श्री कृष्ण काव्य-कथा
जन्म-खंड
‘विजय’ कुमार शर्मा
श्री कृष्ण ऐसा व्यक्तित्व है जिसे जानना और समझना तो हर कोई चाहता है, पर इतिहास से लेकर आज तक, पूर्ण रूप से न तो कोई इसे जान पाया है और शायद ही कोई इसे भविष्य में भी समझ पाए | श्री कृष्ण के व्यक्तित्व से, जन्म के पूर्व की परीस्थितियों से लेकर, जन्म होने तक एवं, उसके उपरांत सम्पूर्ण जीवनकाल में घटित विभिन्न परीस्थितियां में विभिन्न लीलाओं के माध्यम से कई सन्देश एवं उपदेश मिलते है | जो की उनके व्यक्तित्व को रोचक बनाने के साथ, अदिव्तीय भी बनाते है | इन्ही लीलाओ के माध्यम से दिए गए विभिन्न संदेशो को इस ‘कृष्ण काव्य कथा’ में उनके जीवन काल की कहानी को काव्य रूप में दिखाने का प्रयास किया गया है |
श्री कृष्ण काव्य-कथा में ‘जन्म-खंड’ का,
प्रारंभ ‘मथुरा’ से होता है |
जहाँ था कु-राज ‘कंस’ का,
वहीँ ‘बंधक’ उसका ‘पिता’ भी होता है || १ ||
***
जिस ‘कंस’ ने पिता “उग्रसेन” को ,
‘कारागृह’ में केद किया |
अपने अनाचारो से ‘प्रजा-पालक’ की,
गरिमा को तार–तार किया || २ ||
***
इस निरंतर अराजकता ने,
देव-ऋषि ‘नारद’ को जब बेचैन किया |
हो कुपित ‘नारद मुनि’ ने,
‘मथुरा’ का रुख किया || ३ ||
***
पहुँच द्वार राजमहल के,
रुष्ठ-कुपित ‘मुनि’ ने महल में प्रवेश किया |
देख ‘कुपित’ ‘मुख-मंडल’ ‘मुनि’ का,
‘द्वारपाल’ ने रोकने का, प्रयास भी न किया || ४ ||
***
पहुँचते ही सभागार में,
‘क्रोध’ मुनि का भभक उठा |
भरे सभागार में ‘मुनी’ का ‘क्रोध’,
‘कंश’ को ललकार उठा || ५ ||
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देख यह ‘कोई’ भी आने के,
‘उनके’ प्रयोजन को ‘समझ’ न सका |
अचंभित ‘कंस’ भी ‘अहंकार’ मे ,
कारण इसका भांप न सका || ६ ||
***
चकित ‘कंश’ ने मुनि से,
आसन ग्रहण करने का आग्रह किया |
पर कुपित मुनि ने आग्रह को,
सिरे से ख़ारिज किया || ७ ||
***
कहा मुनि ने अरे कंश ! ,
बैठ बगल में यहाँ ‘मैं’ ठहाके लगाने नहीं आया हूँ |
देख अत्याचार ‘प्रजा-पालक’ के,
सिर्फ चेताने ‘तुझे’ आया हूँ || ८ ||
***
रुक जा अब भी, संभल जा अब भी,
ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ा है, यही बतलाने आया हूँ |
तेरे पापो का घड़ा अभी भी,
आधे से ज्यादा खाली है, सिर्फ यही समझाने आया हूँ || ९ ||
***
यह सुन, दरबार में ख़ामोशी छा गयी |
सबमे क्रोध की लहर सी दोड गयी |
देख खुद का यह अपमान भरी सभा में,
‘खून’ कंश का खोल उठा || १० ||
***
भूल ‘आतिथ्य’ वह भी,
‘क्रोध’ में ‘मुनि’ को ललकार उठा |
शीघ्र बताएं ‘मुनिवर’,
अपना प्रयोजन आने का |
कही ‘क्रोध’ में भूल न जाऊ ’मैं’,
अतिथि होता ‘हकदारी’ सम्मान पाने का || ११ ||
***
सुनकर अहंकारी भाषा,
मुनि का चढ़ा ‘सातवे’ आसमान पर ताप |
जो बिना दिए ‘जबाब’,
कहाँ? उतरने वाला था अपने आप || १२ ||
***
अरे दुष्ट कंश ! हटा ‘अहंकार’ की परत,
अपनी आँखों से |
तभी देख पायेगा बगल में खड़ी ‘मोत’,
‘तू’ उन्ही आँखों से || १३ ||
***
यह सुनकर ‘कंश’ बहुत बोखलाया,
त्वरित गर्दन को चहु और घुमाया |
जब देखा ‘कंश’ ने चहु और,
तो अपने ही ‘हितेषी’ और ‘चाटुकारों’ को जब पाया || १४ ||
***
(तो चरम अहंकार में कहता है)
जब हुआ नहीं ‘जन्म’ उसका,
जो ‘मुझे’ मार सके |
तो ‘आपने’ कैसे? मान लिया, इन दरबारियों में से,
‘कोई’ यह ‘दुस्साहस’ भी कर सके || १५ ||
***
‘कंश’ ने खोया आपा,
बरगलाकर फिर से कहता है |
इन सब ‘दरबारियों’ में तो ‘मुझे’,
‘कोई’ भी नहीं ‘ऐसा’ दिखता है || १६ ||
***
‘मुनि’ ! ‘तू’ बड़ा ,
‘अंतर्यामी’ बनता है, |
‘तू’ ही बता मेरी ‘मोत’ ‘यहाँ’,
तुझे ‘कौन’? दिखता है || १७ ||
***
अहंकारी शब्दों ने ‘मुनि’ को,
फिर विवश किया |
फिर भी होकर ’शालीन’,
जबाब ‘कंश’ को दिया || १८ ||
***
‘कंश’ ! जो ‘मैं’ दिखाना चाह रहा था,
उसके लिए जरुरत थी ‘विवेक’ की |
पर होता ‘अहंकार’ जहाँ,
‘कोई’ उपलब्धता नहीं है वहां ‘विवेक’ की || १९ ||
***
सुन कंश ! ‘बगल’ में जो ‘तेरे’,
बहन “देवकी” खडी है |
उसके ‘गर्भ’ से ही,
तेरी ‘मोत’, लिखी है || २० ||
***
बता रहा हूँ ‘मैं’,
आज ‘तुझे’ |
‘देवकी’ का “आठवा पुत्र” ही,
देगा ‘मोत’ तुझे || २१ ||
***
वह परम ज्ञानी, कर्मशील,
और बलशाली होगा |
स्वयं ‘श्री नारायण’ का ,
‘सिद्ध’ अवतारी होगा || २२ ||
***
वे ही तेरे ‘संहार’ के,
‘कारक’ होंगे |
वे ही ‘प्रजा’ के,
‘उद्धारक’ होंगे || २३ ||
***
इतना कह कर ‘देव ऋषि’ ने,
प्रस्थान किया |
उधर ‘कंश’ ने अभी तक इस पर,
‘कोई’ नहीं था ‘संज्ञान’ लिया || २४ ||
***
हो गया गमगीन माहोल,
राज दरबार का |
लाल-पिला चेहरा हो गया,
महाराज ‘कंश’ का || २५ ||
***
देख यह सब ,
व्याकुल हो गए ‘देवकी-वसुदेव’ भी |
देख ख़ामोशी- ‘कंश’ की,
थे बहुत ‘भयभीत’ भी || २६ ||
***
‘मुनि’ के कटु शब्दों से ‘गर्गाचार्य’ सरीखे भी,
सोचने पर मजबूर थे |
खामोश दिख रहे ‘कंश’ के,
प्रतीकार को सोचकर ही ‘भयभीत’ थे || २७ ||
***
तूफान से पहले सनसनाहट देख कर,
“देवकी“ भी ‘गंभीर’ थी |
‘वसुदेव’ भी नयी नवेली दुल्हन को,
इससे मिलने वाली ‘भावी पीड़ा’ से ‘अधीर’ थे || २८ ||
***
इन सबके विपरीत ‘कंश’ ,
अभी तक ‘खामोश’ था |
‘मुनि’ का हर एक ‘शब्द’,
‘कंश’ के दिलो-दिमाग में विधमान था || २९ ||
***
(हो बैचेन, ‘कंश’ अब चिल्लाया),
करेगा मेरा वध ,
तभी ‘न’ देवकी –पुत्र’ |
जब ‘देवकी’ जनेगी,
कोई? भी ‘पुत्र’ || ३० ||
***
‘मुर्ख नारद’ ‘तू’ आठवे पुत्र की,
कहता है |
न जनने दूंगा ‘कोई’ भी संतान,
देखता हूँ आज ‘मुझे’ यहाँ, ‘कौन’ रोकता है || ३१ ||
***
जब जीवित ही नहीं रहेगी,
‘देवकी’ मेरे ‘कोप’ से |
तो कैसे? जनेगी मेरी मौत,
वो अपनी ‘कोख’ से || ३२ ||
***
अब न रहेगा ‘बांस’,
न बनेगी ‘बांसुरी’ |
जब न बनेगी ‘बांसुरी’,
तो कैसे? बजेगी ‘बांसुरी’ || ३३ ||
***
उधर ‘वसुदेव’ स्थति भांप के,
‘भयभीत’ हो उठे |
कुछ न करके भी,
‘भय’ से ग़मगीन हो उठे || ३४ ||
***
देख ‘कंस’ को,
उठाते तलवार पत्नी ‘देवकी’ पर |
रोक सके न ‘खुद’ को,
पल भर भी ‘कंस’ के पैरो में गिरने पर || ३५ ||
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साहस जुटा कर ‘वसुदेव’,
अब ‘कंस’ से याचना करते है |
‘नारद’ को बता ‘भगोड़ा साधू’,
बड़े साहस से कहते है || ३६ ||
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कल तक जिसके लिए था,
अगाध ‘प्रेम’ आपका |
उसी प्यारी बहन पे उठवा गया,
‘तलवार’ पकडे ‘हाथ’ ‘वह’ आपका || ३७ ||
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शायद यही तो ‘मंशा’ थी,
उस ‘मुनि’ की |
तभी तो उसने बजायी यहाँ आकर,
अपनी ‘बीन’ ‘भय’ की || ३८ ||
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‘भयवश’ होकर यदि आप,
हत्या ‘बहन’ की कर दोगे |
तो प्राण से प्यारी बहन के साथ,
‘वीरता’ की कीर्ति भी खो दोगे || ३९ ||
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फिर कहीं नहीं होगी ‘चर्चा’,
आपकी वीरता की |
शायद चर्चा के लिए काफी होगी ‘बात’,
भय जनित ‘बहन-हत्या’ की || ४० ||
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बहन-हत्या करके भले आप,
भय से मुक्त हो जाओगे |
पर क्या निर्दोष बहन की हत्या के,
‘कलंक’ से राजन बच पाओगे || ४१ ||
***
‘सुनता’ देख ये सब,
‘अधीर’ होकर ‘कंश’ को |
और साहस मिल जाता है,
भयभीत ‘वसुदेव’ को || ४२ ||
***
उधर ‘कंश’ के हाथ में,
‘तलवार’ स्थिर रहती है |
‘वसुदेव’ की बाते ‘मस्तिष्क’ में,
जो चुभती रहती है || ४३ ||
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देख अधीर ‘कंश’ को,
’वसुदेव’ आगे कहते है |
बड़े ही तार्किक अंदाज में,
‘बहन-हत्या’ को अनुचित बताते है || ४४ ||
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राजन ‘बहन हत्या’ नहीं है,
‘अंतिम उपाय’ इस भय का |
दूसरा उपाय बताने से पूर्व,
मुझे इंतजार है आपके आदेश का || ४५ ||
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‘विकल्प’ की बात सुनकर,
अधीर ‘कंश’ आदेशित सहमती देते है |
ले सहमति ‘वसुदेव’, ‘दम्पति’ सहित कैद में,
रहने का विकल्प ‘कंश’ को देते है || ४६ ||
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रख कलेजे पे पत्थर होने वाले हर पुत्र को,
‘कंश’ को सोंपने की सहमती साथ में देते है |
अनजाने में ‘वसुदेव’ ‘श्रीहरी’ से टकराने को,
‘निमंत्रण’ ‘कंश’ को देते है || ४७ ||
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रहेंगे राजन अगर कैद में ‘हम’ आपकी,
तो बात महल से बाहर भी नहीं जाएगी |
जिससे ‘कीर्ति’ भी आपकी,
कभी ‘धूमिल’ न हो पाएगी || ४८ ||
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ऐसा करके राजन आप,
‘भय’ से मुक्त हो जायेंगे |
बहन-हत्या के ‘पाप’ से,
‘अछूते’ भी रह जायेंगे || ४९ ||
***
सुनकर ‘कंश’ प्रेम व् भय की ‘दुविधा’ से,
जैसे मुक्त हुआ |
वहीँ पूरा दरबार भी विकल्प से,
जैसे सहमत हुआ || ५० ||
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विकल्प सुनकर बोला ‘कंश’,
‘मैं’ तुम्हारी बात मान लेता हूँ |
तुम दोनों को ‘नजर कैद’,
करने का आदेश देता हूँ || ५१ ||
***
भावी संतान मुझ तक पहुचाने की ‘जिम्मेदारी’,
‘वसुदेव’ तुम्हारी होगी |
पर ध्यान रहे तुम दोनों पर,
हर वक्त ‘गिद्ध-नजर’ हमारी होगी || ५२ ||
***
जब हर संतान तुम्हारी,
मेरी ‘प्यासी तलवार’ का ‘निवाला’ होगी |
तभी तो ‘नारद की भविष्यवाणी’,
सिद्ध, ‘असत्य’ होगी || ५३ ||
‘जन्म खंड’ की इसी कड़ी में अगले भाग आगामी दिनों में शीघ्र ही प्रकाशित किये जाएँगे...
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