संत जी बनाम 512.
पाँच सौ बारह यानी कैदी नंबर 512 का वास्तविक नाम रामसहाय था । राम सहाय का नाम पाँच सौ बारह कैसे पड़ा ? यह प्रकरण रोचक भी है , दुखद भी ; मस्तिष्क को झकझोरने वाला भी है , हृदय को द्रवित करने वाला भी । इस प्रकरण का प्रथम अध्याय तब आरंभ हुआ था , जब राम सहाय के छोटे भाई लक्ष्मी सहाय का एक दिन अचानक अपरिपक्व अवस्था में बच्चों को छोड़कर हृदय आघात से स्वर्गवास हो गया था । भाई की मृत्यु के पश्चात् राम सहाय ने अभिभावक के रूप में अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए आजीवन उसकी विधवा पत्नी उर्मिला और उसके दोनों बच्चों की सुरक्षा के साथ-साथ उनके भरपुर भरण पोषण का भार अपने कंधों पर ले लिया था । परंतु , लक्ष्मी सहाय के ससुर 'संत जी' ने उनके प्रति अविश्वास रखते हुए स्वयं अपनी बेटी ओर उसके बच्चों की सुरक्षा-सहयोग हेतु बेटी के साथ रहने की इच्छा प्रकट की । अपनी बेटी की सहमति प्राप्त करके संत जी बेटी के घर में स्थायी रूप से रहने लगे और उनके संयुक्त परिवार में रहकर पारिवारिक संबंधों में अनावश्यक हस्तक्षेप करने लगे । कुछ ही दिनों में संत जी ने अपने अथक प्रयास से परिवार में इतना विग्रह उत्पन्न कर दिया कि राम सहाय और उसके छोटे भाई लक्ष्मी सहाय की विधवा उर्मिला में संपत्ति का बँटवारा होकर घर के बीच में दीवार लग गयी ।
संत जी गंभीर व्यक्तित्व के स्वामी थे । वह सदा पद्मासन में या अर्द्धपद्मासन में ही बैठते थे । बैठते समय या पैदल चलते समय सदैव उनका मेरुदंड सीधा और तना हुआ रहता था । वे किसी के साथ कभी भी हास-परिहास में सम्मिलित नहीं होते थे । कभी हँसने के किसी विषय पर धीरे से मुस्कुरा देते थे । कभी किसी ने उन्हें ठहाका मारकर हँसते हुए नहीं देखा था । अपने नाती-नातिन के साथ भी कभी हँसते-खेलते नहीं थे । न ही वह कभी उन्हें डाँटते-फटकारते थे । जब उन्हें बच्चों के किसी व्यवहार को लेकर उनसे कोई शिकायत होती थी , तब वे उर्मिला को अपने पास बिठाकर बहुत शांतिपूर्ण ढंग से उन पर नियंत्रण रखने की हिदायत देते थे । पिता के निर्देशानुसार उर्मिला अपने दोनों बच्चों को स्नेह पूर्वक समझाकर उनके व्यवहार की दिशा में परिवर्तन का प्रयास करती थी । बच्चों पर संत जी का सीधा नियंत्रण नहीं था , इसलिए घर पर नाना के रहने से उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी । संत जी मितभाषी , मृदुभाषी और व्यवहार कुशल थे । अपने इन्हीं व्यवहारिक गुणों के आधार पर अत्यंत अल्प समय में ही उन्होंने गाँव के प्रमुख लोगों के साथ प्रगाढ़ संबंध स्थापित कर लिए थे ।
लक्ष्मी सहाय की मृत्यु के दो वर्ष पश्चात् , दिसंबर का महीना था । आकाश में बादल छा रहे थे । कई दिन से सूर्य देवता के दर्शन नहीं हो सके थे । ऐसे मौसम में अपने निवास स्थान गाँव मकसूदपुर से उर्मिला को किसी आवश्यक कार्य संपादन हेतु तहसील जेवर , गौतम बुद्ध नगर जाना पड़ा । दो वर्ष पूर्व पति की मृत्यु होने के पश्चात् से घर के बाहर के सभी कार्य उर्मिला स्वयं ही करती आ रही थी । उस दिन भी वह निःसंकोच घर से निकली । घर से प्रस्थान करते समय स्वयं उर्मिला अथवा परिवार के किसी अन्य सदस्य के मन में किसी प्रकार के अनिष्ट की कोई आशंका नहीं थी । मन में किसी प्रकार का संदेह नहीं होने के कारण सामान्य दिनों की भांति ही उर्मिला के जाने के पश्चात् बच्चों का वह दिन सामान्य ढंग से बीता । किंतु , संध्या होते-होते बच्चों के हृदय में आशंका का अंकुरण फूटने लगा । जैसे-जैसे घड़ी की सुई आगे बढ़ रही थी , वैसे-वैसे बच्चों की चिंताजनित व्याकुलता बढ़ती जा रही थी । दोनों बच्चों ने अपनी चिंता को नाना के साथ साझा करने का प्रयास किया , किंतु नाना ने यह कहकर उनकी चिंता को निरर्थक सिद्ध कर दिया -
"उर्मिला बच्ची नहीं है , आ जाएगी ! बाहर जाकर देर-सवेर हो ही जाती है । तुम दोनों चिंता मत करो !" नानाजी की सांत्वना से बच्चे संतुष्ट नहीं हो सके । वह घर की छत पर चढ़कर माँ की राह देखने लगे । जिस रास्ते से उनकी माँ को आना था , दूर तक उस रास्ते पर निर्निमेष दृष्टि गड़ाए हुए उनकी आँखों से पानी बरसने लगा , परंतु दूर-दूर तक कहीं माँ की छाया भी दिखाई नहीं पड़ी । समस्या गंभीर थी । दोनों बहन-भाई समस्या की गंभीरता पर चिंतन कर रहे थे , किंतु समस्या का समाधान नहीं सूझ रहा था । संकट की घड़ी में सहारा देने वाला मात्र एक ही विश्वसनीय व्यक्ति दोनों के मनःमस्तिष्क में अपनी जगह बनाए हुए था । वह व्यक्ति था उनके पिता का छोटा भाई राम सहाय । लेकिन , क्या राम सहाय के साथ अपनी समस्या को साझा करना उचित होगा ? क्या ऐसा करने से नाना जी नाराज नहीं होंगे ? मस्तिष्क में इस शब्द-विहीन प्रश्न के साथ-साथ दोनों के हृदय में नाना के प्रति एक प्रकार का अनकहा-सा भय भी उत्पन्न हुआ । घर की छत पर दोनों भाई-बहन एक-दूसरे से आँखों के मूक भाषा में संवाद करते हुए माँ की प्रतीक्षा करने लगे । प्रतीक्षा करते-करते घुप्प अंधेरा हो गया और उमड़-घुमड़ कर आकाश से झमाझम बादल बरसने लगे । इधर दोनों बच्चों की आँखों से आँसू बरस रहे थे । शन्नो ने अपनी उंगली से भाई के गालों पर ढलकते हुए आँसुओं को पोंछते हुए उसके कान में धीरे से कहा -
"मन्नू ! चुपके से जाकर ताऊ जी से कहना , मम्मी दोपहर बारह बजे तक लौट आने के लिए कहकर गयी थी , अभी तक नहीं लौटी हैं ।"
बारह वर्षीय मनु बहन के सीमित शब्दों का विस्तृत अर्थ ग्रहण करते हुए तत्क्षण उठ खड़ा हुआ । उसके बाहर जाते हुए कदमों की आहट सुनकर नाना ने आदेश के स्वर में कहा -
"बारिश में कहाँ जा रहे हो ?"
"गाय को अंदर करने जा रहा हूँ ! बारिश में भीगकर बीमार हो जाएगी !" मनु ने आत्मविश्वास के साथ उत्तर दिया । नानाजी उसके उत्तर से संतुष्ट थे । अतः उन्होंने मनु को सशर्त अनुमति देते हुए कहा-
"जा ! पर जल्दी लौट आना !"
मनु अपने घर से निकलकर यथाशीघ्र राम सहाय के द्वार पर जा पहुँचा । द्वार अंदर से बंद था । उसने धीरे से खटखटाया , तो कुछ ही क्षणों में रामसहाय द्वार पर खड़े दिखाई दिये । चूँकि पिछले दो वर्षों से , जब से उर्मिला के घर में उसके पिता सन्त जी का स्थायी पड़ाव हुआ था , उर्मिला और उसके दोनों बच्चों ने रामसहाय के घर आना-जाना बंद कर दिया था , इसलिए मनु को अपने घर के द्वार पर देखकर रामसहाय एकाएक ऐसे चौंक उठे , जैसे उन्होंने कोई अद्भुत दृश्य देख लिया हो । एक क्षणोपरांत रामसहाय ने प्रसन्नतापूर्वक सस्नेह कहा -
"अरे मन्नू ! अंदर आ ! बाहर बारिश में क्यों खड़ा है !" मन्नू ने अपने होठों पर उंगली रखते हुए रामसहाय को चुप रहने का संकेत किया और धीमें स्वर में उनसे कहा -
"नानाजी से मत कहना , मैं यहाँ आया हूँ । शशन्नो दीदी ने मुझे यह बताने के लिए आपके पास भेजा है कि मम्मी सुबह किसी जरूरी काम के लिए जेवर गई थी । वह दोपहर तक लौटने के लिए कहकर गयी थी , पर अब तक नहीं लौटी हैं ।" यह कहकर मन्नू शीघ्रतापूर्वक गाय को अंदर करने के लिए चला गया । रामसहाय भी उसी क्षण लक्ष्मी सहाय के घर की ओर चल दिया । लक्ष्मी सहाय के द्वार पर जाकर उसने शन्नो को पुकारते हुए कहा -
"शन्नो ! शन्नो ! बिटिया , तेरी मम्मी सुबह से दिखाई नहीं दी ! दिन-भर गाय भूखी-प्यासी रंभाती रही और अब बारिश में भीगकर ठंड से ठिठुर रही है । बिटिया सब कुछ ठीक तो है ? मेरी सहायता की जरूरत हो , तो बिटिया , बेझिझक कह दियो !"
"ताऊ जी ! मम्मी सुबह जेवर गई थी , अभी तक नहीं लौटी हैं ।" शन्नो ने अपनी रुलाई को रोकने का प्रयास करते हुए दरवाजा खोलकर कहा । दरवाजा खुलते ही रामसहाय ने अंदर आ कर कुछ मिनट तक शन्नो के नाना के साथ बातचीत की । तत्पश्चात कुटुम के कुछ अन्य लोगों की सहायता से सर्दी और वर्षा में भीगते हुए रात के बारह बजे तक उर्मिला को ढूँढने का प्रयास करते रहे , लेकिन उसका कुछ पता नहीं चल सका । अंत में यह निर्णय लिया गया कि संभवतः उर्मिला अपनी किसी सहेली के साथ उसके घर चली गई हो , इसलिए सुबह होने पर ही में पर्याप्त जानकारी जुटाई जा सकती है ।
अगले दिन रामसहाय उर्मिला के लापता होने की रिपोर्ट लिखाने के लिए थाने में गए । थानेदार ने यह कहकर रिपोर्ट नहीं लिखी कि उर्मिला जवान और विधवा है , किसी के साथ भाग गयी होगी ! घर की बहू के लिए थानेदार के मुँह से अभद्र शब्द सुनकर राम सहाय का खून खौल उठा और वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सके । परिणामस्वरूप थानेदार के साथ उनकी कहा-सुनी हो गयी । अस्तु , नाना के आग्रह पर उर्मिला के लापता होने की रिपोर्ट दर्ज करा दी गयी और गाँव के अधिकाधिक लोग उर्मिला को खोजने में जुट गये । खोजते खोजते सुबह से शाम हो गयी , किंतु उर्मिला नहीं मिली । उसके विषय में मात्र इतनी सूचना मिल सकी कि पिछले दिन सायं तीन बजे उसको घर गाँव की सीमा पर जंगल से गाँव की ओर जाने वाले मुख्य मार्ग पर देखी गयी थी । चूँकि गाँव में जाने के लिए यातायात की कोई सुविधा नहीं थी , इसलिए वह अकेली पैदल चलकर गाँव की ओर जा रही थी । गाँव के खेतों की सीमा से सटे हुए दूसरे गाँव के कई लोग इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी थे । गाँव के सभी अनुभवी लोग यह सोच-सोच कर परेशान थे कि गाँव के जंगल में आज तक कभी कोई हिंसक पशु भी नहीं देखा गया , फिर ऐसे शांतिपूर्ण क्षेत्र में आखिर गाँव की सीमा के अंदर प्रवेश करने के पश्चात् उर्मिला कहाँ चली गयी ?
पूरी रात गाँव के लोगों ने इसी विषय पर विचार-मंथन करते हुए जागकर व्यतीत की । सभी के विचार मंथन से यह निष्कर्ष निकाला गया कि खेतों की खड़ी फसलों में घूम-घूमकर उर्मिला को ढूँढा जाए । अगले दिन सूर्योदय होने से पहले ही खेतों में उर्मिला की खोज आरंभ हो गयी । लगभग चार घंटे के अथक परिश्रम के पश्चात् अंत में शेष बचे हुए गन्ने की खड़ी फसल के एक खेत में गाँव के कुछ लोगों ने निराशा के साथ प्रवेश किया । कुछ लोग बाहर मेंड पर खड़े हो गये । दस मिनट पश्चात् ईख के उसी खेत से दहाड़ मारकर रोने का एक स्वर बाहर आया-
"चा-ची-ई-ई !"
रूदन का स्वर गाँव के अधिकांश लोगों के लिए चिर-परिचित राम सहाय के बेटे मुकुल का था । अतः सब लोग उसी दिशा में दौड़ पड़े , जिस दिशा से मुकुल के रोने-चीखने का स्वर सुनाई पड़ा था । निकट जाने पर लोगों ने देखा , उर्मिला की बदरंग हो चुकी मृत देह पड़ी थी ; शरीर के वस्त्र-विहीन अंगों यथा - हाथ , पैर , चेहरा आदि को जगह-जगह से चूहों ने कुतरकर विकृत कर दिया था । माँ के मृत शरीर की दुरावस्था को देखकर मन्नू तो अपने होश ही खो बैठा था । कभी चीख-चीखकर रोता था , तो कभी भावावेश में चिल्लाने लगता था - "मेरी माँ की यह हालत करने वाले को मैं नहीं छोडूँगा !"
घटनास्थल से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर थाना स्थित था । उर्मिला के मृतावस्था में मिलने की सूचना मिलने के कुछ ही मिनट बाद पुलिस वहाँ पहुँच गयी और पंचनामा भर कर शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया । अगले दिन दोपहर तीन बजे पोस्टमार्टम होने के पश्चात् शाम पाँच बजे तक उर्मिला का शव घर पर लाया गया और अंतिम संस्कार किया गया । उर्मिला का अंतिम संस्कार होते ही पुलिस उसकी हत्या के संबंध में जाँच-पड़ताल करने के लिए गाँव में आ पहुँची । संत जी ने अज्ञात के विरुद्ध बेटी की हत्या की एफ.आइ.आर.लिखवा दी । यह पूछने पर कि क्या उन्हें किसी पर संदेह है ? संत जी ने बड़ी चतुराई के साथ अपने मौन संकेत के द्वारा संदेह की सुँई राम सहाय की ओर घुमा दी , जबकि रामसहाय को इसकी भनक तक नहीं लग सकी । राम सहाय को इस विषय में तब ज्ञात हुआ , जब अगले दिन माता-पिता का साया सिर से उठ जाने के बाद शोक में डूबे भतीजा-भतीजी के भविष्य को लेकर राम सहाय अपनी पत्नी के साथ चिंतामग्न बैठा हुआ था । पुलिस ने उसी समय अचानक आकर राम सहाय और उसकी पत्नी को बंदी बना लिया और दम्पति पुलिस थाने में ले गयी ।
पुलिस ने उन दोनों को कड़कड़ाती ठंड में कंबल आदि के बिना थाने में बंद करके तरह-तरह से ऐसी कठोर यातनाएं दी कि वह सहन न कर सके । अंततः रामसहाय ने उर्मिला की हत्या का आरोप स्वीकार कर लिया । राम सहाय द्वारा उर्मिला की हत्या करने का आरोप स्वीकार करने की सूचना कुछ ही मिनटों में गाँव-भर में जंगल की आग की भाँति फैल गयी । परंतु , गाँव में किसी को विश्वास नहीं हुआ कि रामसहाय ऐसा घृणित कृत्य कर सकता है । गाँव के अनेक लोगों ने पुलिस पर आरोप लगाया कि रामसहाय को झूठे आरोप में फँसाया जा रहा है । पुलिस ने अपने पक्ष को दृढ़ करने के लिए गाँव के कुछ प्रमुख लोगों को थाने पर बुलाकर उनके समक्ष राम सहाय को प्रस्तुत किया और उसकी कमर में डंडा मारते हुए कहा -
"बोल ! उर्मिला की हत्या किसने की थी ?"
"मैंने की थी !"
"और कौन-कौन थे , तेरे साथ ?" राम असहाय चुप रहा ।
"बोल ! संजू पंडित और मनोज पंडित दोनों भाई थे, तेरे साथ कि नहीं ?" थानेदार ने दोबारा रामसहाय की टांगों में डंडा मारकर कहा ।
"हाँ जी ! हाँ जी ! संजू पंडित और मनोज पंडित दोनों भाई थे ! राम सहाय ने कराहते हुए कहा । उर्मिला के झुमके निकालकर कहाँ छिपाये हैं ?" थानेदार ने पिछले दिन की मार से दुखती राम सहाय की देह पर एक डंडा और मारा । रामसहाय को समझ में नहीं आया , क्या उत्तर दे ?
"अपनी झोपड़ी के कोने में छिपाये थे कि नहीं ?"
हाँ जी , छुपाए थे !" राम सहाय ने ठंड से कँपकँपाती आवाज में उत्तर दिया । थानेदार ने रामसहाय पर आरोप लगाते हुए जो कुछ बोला , जो चाहा , गाँव वालों के समक्ष राम सहाय ने वह सभी स्वीकार कर लिया । परिणामस्वरुप उसी दिन रामसहाय का चालान करके उसको कोर्ट में पेश कर दिया गया । यद्यपि उसकी पत्नी पर पुलिस ने किसी प्रकार का आरोप नहीं लगाया और उसको आरोपमुक्त कर के घर भेज दिया ।
रामसहाय को कोर्ट ने रिमांड पर भेज दिया , लेकिन मन्नू को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था कि उनके ताऊजी उनकी माँ की हत्या कर सकते हैं ! इधर संत जी अपने नाती-नातिन को प्राणों के संकट का भय दिखाकर पैतृक गाँव को छोड़कर मामा-नाना के साथ उनके गाँव में बसने के लिए तैयार कर रहे थे । मन्नू अपनी जन्म भूमि को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था । उसका तर्क था --
"जिनके माँ-बाप नहीं होते , उन्हें अपने घर रहना चाहिए । अपना घर छोड़कर मामा के घर जाकर क्यों रहें ? हम अपने घर में ही रहेंगे !" गाँव के प्रमुख में लोगों ने भी मन्नू का समर्थन किया और यथावश्यक उसकी सहायता करने का भरोसा दिलाया , किंतु संत जी को यह स्वीकार्य नहीं था । उन्होंने गाँव के लोगों के समक्ष शर्त रख दी -
"आप में से कोई व्यक्ति मन्नू और शन्नो के प्राणों की रक्षा करने की गारंटी लेने के लिए तैयार है , तो हम इन्हें यहाँ पर छोड़ सकते हैं , अन्यथा नहीं !" संत जी की शर्त सुनकर सभी ग्रामवासी पीछे हटने लगे ।केवल एक व्यक्ति , लक्षमी सहाय के चचेरे भाई अवधेश ने आगे बढ़कर कहा -
"इस युग में गारंटी तो अपने प्राणों की भी नहीं है ! क्या आप किसी के प्राणों की गारंटी ले सकते हैं ?"
संत जी अवधेश के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया । शायद उन्होंने इसकी आवश्यकता नहीं समझी थी । उन्हें आवश्यकता थी , मन्नू और शन्नो के समर्थन की । संत जी को विश्वास था कि अपने तर्क से सहमत कर लेंगे , उन्होंने अगले दो दिनों में कर लिया । इन दोनों दिनों में उन्होंने उर्मिला की अंत्येष्टि करके घर का सारा सामान बांध लिया और नव पौध मन्नू-शन्नो को उनकी जन्म भूमि से उखाड़कर दूसरी जगह रोपने की तैयारी पूरी कर ली । न चाहते हुए भी दोनों अपना पैतृक घर छोड़कर नाना के साथ जाने के लिए तैयार हो गए , क्योंकि एक प्रबल शक्ति उन्हें उनकी जड़ों से अलग करने के लिए अनचाहा दबाव निरंतर उनके मनःमस्तिष्क पर बना रही थी ।
मन्नू-शन्नो के गाँव छोड़कर नाना के साथ जाने की सूचना मिलते ही रामसहाय की पत्नी शान्ति मन्नू और शन्नो से आग्रह करने के लिए दौड़ी आयी कि वे अपना घर छोड़कर ना जाएँ ! किंतु , वहाँ पर उपस्थित संत जी ने और उनके बेटों-बहुओं ने उसको मन्नू- शन्नो से नहीं मिलने दिया । न ही उसे घर के अंदर प्रवेश करने दिया । उसने बच्चों से मिलने के लिए संत जी से विनती की ; हाथ जोड़े , पर नहीं मिल सकी । अंत में हारकर वह दरवाजे के बाहर ही बैठ गई और ऊँचे स्वर में शन्नो-मन्नू को पुकार-पुकारकर गिड़गिड़ाने लगी -
"मन्नू ! शन्नो ! भगवान का वास्ता ! तेरे ताऊ ने उर्मिला को नहीं मारा ! पुलिस की मार से बचने के लिए मजबूरी में उन्होंने वह सब कह दिया था , जो पुलिस उनसे कहलवाना चाहती थी ! मन्नू ! शन्नो ! मेरे बच्चों ! कोई और है , जिसने हमसे दुश्मनी निभायी है !" रामस्वरूप की पत्नी शान्ति दरवाजे की चोखट पर पड़ी हुई दयनीय वाणी में गिड़गिड़ाती रही , लेकिन वहाँ पर उपस्थित कोई भी व्यक्ति उसकी दयनीय दशा को देखकर द्रवित नहीं हुआ । उसी समय दरवाजे पर गाड़ियाँ आकर रुकी और उनमें उर्मिला के घर-गृहस्थी का सामान भरा जाने लगा । उस दृश्य को देखकर रामस्वरूप की पत्नी शान्ति कुढ़ती रही ; रोती-चीखती रही , किंतु ताई की हृदय-विदारक चीखें सुनकर भी मन्नू और शन्नो उसके निकट नहीं भटके ।