी डायरी चेक कर लॅू।‘’ यॅू ही एक मिनट बिताने के बाद बोले। ‘’ठीक है डन।’’

इतवार को जब दिन भर मृत पड़े तारे शाम ढ़लने पर जग उठे, उस बेला में वे उसके यहॉ पहॅुचे। आज संध्‍या स्‍मरणीय बोतल को भी विस्‍मृत कर दिया। उम्र की पोल खोलने वाली चुगलखोर लकीरों और श्‍वेत केश को जतन से छुपाआ और रंगा था।

कविता का घर एक आम मध्‍यमवर्गीय परिवार की तरह औसत दर्जे का था। दीवाल, फर्नीचर, खिड़की के परदे सब सामान्‍य। मेहमान के आगमन पर कोई ताम-झाम नहीं किया गया था। उसने राजशेखर के लिए चाय-नाश्‍ता खुद तैयार किया। खुद के लिए ब्‍लैक कॉफी बनायी। अपनी पेंटिंग दिखायी। राजशेखर विशेषज्ञ की भॉति प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त कर रहे थे।

‘’तुम्‍हें सबसे सुन्‍दर अपनी कौन सी पेंटिंग लगती है?’’ उन्‍होंने पूछा।

‘’मुझे कोलाज पसंद है। उसमें काफी कुछ करने का मौका मिलता है।’’

अन्‍त में उनसे रहा नहीं गया तो बोल उठे। ‘’पेंटिंग तुम्‍हारी तरह खूबसूरत हैं।’’ बदले में कविता के चेहरे पर जो भाव आए वे इसी प्रकार की प्रतिक्रिया की उम्‍मीद कर रहे थे। ‘’यू नो कविता....हर इंसान के साथ उसके अन्‍दर एक और इंसान रहता है। दुनियादारी, समाज के लिए आदमी शादी, परिवार का झमेला जरुर ढ़ोता है लेकिन अन्‍दर बैठा दूसरा इंसान उसे हमेशा यह याद दिलाता है कि वह अपने तरीके से जी नहीं पा रहा है।’’ चाय का घॅूट गले के अन्‍दर उतार कर वे पुन: शुरु हुए। ‘’ज्‍यादातर लोग पेड़-पौधों की तरह चुपचाप जिन्‍दगी गुजार देते हैं। बट आई एम डिफिरेन्‍ट।’’

वह ठुड्डी पर हाथ रखकर उन्‍हें गौर से सुन रही थी। उसका ध्‍यानपूर्वक सुनना उन्‍हें भाया। वे व्‍यग्र थे लेकिन कतिपय अवसरों पर व्‍याकुलता चैतन्‍य होने की पहचान है। व्‍याकुलता के साथ धैर्य का अभूतपूर्व स‍हअस्तित्‍व था। जिस धागे की गांठ खुल सकती है उस पर कैंची नहीं चलानी चाहिए। उनकी बातें सुनकर वह बोली। ‘’आप तो मुझे बड़े सुलझे हुए लगते हैं।’’

‘’मैं एक सुलझी हुई पर्सनाल्‍टी के पीछे एक बेहद उलझा हुआ आदमी हॅू।’’

कविता के कॉफी का कप आधा खाली हो चुका था।

मन में दबी बात कछुए की तरह सर उठाकर सम्‍मुख उपस्थित हो गयी। वह सहसा बोल पड़े। ‘’जी चाहता है कि तुम्‍हारी कॉफी का कप मैं ले लॅू और तुम मेरी चाय पीओ।’’

व‍ह सहसा ठठाकर हॅस पड़ी। वे चौंके। सामान्‍यत: ऐसे अवसर पर आधुनिकतम महिला को भी शर्माना चाहिए। लेकिन यह क्‍या...। अन्‍दर के कमरे से राजशेखर को उनकी पत्‍नी रौद्र रुप धारण किए निकलती दिखी। कविता के मुख पर व्‍यंग्‍य भरी हॅसी थी। उसके मुख पर उपहास के सिवा कोई और भाव ढॅूढ़े नहीं मिल रहा था। और उनका चेहरा....। वे ऐसे खड़े थे मानो उनका सर्वस्‍व हरण कर लिया गया हो।

सचमुच वह सच्‍ची चित्रकार थी। उसने तीन सजीव चित्र उकेरे। एक चण्डिका का, दूसरी मायाविनी का और तीसरा...मूर्ख का। जरा सोचिए इस चित्रमाला का क्‍या शीर्षक हो सकता है?

मनीष कुमार सिंह