ऋषि उद्दालक एवं श्वेतकेतु
आशीष कुमार त्रिवेदी
ऋषि उद्दालक का उल्लेख आरूणकोपनिषद एवं कठोपनिषद में भी मिलता है। इन्हें आरुणि के नाम से जाना जाता है। उपनिषदों में इनके चरित्र का बहुत विज्ञ रूप दिखाई पड़ता है। इनकी प्रतिष्ठा पुराणों में एक महान ऋषि रूप में है। अरुणि ऋषि का नाम उद्दालक कैसे पड़ा यह एक रोचक व ज्ञानवर्धक प्रसंग है। वह ऋषि धौम्य के शिष्य थे। ऋषि धौम्य बहुत विद्वान वेदों के ज्ञाता और अनेक विद्याओं में कुशल और पारंगत थे। उनके पास बहुत से विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। आरुणि नाम इनके बहुत आज्ञाकारी शिष्य थे। वह सदा अपने गुरु धौम्य के आदेशों का पालन किया करता थे। पढने में तो सामान्य ही थे किंतु आज्ञाकारी बहुत थे।
एक बार घनघोर वर्षा होने लगी तो आश्रम में चारों ओर जल का भराव होने लगा। आश्रम के पास जो खेत थे वह भी जल में डुबने लगे। ऋषि धोम्य को चिन्ता होने लगी की यदि खेतों में अधिक जल भर गया तो फ़सल नष्ट हो जाएगी तथा बहुत नुकसान होगा। उन्होंने अपने शिष्य आरुणि को खेतों में जाने को कहा ताकि वह देख सकें कि वहाँ पानी तो जमा नहीं हो रहा।
ऋषि धौम्य का आदेश पाकर आरुणि खेतों की ओर चल पड़े। वहाँ पहुँच कर उन्होंने चारों ओर देखा। तभी उनकी दृष्टि एक जगह पर पड़ी जहाँ मेंड़ टूटी हुई थी। जिसके कारण पानी बड़े वेग से खेतों में भर रहा था। आरुणि ने उस मेंड़ को ठीक कर पानी रोकने का प्रयास किया। परंतु बहुत परिश्रम करने पर भी वह मेंड़ ठीक नहीं हो सकी। पानी खेत में भर रहा था। तब आरुणि को एक उपाय सूझा। वह स्वंय उस स्थान पर लेट गए। इस कारण जल का बहाव रुक गया।
जब बहुत रात हो गई और आरुणि नहीं लौटे तो ऋषि धौम्य को चिंता सताने लगी। तब वह अपने कुछ शिष्यों को साथ लेकर आरुणि को खोजने के लिए खेतों की ओर चल दिए। खेत पर पहुँचने पर उन्होंने ने देखा कि आरुणि पानी को रोकने के लिए मेंड़ के पास लेटा हुआ था।
यह देखते ही ऋषि धौम्य भावविभोर हो गए। उन्होंने उसे उठाकर गले से लगा लिया। उन्होंने कहा "तुम एक आदर्श शिष्य के रूप में सदा याद किए जाओगे। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम दिव्य बुद्धि प्राप्त करोगे तथा सभी शास्त्रों में निपुण होगे। आज से तुम उद्दालक के रूप में प्रसिद्ध होगे जिसका अर्थ है जल से निकला या उत्पन्न हुआ।" इस कारण आरुणि ऋषि को उद्दालक के नाम से जाना गया। गुरू के आशार्वाद से जल्द ही वह सभी विद्याओं में निपुण हो गए।
श्वेतकेतु उद्दालक ऋषि का पुत्र था। चौबीस साल की अवस्था में जब वह गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त कर लौटा तो उद्दालक ऋषि ने उससे पूंछा "पुत्र तुमने क्या सीखा?"
श्वेतकेतु ने सगर्व कहा "जितनी भी विद्याएं सीखी जा सकती थीं मैंने सब सीख लीं।"
उद्दालक ऋषि को अपने पुत्र की वाणी में छिपा दर्प अच्छा नहीं लगा। उन्होंने पुनः प्रश्न किया "क्या तुम परम सत्य के विषय में जानते हो? जिसको जानने के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता है।"
श्वेतकेतु अभी भी कुछ समझ नहीं सका। वह बोला "पिताश्री गुरुकुल में जो भी पढ़ाया गया वह मैंने बहुत ध्यान से पढ़ा।"
"पुत्र तुम्हारा सारा ज्ञान व्यर्थ है। तुम्हें वास्तविक ज्ञान नहीं है। जो भी तुमने सीखा उधार की विद्या है। ज्ञान वही है जो आत्म मंथन से उपजे। जो संसार का नहीं परम सत्य का भान करवाए।" उद्दालक ऋषि ने समझाया।
श्वेतकेतु ने विनम्र भाव से कहा "तो पिताश्री आप ही मुझे परम सत्य का ज्ञान कराएं।"
उद्दालक ऋषि ने श्वेतकेतु से कहा कि उसे स्वयं को उस ज्ञान को प्राप्त करने हेतु तैयार करना होगा। उन्होंने उससे एक सप्ताह तक अन्न जल का त्याग करने को कहा।
अपने पिता की आज्ञानुसार श्वेतकेतु ने एक सप्ताह का व्रत रखा। ऋषि उससे प्रतिदिन जो भी उसने गुरुकुल में सीखा उस पर चर्चा करते। उसके लिए सत्य की परिभाषा क्या है जानने का प्रयास करते। आरंभ में श्वेतकेतु उनके जवाब में रटी रटाई बातें बड़े विस्तार से बताता। किंतु दिन बीतने के साथ साथ भूख प्यास उस पर हावी होने लगी। अब वह नपे तुले संक्षिप्त उत्तर देता था। अंतिम दिन भूख की वेदना असहनीय हो गई थी। उद्दालक ऋषि ने फिर उससे सत्य के बारे में पूंछा। श्वेतकेतु झुंझला कर बोला "इस समय मेरे लिए सबसे बड़ा सत्य अन्न है।"
उद्दालक ऋषि बोले "अब तुम परम सत्य को जानने के लिए तैयार हो। अपनी भूख के कारण तुम्हें अन्न में उस परम सत्य के दर्शन होने लगे। अन्न भी परम सत्य ब्रह्म का ही रूप है। अपने भीतर सत्य को जानने की ऐसी ही भूख पैदा करो।"
श्वेतकेतु को अपने पिता की बात पूर्णतया समझ आ गई। वह परम सत्य को समझने के लिए तैयार हो गया।
उद्दालक ऋषि ने उसे परम सत्य का ज्ञान देना आरंभ कर दिया।
"पुत्र यह समस्त संसार उस परम सत्य का ही प्रतिबिंब है। ब्रह्म ही परम सत्य है। ब्रह्म संसार की सभी सजीव तथा निर्जीव वस्तु में व्याप्त है। जो कुछ भी अस्तित्व में है वह उसी का रूप है। वह स्वयं को विभिन्न रूपों में प्रदर्शित करता है।"
"वह कैसे?" श्वेतकेतु ने जिज्ञासा की।
"जिस प्रकार कुम्हार एक ही मिट्टी से विभिन्न आकार के कई बर्तन बनाता है। लेकिन सभी बर्तनों में मिट्टी ही समान तत्व होती है। उसी प्रकार ब्रह्म मनुष्य, पशु पक्षी, पेंड़ पौधों, नदी, पर्वत आदि अनेक रूपों में स्वयं को प्रकट करता है।" उद्दालक ऋषि ने श्वेतकेतु को बहुत प्रेम से समझाया। अपनी बात को और स्पष्ट करने हेतु वह आगे बोले "प्रत्येक वस्तु में ब्रह्म है। वही समस्त श्रष्टि का संचालन कर रहा है। नदियों के सागर की तरफ बढ़ने, पवन के चलने, सूर्य व चंद्र के उदय एवं अस्त होने का वही एक मात्र कारण है। रात और दिन होना, ऋतुओं का परिवर्तन, समय की गति सब उस पर निर्भर है।"
श्वेतकेतु सभी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था। दोनों टहलते हुए नदी के किनारे आ गए। वहाँ पेड़ पौधे और अन्य वनस्पतियां थीं। पक्षी पेड़ों पर कलरव कर रहे थे। आस पास गाएं एवं हिरण आदि पशु विचर रहे थे। उनकी तरफ इंगित कर उद्दालक बोले "सभी चर प्राणियों मे ब्रह्म ही प्राण शक्ति के रूप में विराजमान है। हमारा बल, बुद्धि, भावनाएं, इच्छाएं सब उसके कारण ही हैं।"
"पितश्री यदि वह हम सब में विद्यमान है तो दिखाई क्यों नहीं पड़ता।" श्वेतकेतु ने प्रश्न पूंछा।
उद्दालक ऋषि ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया "जीवित प्राणियों में वह आत्मा के रूप में रहता है। आत्मा बहुत सूक्ष्म होती है। हमारी इंद्रियों द्वारा उसे देख पाना या समझ पाना असंभव है।" अपनी बात को और स्पष्ट करने के लिए उद्दालक ऋषि ने श्वेतकेतु से पास में लगे वटवृक्ष का फल तोड़ कर लाने को कहा। श्वेतकेतु एक फल ले आया। ऋषि ने उससे फल के दो हिस्से कर उसके भीतर क्या है देखने को कहा। श्वेतकेतु ने फल को बीच से विभक्त किया तो उसके भीतर से बीज निकला। ऋषि ने बीज को भी विभक्त कर उसके भीतर देखने को कहा। श्वेतकेतु ने कहा "बीज को विभक्त नहीं कर सकते। यह बहुत छोटा है। इसके भीतर कुछ नहीं है।"
"पुत्र इसी प्रकार आत्मा भी अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण नष्ट नहीं हो सकती है। जिस प्रकार इस छोटे से बीज में विशाल वटवृक्ष बनने की शक्ति निहित है उसी प्रकार आत्मा में भी ब्रह्म की समस्त शक्तियां मौजूद हैं। हममें और ब्रह्म में कोई अंतर नहीं। 'तत् त्वम असि' अर्थात जो वह है वही तुम हो। तुम परम शक्तिशाली हो। स्वयं को दुर्बल मत समझो।"
उद्दालक ऋषि ने आगे कहा "यह शरीर नाश्वर है लेकिन इसमें रहने वाली आत्मा अमर है।"
कुछ समय तक दोनों पिता पुत्र मौन रहे। श्वेतकेतु अपने पिता द्वारा बताई हुई बातों पर मनन कर रहा था। उस मौन को समाप्त करते हुए उसने पूंछा "पिताश्री यदि ब्रह्म को देखा नहीं जा सकता है तो फिर इस बात को कैसे प्रमाणित करेंगे कि ब्रह्म सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है।
उद्दालक ऋषि ने श्वेतकेतु से कहा "पुत्र एक पात्र में जल भर कर उसमें नमक डाल कर ले आओ।"
श्वेतकेतु अपने पिता के आदेश के अनुसार जल में नमक डाल कर ले आया। ऋषि उद्दालक ने उससे पूंछा "जल में नमक दिखाई दे रहा है।"
"नहीं वह तो पानी में घुल गया।" श्वेतकेतु ने उत्तर दिया।
"ऊपरी हिस्से के जल को चख कर देखो।"
श्वेतकेतु ने ऊपर के जल को चखा। वह नमकीन था। ऋषि ने उससे कहा अब बीच के हिस्से का जल चखो। श्वेतकेतु ने वैसा ही किया। वह भी उतना ही नमकीन था। इसी प्रकार पात्र के तले का पानी भी नमकीन था। पिता के इस प्रयोग से श्वेतकेतु को ना दिखाई देते हुए भी ब्रह्म की सर्वत्र उपस्थिति का मर्म समझ आ गया। उसने पिता के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद लिया।
ऋषि उद्दालक एवं श्वेतकेतु की यह कथा एक पिता व पुत्र के बीच हुए संवादों के माध्यम से ब्रह्म के गूढ़ ज्ञान को बहुत आसान व तीर्किक तरीके से प्रस्तुत करती है। एक पिता किस प्रकार अपनी संतान के विकास में सहायक हो सकता है उसका उत्कृष्ट उदाहरण है।
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